श्रीजगन्नाथ देव की चंदन यात्रा अक्षय तृतीया के दिन से शुरू होती है और २१ दिनों तक मनाई जाती है। यह हरिकथा अक्षय तृतीया के दिन बोली गई थी जिसमें गुरु महाराज चंदन यात्रा के विषय में विस्तार से वर्णन करते हैं और जगन्नाथ देव के प्रतिनिधि श्रीमदनमोहन के साथ यात्रा में भाग लेने वाले पांच शिव के आध्यात्मिक परिचय के विषय में बताते हैं। अंत में, वे जगन्नाथ देव के आविर्भाव के विषय में संक्षिप्त में वर्णन करते हैं।

भगवान् और उनके भक्त पतित पावन होते हैं। भगवान् कभी-कभी मुझे भक्तों के दर्शन और उनकी महिमा कथा श्रवण और कीर्तन करने का अवसर प्रदान करते हैं, यह मेरा अहोभाग्य है।

आज अक्षय तृतीया तिथि है। बंगाल में ऐसी प्रथा है कि इस तिथि पर लोग पुण्य कर्म करते हैं जैसे कि पादुका, घड़ा, छतरी जैसी चीजें दान करना इत्यादि। वे मानते हैं कि इस तिथि पर ऐसे पुण्य-कर्म करने से उनको उसका अक्षय फल प्राप्त होता हैं।

श्रीभगवद् गीता में, कृष्ण कहते हैं कि क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति — पुण्य कर्मों के फल भोगने के बाद, व्यक्ति को इस संसार में वापस लौटना पड़ता है। यहाँ तक कि जनलोक, महर्लोक, तपलोक, सत्य लोक जैसे उच्च लोक इत्यादि प्राप्त होना भी अक्षय फल नहीं है, क्योंकि ये लोक भी अक्षय नहीं है। महाप्रलय में सब कुछ नष्ट हो जाता है, केवल अनंत ब्रह्मांड ही नहीं ब्रह्मांड की सृष्टि करनेवाले ब्रह्मा का भी नाश हो जाता है। इसलिए हमें अविनश्वर (नित्य) वस्तु की कामना करनी चाहिए, जो वास्तव में अक्षय अर्थात् सदैव रहनेवाली है।

भगवान गीता में अर्जुन से कहते हैं कि कर्मी से ज्ञानी से श्रेष्ठ है क्योंकि कर्मी को नाशवान चीजें चाहिए, किन्तु ज्ञानी को मुक्ति की इच्छा होती है। ज्ञानी से योगी श्रेष्ठ है, क्योंकि योगियों को सिद्धियाँ प्राप्त होती है और साथ ही परमात्मा में विलीन हो सकते हैं। किन्तु उसके बाद भगवान ने क्या शिक्षा दी? भगवद् गीता को गौड़ीय मठ ने नहीं लिखा, जो गीता पुरे विश्व में सम्मानित और सुशोभित है, उसमें भगवान् ने क्या कहा है,

योगिनामपि सर्वेषां मद्ग‍तेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:
(गीता 6.47)

श्रीकृष्ण कहते हैं, “कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, तपयोगी इत्यादि सभी प्रकार के योगीयों में जो मुझमें अपना हृदय समर्पित करके मेरी आराधना करता है, वही श्रेष्ठ है। भगवान् कहते हैं ‘मुझमें’, क्या निराकार (किसी आकार विहीन व्यक्ति) के लिए ‘मुझमें’ कहना संभव है?

वे (भगवान) और कहते हैं,

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ॥
(गीता 15.18)

भगवान कृष्ण और भगवान जगन्नाथ एक दूसरे से अभिन्न हैं। वे पुरुषोत्तम हैं। वे क्षर वस्तु (पतनशील) और अक्षर वस्तु (ब्रह्म, परमात्मा) से परे हैं। वे सभी के कारण हैं, उन्हें कोई साधारण व्यक्ति न समझे। एक बार जब मैं फीनिक्स में था, भक्तों ने एक चर्च में हरिकथा की व्यवस्था की, जिसके बाद प्रसादम की व्यवस्था भी थी। अकिंचन दास नामक भक्त ने सब व्यवस्था की थी। उस समय, एक अमरिकन व्यक्ति मेरे पास आया और कहने लगा, “स्वामीजी, मैं प्रतिदिन गीता का पाठ करता हूँ। मुझे गीता पाठ में रूचि है। जब तक मैं गीता पाठ न करलूं अन्य किसी भी कार्य के लिए घर से बाहर नहीं निकलता। मुझे गीता अत्यंत प्रिय है।”

यह सुनकर मैं चकित हो गया। अमेरिका जैसी जगह पर कोई है जो प्रतिदिन गीता पढ़ता है। भारत में भी कदाचित आपको ऐसा व्यक्ति न मिले। मैंने उनकी प्रशंसा की।

उन्होंने कहा, “हाँ! मुझे गीता प्रिय है, किन्तु स्वामीजी, मैं कृष्ण को भगवान नहीं मानता। वे एक सुपर ह्यूमन (अतिमानव) हो सकते हैं या एक महान राजनीतिज्ञ, कुटनीतिज्ञ हो सकते हैं।”

हम सड़क पर खड़े बात कर रहे थे, क्योंकि कार्यक्रम पहले ही समाप्त हो चुका था, इसलिए मेरे पास और बोलने का समय नहीं था। मैंने उनसे कहा, “आपको गीता में बहुत श्रद्धा है, यह सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। मैं आपसे गीता से कुछ श्लोक सुनना चाहता हूँ, जिसमें कृष्ण कहते हैं कि वे एक सुपर ह्यूमन (अतिमानव) या एक महान राजनीतिज्ञ या कुटनीतिज्ञ हैं।” गीता में ऐसा कोई श्लोक है ही नहीं ।

कृष्ण कहते हैं,

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
(गीता 4.9)

भगवान् के जन्म एवं कर्म संसार के किसी साधारण व्यक्ति की भाँति नहीं हैं। वे हमें अपनी सेवा प्रदान करने के लिए लीला करते हैं। जो भगवान् का आश्रय ग्रहण करते हैं, उनका ही आत्यंतिक मंगल होता है। तो कृष्ण उपरोक्त श्लोक में कहते हैं कि जो यह जान लेता है कि उनके जन्म एवं कर्म दिव्य है उसका पुनर्जन्म नहीं होता और इतना ही नहीं, वह सर्वोत्तम अभीष्ट वस्तु कृष्ण-प्रेम को प्राप्त करता है।

मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
(गीता 7.7)

मुझसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। सब कुछ सदैव मेरे से जुड़ा हुआ है। वे यह भी कहते हैं,

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥
(गीता 7.7)

कृष्ण कहते हैं, “निराकार ब्रह्म का भी कारण मैं ही हूँ।” इसलिए, यदि कोई गीता के उपदेश या तत्व को स्वीकार नहीं करता है तो गीता को इस तरह पढ़ने का कोई लाभ नहीं है।

आज अक्षय तृतीया है। बद्रीनारायण मंदिर के द्वार आज से खुल जायेंगे और दर्शन आरंभ होंगे। हमें भगवान बद्रीनारायण को स्मरण करना चाहिए। मार्कंडेय ऋषि को भगवान बद्रीनारायण की कृपा मिली। भगवान बद्रीनारायण विष्णु तत्व हैं। साथ ही आज से सतयुग प्रारंभ होता है। माघी पूर्णिमा से कलियुग का प्रारम्भ होता है। अक्षय तृतीया के शुभ दिन पर, नित्य मंगल भगवद् भक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए। आज से, पुरुषोत्तम धाम में, भगवान् जगन्नाथ देव की चंदन यात्रा भी आरंभ होगी। हमारे अगरतला मठ में भी जगन्नाथ देव हैं। मठ में एक बड़ा चंदन सरोवर भी स्थित है। पुरी में, नरेंद्र सरोवर को चंदन सरोवर कहा जाता है। यह 873 फीट लंबा और 130 फीट चौड़ाई में है। यह बहुत विशाल सरोवर है। कुछ लोगों का कहना है कि यह एक विशेष कर्मचारी, नरेंद्र महापात्रो द्वारा इसे बनाया गया था, इसलिए इसे नरेंद्र सरोवर के रूप में जाना जाता है। नरेन्द्र का अर्थ है जो नर (मानव) में सर्वश्रेष्ठ है और बहुत से लोग मानते हैं कि राजा इंद्रद्युम्न जो मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन्होंने सरोवर का निर्माण किया था। ‘मंदिर निर्माण’ ’नाम की एक पुस्तिका है, जिसमें बताया गया है कि कैसे जगन्नाथ देव के मंदिर का निर्माण किया गया था। उस पुस्तक में लिखा गया है कि ब्रह्मा की आयु द्विपराध-काल है। हम गणना भी नहीं कर सकते। पहले पराध-काल में, भगवान नीलमाधव, पुरुषोत्तम धाम में प्रकट हुए और दूसरे पराध-काल के दौरान, सतयुग के प्रारंभ में, राजा इंद्रद्युम्न सूर्यवंश में प्रकट हुए।

उनका स्थान अवंती नगर में है। वे भगवान के भक्त थे, वे भगवान् के दर्शन पाने के लिए बहुत उत्सुक हो गए। भगवान् सर्वज्ञ हैं। इस ब्रह्मांड में अनंत जीव है, ब्रह्मांड के कोई भी कोने में स्थित जीव क्या इच्छा कर रहा है, वे यह जानते हैं। प्रतिष्ठानपुर के ब्राह्मण का दृष्टांत हमने श्रवण किया है। भगवान् का कोई दोष नहीं है, जो भगवान के लिए उत्सुक है, वही उनको प्राप्त करने के लिए योग्य है। भगवान् भक्त के रूप में राजा के पास आए और उनसे कहा, “आप भगवान् के दर्शन के लिए बहुत उत्सुक हैं, वे प्रकट हो चूके हैं।”

वे भक्त के हृदय में या विग्रह के रूप में भी प्रकट हो सकते हैं। हम उन्हें समझ नहीं पाते। एक बार हमारे गुरुदेव बांग्लादेश गए थे। यह वह समय था जब बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान के रूप में भारत से अलग हो गया था। उन्होंने वहाँ भाषण दिया। कई लोग उनके प्रवचन को सुनने के लिए एकत्रित हुए, जिनमें कई मुस्लिम मौलवी भी सम्मिलित थे। एक व्यक्ति ने श्रील गुरुदेव को कहा, “स्वामीजी, यह स्थान भारत के अधीन नहीं है, इसलिए कृपया व्याख्यान देते समय सावधान रहें। आपराधिक जांच विभाग (Criminal investigation department) भी हम पर दृष्टी रखे हुए है।”

अपना व्याख्यान आरंभ करने से पहले, श्री गुरुदेव ने श्रोताओं को हरिकथा के बिच में कोई प्रश्न नहीं पूछने के लिए सूचित किया क्योंकि इससे वक्ता और श्रोता दोनों को असुविधा होगी और यदि किसी को कोई प्रश्न है, वे उसे एक कागज में लिखकर रख सकते हैं और बाद में उनसे पूछ सकते हैं। उन्होंने कहा, यदि प्रश्न कथा के विषय से संबंधित होगा तो वे इसका उत्तर सभा में देंगे, अन्यथा सभा में उसका उत्तर नहीं देंगे। उन्होंने लगभग आधे घंटे तक हरिकथा बोली होगी कि एक मौलवी ने खड़े होकर उनसे पूछा, “स्वामी जी, क्या आप पाकिस्तान में बुत-परस्तवाद (idol worship, पुतली पूजा) का प्रचार करने के लिए आए हैं?”

गुरुजी सभी को सम्मान देते थे। वे तृणादपी श्लोक का आदर्श हैं। उनके महान आदर्श चरित्र ने सभी के हृदयों को आकर्षित कर लिया। आयोजकों ने उनसे इस प्रश्न का उत्तर न देने का अनुरोध किया क्योंकि उन्होंने पहले ही सभी को भाषण के बिच में प्रश्न न पूछने के लिए सूचित कर दिया था। किन्तु श्रील गुरुदेव ने सोचा कि यदि वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं देंगे तो दूसरे यह सोच सकते हैं कि उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं है। इसलिए उन्होंने सभा में ही प्रश्न का उत्तर देने का निश्चय किया। उन्होंने कहा, “मौलवी साहब एक सम्मानित व्यक्ति हैं। मुझे उनके प्रश्न का उत्तर देना चाहिए, और इस प्रश्न का उत्तर कथा के विषय-वस्तु को और भी अधिक समझने योग्य बना देगा।” तब गुरु महाराज ने मौलवी की प्रशंसा की, जिससे वे थोड़े शांत हो जाए और फिर उनसे कहा, “मौलवी साहब, मैं आपके प्रश्न का उत्तर सभा में दूँगा। उससे पहले मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ। क्या आप खुदा में विश्वास करते हैं? ”

उन्होंने जवाब दिया, “हाँ, मैं अवश्य ही उनको मानता हूँ।”

“क्या आप मानते हैं, खुदा के पास कोई शक्ति है?”

“वे सर्व शक्तिमान हैं।”

गुरु महाराज ने मुस्कुराते हुए कहा, “आपने स्वयं ही आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया, मुझे बोलने की आवश्यकता नहीं है। यदि आपने उन्हें सर्व-शक्तिमान नहीं कहा होता तो मुझे आपको विभिन्न शास्त्रों से प्रमाण देकर विस्तार से समझाना पड़ता। किन्तु जैसा कि आप उन्हें सर्व-शक्तिमान मानते हैं तो ‘सर्व-शक्तिमान’ शब्द का क्या अर्थ है? ‘कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम स समर्थः’, यही सर्व-शक्तिमान का अर्थ है। वे कोई भी कार्य कर सकते हैं, किये हुए को उल्टा कर सकते हैं, उलटे को पुनः पूर्ववत कर सकते हैं, उनके लिए सब कुछ संभव है। वे अपने भक्तों की इच्छापूर्ण करने के लिए किसी भी रूप में आ सकते हैं। यदि वे विग्रह के रूप में नहीं आ सकते तो वे सर्वशक्तिमान नहीं हैं।”

मैं इसके बारे में विस्तार से बात नहीं करूंगा। आज से जगन्नाथ देव की चंदन यात्रा आरंभ होने जा रही है। मुझे चंदन सरोवर के निकट में रहने का अवसर मिला। प्रभुपाद के जन्म स्थान पर मठ बनाने के लिए हमारे गुरुदेव विभिन्न धर्मशालाओं में कभी दो मास के लिए, कभी तीन मास के लिए, बहुत कष्टमय स्थिति में रहे। मैंने उस समय देखा कि कैसे चंदन यात्रा उत्सव मनाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार समस्त प्रकार के अनुलेपन में चंदन का लेपन श्रेष्ठ है। स्वयं भगवान ने कहा है कि मुझे चन्दन से अनुलेपन करना। चन्दन यात्रा के समय भगवान जगन्नाथ, स्वयं यात्रा के लिए नहीं आते हैं किन्तु उनके प्रतिनिधि मदनमोहन नरेंद्र (चन्दन) सरोवर आते हैं। चैतन्य चरितामृत और चैतन्य भागवत में लिखा है कि पहले, गोविंद देव चंदन यात्रा के लिए बाहर जाते थे। किन्तु बंगाल के एक राजा उड़ीसा आए और उन्होंने गोविंद देव को उनके साथ ले जाने की इच्छा प्रकट की, इसलिए गोविंद देव को उन्हें दे दिया गया और इसके बाद से मदनमोहन चंदन सरोवर की यात्रा करने लगे। गोविंद देव अब बांग्लादेश में हैं। मदनमोहन, लक्ष्मीजी और सरस्वती के विग्रह बहुत छोटे होते हुए भी बहुत लंबी और विशाल पालकी में जाते हैं। पालकी ले जाने के लिए आगे-पीछे दस-दस व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। वे बड़ी आवाज और वाद्य बजाते हुए जाते हैं। एक पालकी में मदनमोहन, लक्ष्मी और सरस्वती यात्रा करते हैं और दूसरी में कृष्ण-बलराम यात्रा करते हैं, इनके अतिरिक्त पंच-महादेव (पांच शिव) भी अपनी-अपनी पालकियों में बैठकर चन्दन सरोवर की ओर प्रस्थान करते हैं।

पांच शिवों में लोकनाथ महादेव सब में प्रधान है। जो लोग पुरी गए हैं, उन्होंने लोकनाथ शिव का मंदिर अवश्य देखा होगा। शिवरात्रि के दिन को छोड़कर आप अनादि लोकनाथ शिव के दर्शन नहीं कर सकते। चूंकि विग्रह हमेशा पानी के नीचे रहते हैं, आप उनके प्रतिनिधि के दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। लोकनाथ शिव एक पालकी में आते हैं और उनके बाद यमेश्वर शिव आते हैं। यमेश्वर शिव का अर्थ है, मृत्यु के देवता, यम के भी इश्वर। यदि वहाँ किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उस पर यम का कोई अधिकार नहीं होता, वह शिव का है। तीसरे शिव कपाल-मोचन शिव है। शिव के पांच मुख हैं और पहले ब्रह्मा के पांच मुख थे। शिव ने ब्रह्मा का एक सिर काट दिया जो उनके हाथ से जुड़ गया। वे अपने हाथ से उस सिर (कपाल) को अलग नहीं कर पा रहे थे। वे चारों दिशाओं में घूमते रहे और अंत में पुरुषोत्तम धाम आए, जहाँ उनका उस कपाल से और ब्रह्मा का सिर काटने से जो ब्रह्महत्या का पाप लगा था उससे भी मोचन हुआ। उसके बाद मार्कंडेयश्वर शिव, मृकंड के पुत्र मार्कंडेय हैं। एक शिक्षा है जो यहाँ ध्यान देने योग्य है। मृकंड ऋषि का एक ही पुत्र था और एक ज्योतिषी ने बताया था कि वह केवल दस वर्ष ही जीवित रहेगा। यह सुनकर मृकंड ऋषि व्यथित हो गए। उन्होंने अपने बेटे को निर्देश दिया कि “यदि कोई बड़ा, गुरु स्थानीय सम्मानित व्यक्ति आपके पास आएगा तो उसे दण्डवत् प्रणाम करना।”

प्रणाम करने और बड़ों को उचित सम्मान देने में कोई बुराई नहीं है। यदि आप माता-पिता, बड़े भाई, पति या बड़े व्यक्ति को सम्मान देंगे तो उनका आशीर्वाद आप पर आएगा। मार्कंडेय सभी को प्रणाम किया करते थे। एक बार सप्तर्षि मार्कंडेय के घर आए और उन्होंने उन्हें प्रणाम किया। एक बच्चे को इसप्रकार करते हुए देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए, उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया, “तुम चिरायु हो।” अचानक उनके मुख से ऐसे शब्द निकले। मृकंड ऋषि ने उनसे कहा, “देखिए, आपने मेरे बच्चे को दीर्घ आयु का आशीर्वाद दिया है किन्तु ज्योतिषी कहते हैं कि वह केवल दस साल तक जीवित रहेगा।” सप्तर्षि कहने लगे, “अरे! इस समस्या के समाधान के लिए हम उसे अपने पिता ब्रम्हा के पास ले जाएंगे।” जनलोक, तप लोक, महर्लोक आदि से होते हुए वे उस बच्चे के साथ सत्यलोक पहुँचे। उन्होंने ब्रह्माजी से कहा, “इस बच्चे ने हमें प्रणाम किया और तुरंत हमारे मुंह से शब्द निकले कि यह लंबा जीवन जीएगा। किन्तु उसके पास जीवन के केवल दस वर्ष हैं, अब क्या करें?” तब ब्रम्हाजी ने उत्तर दिया, “दस वर्ष नहीं, यह सात कल्प जीवित रहेगा।” एक कल्प का क्या अर्थ है? एक कलियुग ४३२,००० वर्ष का होता है, उसका दोगुना द्वापर होता है, कलियुग से तिगुना त्रेता होता है और कलियुग का चार गुना सतयुग होता है। अब, ये चारों एक साथ (४३,२००,००० वर्ष) एक चतुर्युगी हैं और ऐसे ७१ चतुर्युग एक मनु (एक मन्वन्तर) का जीवन काल है। ऐसे १४ मनु का जीवन काल एक कल्प काल है। अब हम सातवें मन्वन्तर और २८वें चतुर्युग में हैं।

इस प्रकार चिर आयु का वर लाभ करके वे वापिस आ गए। उसके बाद उन्होंने कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से भयभीत होकर इन्द्र ने गन्धर्व व अप्सराओं को भेजकर उनका चरित्र भ्रष्ट करने और उनकी तपस्या भंग करने के लिए प्रयास किया। किन्तु वे सब भयभीत होकर वहाँ से भाग गए। बद्रीनारायण उन पर प्रसन्न हुए तथा आकर दर्शन दिए। उन्होंने कहा कि तुम जो वर मांगोगे, मैं दे दूँगा। तब मार्कण्डेय ने कहा कि मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ। भगवान ने उनका वर स्वीकार किया।

इसके पश्चात् एक समय जिस कुटिया में वे ध्यान कर रहे थे, वहाँ तूफ़ान आ गया, ऐसी वर्षा होने लगी जो बन्द ही नहीं हो रही थी। देखते ही देखते पूरी पृथ्वी जलमग्न हो गई। वे जैसे विशाल समुद्र के जल में तैरने लगे, तिमि, तिमिंगिल, मगरमच्छ इत्यादि बड़े-बड़े प्राणी उन्हें कष्ट देने लगे किन्तु उनके द्वारा मार्कंडेय की मृत्यु नहीं हुई क्योंकि उन्हें तो सप्त काल तक जीवित रहने का वर प्राप्त था। वे इतना कष्ट पा रहे थे कि वे सोचने लगे कि इतनी लम्बी आयु होने से तो मरना अच्छा है। इस प्रकार वे कई हज़ारों साल तक जल में ऐसी ही भटकते रहे। एक दिन उन्होंने पुरुषोत्तम धाम में वटपत्र (वट वृक्ष के पत्ते) पर एक छोटे से बालक को देखा। वह बालक अत्यन्त सुन्दर था तथा अपने हाथों से अपने पैरों का अँगूठा पकड़कर उसे चूस रहा था। मार्कण्डेय उस बालक से आकर्षित होकर उसकी ओर जाने लगे। जैसे ही वह उस बालक के निकट आए तो उसके निःश्वास द्वारा वे उसके नाक में घुस गए और दूसरे ब्रह्माण्ड में गिर गए। वहाँ वे हज़ारों साल रहे। जब उस बालक ने श्वास छोड़ी तो वे पुनः उसी समुद्र में वापिस आ गए। तब उन्होंने सोचा कि मैंने भगवान की माया को देखने का वर माँगकर बहुत बड़ी भूल की। तब भगवान ने उनसे पूछा कि क्या अब तुम्हारी माया देखने की और इच्छा है?

पुरुषोत्तम धाम महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होता। तब मार्कण्डेय को वहाँ पर एक स्थान मिल गया और वे बच गए। उसके बाद उन्हें शिवजी और उमा देवी का दर्शन प्राप्त हुआ। वही मार्कण्डेश्वर शिव पुरी में है। हम भी वहाँ पर दर्शन करने जाते हैं।

पंचम शिव का नाम नीलकण्ठेश्वर शिव है। उन्हें तो आप जानते ही हैं। जब क्षीर सागर से कालकूट विष निकला था, इन्होंने उसका पान किया था।

ये सभी शिव चन्दन यात्रा के समय नरेन्द्र सरोवर तक पालकियों में जाते हैं। वहाँ तीन मन्दिर हैं। मूल मंदिर में एक कूप (कुआँ) है जिसके जल से श्रीमदनमोहन, श्रीलक्ष्मी तथा श्रीसरस्वती को स्नान कराया जाता है। दूसरा मंदिर श्रीकृष्ण-बलराम के लिए तथा तीसरा मन्दिर पंचशिव के लिए है। वे सब नरेन्द्र सरोवर पहुँचकर एक नाँव में श्रीकृष्ण-बलराम, एक में श्रीमदनमोहन, श्रीलक्ष्मी तथा श्रीसरस्वती एवं एक में पंचशिव विहार करते हैं। वहाँ 21 दिन तक वहाँ जाते हैं। जब वापिस आते हैं, बिच-बिच में पेड़ के पत्तों, टहनियों व फलों की छाया से युक्त स्थान पर बैठकर वे विश्राम करते हैं। वहाँ बैठकर पंक्ति भोजन भी करते हैं। अन्त में एक ‘बाउली’ नामक स्थान पर जाते हैं, जहाँ श्रीचैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन भक्तों के साथ स्नान एवं जलकेलि करते थे और वहाँ से वे जगन्नाथ मन्दिर लौट आते हैं।

अगरतला में भी चन्दन यात्रा उत्सव होता है। महाप्रभु ने इन्द्रद्युम्न महाराज को चन्दनयात्रा मनाने का आदेश दिया था। जगन्नाथ देव के प्राकट्य के विषय में कहा जाता है कि इन्द्रद्युम्न महाराज ने अपने सेवकों को भगवान नीलमाधव को ढूंढने के लिए सभी दिशाओं में भेजा था। उन्होंने अपने पुरोहित विद्यापति को भी भेजा था। सब असफल होकर वापिस आ गए किन्तु विद्यापति शबर देश में चले गए तथा वहाँ जाकर उन्होंने शबर देश के अधिपति (विश्ववसु) का आश्रय लिया। उनकी कन्या का नाम ललिता था। विश्ववसु ने ललिता को विद्यापति की सेवा करने के लिए कहा, साथ ही यह निर्देश भी दिया कि वह उसे कुछ न बताए कि वे प्रतिदिन कहाँ जाते हैं। विश्ववसु नीलमाधव की सेवा करते थे। जब लौटकर आते थे तो उनके शरीर से सुगन्ध आती थी। इससे विद्यापति को सन्देह हुआ कि भगवान नीलमाधव अवश्य यहाँ ही हैं। उन्होंने ललिता से इस विषय में जानने का प्रयास किया किन्तु उसने उन्हें कुछ नहीं बताया। विद्यापति की सेवा करते-करते ललिता की उनमें आसक्ति हो गई तथा उनसे विवाह करने की इच्छा हुई। उसने अपने पिताजी को यह बताई। पहले उसके पिताजी ने उसका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया क्योंकि विद्यापति ब्राह्मण हैं और वे निम्न कुल के हैं। स्त्रियों का सबसे बड़ा हथियार होता है ― रोना। उनकी एक ही पुत्री है और उसने रोना आरंभ कर दिया, यह वे कैसे सहन करते? तब उन्होंने कहा कि यदि विद्यापति मान जाए तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। विद्यापति ने सोचा, “यही उपयुक्त अवसर है। जब इसका मुझसे विवाह हो जाएगा, यह मेरी स्त्री बन जाएगी तथा तब इसे मुझे सब बातें बतानी पड़ेंगी।”

विवाह के कुछ समय पश्चात एक दिन विद्यापति ने ललिता से पूछा कि उसके पिताजी प्रतिदिन कहाँ जाते हैं, तब ललिता ने उन्हें बताने से मना कर दिया। इसपर विद्यापति ने कहा―”तुमने मुझसे विवाह किया है। एक पतिव्रता स्त्री अपने पति से कुछ नहीं छिपाती।” तब ललिता ने बताया कि उसके पिता नीलमाधव के पास जाते हैं। विद्यापति ने कहा कि मैं नीलमाधव के दर्शन करने जाऊँगा नहीं तो प्राण त्याग दूँगा। ललिता ने इससे भयभीत होकर सारा वृत्तान्त पिताजी को जाकर सुना दिया। ललिता ने रोना आरंभ कर दिया। तब उसके पिता ने कहा, “ठीक है, मैं दर्शन कराने ले जाऊँगा किन्तु उसे आँखें बन्द करके साथ जाना होगा।” विद्यापति उनकी शर्त मान गए। अपने पति से प्रेम होने के कारण ललिता ने विद्यापति की जेब में छोटा सा छेद करके उसमें सरसों के बीज डाल दिए, ताकि बाद में जब इन बीजों से पौधे निकलें तो विद्यापति उनकी सहायता से उस मार्ग को ढूंढ सके। जब विद्यापति को नीलमाधव के दर्शन हुए तो वह प्रेम में आप्लावित हो गए। कुछ समय बाद विश्ववसु ने कहा, “मैं नीलमाधव की सेवा के लिए कुछ वनफूल व फल लेकर आता हूँ, तुम यहाँ पर पहरा दो।” जब विश्ववसु गए तो विद्यापति ने देखा कि एक कौआ पेड़ के ऊपर बैठे-बैठे सो गया और घूमकर नीचे नीलमाधव के जल में गिर गया। जैसे ही उस जल का स्पर्श किया, वह चतुर्भुज होकर चला गया। यह देखकर विद्यापति ने सोचा कि ऐसा करने से मैं भी चतुर्भुज हो जाऊँगा। वह जब पेड़ से छलांग मारने लगे तो आकाशवाणी हुई कि तुमने महाराज को वचन दिया है। तुम्हें जाकर उन्हें नीलमाधव का संवाद देना होगा।

विश्ववसु विद्यापति को बाँधकर घर वापिस ले आये। ललिता यह देखकर रोने लगी। तब उसे रोता देखकर विश्ववसु ने उसे मुक्त कर दिया। कुछ दिन बाद विद्यापति भाग गए। उसने जाकर महाराज इन्द्रद्युम्न को सारा समाचार सुना दिया। महाराज अपनी सेना लेकर नीलमाधव के स्थान पर पहुँच गए। वहाँ घेराव करके सबको बन्दी बना लिया। जब मन्दिर में देखा तो वहाँ नीलमाधव ही नहीं थे। जब राजा रोने लगे तो नीलमाधव ने उन्हें बताया कि मैं दारुब्रह्म रूप से समुद्र में प्रकट होऊँगा। उनमें शंख-चक्र इत्यादि सब चिह्न थे। भगवान का यह स्वरूप बहुत भारी था जिसे कोई भी निकालने में समर्थ नहीं था। भगवान ने पुनः राजा से कहा कि तुम विश्ववसु को मुक्त कर दो। विश्ववसु और विद्यापति मिलकर मुझे उठा सकते हैं। तब राजा ने रथ का निर्माण किया जिसमें उठाकर वे दोनों भगवान को मन्दिर में ले आए। किन्तु कोई भी कारीगर (शिल्पी) उस लकड़ी (काष्ठ) से भगवान के विग्रहों को नहीं बना सका। तब भगवान स्वयं ही एक वृद्ध शिल्पी बनकर आए और उस लकड़ी को लेकर एक कमरे में बन्द हो गए। उन्होंने राजा को निर्देश दिया कि कोई भी 21 (इक्कीस) दिन से पहले द्वार नहीं खोलेगा। सात दिन तक अन्दर से खटखट की आवाज़ सुनाई दे रही थी, किन्तु उसके बाद आवाज़ आनी बन्द हो गई। सब को लगने लगा कि कदाचित बिना कुछ खाए-पिए वृद्ध शिल्पी की मृत्यु हो गई, कुछ और दिन प्रतीक्षा करने के बाद अन्तः में पन्द्रहवें दिन जब द्वार खोल दिये तो देखा कि विग्रह असम्पूर्ण थे। राजा मूर्छित होकर गिर गए और रोने लगे। तब भगवान ने कहा कि मैं इसी रूप से प्रकट होना चाहता था।

इस विषय में एक और कथा है। जब रोहिनीदेवी द्वारिका में वृन्दावन धाम की लीलाओं का वर्णन कर रही थीं तब गोपियों के प्रेम के बारे में सुनकर कृष्ण, बलराम तथा सुभद्रा की आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं व हाथ अन्दर की ओर चले गए। उस समय उन्होंने यह स्वरूप प्रकाशित किया।