बलदेव की कृपा के बिना हम कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकते

श्रीबलदेव प्रभु दशावतारों में से अष्टम अवतार हैं । श्री श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने श्री चैतन्य चरितामृत की मध्यलीला के 20वें परिच्छेद में 245वें पयार के अनुभाष्य में जिन 25 लीलावतारों के नाम का उल्लेख किया है उनमें ‘प्रलम्बारी बलराम’ 22वें लीलावतार हैं ।

अन्य धर्मावलम्बी सनातन धर्मावलम्बियों को बहु-ईश्वरवादी कहकर दोषारोपण करते हैं। उनका विचार है कि वे स्वयं एक ईश्वर को मानते हैं, जबकि सनातन धर्मी लोग बहुत से ईश्वरों की आराधना करते रहते हैं । परन्तु वास्तविकता यह है कि सनातन धर्म के विचारों के गम्भीर तात्पर्य को जान न सकने के कारण ही वे इस प्रकार का दोषारोपण करते हैं। ‘परमेश्वर बहुत हैं’ ऐसी बात सनातनियों ने कहीं भी नहीं कही। परमेश्वर असीम हैं व पूर्ण हैं। वे कभी भी दो, तीन, चार या हजार नहीं होते। असीम के बाहर कुछ भी कल्पना करने से असीम के असीमत्व की, पूर्ण के पूर्णत्व की हानि होती है। इसलिए पूर्ण – असीम शक्तिमान एक है। एकमेवाद्वितीयम्

परमेश्वर का, सर्वशक्तिमान का अनन्त ऐश्वर्य है। परमेश्वर के अधीन छोटे-छोटे बहुत से ईश्वर हो सकते हैं, किन्तु परमेश्वर कभी भी बहुत नहीं हैं। वे एक हैं। बुद्धिमान व्यक्ति थोड़े धीर भाव से चिन्ता करके देखें कि परमेश्वर का परम ऐश्वर्य उनके चिद्, वैभव, तटस्थ वैभव व अचिद् वैभव को जो देख सकते हैं – उनका ज्ञान अधिक है या जो नहीं देख पाते हैं – उनका ज्ञान अधिक है। सारी पृथ्वी में मिट्टी ही मिट्टी है – यह एक प्रकार का ज्ञान है। किन्तु पृथ्वी की मिट्टी के विचित्र वैभव व वैशिष्ट्य को जो देख पाते हैं, उनको विज्ञानी कहते हैं ।

चिद् वैज्ञानिक भगवान के अनन्त ऐश्वर्य को देख सकते हैं – वही ज्ञान उच्च स्तर का ज्ञान है। इससे इस प्रकार नहीं समझना होगा कि वे बहु-इश्वरवादी हैं या वे बहुत से परमेश्वरों की बात कहते हैं। परमेश्वर एक होने से भी वे अनन्त रूपों से लीलाएं कर सकते हैं। यदि कोई कहे कि वे नहीं कर सकते तब उन्हें (उनकी धारणा के अनुसार परमेश्वर को) परमेश्वर या सर्वशक्तिमान बोलना निरर्थक है। परमेश्वर एक होने पर भी उनमें लीलागत पार्थक्य है। परमेश्वर को विष्णु कहा जाता है “य इदं विश्व व्याप्नोति इति विष्णु” विष्णु पूर्ण वस्तु हैं। देवी-देवता उनकी शक्ति के प्रकाश हैं, वे उनके अधीन तत्व हैं। वे विष्णु नहीं हैं। विष्णु तत्व में कोई भेद नहीं है। हां, लीलागत पार्थक्य है, King in Court & King in Harem. राजा दरबार में एवं राजा महल में – यहां पर राजा दो नहीं हैं। उसका दो स्थानों में दो प्रकार का प्रकाश है। उसके दरबार में तो ऐश्वर्य भाव है और महल में माधुर्य भाव है। इसी प्रकार भगवान भी अनन्त रूपों से अनन्त लीलायें कर रहे हैं। वे ऐश्वर्य रूप में नारायण हैं। मर्यादा रूप से श्री रामचन्द्र हैं एवं माधुर्य रूप से श्री कृष्ण हैं तथा औदार्य रूप से वे ही श्री गौरसुन्दर श्री हरि हैं । वीभत्स रस का प्राकट्य मत्स्य भगवान हैं । भयानक और वात्सल्य रस का प्राकट्य नृसिंह भगवान में है । इस प्रकार मत्स्यादि अवतारों में लीलागत पार्थक्य विद्यमान है। बारह के बारह रसों का (पांच मुख्य सात गौण रसों का) परिपूर्णतम् रूप से प्राकट्य एकमात्र श्री नन्दनन्दन कृष्ण में है। इसलिये भगवत तत्वों के एक होने पर भी सवयं मय नन्दनन्दन श्री कृष्ण में रसोत्कर्षता सर्वाधिक है।

सिद्धांत तस्त्वभेदेऽपि श्रीश कृष्ण स्वरूपयो ।
रसेनोत कृष्यते कृष्णरूपमेषा रसस्थिति ॥
(भक्ति रसामृत सिन्धु 2 / 32 )

अर्थात “नारायण और कृष्ण के स्वरूप में सिद्धान्ततः कोई भेद नहीं है।” तब भी श्रृंगार रस के विचार से श्री कृष्ण स्वरूप ने रसों के द्वारा उत्कर्षता प्राप्त की है। इस प्रकार से रस तत्वों का संस्थान होता है ।

श्री कृष्ण द्वपायन वेदव्यास मुनि ने भागवत के प्रथम स्कन्ध के तृतीय अध्याय में भगवान के जिन 22 अवतारों की कथा का उल्लेख किया है उसमें उन्होंने इस प्रकार लिखा है –

एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।
रामकृष्णाविति भुवो भगवानहरद्भ‍रम् ॥
(श्रीमद्भगवत 1/3/ 23)

अर्थात् 19वें और 20वें अवतारों में भगवान श्रीहरि ने यदुकुल में राम और कृष्ण दो नाम ग्रहण करके जगत का भार हरण किया था । उक्त प्रसंग में भगवान के असंख्य अवतारों की बात कहते हुए अन्त में कृष्ण के सर्वोत्तम वैशिष्ट्य को बताने के लिये वे लिखते हैं :

एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
(भागवत 1/3/ 28)

पहले जिन-जिन अवतारों की कथा बताई गई है वह कोई तो परमेश्वर के अंश हैं व कोई कला अंश हैं, दैत्य-निपीड़ित जगत को सुखी करने के लिये वे ही युग-2 में अवतीर्ण होते हैं। किन्तु कृष्ण इन सबके बराबर नहीं – वे स्वयं भगवान हैं ।

यहां पर रसों के प्राकट्य के तारतम्य के कारण अंशों, अंश व अंश के अंश का विचार दिया है । नन्दनन्दन कृष्ण में समस्त रसों का प्राकट्य है। इसलिये वे स्वयं भगवान, अवतारी व अंशी हैं ।

याँर भगवता हैते अन्येर भगवत्ता,
स्वयं भगवान शब्दे ताहातेई सत्ता ॥
(चै.च.आ. 2 / 88)

यहां पर श्रील कविराज गोस्वामी ने ‘विधेय’ व ‘अनुवाद’ का विचार दिखाया है। अपरिज्ञात विषय को ‘विधेय’ और परिज्ञात वस्तु को ‘अनुवाद’ कहते हैं ।

तैछे हँह अवतार, सब ताँ’र ज्ञात।
कार अवतार – एइ वस्त अविज्ञात॥
‘एते’ – शब्दे अवतारेर आगे अनुवाद।
पुरुषेर अंश पाछे विधेय संवाद ॥
तैछे कृष्ण अवतार – भितरे हैल ज्ञात।
ताँहार विशेष ज्ञान सेई अविज्ञात ॥
अतएव ‘कृष्ण’ – शब्द आगे अनुवाद ।
‘स्वयं भगवता’ पिछे विधेय संवाद ॥
(चै.च.आ. 2 / 79–82)

स्वयं भगवान श्री कृष्ण की प्रथम प्रकाश मूर्ति श्री बलदेव मूल – संकर्षण का ब्रज में गोपवेश है, पुरी (द्वारकापुरी) में क्षत्रिय वेश है। द्वारका में आदि चतुर्व्यूह के अन्तर्गत जो संकर्षण हैं, वे मूल संकर्षण गोपवेश बलदेव के अंश हैं। वैकुण्ठ में नारायण के द्वितीय चतुर्व्यूह के अन्तर्गत जो संकर्षण तत्व हैं, वे द्वारका स्थित आदि काय- व्यूह के अन्तर्गत क्षत्रिय वेश में मूल- संकर्षण के अंश हैं जिन्हें महासंकर्षण कहते हैं। महासंकर्षण के अंश प्रथम पुरुषावतार, प्रकृति के अन्तर्यामी कारणोब्धशायी महाविष्णु हैं । माया प्रकृति में कारणोब्धशायी महाविष्णु के ईक्षण से अनन्त ब्रह्माण्ड प्रकट होने पर वे ही एक अंश अर्थात द्वितीय पुरुषावतार, अनिरुद्ध, गर्भोदशायी विष्णु रूप से समष्टि ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं ।

गर्भोदकशायी विष्णु के अंश, तृतीय पुरुषावतार, प्रद्युम्न रूपी श्री क्षीरोदकशायी विष्णु हैं जो कि व्यष्टि जीवों के और व्यष्टि ब्रह्माण्ड के अन्तर्यामी हैं। श्री क्षीरोदकशायी विष्णु ही देवताओं के द्वारा प्रार्थित होकर असुरों को निधन करने, साधुओं के परित्राण व धर्म की संस्थापना के लिये युग-2 में अवतीर्ण होते हैं । श्री क्षीरोदकशायी विष्णु के अंश शेष अर्थात अनन्त देव हैं। श्रील कविराज गोस्वामी ने नित्यानन्द तत्व के निरुपण में श्रील बलदेव तत्व का इसी प्रकार निरुपण किया है। श्री बलदेव अभिन्न नित्यानन्द तत्व हैं ।

संकर्षण कारणतोयशायी गर्भोदशायी च पयोऽब्धिशायी ।
शेषश्च यस्यांशकलाः स नित्यानन्दाख्यरामः शरणं ममास्तु ॥

श्री भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने श्री गोविन्द तत्व का निरुपण करते हुए श्री बलदेव को गोविन्द के ही वैभव रूप से निर्देश किया है । “गा विन्दति इति गोविन्दः” ‘गा’ का अर्थ विद्या, इन्द्रिय, पृथ्वी, गाय इत्यादि होता है। गोविन्द पांच रूप से प्रकाशित होते हैं:-

स्वरूप या स्वयंरूप
परस्वरूप
वैभव रूप
अन्तर्यामी रूप
अर्चा रूप
स्वरूप या स्वयंरूप व्रजेन्द्रनन्दन गोविन्द ही सर्व कारणों के कारण हैं ।

ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिगोविन्दः सर्वकारण कारणम् ॥
(ब्रह्म संहिता 5 / 1)

परस्वरूप या परतत्वस्वरूप कहने से वैकुण्ठ – परव्योमनाथ श्री विष्णु नारायण को समझा जाता है ।

वैभव प्रकाश मूलनारायण बलदेव प्रभु, गोविन्द की ही प्रकाश मूर्ति हैं। वे सभी विषयों के मूल कारण हैं। Individuality के Propagating Prime Cause भी अर्थात Personal Godhead के All Pervading Function – holder भी बलदेव हैं – वे स्वयं प्रकाश हैं । उनका वर्ण श्री कृष्ण से पृथक् श्वेत वर्ण है। वे श्री कृष्ण की वंशी की अपेक्षा अधिक शब्द करने वाला सिंगा धारण करते हैं। इसलिए वे शिंगधृक हैं। ‘प्रकाश’ का अर्थ तदवस्तुपरता एवं ‘विलास’ का अर्थ है उस विषय में अभिज्ञता । ‘प्रभुता’ का अर्थ है निग्रहानुग्रह में सामर्थ्य; ‘विभुता का अर्थ सर्वालिंगन योग्यता |

श्री बलदेव उनके समान ही गुणविष्ट हैं (Fountain head or Prime source of All embracing, All pervading, All extending energy). ये सब परिभाषायें परिमित राज्य की भाषा द्वारा आच्छन्न होने से उनका वास्तविक अर्थ कभी भी सम्यक रूप से समझा नहीं जायेगा। विभु और प्रभु परस्पर एक दूसरे पर आश्रित हैं। वैभव प्रकाश रूप से जो प्रकाशमान हैं, वे ही विभु हैं और जिनसे वे प्रकाशमान हैं वे ही प्रभु हैं। विभु और प्रभु में भी अचिन्त्य भेदाभेद सम्बन्ध हैं। प्रभु वसुदेव हैं और विभु संकर्षण हैं। विभु और प्रभु का एक दिक् – तृतीय दर्शन प्रद्युम्न हैं। दूसरा दिक्-चतुर्थ दर्शन अनिरुद्ध रूप से है। ये ही द्वारका में समस्त चतुर्व्यूहों के अंशी स्वरूप आदि चतुर्व्यूह हैं । परव्योम या वैकुण्ठ में इनका ही द्वितीय प्रकाश – द्वितीय चतुर्व्यूह है। ये भी आदि चतुर्व्यूह के प्रकाश की तरह तुरीय और विशुद्ध हैं। कृष्ण की विलास मूर्ति बलदेव मूल संकर्षण हैं। परव्योम में इन्हीं बलराम के ही स्वरूपांश महासंकर्षण है। उन्हीं से ही कारणार्णवशायी महाविष्णु रूपी प्रथम पुरुषावतार हैं। वे ही राम-नृसिंहादि अवतारों के व गोलोक-वैकुण्ठ के कारण हैं तथा वे ही विश्व के कारण हैं। विष्णु के उपरोक्त पांचों स्वरूप ही समान धर्मा हैं। मूल दीपक से प्रज्ज्वलित जिस प्रकार प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचमादि कोई भी एक दीपक समस्त वस्तुओं के दग्ध करने में समर्थ होता है उसी प्रकार द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम विष्णु विग्रह का अर्थात् किसी एक स्वरूप के साथ अन्य विष्णु विग्रह का तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। केवल लीलागत वैचित्री (श्रील प्रभुपाद की वक्तृतावली द्वितीय खण्ड) है।

श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्री चैतन्य चरितामृत के 20वें परिच्छेद में अवतारी श्रीकृष्ण के अवतारों का दिग्दर्शन करते हुए लिखा है। श्री कृष्ण के विविध रूप हैं:-

स्वयं रूप
तदेकात्म रूप
आवेश रूप
पुः स्वयं रूप के दो प्रकार हैं:-
प्राभव
वैभव
सेई वपुः सेई आकृति पृथक यदि भासे ।
भावावेश भेदे नाम वैभव प्रकाशे ॥
वैभव प्रकाश कृष्णेर श्री बलराम।
वर्णमात्र भेद सब – कृष्णेर समान ॥

श्री चैतन्य चरितामृत की आदि लीला के पंचम परिच्छेद में नित्यानन्द तत्व इस प्रकार से निरुपित हुआ है:-

सर्व – अवतारी कृष्ण स्वयं भगवान।
ताँहार द्वितीय देह श्री बलराम ॥
एकइ स्वरूप दोहे, भिन्नमात्र काय।
आद्य कायव्यूह, कृष्ण लीलार सहाय ॥
सेई कृष्ण नवद्वीपे श्री चैतन्यचन्द्र ।
सेई बलराम – संगे नित्यानन्द ॥
श्री बलराम गोसाञि मूल-संकर्षण।
पंचरूप धरि’ करेन कृष्णेर सेवन ॥
आपने करेन कृष्णलीलार सहाय।
सृष्टि लीलाकार्य करे धरि’ चारिकाय ॥
सृष्टियादिक सेवा, ताँर आज्ञार पालन ।
‘शेषे’ रूपे करे कृष्णेर विविध सेवन ॥
सर्वरूपे आस्वादये कृष्ण – सेवानन्द ।
सेई बलराम – गौरसंगे नित्यानन्द ॥
(चै.च.आ. 5 / 8 – 11)

सन्धिनी शक्तिमद् विग्रह श्री बलराम महासंकर्षण, कारणोदशायी, गर्भोदशायी, क्षीरोदशायी और पांचवें शेष – इन पांच रूपों से कृष्ण की सेवा करते रहते हैं । श्री भक्ति विनोद ठाकुर ने श्री चैतन्य चरितामृत के अमृत प्रवाह भाष्य में इस प्रकार लिखा है –

आदि कायव्यूह श्री बलराम को मूल संकर्षण कहा जा सकता है, क्योंकि वे ही अपने द्वितीय स्वरूपगत अंश रूप से महासंकर्षण एवं कला स्वरूप से कारणोब्धिशायी, गर्भोदशायी, पयोब्धिशायी और शेष – इन पांच रूपों को धारण करके कृष्ण की सेवा करते हैं। वे स्वयं, कृष्ण लीला में सहायक रहते हैं, जबकि महासंकर्षण कारणोब्धिशायी, गर्भोदशायी और पयोब्धिशायी – इन चार रूपों से सृष्टि लीला का कार्य करते हैं। शेष संज्ञा वाले अनन्त रूप से वे कृष्ण की विविध सेवा करते हैं। बलराम इस प्रकार तमाम रूपों से कृष्ण के सेवानन्द का आस्वादन करते हैं ।

सेई त’ ‘अनन्त’ शेष-भक्त अवतार ।
ईश्वरेर सेवा बिना नाहि जाने आर ॥
सहस्त्रवदने करे कृष्ण गुणगान ।
निरवधि गुणगान, अन्त नाहि पान ॥
सनकादि भागवत शुने याँर मुखे ।
भगवानेर गुण कहे, भासे प्रेमसुखे ॥
छत्र, पादुका, शय्या, उपाधान, वसन।
आराम, आवास, यज्ञसूत्र, सिंहासन ॥
एत मूर्ति – भेद करि’ कृष्ण सेवा करे।
कृष्णेर शेषता पाश्या ‘शेष’ नाम धरे ॥
(चै.च.आ. 5 / 120-124)

श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने उपरोक्त पयारों के अनुभाष्य में बलदेव विद्याभूषण द्वारा लिखित लघुभगवतामृत की टीका का उल्लेख करते हुए लिखा है –

शार्ङ्गधनुर्धारी विष्णु की शैय्या रूप आधार शक्ति शेष, ईश्वर कोटी के हैं तथा भूधारी शेष शक्त्याविष्ट जीव कोटी के अन्तर्गत हैं। जो द्वितीय चतुर्व्यूह के संकर्षण हैं वे भूधारी शेष के साथ मिल कर राम रूप से अवतीर्ण हुए थे । भूधारी व भगवान की शैय्या रूप के भेद से शेष के दो प्रकार हैं –

भूधारी ‘शेष’ जो हैं वे श्री कृष्ण के आवेशावतार हैं, इसलिये उन्हें संकर्षण कहा जाता है तथा जो शेष शैय्या रूप में हैं वे अपने को शार्ङ्गधर का दास व सखा समझते हैं। श्री कृष्ण ही श्री बलदेव के रूप से अपनी सेवा अपने आप करते रहते हैं। इसलिये बलदेव मूल गुरु तत्व हैं। बलदेव की कृपा होने से ही श्री कृष्ण सेवा की प्राप्ति होती है। गुरुदेव साक्षात् बलदेवाभिन्न स्वरूप व नित्यानन्दाभिन्न स्वरूप होते हैं। बलदेव का गुरु से पार्थक्य सिर्फ यही है कि श्री बलदेव विष्णु तत्व – शक्तिमान तत्व हैं जबकि गुरुदेव शक्ति तत्व हैं। बलदेव के चरणों में तुलसी अर्पित होती है किन्तु गुरुदेव चूंकि शक्ति तत्व हैं अतः उनके चरणों में तुलसी अर्पित नहीं होती।

श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने ‘वक्तृतावली’ के तृतीय खण्ड में श्री बलदेव के प्रसंग में इस प्रकार के विचार प्रकट किये है –

श्रुति कहती है (मुण्डक 3 / 2 / 4 ) नायमात्मा बलहीनेनलभ्यः। श्री गुरु के पादपद्मों का आश्रय लिये बिना मंगल नहीं होगा। श्री बलदेव प्रभु कार्य, मन, वाक्य से कृष्ण की सेवा करते हैं । उनका अनुग्रह होने से ही हमारा मंगल होगा। जब हम अपने गुरुदेव के साथ तर्क करते हैं, जब हम अपने दुनियावी ज्ञान से गुरुदेव का शोधन या उन्हें दुरुस्त करेंगे अथवा केवल उनका कृत्रिम अनुकरण करेंगे, उनका अनुसरण नहीं करेंगे तो हमारा श्रौतपथ के बदले अश्रौत पथ अर्थात् तर्क पथ का आह्वान करना ही हो जाता है। इन सब प्रकार की दुर्बुद्धि को छोड़कर जब हम उनके चरणों में आत्मसमर्पण करेंगे तब ही श्रौत पथ के अनुसरण से हमें मंगल की प्राप्ति होगी।

श्रीमद्भागवत के 10वें स्कन्ध में श्री बलदेव की आविर्भाव लीला का वर्णन हुआ है ।

दैत्यों के भार से पीड़ित होकर पृथ्वी देवी ब्रह्मा के शरणापन्न हुई । पृथ्वी के शरणापन्न होने पर ब्रह्मा ने देवताओं के साथ क्षीर समुद्र के तट पर जाकर विष्णु की आराधना की तथा समाधिस्थ अवस्था में शीघ्र ही उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी जिसमें उन्होंने सुना कि भूभार हरण के लिये विष्णु शीघ्र ही अवतीर्ण होंगे ।

आकाशवाणी की बात उन्होंने देवताओं को बताई तथा उन्हें (देवताओं को) अपनी पत्नियों के साथ भगवान की सेवा के लिये यदुवंश में और पांडव कुल में जन्म ग्रहण करने का आदेश दिया ।

वसुदेव के साथ देवकी का विवाह होने पर कंस अपनी बहन की प्रीति के लिए स्वयं रथ चला रहा था उसी समय दैववाणी हुई कि देवकी की अष्टम गर्भजात संतान कंस का निधन करेगी। उक्त दैववाणी सुनने मात्र से ही कंस देवकी को मारने के लिये उद्यत हो उठा। अनेक प्रकार से समझाने पर भी जब वसुदेव उसे इस घृणित कार्य से न रोक पाये तो तब उन्होंने कंस के आगे यह प्रतिज्ञा की कि जब भी उसकी संतान होगी तब वे उसे उसके हाथ में समर्पण कर देंगे । साधु स्वभाव वाले वसुदेव अपने वाक्य की अवश्य रक्षा करेंगे – इस प्रकार का दृढ़ विश्वास होने के कारण, कंस अपनी बहन का वध करने से निवृत्त हुआ ।

यथाकाल देवकी के प्रथम पुत्र के जन्म ग्रहण करने पर वसुदेव अपने वाक्य की रक्षा के लिये पुत्र को लेकर कंस के पास चल दिये। अपने वचनानुसार उन्होंने अपनी प्रथम संतान को कंस के हाथों समर्पित कर दिया । उस समय तो कंस ने वसुदेव के प्रथम पुत्र को उन्हें वापस दे दिया परन्तु जब उसने नारद से ब्रजवासी और यादवों के स्वरूप तथा अपने पुनर्जन्म का वृतान्त सुना तथा अष्टम गर्भ की गणना पहले से होगी या अंत से – इस प्रकार संदेहजनक वाक्य सुने तो वह विचारमग्न हो गया और उसने वसुदेव व देवकी को कारागार में जंजीरों से बांध दिया। कंस ने क्रमशः देवकी के 6 पुत्रों को मार डाला तथा पिता उग्रसेन को जेल में बंद कर यादवों के साथ विरोध करने लगा । यादव लोग जरासंध, अघासुर व बकासुर इत्यादि असुरों के द्वारा अत्याचारित होकर विभिन्न राज्यों में पलायन कर गये ।

श्री बलदेव द्वारा देवकी के सप्तम गर्भ में आविर्भूत होने पर भगवान के निर्देशानुसार योगमाया ने बिना किसी को पता लगे देवकी के सप्तम गर्भ को आकर्षण करके गोकुल में वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थपन किया। योगमाया के द्वारा देवकी के गर्भ से आकर्षित होकर रोहिणी के गर्भ में स्थापित हुए, इसलिये इस भूतल पर ये रोहिणी – नन्दन व संकर्षण के नामों से परिचित हुए। गोकुलवासी लोगों को आनन्द देने के कारण वे राम एवं बल अधिक होने के कारण बलभद्र नाम से प्रसिद्ध हुए।

देवकी का गर्भ नष्ट हो गया है – ऐसा समझ कर मथुरा के पुरवासियों ने विलाप किया । सन्धिनी शक्तिमद विग्रह बलदेव प्रभु के आविर्भाव के बाद रोहिणी नक्षत्र संयुक्त भाद्र कृष्णाष्टमी तिथि को कृष्ण आविर्भूत हुये, बलदेव की आविर्भाव तिथि भाद्र मास की पूर्णिमा है। श्री कृष्ण की सम्यक सेवा करने के लिये ही वे ज्येष्ठ भ्राता के रूप में प्रकट हुये थे। रामलीला में वे कनिष्ठ भ्राता (लक्ष्मण) के रूप में आविर्भूत हुये थे, जिससे वह श्री रामचन्द्र की सेवा सम्यक रूप से नहीं कर सके । इसलिये वे कृष्ण लीला में ज्येष्ठ भ्राता के रूप में आए । नन्द महाराज और यशोदा देवी ने भी बाल गोपाल की देखभल का भार बलराम के ऊपर ही सौंप रखा था। बलराम सखाओं के साथ श्री कृष्ण के वन भ्रमणादि के समय हमेशा उनकी सेवा में नियोजित रहते थे। अघासुर के वध के बाद श्री कृष्ण जब सरोवर के तट पर गोपाल बालकों के साथ पुलिन भोजन करने के लिये गए उतब ब्रह्मा उनके बछड़ों और गोप बालकों का हरण करके सुमेरु पहाड़ की गुफा में रख दिया था ।

श्री कृष्ण तत्काल गोवत्स और गोप बालकों का रूप धारण करके घर वापस आ गये। उनके इस प्रकार आने से गोप-गोपियां एवं गाएं कोई नहीं समझ सका कि उनकी संतानें अपहृत हुई हैं। परन्तु गोप-गोपियों द्वारा अपनी संतानों को स्पर्श करने से ही उन्हें अद्भुत प्रेम विकार प्रकट हो आता। गाएं अपने पहले बछड़ों के स्पर्श से प्रेमाप्लुत हो अश्रु बहाने लगतीं। यद्यपि इसका कारण ब्रजवासी न समझ पाये, परन्तु बलदेव प्रभु समझ गये कि कृष्ण के गोप बालक व गोवत्स रूप से आने के कारण ही व्रजवासियों का इस प्रकार से प्रेम विकार होता है। कालिया दमन की लीला के समय भी गोप-गोपियों के कृष्ण – विरह में कातर होकर कालिया के विष से दूषित जल में प्रविष्ट होने के लिये जाने पर, श्री कृष्ण की महिमा को जानने वाले बलदेव प्रभु ने ही उनको इस कार्य से अर्थात कालिया हृद में डूबने से रोका था ।

श्री बलदेव प्रभु ने ताल वन में धेनुकासुर वध लीला और भाण्डीर वन में प्रलम्बासुर वध की लीला की थी । बलराम और श्री कृष्ण के पौगण्डा – अवस्था को प्राप्त होने पर नन्द महाराज आदि गोपों ने उन्हें गायों के पालन के लिये नियोजित किया था । एक दिन बलराम व श्री कृष्ण सखाओं के साथ विभिन्न वनों में भ्रमण करते-करते ताल वन में पहुंचे । गधे का रूप धारण करने वाला गर्दभ रूपधारी महाबली धेनुकासुर और उसका बलशाली जाति वर्ग वहां रहकर तालों की रक्षा करते थे जिससे कोई भी प्राणी उन ताल फलों को नहीं खा सकता था। बहुत से ताल – वृक्ष फलों से परिपूर्ण थे । पके हुए ताल फलों की गंध से ताल वन एव उसके निकटवर्ती स्थान सुगंधित हो रहे थे, जिस कारण से सखाओं ने उन फलों को पाने के लिए कृष्ण, बलराम से प्रार्थना की ।

सखाओं की अभिलाषा पूरी करने के लिये बलराम और कृष्ण ने उन सभी को साथ लेकर हंसते-हंसते ताल वन में प्रवेश किया। कृष्ण के प्रति प्रेम होने के कारण बलदेव ने सबसे पहले वन में प्रवेश करके मस्त हाथी के समान ताल वृक्षों को हिलाया। हिलने से ताल फल दुम – दाम शब्दों के साथ नीचे गिरने लगे। ताल फलों के गिरने के शब्द से क्रुद्ध होकर गर्दभासुर ने तत्क्षण वहां आकर अपने पिछले दोनों पैरों से बलराम की छाती पर बहुत जोर से आघात किया और भयंकर शब्द करता हुआ चारों तरफ कूदने लगा। गर्दभासुर के द्वारा फिर दुलत्ती मारने के लिये आने पर, बलदेव ने उसके उन्हीं दोनों पैरों को पकड़ कर, इस प्रकार प्रबल वेग से घुमाया कि उस घुमाने से ही असुर के प्राण पखेरू उड़ गये । बलदेव ने उस विराट देह वाले असुर को ताल वृक्षों के ऊपर फेंक दिया। जिससे वे ताल के वृक्ष टूट-टूट कर एक दूसरे से चोट खा – खाकर जमीन पर गिरने लगे। जब धेनुकासुर का जाति वर्ग क्रोधित होकर वहां आया तो उनका भी वही हाल हुआ। कालिया दमन लीला के बाद ही ताल वन में धेनुकासुर वध लीला हुई ।

श्री भक्ति विनोद ठाकुर ने धेनुकासुर वध लीला के तात्पर्य के संबंध में लिखा है – जिन सब असुरों को श्री बलदेव नाश करते हैं उन्हीं अनर्थों को साधक अपनी चेष्टा से दूर करेंगे। यही व्रज – भजन का रहस्य है। भारवाहित्व रूप कुसंस्कार ही धेनुकासुर हैं। स्व-स्वरूप, नाम – स्वरूप और उपास्य-स्वरूप संबंध में अज्ञान और अविद्या ही धेनुकासुर है ।

श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के अठारहवें अध्याय में प्रलम्बासुर वध लीला इस प्रकार वर्णित हुई कि श्री कृष्ण-बलराम की विहार स्थली व्रजधाम ने ग्रीष्मकाल में भी बसंत ऋतु के समान मनोरम रूप धारण किया था।

एक दिन जब कृष्ण – बलराम सखाओं के साथ खेल-कूद व नृत्य – गीत में प्रमत्त थे कि तभी प्रलम्बासुर गोप वेश धारण करके सखाओं के बीच में घुस गया । सखा लोग इसे न समझ सके, परन्तु सर्वज्ञ कृष्ण समझ गये कि नया आया गोप कपटी गोप है। अतः उसका वध करने के लिये उन्होंने उसे अपने सखा रूप से ग्रहण किया । खेलने के लिये सभी गोप बालक दो भागों में विभक्त हुए। एक दल के नायक हुये श्री कृष्ण और दूसरे दल के नायक हुये श्री बलराम । खेल की शर्त हुई कि जो जिससे परास्त होगा वो उसे कंधे पर बिठा कर ले जायेगा। खेल आरम्भ होने के साथ-साथ बलराम पक्ष के श्रीदाम और वृषभ विजयी हुये। तब श्री कृष्ण ने श्रोदाम और भद्रसेन ने वृषभ को उठा लिया। उधर प्रलम्बासुर बलराम से परास्त होकर श्री कृष्ण की नजरों से बच कर बलराम को कन्धे पर बैठा कर भाग गया।

उवाह कृष्णो भगवान् श्री दामानं पराजितः ।
वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणुसुतम् ॥
(भा. 10 / 18 / 24)

बलराम उस असुर के दुष्ट अभिप्रायः को समझ गये और उन्होंने उस असुर के कन्धे पर इतना भार दिया कि बलराम को वहन करना उसकी शक्ति से बाहर हो गया। तब कपट वेशधारी असुर ने अपना वास्तविक रूप धारण किया । असुर का भयंकर रूप देखकर पहले तो हलधर बलदेव ने थोड़ा शंका का भाव प्रकाश किया, परन्तु फिर दैत्यों के वध के लिये इन्द्र ने जैसे वज्र के वेग से पहाड़ों पर प्रहार किया था, उसी प्रकार उन्होंने भी उसके सिर एक घूंसा जड़ दिया। उसी घूंसे के आघात से प्रलम्बासुर का मस्तक विदीर्ण हो गया व उसे खून को उल्टियां आने लगी। खून की उल्टी करते-करते उसने प्राण त्याग दिये । बलदेव के इस आलौकिक कार्य को देख कर सभी गोप व देवता लोग उनकी बढ़-चढ़ कर प्रशंसा करने लगे।

श्री भक्ति विनोद ठाकुर ने प्रलम्बासुर के वध का तात्पर्य इस प्रकार लिखा है । स्त्री लाम्पट्य, लाभ -पूजा व प्रतिष्ठा का प्रतीक है – प्रलम्बासुर ।

सभी विष्णु – तत्त्व, त्रिशक्ति – श्री – भू – लीला (लीला या दुर्गा शक्ति स्वरूप धाम) युक्त होते हैं। इन तीनों शक्तियों के प्रकाश के बिना विष्णु की सम्पूर्णता नहीं होती । श्री गौर नारायण की तीन शक्तियां हैं – श्री शक्ति स्वरूपा श्री लक्ष्मी प्रिया, भू शक्ति स्वरूपिणी श्री विष्णु प्रिया एवं लीला या नीला शक्ति स्वरूप श्री नवद्वीप धाम | श्री बलदेव भी तीन शक्तियों से समन्वित हैं, वे हैं- रेवती, वारुणी व नीला या लीला।

तोमार कृपाय सृष्टि करे अज देवे।
तोमारे से रेवती वारुणी कान्ति सेवे ॥
(पठान्तर में रेवती वारुणी सदा सेवे) ‘
(चै.भा.म. 15 / 38)

श्री चैतन्य भागवत् में श्री बलदेव की शक्तियों का रेवती, वारुणी और कान्ति के रूप में उल्लेख हुआ है ।

श्रीमद्भागवत के नवम् स्कंध के तृतीय अध्याय के वर्णन से इस प्रकार जाना जाता है कि मनु पुत्र शर्याति के उत्तनवर्हिः, आनर्त्त और भूरीसेन नाम के तीन पुत्र थे | आनर्त्त पुत्र रेवत के सौ पुत्रों में से ‘कुकुद्मी’ ज्येष्ठ पुत्र थे। ब्रह्मा के उपदेश से इन्होंने अपनी कन्या रेवती का विष्णु तत्त्व मूल महाबली श्री बलदेव को समर्पण किया। कन्या को समर्पण करने के बाद कुकुद्मी तपस्या के लिए बद्रिकाश्रम चले गये ।

श्री वसु जाह्नवा श्री नित्यानन्देर प्रेयसी।
श्री वारुणी रेवती सकल गुण राशी ॥
भक्ति रत्नाकर (12 / 3999)

श्री वारुणी रेवत्योवंशेभ्सम्भवे,
तस्य प्रिये द्वे वसुधा च जाहन्वा।
श्री सूर्यदासाथ्य – महात्मनः सूते,
ककुद्मिरूपस्य च सूर्यतेजसः ॥
(गौरगणोद् देश दीपिका)

श्री नित्यानन्द प्रभु की दो पत्नियां – श्री वारुणी और श्री रेवती के अंश से उत्पन्न हुई, वे दोनों ही सूर्य के समान तेजस्वी थीं। ये दोनों ही कुकुद्मी के अवतार महात्मा श्री सूर्यदास की कन्याएं हैं । श्री बलदेव प्रभु विष्णु तत्व होने पर भी स्वयं भगवान श्री कृष्ण के ज्येष्ठ सेवक के रूप में सेवा करते हैं। वे स्वयं को तो श्री कृष्ण की सेवा में नियोजित करते ही हैं अपितु दूसरों को भी सेवा में नियोजित करके मूल गुरुतत्व की लीला का प्रदर्शन करते हैं । इतना होने पर भी उन्होंने इस जगत में अपनी प्रकट लीला के समय गुरु पदाश्रय की अत्यावश्यकता की शिक्षा देने के लिये स्वयं गुरु पदाश्रय की लीला की थी। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के 45वें अध्याय में यह वर्णित हुआ है –

प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ ।
नान्यसिद्धामलं ज्ञानं गूहमानौ नरेहितै: ॥
अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतु: ।
काश्यं सान्दीपनिं नाम ह्यवन्तिपुरवासिनम् ॥
सम्मन्य पत्व्या स महार्णदे मृतं बलं प्रभासे बरयाम्बभूव ह ॥
(10/45/30-31)

तमाम विधाओं की खान स्वरूप सर्वज्ञ जगदीश्वर राम – कृष्ण मनुष्योचित आचरण में अपने स्वतः सिद्ध विमल ज्ञान को गुप्त रख कर गुरुकुल में वास करने के लिये अवन्तीपुर काशी के सांदीपिनी नामक मुनि के पास गये ।

सांदीपिनी मुनि ने कृष्ण-बलराम की सेवा से सेतुष्ट होकर उन्हें निखिल वेद और राजनीति एवं 64 दिन में 64 कलाओं की विद्या प्रदान की।

कृष्ण – बलराम द्वारा गुरु को दक्षिणा देने की इच्छा प्रकट करने पर मुनि ने प्रभास तीर्थ के महासमुद्र में डूबे हुए अपने मृत पुत्र को पाने की इच्छा प्रकट की। गुरुदेव की इच्छा पूरी करने के लिये श्री कृष्ण व बलराम ने प्रभास तीर्थ में आकर महासुर पंचजन्य द्वारा समुद्र के जल में बालक के हरण का संवाद सुना तो श्री कृष्ण ने जल में प्रवेश किया तथा वहीं पर उक्त असुर का वध कर दिया, परन्तु विनाश करने पर भी उसके उदर में गुरु पुत्र न मिला। असुर के अंग से उत्पन्न शंखभ्ज्ञी कृष्ण ने ले लिया । उक्त शंख ही पांचजन्य शंख के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसके पश्चात् श्री कृष्ण व बलराम दोनों यमलोक में पहुंचे। यमलोक में जाकर जब उन्होंने पांचजन्य शंख की ध्वनि की तो उस ध्वनि को सुनकर यमराज और उनके पुत्र उनके पास आये और उन्होंने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् श्री कृष्ण व बलराम यमराज से गुरु पुत्र को लेकर आ गये व उन्होंने दक्षिणा स्वरूप उस बालक को अपने गुरु को प्रदान किया। सांदीपिनी मुनि ने बलराम व श्री कृष्ण जैसे शिष्यों को प्राप्त करके उल्लास के साथ उन्हें घर जाने की आज्ञा प्रदान की ।

सम्यक् सम्पादितो वत्स भवद्भ‍य‍ां गुरुनिष्क्रय: ।
को नु युष्मद्विधगुरो: कामानामवशिष्यते ॥
(श्रीमद्भगवत 10 / 45 / 47)

हे वत्स! तुम दोनों ने उचित गुरु दक्षिणा दी है, जो तुम्हारे समान पुरुषों का गुरु हो, उसकी क्या कोई इच्छा अधूरी रह सकती है?

श्री बलराम भीम और दुर्योधन के गदा युद्ध की शिक्षा के गुरु थे। विदर्भ राज भीष्मक की कन्या रुक्मणी की अभिलाषा पूरी करने के लिये अद्भुत कर्मा श्री कृष्ण के द्वारा राजाओं के सामने रुक्मणी को हरण करने पर जरासन्ध द्वारा युद्ध करने और कृष्ण से हार जाने पर कृष्ण – विद्वेषी रुक्मणी भ्राता को यह सब सहन नहीं हुआ। उसने दोबारा श्री कृष्ण पर आक्रमण कर दिया। श्री कृष्ण रुक्मी के समस्त अस्त्रों का छेदन कर जब उसको मारने लगे तो रुक्मणी की प्रार्थना पर उन्होंने उसको विरूप करके छोड़ दिया । उस समय बलदेव ने ही वहां आकर रुक्मणी को अज्ञान जनित शोक न करने के लिये उपदेश दिया था।

श्री कृष्ण के प्रति वैर भावयुक्त रुक्मी ने शत्रु के साथ वैवाहिक सम्बन्ध में धर्म विरुद्ध समझ कर भी बहन से अतिशय स्नेह होने के कारण रुक्मणी की खुशी के लिये उसके पोते अनिरुद्ध के साथ अपनी पोती रोचना का विवाह किया ।

अनिरुद्ध के विवाह के समय भोजकट नगर में रुक्मणी, बलदेव, श्री कृष्ण तथा साम्ब व प्रद्युम्न इत्यादि सभी उपस्थित थे। विवाह महोत्सव की समाप्ति पर कालिंग आदि राजाओं के परामर्श से रुक्मी बलदेव के साथ अक्ष- क्रीड़ा करने लगे। अक्ष-क्रीड़ा में पहली बार बलदेव के रुक्मी से हार जाने पर कालिंग दांत बाहर निकाल कर हंसे। बाद में बलदेव के बार-बार जीतने पर भी रुक्मी कहने लगा कि आप तो धोखा देकर व झूठ बोल कर जीत रहे हैं। इसके बलावा बह बार-बार कटाक्ष करने लगा कि बलदेव तो गायों की देख-रेख में ही सुनिपुण हैं। कुछ देर तो बलदेव खामोश रहे परन्तु बार-बार कटाक्ष करने पर बलदेव ने रुक्मी के दम्भ को नाश करने के लिये एक डण्डा जड़ दिया जिससे वह वहीं ढेर हो गया तथा अन्यान्य राजा भी अपने प्राणों के भय से वहां से भाग गये।

श्री बलदेव प्रभु के अंश कारणोदशायी महाविष्णु के जरा से ईक्षण कण से तमाम जीवों की उत्पत्ति होने के कारण बलदेव का जीवों के साथ साक्षात् संबंध है। उनकी जीवों के प्रति स्वाभाविक प्रीति होने के कारण वे जिस प्रकार जीवों को स्नेह करते हैं; उसी प्रकार उनके मंगल के लिए शासन भी करते हैं। इसलिये वे हल – मूषल आदि आयुधों को धरण करते हैं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के 65वें अध्याय में श्री बलराम के गोकुल आगमन व गोपियों को श्री कृष्ण की कथा कहने का वर्णन है। जब वे गोकुल आये, गोकुल आकर उन्होंने कुशल संवाद दिया, उन्हें सांत्वना प्रदान की तथा गोपियों के साथ यमुना पुलिन कुंज में विहार किया जिसका मुनियों ने दर्शन किया। मुनि लोग उनके सौन्दर्य का दर्शन कर मोहित हो गये। मोहित होकर उन्होंने बलदेव की महिमा की तथा गान करते – 2 आकाश में दुन्दुभियां बजाई व आकाश से पुष्प वर्षा भी की। उसी समय की बात है कि एक दिन बलदेव ने वरुण देव द्वारा प्रेरित दिव्य वारुणी का पान किया व उसे पान कर मदोन्मत्त अवस्था में वन में विचरण करने लगे। वन विचरण के समय उन्होंने जल – क्रीड़ा के लिये यमुना का आह्वान किया किन्तु यमुना बलदेव को मदोन्मत्त देखकर नहीं आयी। उसके न आने के कारण बलदेव यमुना को सजा देने के लिये हल के अग्रभाग के द्वारा आकर्षण करके उसे सौ भागों में विभक्त करने लगे ही थे कि इस पर यमुना अत्यन्त भयभीत और कंपित होकर बलदेव के चरणों में गिर कर पुनः पुनः क्षमा प्रार्थना और स्तव करने लगी। इससे बलदेव ने उसको क्षमा कर दिया । बाद में उन्होंने गोपियों के सुख के लिये उनके साथ यमुना के जल में अवगाहन स्नान और क्रीड़ा की। जल क्रीड़ा के अंत में बलदेव के जल से बाहर आने पर लक्ष्मी मूर्ति विशिष्टा कांति देवी ने बलदेव को नीले वस्त्रों का जोड़ा, बहुमूल्य आभूषण तथा एक मनोरम माला प्रदान की। बलदेव उक्त नीले वस्त्र के जोड़े तथा सुवर्ण माला धारण कर सुन्दर रूप से शोभित होने लगे ।

हल के आघात की निशानी लिये यमुना अभी भी बलदेव के विक्रम को प्रदर्शित कर रही हैं ।

कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासीताम्बरे ।
भूषणानि महार्हाणि ददौ कान्ति: शुभां स्रजम्॥
(श्रीमदभागवत 10 / 65/31)

श्रील जयदेव गोस्वामी प्रभु ने स्वरचित दशावतार स्तोत्र में हलधर रूपी जगदीश का स्तव इस प्रकार से किया है: –

वहसि वपुसि विशदे वसनं जलदाभं
हलहति भीति मिलित यमुनाभम् ।
केशव घृत – हलधर रूप जय जगदीश हरे ॥

हे केशव! आपने हलधर मूर्ति धारण करके, हलाघात के भय से भयभीत हुई यमुना के जल के समान नीले वस्त्र पहने थे। हे जगदीश, हलधर रूपी हरे – आपकी जय हो ।

श्रीमदभागवत के दशम स्कन्ध में 68वें अध्याय में बलदेव की हस्तिनापुर की लीला वर्णित हुई है। श्री कृष्ण की महिषि जाम्बवती के पुत्र साम्ब ने दुर्योधन की कन्या लक्ष्मणा को स्वयंबर सभा से हरण कर लिया था । कौरव साम्ब का बंधन करने के लिये उससे युद्ध करने लगे। युद्ध में साम्ब का अद्भुत वीरत्व रूप देखकर सब उसकी प्रशंसा करने लगे; किन्तु कौरव पक्ष के चारों वीरों ने एकत्रित होकर साम्ब को घेर लिया और अन्याय से उसे युद्ध में परास्त करके हस्तिनापुर ले गये । देवर्षि नारद से कौरवों के इस प्रकार अन्याय के आचरण की बात सुनकर श्री कृष्ण और यादवगण बहुत क्रुद्ध हुये तथा महाराज उग्रसेन की अनुमति लेकर यादवों को साथ ले युद्ध के लिये तैयार हो गये ।

श्री बलदेव की गदा शिक्षा के शिष्य हैं दुर्योधन। श्री कृष्ण के युद्ध में जाने से दुर्योधन के प्राण नष्ट हो सकते हैं इसलिये उन्होंने शिष्य वात्सल्यवशतः श्री कृष्ण और यादवों को समझा कर शांत किया और स्वयं ब्राह्मण एवं कुल वृद्धों को साथ लेकर हस्तिनापुर की ओर चल दिये। चलते – चलते बलदेव सोच रहे थे कि मेरे समझाने पर मेरा शिष्य दुर्योधन मेरी बात मान लेगा और साम्ब को लक्ष्मणा के साथ छोड़ देगा। हस्तिनापुर नगर के प्रांत में रुक कर धृतराष्ट्र का अभिप्राय क्या है, जानने के लिए उन्होंने पहले उद्धव को भेजा। उद्धव से बलदेव के आगमन की बात सुनकर दुर्योधन आदि कौरव उल्लासित होकर मांगलिक द्रव्यों के साथ बलदेव के पास आये और आकर उनकी पूजा की। परस्पर कुशल जिज्ञासा के पश्चात बलदेव ने कहा – तुमने अन्याय युद्ध करके साम्ब को बन्दी बनाया है। आपके साथ यादवों का जैसे विरोध न हो इसलिये महाराज उग्रसेन के हुक्म से मैं तुमको बतला रहा हूं कि तुम साम्ब को हमें दे दो। बलदेव के इस प्रकार वाक्य सुनकर कौरव अपमानित और क्रुद्ध होकर बोले – अहो, यादव अब कौरवों को आदेश कर रहे हैं । काल की क्या कुटिल गति है – आज चमड़े की जूती भी मुकुट सेवित सिर पर चढ़ना चाह रही है।

कुन्ती देवी के विवाह संबंध से यादव हमारे रिश्तेदार हैं व इसी नाते उन्हें हमारे साथ सोने, बैठने व भोजन करने का सुयोग प्राप्त है। हमारे अनुग्रह से ही उन्हें राजसिंहासन मिला और वे हमारे समान हो गये । ये सर्वथा सत्य है कि हमारे अनुग्रह से ही वे आज राजमुकुट व राज शैय्यादि उपभोग कर रहे हैं। देखो, किस निर्लज्जता से मालिक की तरह वे हमको आदेश कर रहे हैं। अतः इन यादवों को राज पदवी से उतारना होगा । बलदेव कौरवों के दुर्व्यवहार और दुर्वाक्यों को सुनकर क्रोधित हो गये और हंसते हुए कहने लगे – जो दुष्ट धनादि के गर्व में उन्मत्त हो, वे कभी भी शान्ति नहीं चाहते हैं। हंटर की मार के अतिरिक्त पशु जिस प्रकार समझता नहीं उसी प्रकार दुष्ट लोगों को भी दण्ड प्रदान नहीं करने से उनका बोध उदय नहीं होता।

मैं यादवों को शांत करा के कौरवों के हित की कामना करके यहां आया था किन्तु इन्होंने गर्वित होकर मेरी ही अवज्ञा की । इन्द्रादि लोकपाल जिनकी आज्ञा के अनुवर्ति हैं क्या वे महाराज उग्रसेन कौरवों को आदेश नहीं कर सकते ?

लक्ष्मी देवी जिनकी दासी हैं, इन्द्रादि लोकपाल जिनकी पद रज मस्तक पर धारण करते हैं, ब्रह्मा, शिव व मैं जिनके अंश स्वरूप हैं – वे श्री कृष्ण राजपदवी पाने के योग्य नहीं हैं?

क्या ये सब पादुका के समान हैं और ये कौरव मस्तक के समान हैं?

मैं इन सब दुर्विनीत व्यक्तियों को अभी दण्ड देता हूं – देखते ही देखते श्री बलदेव ने पृथ्वी को कौरव शून्य करने व हस्तिनापुर को गंगा में डुबो देने के उद्देश्य से नगर के दक्षिण की तरफ अपने हल की नोक को गाड़ दिया और हल के सहारे पूरे हस्तिनापुर को खींचने लगे। हल के अग्र भाग से आकृष्ट होकर हस्तिनापुर को गंगा में जाते देख कौरव अत्यन्त भयभीत और दुःखी चित्त से त्राहि बलदेव ! त्राहि बलदेव ! पुकार कर अत्यन्त आर्त्तनाद कर उठे। वे लक्ष्मणा के साथ साम्ब को आगे करके बलदेव के पास आकर शरणागत हुए एवं स्तव करने लगे। प्रभो! आप अनन्त रूप से पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण करते हैं एवं प्रलय के समय खुद निखिल विश्व का संहार करके शेष शय्या पर शयन करते हैं। आप तत्त्व ज्ञान शून्य कौरवों की रक्षा कीजिये । शरणागत रक्षक बलदेव ने साथ-साथ उनको “मा भैः” शब्दों के द्वारा अभय प्रदान किया। बलदेव ने नरकासुर के मित्र महाबली द्विविद वानर का भी मूषल और हल के द्वारा वध किया था ।

यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुषललाङ्गले ।
जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्ध: सोऽपतद् रुधिरं वमन् ॥
(10/67/25)

तब बलदेव ने भी क्रुद्ध होकर दोनों भुजाओं से मूषल और हल धारण कर उनसे उसके कण्ठ और बाहुओं पर आघात किया जिससे वह खून की उल्टी करता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।

नमस्ते तु हलग्राम! नमस्ते मुषलायुष !
नमस्ते रेवतीकान्त ! नमस्ते भक्तवत्सल !।
नमस्ते बलिना श्रेष्ठ ! नमस्ते धरणीधर !
प्रलम्बारे ! नमस्ते तु त्राहि मां कृष्ण पूर्वज ! ॥

श्री बलदेव प्रभु ने लोक शिक्षा के लिये भागवत पाठ के अनाधिकारी रोमहर्षण सूत का वध किया था और फिर मुनियों द्वारा ब्रह्म हत्या के प्रायश्चित की व्यवस्था को भी स्वीकार किया। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के 78वें अध्याय में इस प्रसंग का इस प्रकार से वर्णन हुआ है

पाण्डवों के साथ कौरवों के युद्ध की सम्भावना की बात सुनकर श्री बलदेव प्रभु निर्लिप्त रहने के लिये तीर्थ स्नान के बहाने द्वारका से बाहर हो गये तथा प्रभासादि विभिन्न तीर्थों में स्नान करते हुये नैमिषारण्य में दीर्घ सत्र दीक्षित मुनियों के यज्ञस्थली पर पहुंचे। मुनियों ने खड़े होकर बलदेव की पूजा की । बलदेव आसन पर बैठे और आसन पर बैठ कर उन्होंने व्यासदेव के शिष्य प्रतिलोम जात रोमहर्षण को ऋषियों की अपेक्षा ऊंचे आसन पर व स्वागत में विनयपूर्वक खड़ा होने की क्रियाओं से रहित देखकर बलदेव ने विचार किया कि इसका भागवत पाठ का अधिकार नहीं है। केवल जीविका निर्वाह के लिए भागवत पाठ का अभिनय कर रहा है। ये तो अपने को पंडित होने के वृथाभिमान से गर्वित हो रहा है। ये तो पाप में रत व्यक्तियों से भी ज्यादा पापानुष्ठानकारी है। धर्म रक्षक प्रभु बलदेव ने हाथ में स्थित कुशा के द्वारा रोमहर्षण का विनाश कर दिया। रोमहर्षण सूत की मृत्यु से मुनियों ने दुःखी चित्त से बलदेव को निवेदन किया कि हमने ही रोमहर्षण सूत को ब्रह्मासन और उत्तम आयु प्रदान की थी जिससे वह हमारे यज्ञ की समाप्ति तक जीवित रह सके किन्तु आप हमारे अभिप्राय को न समझ सके, अतः लोकशिक्षा के लिये आपको ब्रह्म हत्या का प्रायश्चित करना उचित है। बलदेव ने जब मुनियों से ब्रह्म हत्या के प्रायश्चित के बारे में पूछना चाहा तो मुनियों ने बलदेव से अनुरोध किया कि आपने जिस रोमहर्षण का वध किया है उसे हमने दीर्घायु का वचन दिया था । आप कृपा करके दोनों घटनाओं की सत्यता की रक्षा कीजिये । बलदेव प्रभु ने “आत्मा ही पुत्र रूप में जन्म लेती है” – वेद के इस अनुशासन के अनुसार रोमहर्षण सूत के पुत्र उग्रश्रवा को पुराण वक्ता एवं आयु व इन्द्रिय पटुता आदि प्रदान की।

यदुवंश के ध्वंस होने के बाद श्री बलदेव ने अन्तर्धान लीला की ।

On 21 Aug 2005

Without the Grace of Baladeva We Cannot Get Krishna

Yesterday we observed the holy advent of Baladeva Prabhu. Baladeva Prabhu is sandhini-shakti-matta-vigraha (the Deity of the sandhinī potency). In his explanation of Sri Govinda-tattva, Srila Bhakti Siddhanta Sarasvata Goswami Prabhupada identifies Sri Baladeva as the Vaibhava-rupa (pastime form) of Lord Govinda. ‘Gāḥ vindati iti govindaḥ’ — the word ‘go’ has several meanings including knowledge, senses, earth, cow and others. Sri Govinda manifests in five forms.

Supreme Lord is Govinda-swarupa, Swayam-rupa. Swarupa is Krishna in Vrindavan, the sweet form.
Para-swarup is Narayan in Vaikuntha.
Vaibhava-swarup—pastime form, with all opulences and power. Baladeva Prabhu is sandhini-shakti-matta-vigraha. He is the Vaibhava-prakash of Govinda. By Him all the things are maintained and all the things have enhanced. He is the absolute function-holder of the personal Godhead Supreme Lord, Sri Krishna.
The antayami (the Indwelling Supersoul), they are three Purush-avatars.
The fifth is Archa-rupa: the Deity form.
This you have to think very deeply. If you do not give much importance to it then you will not get actual benefit. They are not different from Baladeva. Supreme Lord is one, but pastimes are different, in reality, ontologically, they all are the same. In the Vaikuntha (Paravyoma or spiritual sky), Maha-Sankarshan is the Swarupa-amsha—Balaram’s own amsha-avatara. From Him the first manifestation comes in this world for creation, is Karanodakasayi Mahavishnu.

It is written in the shloka by Rupa Goswami,

viṣṇos tu trīṇi rūpāṇi
puruṣākhyāny atho viduḥ
ekaṁ tu mahataḥ sraṣṭṛ
dvitīyaṁ tv aṇḍa-saṁsthitam
tṛtīyaṁ sarva-bhūta-sthaṁ
tāni gyātvā vimucyate
(Laghu-bhagavatamrit Purva 2.9, Chaitanya Charitamrit Adi. 5.77)

Vishnu has three forms called Purushas. The first, Karanodakasayi, is the creator of the total material energy (mahat), the second is Garbhodakasayi, who is situated within each universe, and the third is Kshirodakasayi, who lives in the heart of every living being. He who knows these three becomes liberated from the clutches of Maya.

If you have no knowledge of it then you cannot get emancipation. We cannot get ultimate goal. Everything will be failure. He is the only master and enjoyer. We are not masters and enjoyers. When we become averse, illusory energy envelops us and we think we are also masters and enjoyers; we are also Purush. But Purush is only one, Supreme Lord. He is the only Enjoyer and others are to be enjoyed by Him. First, in the causal ocean there is Karanodakasayi Mahavishnu, he thought, “ekoham bahusyam—I am one, I shall become many.” Sah-ikshnah — He glanced on the inert matter, the mahatattva, and transfused conscious energy in it and infinite Brahmandas and infinite planets emanated. As He is infinite, His everything is infinite, infinite planets, infinite Brahmandas, infinite Vaikunthas, infinite living beings and infinite everything. We cannot comprehend. We are the minutest part of the marginal potency of Supreme Lord Sri Krishna. How can you comprehend? We have got this body for hundred years only and then it will vanish. We are here in this world only for one hundred years and still we have got vanity. Being of finite intellect, finite sense organs, everything is finite, how can you know the infinite? So after creating infinite Brahmandas, the Lord manifested His second Purush-avatar namely Garbhodakasayi Vishnu to whom Brahma submitted his prayer. Brahma appeared before Garbhodakasayi Vishnu. He is the indwelling monitor of the infinite Brahmandas. And the third manifestation is Kshirodakasayi Vishnu. He is indwel monitor of one Brahmanda and indwelling monitor of every living being. He is inside you. Here in this world, everyone want to be the enjoyer and master, we think, “I am the enjoyer and others are to be enjoyed.” Those infinite living beings appearing from tatastha-shakti, majority of them have their contact with Supreme Lord. They have gone to transcendental realm. They are nitya-mukta — eternally emancipated souls. And others, they set their face against Supreme Lord and see this dazzling world. This world is a shadow of Supreme Lord Sri Krishna, it seems to be blissful, seems to be eternally existing, and seems that there is knowledge in it. Thinking so, the jivas desire to enter into it and jump into it to enjoy. The number of such souls is less, yet they are infinite. There are infinite Brahmandas. We cannot comprehend it. So long as, “I am the enjoyer and master” this sort of ego is there no devotion can be done. “I am of Krishna; I am of Vishnu; He is the enjoyer; I am to be enjoyed”, who have this realization they only are eligible for emancipation—tāni gyātvā vimucyate”. We are the part of the potency. My potency remains for me. Potency of Supreme Lord remains for Supreme Lord. We are not the enjoyers.

Baladeva has got affection for all living beings because they are directly coming from Him. By taking five forms—Sankarshan, Karanodakasayi Mahavishnu, Garbhodakasayi Mahavishnu, Kshirodakasayi Mahavishnu and Sesha, He is doing everything. Bhagavan—‘Bhaga’ means opulences and ‘Van’ means one who possesses them. Baladeva is Bhagavan. You have to give ‘Tulasi’ at the lotus feet of Baladeva and Lotus feet of Nityananda and Gauranga but not at the feet of Guru. Guru appears from the internal potency of Supreme Lord. Krishna takes the form of Balaram and serves Krishna and teaches others how to serve. Without the grace of Baladeva we cannot get Krishna. Without the grace of Nityananda you cannot get Krishna. In Mundaka-sruti it is written, nayam atma bala-hinena labhyah, here this ‘bala’ is not physical strength, it represents that without the grace of Baladeva you cannot get anything. So you have to pray for His grace and for the grace of all Guruvarga. We should not forget.

Devotees have said that I have got some sort of difficulty so doctors have prohibited me to take part in Kirtans. But I was hearing from here, I could not hear about Baladeva. I could not hear about the preceptorial channel (Jay Dau, Jay Dau). Our Gurudeva used to do this, why? There is reason for it. Gurudev used to sing “Jay Dau! Jay Dau!” This is necessary on the advent day at least and you should sing for Gaur Nityananda, Rohini Devi and the devotees of Gokul Mahavan including Mathura and Baladeva Prabhu, Rohini-nandan Baladeva, in this way. If you do not do it, it will be incomplete. I could not hear this so I said Oh, our Gurudeva used to do this. What is this? I should do this but I cannot do this as I have been prohibited by Doctor because of heart difficulty. You should be very careful in this matter. Bhagavan appears in the sanctified heart— sattvam visuddham vasudeva-sabditam, there is presence of sattva-guna here in this world also which is mixed with rajo-guna and tamo-guna. Vishuddha-sattva means nirguna. It is not mixed with rajo or tamo-guna. The totally sanctified heart is called Vasudeva — sattvam vishudham vasudeva-sabditam. Supreme Lord cannot be enveloped by illusory energy. Supreme Lord is infinite. If you say Supreme Lord can be enveloped by illusory energy then Supreme Lord will be subservient to illusory energy. It is absurd. Clouds can cover our eyes but not the Sun. Sun is million and million times bigger than earth. How a portion of a cloud can obstruct the Sun? They can obstruct our eyes. Heart should be pure. If there no other desire then it is called Vasudeva and the self-effulgent truth appears there. So, make your mind pure.

He performed many pastimes. One pastime is in Bhandir-van. Van is forest. There are twelve forests (Dwadash-van). In Bhandir-van, in summer season it is pleasing, very good and comfortable. It is the time when Krishna and His sakhas, the cowherd boys (confidantes or bosom companions) gather there and Krishna-Balaram give satisfaction to them. They play there making two parties. Everything is in present tense here, Supreme Lord is always present, there is no future and past, therefore the present tense figure is used. One party leader is Baladeva and another party leader is Krishna. And the condition of the play is, if one of the parties is defeated by another, then the defeated will take the victorious on their shoulder and carry. When they started playing, Krishna was defeated by Sridama, Krishna has to carry Sridam on the shoulder. Sridam’s feet will touch the transcendental body of Krishna. In Vrindavan, there is no majesty aspect. Krishna is happy by getting him on the shoulder and Bhadrasen carried Vrishabh. One demon came there in the disguise, in the form of a cowherd. The cowherd boys could not understand where from this cowherd boy came but Krishna understood that he is a demon, Pralambasur. Krishna said you come and play with us. As Krishna’s team got defeated, as per the condition, Pralambasur had to carry Baladeva on his shoulder. He took Baladeva on his shoulder and ran away. Then Baladeva thought this cowherd boy, confidante cannot be sakha. He must be someone else. Krishna has already understood and later Baladeva also understood that he is a demon. Then Baladeva increased His weight so much that the demon could not carry Him. Then demon appeared in his original form with horrible appearance. By seeing that Baladeva said, “I have come here to subdue the evils, and I will do My duty.” He made a big blow on the head and hit the demon, he did blood vomiting and died. All the demigods showered flowers. Our Bhaktivinod Thakur says, “Who is Pralambasur? Pralambasur is within us. Pralambasur represents desire for sex, desire for money, name and fame. You want to take the position of Supreme Lord. You think, “I am the enjoyer and master.” That should be removed from the heart totally, not a scent of it should remain.

You have to take initiative, He is at the back. He will not do everything. It is your duty. You have forgotten Krishna and you have got bad practices. You have to try to remove those practices, Baladeva is there at the back, all our Guruvarga are at the back. When we sincerely try, God will come to help. God helps those who help themselves; there is one pity saying of Herbert. This is one pastime. Again this instance has been discussed yesterday. But you have not heard. This is important. This is one pastime. There is another pastime also. Baladeva is witty with Krishna. Here in Krishna lila, Baladeva is elder brother, Krishna is younger brother. In Rama-lila, Ram is elder brother and Lakshman who is one with Balaram, is younger. Lakshman has been very much mentally worried because He could not serve Rama as per his desire, because He shall have to carry out the order of elder brother. What can be done? He wanted to become an elder brother. So in Krishna-lila, Lakshman has become elder brother, Baladeva. One day, while moving in the forest, Krishna, elder brother Baladeva and other cowherd boys (sakhas) came to Talavan. Tala means palm tree, plump of palm trees there. But there used to reside one demon, a very powerful demon in the form of an ass, donkey. He has got his own party, party of demons. They were guarding it. Nobody can enter into it and do anything. When the sakhas, confidantes entered in to that forest they got the scent the ripened fruits of palm tree, and they are eager to take the taste of it and eat it, they said, “Oh Kanaiah, Dauji bhai! We want to taste this. Give us the fruit of Palmina tree. They are very nice fruit.” When Krishna went, Baladeva said, “No, You are young boy, remain outside. I shall go and pick it, You should not enter.”

He has got affection and also Yashoda Mata and Nanda Maharaj instructed Him, “Please take care of Your younger brother.” They did not see Krishna as Supreme Lord, they are seeing Him as their son, little son, so much affection they have! Baladeva entered into it pushed the trees so forcibly that one tree fell down on another tree, another tree to another tree and all thus all the trees fell down with all the fruits and everything. By that, the horrible demon in the form of ass, donkey, brayed and very harsh sound came. Braying with very harsh sound, he moved towards Baladeva, his power is in his legs, he came to Baladeva and kicked, pressed Him forcibly. Other demons are also there in the forest land. Then again returning back, he wanted to kick Baladeva, but Baladeva took hold of his two legs with two hands and moved him in the air like a circle, very swiftly. Because of this the demon died. Baladeva is powerful. We could not here about Him yesterday. Baladeva appeared from Rohini, He is Rohininandan, the saptam-garbha (the seventh womb) of Devaki, Sankarshan. When He appeared in the womb of Devaki, Yoga-maya attracted this seventh womb of Devaki to Rohini, in Gokul-Mahavan. So Baladeva’s mother is Rohini. He is known as Rohininandan, Balashraya, Balabadhra and Sankarshan as He was attracted by Yoga-maya. Balabhadra means very powerful. He is also Loka Ramanat Ram—one who pleases people (of Gokul). Balaram threw the trees towards other trees and all trees one after the other, fell down and that Gardhab we say, that donkey, collapsed and all his other members also. Now, you will not find any palm tree in Talavan. They have sown something else now. Everything is finished. What are the teachings do we get from this pastime? Gardhab means stupid, ass, donkey, in England, stupid person is called the ass, donkey. So when we try to carry the burden of material learning that is called stupidity. Bhaktivinod Thakur writes in one of his kirtan,

jada-vidya jata, mayara vaibhava,
tomara bhajane badha
moha janamiya, anitya samsara,
jivake koraye gadha

All sorts of material knowledge are variegated forms of illusory energy which creates impediments on the path of Your worship. Such knowledge creates attachment for this perishable worldly relations and makes an ass out of the living entity.

We want to earn this material learning. What is it said here? All the material learning and material knowledge is the vaibhav, grandeur, it is the outside appearance of grandeur of education, of knowledge, of learning but actually, it is not. It is all, mayara vaibhav, tomara bhajane badha — when we shall have this grandeur, material learning, it becomes hindrance to our Bhajan. And moha janita anitya samshare jiv ke kare gadha — when one will get this sort of knowledge, like a donkey or dunderhead or dunderpate, what is it called? He is carrying so many loin clothes, but cannot wear one cloth. He is also carrying many other good items like sugar but he cannot taste anything, only carrying the burden. Similarly, we are carrying the burden of this material knowledge. By the influence of that knowledge, we have forgotten our own self. We think I am this body, bodily relation is my relation and we are giving all our energy for these non-eternal things. So we should not become dunderpet-dunderhead. We should not become fool No. 1, As Param Pujyapad Swami Maharaj used to say Fool No.1. Those who do not believe in God, they are Fool No.1. One young person came to Swami Maharaj and said “Swamiji, you are preaching devotion to God, I do not believe in God.” Then Swami Maharaj said “Who has given you the power to you to say I do not believe in God? If the power is withdrawn can you speak? How long can you speak? How long you can live in this world? You have got this vanity. When the power will be taken can you speak anything?” So, this sort of vanity, false vanity we also have got. We should have asked, “Who am I? What is the Ultimate? What is my actual relation with the Ultimate and what is the method of worshiping Him?” Method of worshiping Him is given in Bhakti-rasamrita-sindhu. As per the direction of Chaitanya Mahaprabhu, Rupa Goswami has written it. Whatever sense organs you have got, (and) mind, God is residing inside you; with the mind, you engage everything for the service of Krishna, Radha-Krishna. By the grace of Radha, you can get Krishna, by the grace of Krishna you can get Radha. Radha-Krishna.

You have to engage all your sense organs, everything. We may think, “Oh, then how can we maintain our family when there is no money?” A true devotee gives his full energy to Supreme Lord, thinking about Him. Supreme Lord is maintaining the whole world. Will he not maintain a devotee? Krishna says in Gita, yogakshema vahamyaham — I will provide whatever is required for My devotee and will preserve whatever he has. You have got no belief. What is this? Do it and see whether He is giving or not. When you depend upon Him, He provides everything. Even I saw in my family, I was depending on my father for whatever I wanted. Other brothers used to ask for their requirements, “I have got no clothes, I have got no garments, I want to be admitted to this college” in this way. I did not say anything. But father immediately asked me, “What is this? You do not required anything?” Father brought some garments for me, automatically things were coming and I did not say I shall go to college for higher studies and so on. He automatically was doing everything. Others are doing by their own initiative. A human being if you take shelter to him, he is forced to think about you. Will the Supreme Lord not think about us? What is the necessity of all this money? The necessity is for the love of Krishna. Only for maintenance you need something, only something (money). As our Param Gurudeva has said in his last message to all the devotees, “You all should worship advaiy-gyan (non-dual personality) Krishna, RadhaKrishna, to satisfy His transcendental sense organs, taking shelter of a Guru, with one pointed devotion, remaining with others amicably.”

When the target will be one, there will be no fight. When target will be different, money, name and fame, something of this world, this thing, that thing, then there will be quarrel. When target is Supreme Lord’s satisfaction, one may be serving more and another may be serving less; if the center is one, there will be no clashing. When the center is one, there will be no clashes. When center is different there will be clash.

Already it is the time so some kirtan should be done.

On 21 Aug 2005