आज विशेष शुभदा तिथि है। थोड़ा स्मरण करना चाहिए किन्तु समय का अभाव है फिर भी स्मरण करना बहुत आवश्यक है। आज गदाधर दास गोस्वामी की तिरोभाव तिथि है। गदाधर पण्डित गोस्वामी ‘वृषभानु नंदिनी’ हैं तथा गौर गणोद्देश दीपिका में ऐसा लिखा है कि उनकी ही ‘चन्द्रकान्ति’ हैं—गदाधर दास गोस्वामी। इसलिए उनकी कृपा प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए।

उनकी आविर्भाव स्थली एड़ियदह कोलकाता के पास है। ऐसे तो उनको नित्यानंद गण में भी गिना जाता है और गौरांग महाप्रभु के गण में भी कहते हैं, लेकिन उन्होंने जो मधुर रस का आचरण किया उससे पता चलता है कि उनका गोप भाव नहीं गोपी भाव है। एक बार वे और नित्यानन्द प्रभु एक साथ में गोपी भाव में विभावित होकर चल रहे हैं और सिर पर कलश लेकर पूछ रहे हैं, कोई दही लेगा, कोई दूध लेगा? कुछ इस प्रकार से उन्होंने अपना गोपी भाव प्रकाशित किया। कृष्ण लीला में गदाधर पण्डित गोस्वामी राधा रानी है और गौर लीला में गदाधर पण्डित गोस्वामी।

गौरांग महाप्रभु कौन है? नन्दनंदन श्री कृष्ण राधा रानी का भाव और उनकी अंग कांति लेकर गौरांग महाप्रभु रूप से प्रकट हुए। अंतर कृष्ण, बाहिर गौर- बाहर से गौर वर्ण और भीतर में कृष्ण हैं। अपना माधुर्य आस्वादन करने के लिए उन्होंने यह रूप धारण किया। वे जानना चाहते थे कि राधा रानी मुझे सेवा करके क्या सुख अनुभव करती है, क्यों पागल हो जाती है? राधा रानी का भाव मुझे इस प्रकार समझ नहीं आएगा, उन्हें क्या प्रेम मिलता है, प्रेम से क्या विकार आता है और उसमें उनको क्या आनंद मिलता है? उसका अनुभव करने के लिए नंदनन्दन श्री कृष्ण राधा रानी की कांति लेकर गौरांग महाप्रभु रूप से प्रकट हुए और विरहात्मक भजन किया ।

पहले 24 साल गृहस्थ आश्रम में बिताए और बाकी 24 साल पुरुषोत्तम धाम में। 24 साल में से 6 साल गमना-गमन किया और 6 साल पुरी में भक्तों के साथ रसास्वादन किया और अंतिम 12 साल राधा रानी के भाव में विभावित होकर गंभीरा में रहे, जहाँ केवल स्वरूप दामोदर और राय रामानंद को ही प्रवेश का अधिकार था।

गदाधर दास गोस्वामी और गदाधर पंडित जो कृष्ण और राधा रानी का भाव लेकर गौरांग महाप्रभु अवतरित हुए उनके विप्रलम्भ (विराहात्मक) भाव को बढ़ाने के लिए आविर्भूत हुए। सबसे श्रेष्ठ उन्नत उज्जवल रस, ‘गोपी भाव’ और वह प्रेम सबको देने के लिए विशेष कलियुग के वैवस्वत मन्वंतर, सप्तम मन्वंतर, वही मन्वंतर जिसके द्वापर युग में नंदनंदन कृष्ण का आविर्भाव हुआ, महाप्रभु ने औदार्य मूर्ति धारण किया। कृष्ण ने अपने पार्षदों के साथ लीला की, किन्तु बाहर में किसी को भी प्रेम नहीं दिया। लेकिन उसके बाद जो कलियुग आया, उसी में नंदनंदन कृष्ण राधा रानी का भाव लेकर प्रकट हुए, तब उन्होंने स्वयं भी अपने माधुर्य रस का आस्वादन किया और सभी को प्रेम वितरण किया। Without any consideration, सभी को दिया, जो भी सामने आया। किसी को छोड़ा नहीं।

गदाधर दास गोस्वामी का आविर्भाव स्थान एड़िया दह में है। उस स्थान में एक काज़ी का बहुत पराक्रम था। उसके पास कोई नहीं जाता था। सब डरते थे। गदाधर दास गोस्वामी ने सोचा कि उनको भी हरि नाम करना चाहिए। सब को डर हो गया, वह तो बहुत पराक्रमी है, ऐसा करने से सबको मुश्किल होगा। किन्तु कीर्तन करते करते गदाधर दास गोस्वामी काज़ी के स्थान पर चले गए। तब उन्हें देखकर काज़ी सोचने लगा कि क्या बात है, क्यों आया होगा ? काज़ी ने उनका भाव देखा, भाव से ही उसके ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा। काज़ी ने तब उनसे आने का कारण पूछा। कहा, क्यों परेशान करते हो? तब गोस्वामी कहा कि सारी दुनिया का भगवान् का नाम करके उद्धार हो गया।

कलियुग केवल नाम आधारा…

हरेरनाम हरेर्नामेव केवलम।
कलौ नास्तैव नास्तैव नास्तैव न गति: अन्यथा।
( श्री चै.च मध्य 6.242)

एक आप ही बाकी रह गए हैं। आपको हरिनाम करवाने के लिए मैं आया हूँ। तब काज़ी थोडा मुस्कुराया, कि मैं आज ‘हरि नाम’ नहीं करूंगा, कल करूंगा। तब गोस्वामी ने कहा आप ने तो ‘हरि’ बोल दिया, आपके मुख से हरि नाम निकला, आप शुद्ध हो गए। काज़ी नृत्य करने लगा। उसका मन परिवर्तित हो गया। गदाधर दास गोस्वामी की कृपा हो तो मेरा भी फायदा है। वे नित्य हैं। ऐसा भी लिखा है कि बलराम की शक्ति पूर्णा नंदा गोपी भी गदाधर जी में प्रविष्ट है। वैसे तो गदाधर पण्डित की चंद्रकांति है, लेकिन पूर्णानंद भी उनके अंदर में प्रवेश किया। आज उनके पादपद्म में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करके उनकी कृपा प्रार्थना करते हैं । मेरे जैसे अपराधी का कल्याण कैसे होगा? किन्तु उन्होंने पराक्रमी काज़ी का भी उद्धार कर दिया, उनकी कृपा से असंभव भी संभव हो सकता है। उनका पादपद्म में भक्ति हो, गौरांग महाप्रभु के पादपद्म में भक्ति हो, राधा कृष्ण के पादपद्म में भक्ति हो।

आज धनंजय पण्डित गोस्वामी की तिरोभाव तिथि है। वे भी नित्यानंद पार्षद है। द्वादश गोपाल में अन्यतम हैं, कृष्ण बलराम के सखाओंमें 12 प्रधान हैं। बलराम नित्यानंद रूप से आए और उनके सखा पार्षद रूप से आए। धनंजय पण्डित ‘वसुदाम सखा’ हैं। उनके प्रकट स्थान के विषय में कोई कहता है, चट्टग्राम जाड़ ग्राम में है, तो कोई कहता है विरभूम जिले में बोलपुर के नजदीक ‘सियान मुलुक ग्राम’ में है, लेकिन उनका असल स्थान ‘शीतल ग्राम’ में है, जहाँ उन्होंने अवस्थान किया और उन्होंने बहुत पाखंडी व्यक्तियों का उद्धार किया।

जिस प्रकार नित्यानन्द प्रभु ने जगाई मधाई का उद्धार किया, उसी प्रकार उनके पार्षद धंनजय पंडित की भी उसी प्रकार की शक्ति है। इसलिए आज उनकी तिथि में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करके उनको प्रणाम करते हैं। उनकी कृपा प्रार्थना करते हैं। वे तो पतित पावन हैं, नित्यानंद पार्षद हैं, असंभव भी संभव कर सकते हैं। आज उनकी तिरोभाव तिथि है।

आज श्री निवासाचार्य जी की भी तिरोभाव तिथि है। नदिया जिले में चाखंदी ग्राम में गंगाधर भट्टाचार्य और लक्ष्मी प्रिया देवी को अवलंबन करके श्री निवास आचार्य प्रभु प्रकट हुए। भक्तों ने गंगाधर भट्टाचार्य का नाम चैतन्य दास रख दिया। जब कटोया में चैतन्य महाप्रभु के संन्यास के समय उनके घुंघराले बाल कट रहे थे, तो सब भक्त रोने लगे। नाई भी रोने लगा, सुबह से लेकर रात हो गयी, तब भी उसको नाई भी उसे नहीं काट पा रहे थे। सब रो रहे थे। तब गंगाधर भट्टाचार्य ‘हा चैतन्य, हा चैतन्य’ कहकर बहुत रोने लगे। सब उनका प्रेमभाव देखकर आश्चर्य-चकित हो गए, तब उन सभी ने उनका नाम ‘चैतन्य दास’ रखा। उस समय श्री निवास का जन्म नहीं हुआ था।

आखिर में चैतन्य महाप्रभु का मुंडन हुआ और संन्यास भी हुआ। बाद में महाप्रभु पुरुषोत्तम धाम में गए। वे जब पुरी धाम से वृंदावन की तरफ जाएंगे। तब नित्यानंद प्रभु की इच्छा थी कि शची माता और नवद्वीप के सब भक्त उनका संन्यास वेश में दर्शन करें, इसलिए उन्होंने वे छल करके महाप्रभु को नवद्वीप में ले आये। मार्ग में कुछ बच्चे गौचारण रहे थे, नित्यानंद प्रभु ने उनको सिखा दिया कि जब महाप्रभु यहाँ आकर आपसे वृन्दावन की और जाने का रास्ता पूछे तो शांतिपुर की तरफ इशारा कर देना। महाप्रभु संन्यास लेने के बाद कृष्ण- कृष्ण बोल के वृंदावन की तरफ जा रहे हैं। मार्ग में गाय और बछड़ा देखा तो ब्रज का स्मरण हो गया।

तब महाप्रभु सभी से पूछा कि वृंदावन किस तरफ है? नित्यानन्द प्रभु के कहे अनुसार ग्वाल बालों ने शांतिपुर का रास्ता दिखा दिया और इस तरह तब महाप्रभु गंगा के किनारे पहुंच गए। तब महाप्रभु सोचा कि यमुना का दर्शन हो गया, उनको बहुत आनंद हुआ। असल में तो वह यमुना नहीं है, गंगा है। वहाँ पर महाप्रभु अद्वैत आचार्य को देखा। तब उनसे कहा कि आप तो शांतिपुर में रहते हैं, यहां कैसे आना हुआ ? तब अद्वैत आचार्य कहा कि आप जहां रहते हैं, वही ‘वृंदावन’ है। महाप्रभु कहते यह वृंदावन नहीं है? यह यमुना नहीं है? गंगा का पश्चिम प्रवाह यमुना होता है। आपने यमुना में स्नान किया। अद्वैत आचार्य उनके लिए वस्त्र भी लेकर आये थे, और वे उन्हें शांतिपुर ले गए, इस प्रकार संन्यास के बाद महाप्रभु सब भक्तों से मिले। बाद में महाप्रभु पुरुषोत्तम धाम में चले गए। वहाँ बंगाल के भक्तों को महाप्रभु के लिए विरह हो रहा था।

अभी वही गंगाधर भट्टाचार्य जिनका नाम ‘चैतन्य दास’ रखा, उनके मन में पुत्र की कामना आ गयी। लक्ष्मी प्रिया देवी ने कहा मेरे अंदर में भी यही कामना आई। तब दोनों ने सोचा, हम तो भजन करना चाहते हैं,अचानक पुत्र कामना किस लिए आ गई? तब सोचा कि महाप्रभु के पास जाएंगे। वहाँ जाकर महाप्रभु से पूछेंगे। वे पुरुषोत्तम धाम में जाने के लिए तैयार हो गए। उस समय सब पैदल जाते थे। इतना सहज नहीं था। महाप्रभु भी पैदल जाते थे, सब पैदल जाते थे। वहाँ पहुंचकर देखा तो महाप्रभु सब भक्तों के बीच में थे। तब उनको देखकर महाप्रभु ने कहा यह चैतन्य दास और उनकी स्त्री को पुत्र कामना हुई है। उन्होंने सोचा हमने तो बोला नहीं महाप्रभु पहले ही बोल दिया। महाप्रभु ने कहा ठीक है, आपका मेरे जैसा पुत्र होगा। मेरा द्वितीय स्वरूप होगा। उनका नाम ‘श्री निवास’ होगा।

इसलिए ‘श्री निवास’ प्रभु महाप्रभु का ‘द्वितीय स्वरूप’ है। चैतन्य दास और माता लक्ष्मी प्रिया को अवलंबन करके श्रीनिवास प्रभु का आविर्भाव हुआ। वे देखने में दीर्घकाय, गौर कांति, विराट पुरुष थे। वृंदावन में श्री जीव गोस्वामी ने श्री निवासाचार्य, नरोत्तम दास ठाकुर और दु:खी कृष्णदास (श्यामानंद प्रभु) को गोस्वामियों के हस्तलिखित ग्रंथ बंगाल में ले जाने का उपदेश दिया। श्रीनिवास, नरोत्तम और श्यामानंद उनको लेकर वन-विष्णुपुर में पहुंच गए। वह ग्रंथ बहुत दुर्लभ थे पत्ते में लिखे थे। तब कागज नहीं थे। वन विष्णुपुर में आकर उन्होंने सोचा कि हम यहां हिंदू राज्य में आ गए हैं, यहां पर ग्रंथ चोरी होने का भय नहि है, थोड़ा विश्राम कर लेते हैं, लेकिन वहाँ का राजा वीर हम्बीर दिन में राजा और रात में दस्यु (डाकू) का काम करता था। उनको यह सूचना मिली कि आपके राज्य में रत्न आ रहे हैं , उसको लूट लो। जब पता चला कि कोई बहुत सामान लेकर आ रहा है, उन्होंने सोचा इस में धन है, तो उसको चुरा लिया। जब वह खोलकर देखा तो यह तो ग्रंथ है। जब वे तीनों सुबह उठे और देखा कि ग्रंथ नहीं है, तो रोने लगे। सर्वनाश हो गया। श्री निवासाचार्य ने नरोत्तम दास ठाकुर को पुर्वबंग और श्यामानंद प्रभु को उड़ीसा में भेज दिया। श्री निवासाचार्य वही वन विष्णुपुर में ही रहे। यहाँ पर वीर हम्बीर राजा दिन में भागवत पाठ सुनता है और रात को चोरी करवाता है। किसी ने श्रीनिवास प्रभु को कहा कि हमें संदेह है कि राजा ने ग्रंथ चुराए हैं। तब श्री निवासाचार्य प्रभु जहाँ पर भागवत पाठ होता था, वहाँ पर पहुंचे। वहाँ पर भागवत पाठ में बहुत लोग बैठें हैं। जब वहाँ पर श्री निवासाचार्य प्रभु पहुंचे तो सब आश्चर्य हो गया कि ऐसा लंबा, गौर कांति स्वरूप तो कभी हमने पहले देखा नहीं। उन्हें देखकर वीर हम्बीर राजा को भी आश्चर्य हो गया। श्रीनिवास कुछ बोले नहीं, सभी सभा में बैठ गए लेकिन श्री निवास प्रभु सभा से अलग जाकर बैठ गए। जो पाठक भागवत पाठ कर रहे थे। उन्होंने सिद्धांत में कुछ गलत बोला। यह सुनकर श्री निवासाचार्य प्रभु ‘आह’ बोल पड़े और कहा कि आपने सिद्धांत बोलने में कुछ गड़बड़ की है। तब राजा ने श्री निवासाचार्य प्रभु को कहा कि आप भागवत पाठ कर सकते हैं? तब उन्होंने बोलना स्वीकार किया। उनका उद्देश्य यही था कि किसी प्रकार ग्रंथ मिल जाए। जब उन्होंने श्लोक व्याख्या की। सब यह सुनकर सब हैरान हो गए। तब राजा ने कहा कि आप यहां पर प्रतिदिन भागवत पाठ करें। उन्होंने स्वीकार किया और सोचा कि जब थोड़ा संबंध हो जाएगा, तब ग्रंथ की बात करेंगे। जब उनका भागवत पाठ सुना, तो राजा समेत उनके परिवार के सदस्य सभी का दुष्ट प्रवृत्ति चली गयी और सभी उनके शिष्य बन गए। पर तब भी जब ग्रंथों की खबर नहीं मिली, तो श्री निवास प्रभु बहुत दु:खी हुए। जिस कमरे वे रुके थे, उन्होंने उसको बंद कर लिया। जब शिष्यों ने देखा कि गुरुजी का कमरा बंद है, खोलते नहीं है, तब थोड़ा सा स्थान से देखा कि गुरुजी बहुत रो रहे हैं। तब राजा सोचते हैं कि सर्वनाश। मुझ से ऐसा कौन सा अपराध हो गया? जो गुरुजी इस प्रकार रोते हैं। उनको बहुत भय हो गया तब दरवाजा खोला। राजा ने उनसे दु:खी होने का कारण पूछा। तब श्री निवास प्रभु ने उनको ग्रंथ चोरी होने का वृतांत बताया। यह सुनकर राजा ने ग्रंथों का पिटारा श्रीनिवास प्रभु को दिखाया, वह देखने मात्र से ही उनको बहुत जिसे वह काफी समय से ढूंढ रहे थे। श्रीनिवास आचार्य प्रभु ने गोपाल भट्ट गोस्वामी को अपने गुरु रुप में स्वीकार किया। जब गुरु महाराज ब्रजमंडल के समय गोपाल भट्ट गोस्वामी के समाधि मंदिर में दर्शन को जाते थे, तब गुरु महाराज श्री निवास आचार्य प्रभु द्वारा लिखा षड गोस्वामी अष्टक पूरा गान करते थे ।

संख्या-पूर्वक-नाम-गान-नतिभिः कालावसानी-कृतौ
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ
राधा-कृष्ण-गुण-स्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ ||

आज श्री निवासाचार्य प्रभु की तिरोभाव तिथि है। उनके पादपद्म में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करके, उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करते हैं। वे महाप्रभु के द्वितीय स्वरूप है। सब को उधार करने की उनमें शक्ति है। उन्होंने एक डाकू के सरदार का उद्धार कर दिया। हमने उनका तो दर्शन नहीं किया, लेकिन अपने गुरुजी का दर्शन किया जो उसी परंपरा में आए हैं।

आज तिथि में गुरुजी क पादपद्म में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करके उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ। जानकर नहीं जान कर जो कोई अपराध किया हो उसे मार्जन करें। वे अपने पादपद्म की सेवा प्रदान करें। उनके आराध्य देव श्री गौरांग महाप्रभु व श्री राधा कृष्ण के पादपद्म की अहैतुकी भक्ति प्रदान करें।