आज की तिथि में, जो भगवान् के द्वितीय स्वरूप हैं, जो भगवान् ही हैं किन्तु गुरु का कार्य करते हैं—बलदेव, उनका स्मरण करना चाहिए। आज बलदेव जी की रासयात्रा है। कृष्ण और बलदेव में कोई भेद नहीं है। भगवान् अनेक नहीं हैं। भगवान् एक हैं, केवल लीला में अन्तर है। भगवान् होते हुए भी बलदेव गुरु की लीला करते हैं। भगवान् अपनी सेवा के लिए अथवा अन्यों को शिक्षा देने के लिए स्वयं जिस मूर्ति को धारण करते हैं, वह दाऊजी हैं। उनकी कृपा के बिना भगवान् प्राप्त नहीं होते। इसलिए आज उन मंगलमय भगवान् को स्मरण करना चाहिए। वैसे तो उन्हें प्रतिदिन ही स्मरण करना चाहिए परन्तु विशेष तिथि में स्मरण करने से अधिक लाभ होता है। आज श्रीकृष्ण का वसन्त रास भी है।

आज सभा में आते समय एक व्यक्ति ने मुझसे अंग्रेज़ी भाषा में एक प्रश्न किया—

“I have seen many sadhus, many devotees but nobody could attract me. Nor had I got any sort of attraction towards them. What is this?”

(मैंने अनेक साधुओं, अनेक भक्तों का दर्शन किया है परन्तु कोई भी मुझे उनकी ओर आकर्षित न कर सका। न ही मेरा उनके प्रति किसी प्रकार का आकर्षण हुआ। यह क्या है?”)

तब मैंने उसे कहा—

“I am giving you an illustration. Have you heard the name magnet? What is the nature of a magnet? A magnet attracts iron. And what is the nature of iron? Iron’s nature is to be attracted by a magnet. If magnet and iron are there and the magnet is not attracting the iron and iron is not being attracted by magnet, then where is the defect? Is there any defect in the magnet? No, there is no defect in the magnet. Defect is there in the iron. There is rust over it. Rust has enveloped the iron. Defect is in the iron, not in the magnet. Due to the rust, the nature of the magnet to attract the iron and the nature of the iron to be attracted towards the magnet, is not seen there. When the rust will be removed, its nature will come up. Similarly, Krishna is like a magnet and those who have made the appearance of Krishna in their hearts, are also like magnets. Actual devotees, pure devotees are like magnets. They attract even Krishna, ‘श्रीकृष्णाकर्षणी च सा।’

(मैं आपको एक दृष्टान्त देना चाहता हूँ। क्या आपने चुम्बक के बारे में सुना है? चुम्बक का स्वभाव क्या है?—लोहे को आकर्षण करना तथा लोहे का स्वभाव क्या है—चुम्बक द्वारा आकर्षित हो जाना। यदि चुम्बक एवं लोहा दोनों विद्यमान हैं किन्तु चुम्बक लोहे का आकर्षण नहीं कर पा रहा, न ही लोहा चुम्बक की ओर आकर्षित हो रहा है, तब दोष किसमें है? क्या दोष चुम्बक में है? नहीं, चुम्बक में कोई दोष नहीं है। दोष लोहे में है। लोहे पर जंग लग गई है। लोहा जंग द्वारा आवृत हो चुका है। जंग के कारण दोनों का वास्तविक स्वभाव दिखाई नहीं दे रहा। जब जंग हटा दी जाएगी, उनका स्वभाव दिखाई देगा। उसी प्रकार श्रीकृष्ण चुम्बक के समान हैं तथा जिनके हृदय में श्रीकृष्ण का आविर्भाव होता है, वे भी चुम्बक के समान होते हैं। वे कृष्ण का भी आकर्षण कर लेते हैं—‘श्रीकृष्णाकर्षणी च सा।’ )

The devotees are there, the Supreme Lord, in the form of deity, is there and I am also there but why am I not feeling any attraction? Because there is a defect in myself. The dust in my mind in the form of evil ideas and thoughts. How can that be removed? By the association of Bonafide Sadhu. Then iron will run towards the magnet and magnet will attract iron. (Likewise we will get attracted towards Krsna). So, where is the defect?

(भक्त हैं, भगवान् (विग्रह रूप से) हैं, मैं भी हूँ किन्तु मुझे भगवान के प्रति कोई आकर्षण क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि दोष मुझमें ही है। मेरे चित्त में कुविचार भरे हुए हैं। उन्हें कैसे हटाया जा सकता है? एक सच्चे साधु के संग से। तब लोहा स्वतः चुम्बक की ओर धावित होगा और चुम्बक लोहे का आकर्षण करेगा। इसी प्रकार हम भी श्रीकृष्ण की ओर आकर्षित होंगे।)

हम दूसरों को दोष देते हैं और कहते हैं कि साधु का महात्म्य नहीं है। हमें कोई खींच (अपनी ओर आकर्षित) नहीं सकता है। खींचने से भी हमको अनुभव नहीं होगा। चुम्बक का कोई दोष नहीं है। कौन वैज्ञानिक कहेगा कि दोष चुम्बक का है? दोष लोहे का ही है। उसमें जंग लग चुकी है। हमारे चित्त में जंग लग गई है | इसीलिए भक्त और भगवान् हमें खींच नहीं रहे हैं। वह जंग हम कैसे हटा सकते हैं? उन अशुद्ध विचारों को अपने चित्त से कैसे निकाल सकते हैं? हम स्वयं यह कार्य नहीं कर सकते। इसके लिए हमें सच्चे साधुओं का संग करना चाहिए। साधु का आनुगत्य नहीं करेंगे, साधु का संग नहीं करेंगे और हम सोचते हैं कि हमारा हृदय निर्मल हो जाएगा। हृदय निर्मल कैसे होगा? नहीं हो सकता है।

आज बलराम जी को स्मरण करना चाहिए। बलराम जी होते हैं—Magnet (चुम्बक)। आज श्रीकृष्ण को भी याद करना चाहिए, श्रीकृष्ण होते हैं—Magnet (चुम्बक)। Magnet को खींचने वाला कैसा होता है? वह होता है Supermagnet. यह Magnet कौन है? यह Magnet हैं—श्रीवंशीवदनानन्द ठाकुर। वे कौन है? जो श्रीकृष्ण लीला में कृष्ण की वंशी है, वे ही श्रीचैतन्य महाप्रभु लीला में लीला पुष्टि के लिए वंशीवदनानन्द ठाकुर रूप से आये। शची माता कौन हैं? साक्षात् यशोदा देवी। विष्णुप्रिया देवी गौरनारायण की शक्ति हैं, उनकी शुद्ध भक्त हैं। श्रीमन्महाप्रभु और विष्णुप्रिया देवी का कोई साधारण स्त्री और पति का सम्बन्ध नहीं है, पारमार्थिक सम्बन्ध है। जब रामलीला में अश्वमेध यज्ञ करने के समय सीतादेवी वनवास में थीं और श्रीराम को ऋषियों ने कहा कि उन्हें अपनी शक्ति (पत्नी) के साथ बैठकर यज्ञ करना पड़ेगा, दूसरा विवाह करना होगा। तब श्रीराम ने दूसरा विवाह करने से मना किया। उन्होंने स्वर्ण सीता का निर्माण करके यज्ञ किया। वही ऋण परिशोध करने के लिए सीतादेवी ने श्रीगौरलीला में विष्णुप्रिया रूप से गौरांग महाप्रभु की स्वर्ण मूर्ति निर्माण करके उनकी उपासना की। सब लीलाएँ सम्बन्धित हैं, ऐसा हमारे गुरुवर्ग बताते हैं।

श्रीचैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लेने से पहले ही सब व्यवस्था की थी। उन्होंने सोचा कि जब मैं सन्यास लेकर चला जाऊँगा तो शची माता और विष्णुप्रिया देवी को विरह होगा। वे विरह कैसे सहन करेंगी? इसलिए श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीवंशीवदनानन्द ठाकुर को श्रीशची माता और श्रीविष्णुप्रिया देवी के रक्षक-सेवक रूप में नियुक्त किया।

वंशी श्रीकृष्ण का अधरामृत पान करती है। इसलिए गोपियाँ कहती हैं कि वंशी के समान इतना सौभाग्य किसका है? चिन्मय जगत में सब कुछ चेतन है; वंशी बोल सकती है, चल भी सकती है। वह इस जड़ जगत की वंशी की तरह जड़ नहीं है। वही वंशी श्रीगौरलीला में वंशीवदनानन्द ठाकुर रूप से आई।

वही वंशी जिसकी ध्वनि से श्रीकृष्ण सबको वंशीवट में आकर्षित करते हैं तथा यमुना भी उल्टी बह जाती है, उन वंशीवदनानन्द ठाकुर के वाणी-संग से क्या नहीं मिलेगा? उनकी आविर्भाव तिथि दैव से आ गई।

आज हमारे पूर्व गुरु, श्रीश्यामानन्द प्रभु की भी आविर्भाव तिथि है। गुरु परंपरा में उनके नाम का उल्लेख नहीं है किन्तु हम श्यामानन्द प्रभु को स्मरण करते हैं। श्यामानन्द प्रभु दाऊजी के सखा हैं। बारह प्रधान सखा हैं, जिन्हें द्वादश गोपाल कहते हैं। उनमें एक प्रधान सखा का नाम है—सुबल सखा। वही सुबल सखा, गौर लीला में गौरीदास पण्डित हैं। उनके अधीन हृदयानन्द (हृदयचैतन्य) प्रभु और हृदयानन्द प्रभु के अनुगत श्यामानन्द प्रभु हैं। श्यामानन्द प्रभु जी माता श्रीदुरिका और पिता श्रीकृष्णमण्डल को अवलंबन करके खड़गपुर रेलवे स्टेशन के नज़दीक ही धारेन्दाबहादुरपुर ग्राम में प्रकट हुए। इनके पिताजी सुवर्ण रेखा नदी के किनारे दण्डेश्वर ग्राम में रहते थे।

वे बचपन से ही कृष्णप्रेम में प्रमत्त रहते थे तथा पितृ व मातृभक्ति पारायण थे। उनके पिता-माता भी भक्त थे। उनकी माता जी ने उन्हें सद्गुरु से कृष्णमन्त्र की दीक्षा लेने का उपदेश दिया। माता-पिता के अभिप्राय को समझ कर उन्होंने कहा कि वे अम्बिका कालना में जाकर हृदयचैतन्य प्रभु से दीक्षा ग्रहण करेंगे। उन्होंने वहाँ बैठे-बैठे ही पहले से अपने गुरुदेव को निर्धारित कर लिया। पहले उनका नाम दुःखी था, हृदयचैतन्य प्रभु से दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उनका नाम दुःखी कृष्णदास हुआ।

बाद में अपने गुरुजी द्वारा आदेश प्राप्त कर वे ब्रज में चले गए। ब्रज में जाकर उन्हें षड्गोस्वामियों में अन्यतम श्रीजीव गोस्वामी का संग मिला। जीव गोस्वामी श्रीराधाकृष्ण की मधुर रस की सेविका (विलास मंजरी) हैं। श्रीजीव गोस्वामी के संग और सेवा के प्रभाव से उनकी मधुर रस में रुचि हो गई। तब क्या उन्होंने अपने गुरुजी को छोड़ दिया? ऐसा सोचना उचित नहीं है। जब श्रेष्ठ स्तर की सेवा करें तो गुरुजी को भी सुख होता है। जब उनके गुरुजी को यह समाचार मिला तो वे बहुत प्रसन्न हुए। शान्त रस से श्रेष्ठ होता है दास्य रस; शान्त रस में कृष्णनिष्ठा और भोग त्याग होता है, दास्य रस में ममता रहती है। सख्य रस में विश्रम्भ भाव, बहुत विश्वास रहता है और वात्सल्य रस में स्नेह रहता है। कान्त रस (मधुर रस) में शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि सभी रस निहित होते हैं। सर्वोत्तम सेवा कान्त रस में गोपियों द्वारा राधाकृष्ण की सेवा होती है।

अपने शिष्य द्वारा ऐसा अधिकार प्राप्त करने पर श्रीहृदयचैतन्य प्रभु बहुत प्रसन्न हुए। उद्देश्य क्या है? भगवान् की सेवा करना। श्रीजीव गोस्वामी के संग से उनका श्रीराधाकृष्ण में प्रेम हो गया। वे श्रीराधाकृष्ण की सेवा करने के लिए वंशीवट में रासमण्डल में झाड़ू की सेवा करते थे। हम लोग तो वंशीवट, रासमण्डल को देखते हैं किन्तु हमें ऐसा अनुभव नहीं होता है। वह तो चिन्मय भूमि है। एक दिन श्यामानन्द प्रभु प्रेमाविष्ट होकर वृन्दावन के रासमण्डल की झाडू से सफाई कर रहे थे कि उसी समय राधारानी जी की अलौकिक कृपा से उन्हें वहां राधारानी जी के श्रीचरणों का एक नूपुर मिला। श्यामानन्द प्रभु जी ने अत्यन्त उल्लास के साथ उस नूपुर को अपने मस्तक से स्पर्श किया जिससे उनके ललाट पर नूपुर जैसा ही तिलक प्रकट हो गया। यही से श्यामानन्द प्रभु जी के परिवार (सम्प्रदाय) में नूपुर तिलक का प्रवर्तन हुआ। यह घटना सुनकर श्रीजीव गोस्वामी को बहुत आनन्द हुआ और उन्होंने दुःखी कृष्णदास से कहा कि तुम राधा श्यामसुन्दर को सुख दे रहे हो। इसलिए आज से तुम्हारा नाम श्यामानन्द है। जीव गोस्वामी ने उन्हें श्यामानन्द नाम दिया।

श्याम है magnet और उस magnet को भी आकर्षण करनेवाले हैं श्यामानंद, किसी भी स्थान पर उनका आविर्भव हो सकता है। जब हम प्रार्थना करें वैकुंठ वस्तु का कोई आवरण नहीं है| इसलिए आज की तिथि में हम लोग वंशीवदनानन्द ठाकुर जी के पादपद्म में, श्रीश्यामानन्द प्रभु के पादपद्म में और उनके अभिन्न स्वरूप हमारे गुरुजी के पादपद्मों में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए उनकी कृपा प्रार्थना करते हैं कि वे हमारे समस्त अपराधों को मार्जन करते हुए अपने पादपद्मों की सेवा प्रदान करें और उनके आराध्य देव की सेवा प्रदान करें।