आज इस शुभ तिथि को अवलम्बन करके षड् गोस्वामी में अन्यतम श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी का आविर्भाव हुआ। आज श्रीरामचन्द्र कविराज की तिरोभाव तिथि भी है। यहाँ के भक्तों की इच्छा है कि मैं आज हिन्दी भाषा में उनका महात्तम कीर्तन करके उनकी कृपा प्राथना करूँ। भाषा के ऊपर भक्ति निर्भर नहीं करती, भगवान् की प्रीति के लिए भक्त कोई भी भाषा में कीर्तन करें, उनके शब्द अप्राकृत होते हैं। किन्तु मेरे जैसे व्यक्ति के शब्द ऐसे नहीं होंगे। जिनकी आज आविर्भाव तिथि है,वे गोपल भट्ट गोस्वामी षड् गोस्वामी में अन्यतम है एवं श्री रामचन्द्र कविराज जिनकी आज तिरोभाव तिथि है, वे श्रील नरोत्तम ठाकुर की अभिन्न आत्मा है, ये सब साधारण व्यक्ति नहीं है। गोपाल भट्ट गोस्वामी कृष्ण लीला मे अनंग मंजरी या गुण मंजरी है और श्रीरामचन्द्र कविराज करुणा मंजरी है, ये लोग इस जगत के साधारण लोग नहीं हैं। वे भगवान की इच्छा से वृन्दावन धाम में प्रकट हुए हैं। जैसे भगवान का अवतरण होता है, उसी प्रकार भगवान के भक्तों का भी आविर्भाव और तिरोभाव होता है, साधारण मनुष्य के जैसे उनकी जन्म और मृत्यु नहीं होती। गोपाल भट्ट गोस्वामी जी का महात्तम कीर्तन कौन कर सकता है?
गोपाल भट्ट गोस्वामी के आराध्य कौन है? श्रीराधारमण देव; नन्दनन्दन श्रीकृष्ण। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण कौन है?
हरिर्हि निर्गुण: साक्षात् पुरुष: प्रकृते: पर:।
(श्रीमद् भागवतम 10.88.5)
हरि निर्गुण है, प्रकृति के अतीत है, प्रकृति के अन्तर्गत नहीं है। और भगवान के भक्त, जो भगवान की चिन्मय शक्ति है, वे भी प्रकृति के अतीत हैं। प्राकृत इन्द्रिय, मन, बुद्धि से अथवा शास्त्र या कोई ग्रन्थ पढ़ कर उनका महात्तम कीर्तन नहीं होगा।जैसे भगवान शरणागत के हृदय मे अवतिर्ण होते हैं,उनका महात्मय भी वैसे ही अवतिर्ण (प्रकाशित) होता है और वैसे ही भक्त का महात्मय भी हृदय में प्रकाशित होता है, हम अपने किसी सामर्थ्य से उन्हें जान लेंगे – इस प्रकार का विचार मेरे जैसे व्यक्ति का हो सकता है किन्तु ऐसा विचार होने से अप्राकृत वस्तु का संग नहीं होगा। प्राकृत अभिमान रखकर यदि भगवान का भजन करने के लिए अपना जीवन देने की इच्छा भी हो तो भी जीवन भजन के लिए नहीं रहेगा। प्राकृत शब्द या सामर्थ्य से हम उन्हें समझ लेंगे,ऐसा विचार रहेगा तो That realm is ever sealed. Nobody can enter into it with such a mentality. They will remain outside.
भगवान हरि जैसे प्रकृति के अतीत है, उनका भक्त भी प्रकृति के अतीत है। भगवान की तरह उनके भक्त का महात्मय भी प्रकृति केअतीत है। जिस प्रकार भगवान की महिमा अनन्त है, उसी प्रकार भक्त की महिमा भी अनन्त है। हम जितना उनके चरणों में शरणागत होंगे, उनकी कृपा से उनका महात्मय उतना ही हमारे हृदय मे प्रकाशित होगा। जब शरणागति के साथ उनका महिमा कीर्तन करेंगे तो कीर्तन करनेवाले और श्रवण करनेवाले दोनों की भक्ति होगी। मेरी विडम्बना यह है कि मेरा शरीर में ‘मैं’ अभिमान जाता ही नहीं। शरीर की आवश्यकता अर्थात असत् तृष्णा जो हमारी आवश्यकता नहीं है, वह भी नहीं जाती। हम कैसे भगवान का महिमा कीर्तन करने के योग्य हो पाएँगे?
अतः श्री-कृष्ण-नामादि न भवेद् ग्राह्यं इन्द्रियैः ।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयम् एव स्फुरत्यदः ॥
(भक्ति रसामृत सिंधु 1.2.234)
भगवान का नाम, रूप, गुण, धाम, परिकर प्राकृत इन्द्रियों के ग्राह्य नहीं है, उन्हें प्राकृत चक्षुओं से देख नहीं सकते, प्राकृत कर्णों से सुन नहीं सकते। ये ही तो समस्या है। उसी प्रकार भगवान का भक्त भी निर्गुण और अप्राकत है यदि उनका जरा सा भी आविर्भाव किसी के हृदय में हो जाए तो हृदय में जितने मलिन भाव है, सब दूर हो जायेंगे। ‘फलेन फला कारणं अनुमियते’ –कार्य के फल से ही कार्य के उद्देश्य का अनुमान मिलता है। हम वास्तव में हरिकथा श्रवण या कीर्तन कर रहे हैं या नहीं उसका अनुमान, हमें प्राप्त हो रहे फल द्वारा होगा। यदि हमारे चित्त में मलिनता रहे, दुनिया का चिंतन रहे -तो वास्तव में श्रवण नहीं हो रहा है, कीर्तन नहीं हो रहा है। श्रवण-कीर्तन के नाम पर अन्य ही कुछ हो रहा है। ‘सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः’ जब सेवोन्मुख होंगे तो ये सब विषय स्वयं स्फुरित होंगे। इसलिए मेरे जैसे व्यक्ति के लिए कठिन है, किन्तु ये छोड़ कर अन्य कोई मार्ग भी नहीं है।
कृष्ण की कृपा चाहिए तो पहले कृष्ण के चरण में आश्रय लेना पड़ेगा। दुनिया में अनेक लोग भाषण देते हैं, प्राकृत अभिमान लेकर सभा में जाकर भाषण दे देने से कृष्ण-कथा नहीं होगी, कृष्ण के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा, वह मात्र भाषण देना ही हुआ। भगवान् की कृपा बिना कोई भगवान के लिए कीर्तन नहीं कर सकता। इसलिए भक्ति की नींव होती है शरणागति, जो शरणागत नहीं है उनका कोई क्रिया भक्ति नहीं है, अशरणागत व्यक्ति की कोई क्रिया भक्ति नहीं है। और जब कोई शरणागत हो जाए, निष्कपट रूप से भगवान की प्रसन्नता के लिए प्रयास करें, तो भगवान भी कृपालु है और भक्त और भी अधिक कृपालु है। उनकी कृपा अवश्य ही हो जाएगी,उनकी कृपा से हमारे हृदय के सब मलिन भाव दूर हो जायेंगे और अप्राकृत भाव का स्पर्श होगा।
हमारे गुरुजी और गुरुवर्ग इस प्रकार बोलते थे।
‘गुरु, वैष्णव, भगवान्’– तिनेर स्मरण।
तिनेर स्मरणे हय विघ्नविनाशन।
अचिराते हय निज अभीष्ट पुरण॥
यह केवल बोलने मात्र के लिए है ऐसा नहीं है। गुरु, वैष्णव, भगवान तीनों को स्मरण करने से वास्तविकता में हमारी जो भी आवश्यकताएँ है, वे सब पूरी हो जाएगी। जब शरणागत होकर उनको स्मरण करेंगे, तब उनका स्मरण होगा। भजन का मुख्य उद्देश्य उनको स्मरण करना है।
स्मर्त्तव्य सततं विष्णुर्विस्मर्त्तव्यो न जातुचित्
सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः
भजन का वास्तविक उद्देश्य है सर्वक्षण भगवान् का स्मरण, चित्त का आवेश भगवान में हो जाना, चित्त मे अन्य किसी कोई वस्तु का न रहना। भजन का उद्देश होता है-भगवान को हृदय में धारण करना, इसलिए कहते हैं, गुरु, वैष्णव, भगवान तीनों को स्मरण करो। उनको स्मरण करने से क्या होगा? जितने भी भजन में आनेवाले सब विघ्न नाश हो जाएँगे। जब प्रकाश आता है तब अंधेरे के कारण होनेवाली समस्याएँ रहेगी? जब अंधेरा ही चला जाए तो समस्याएँ कहाँ से रहेगी। उसी प्रकार जब गुरु, वैष्णव, भगवान को स्मरण करेंगे तब हृदय में भगवान और भक्त का आविर्भाव होगा, किसी प्रकार का विघ्न वहाँ पर नहीं रह सकता, किसी प्रकार का अमंगल नहीं रह सकता।
yasmin prapte sarvam idam praptam bhavati
yasmin gyate sarvam ivam vigyatam bhavati
(Muṇḍaka Upaniṣad 1.3)
जिनको हम ब्रह्म कहते है और उस ब्रह्म वस्तु भगवान को हम प्राप्त कर लेंगे। जब तक भगवान की प्राप्ति नहीं होगी तब तक अभाव जाएगा नहीं। इसलिए यहाँ पर कहते हैं, वही भक्त और भगवान को हृदय में प्रकट करने के लिए – गुरु, वैष्णव और भगवान को स्मरण करने से, हमारी अभिष्ट वस्तु, भगवान का प्रेम हमें प्राप्त हो जाएगा। जब भगवान हृदय में प्रकट हो जाए, उनका स्पर्श हो जाए तो संसार का चिंतन हृदय में नहीं रहेगा। भगवान् और संसार दोनों एक साथ एक स्थान पर नहीं रह सकते।अंधकार और प्रकाश दोनों एक साथ कभी नहीं रह सकते।
भजन करते हैं किन्तु यदि भजन का फल ‘मंगल’ देखा नहीं जाता, तब भजन नहीं हो रहा है, उसमें कुछ गड़बड़ है। वास्तव में भजन होने से उसका फल अवश्य ही मिलेगा। इसलिए गुरु, वैष्णव और भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए, उनका स्मरण करने के लिए, उनकी प्रार्थना करने के लिए और उनका महात्मय कीर्तन करने के लिए व्यवस्था की गई है। किन्तु समस्या यह है कि गुरु, वैष्णव, भगवान अप्राकृतिक तत्व है, उनकी कृपा बिना हम जड़ीय मन से उन्हें स्मरण भी नहीं कर सकते, उनकी कथा भी श्रवण नहीं कर सकते और ना ही उनका महात्मय कीर्तन कर सकते हैं।
परीक्षित महाराज ने जैसे श्रवण किया – खाना पीना सब छोड़ दिया, सोना भी छोड़ दिया। सुखदेव गोस्वामी जी ने परीक्षित महाराज जी से कहा, महाराज! आप थोड़ा सा पानी पी लीजिए, थोड़ा सा खाना खा लीजिए, विश्राम कीजिए वरना आपका तबीयत खराब हो जाएगा। परीक्षित महाराज कहते हैं, मेरा समय नहीं है सात दिन बाद मेरा शरीर चला जाएगा। आप मेरे लिए चिन्ता मत कीजिए।
नैषातिदु:सहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते ।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम् ॥
(श्रीमद् भागवतम् १०. १. १३)
परीक्षित महाराज जी ने शुकदेव गोस्वामी से कहा – जल या भोजन ग्रहण नहीं करने से मुझे कोई कष्ट नहीं हो रहा। मुझे निद्रा की भी आवश्यकता नहीं है। आपके मुख से में हरिकथा-अमृत पान कर रहा हूँ, इसलिए मुझे जल, भोजन और विश्राम की भी आवश्यकता नहीं है। ऐसा श्रोता कहाँ मिलेगा? एवं शुकदेव गोस्वामी जैसे वक्ता कहाँ मिलेंगे?
आज षड् गोस्वामी के अन्यतम गोपाल भट्ट गोस्वामी की आविर्भाव तिथि है। महाप्रभु के पार्षद शिवानन्द के पुत्र, कवि कर्णपुर,जिन्होने गौर गणोद्देश दीपिका लिखी,उनके हृदय मे सब प्रकाशित होता है। गोपाल भट्ट गोस्वामी कृष्ण लीला मे अनंग मंजरी है, कोई गुण मंजरी भी कहते हैं-वे इस संसार के कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। गोपाल भट्ट गोस्वामी,वैंकट भट्ट को अवलंबन करके दक्षिण भारत के श्रीरंगम के पास, कावेरी नदी के तट पर बेलगुंडि नामक गांव मे आविर्भूत हुए थे। गोपाल भट्ट गोस्वामी को इतनी दूर होकर भी महाप्रभु का आविर्भाव नवदीप धाम में, मायापुर में हुआ है, महाप्रभु की इन सब लीलालों के बारे में पता चल गया। उन्हें कैसे पता चला? उस समय मोबाइल फोन जैसा कुछ नहीं था, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी, एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए लोग पैदल चलते थे। किन्तु माया वहाँ कोई रुकावट नहीं कर सकती।
गोपाल भट्ट गोस्वामी अनंग मंजरी है, भगवान के नित्य पार्षद है – कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। महाप्रभु की लीला पुष्टि करने के लिए वहाँ प्रकट हुये। महाप्रभु का आविर्भाव 1407 शकाब्द में हुआ और गोपाल भट्ट गोस्वामी का आविर्भाव 1422(किसी मतानुसार 1425) शकाब्द में हुआ। महाप्रभु की कृपा से गोपाल भट्ट गोस्वामी ने स्वप्न में देखा कि उनके आराध्य देव नन्दनन्दन श्रीकृष्ण राधा रानी का भाव लेकर, गौरांग महाप्रभु के रूप में नवद्वीप में प्रकट हुए हैं एवं बाल्य लीला समाप्त करने बाद संन्यास लेकर पुरषोत्तम धाम चले गए हैं। महाप्रभु की संन्यास लीला को वे सहन नहीं पाए। जब भगवान् का वास्तव में दर्शन होता है, तब उनका थोड़ा भी विरह सहन नहीं होता। और गोपाल भट्ट गोस्वामी तो साक्षात् भगवान के पार्षद, भगवान की मधुर रस की सेविका है, राधारानी और उनका विस्तार ललिता, विशाखा,चित्रा, इंदुलेखा, चम्पकलता, रंगदेवी, तुंगविद्या और सुदेवी, ये अष्ट सखी है, वे उनके आनुगत्य में जितनी भी मंजरी है, वे सब गोपी है।स्वप्न में महाप्रभु को संन्यास लेता देख कर गोपाल भट्ट गोस्वामी जी निर्जन स्थान में बैठ कर रोने लगे, उनके घर में किसी को उनके रोने का कारण पता नहीं चला परन्तु चैतन्य महाप्रभु को अपने पार्षद की स्थिति के बारे में सब पता चल गया और उन्हें अपने प्रिय पार्षद का इस तरह क्रंदन करना सहन नहीं हुआ। महाप्रभु फिर से गोपाल भट्ट गोस्वामी के स्वप्न में प्रकट हो गए और उन्हें गोद मे उठाकर रोते हुए सांत्वना देने लगे, प्रभु ने अपने अश्रुओं से उन्हें भिगो दिया। गोपाल भट्ट गोस्वामी जैसे भक्त, जो इतने दूर में आविर्भूत होने पर भी, वहाँ महाप्रभु का साक्षात् दर्शन या उनकी शिक्षा नहीं मिलने पर, उन्हें महाप्रभु की सम्पूर्ण लीलाओं का दर्शन हो गया, ऐसे भगवान् के साक्षात् पार्षद की महिमा का कीर्तन मेरे जैसा मायाबद्ध व्यक्ति कैसे कर सकता है?
इस संसार में हमारी जितनी आसक्ति होती है, उतना बंधन होता है। यहाँ निरपेक्ष रहने से अच्छा है, इस संसार में दास-प्रभु सम्बन्ध में आसक्ति हो जाती है, उससे अधिक मित्र-मित्र में, उससे अधिक माता-पिता और संतान में और उससे भी अधिक स्वामी-स्त्री में आसक्ति होती है। सखिय-पारकीय भाव भी होता है, किन्तु उसमें हमारा अधिकार नहीं है। सबसे अधिक आसक्ति राधा रानी की भगवान के प्रति है, इसलिए राधा रानी का वैराग्य सर्वोत्तम है। जितनी भगवान में आसक्ति होगी, उतना ही संसार के विषयों से वैराग्य होगा। गोपाल भट्ट गोस्वामी जो कृष्ण लीला मे अनंग मंजरी है उनका संसार से स्वाभाविक रूप से ही वैराग्य है, क्योंकि उनका अप्राकृत वस्तु में आवेश है। चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप मे आविर्भूत होने और संन्यास के बाद पुरषोत्तम धाम चले जाने पर भी अपने प्रिय पार्षद गोपाल भट्ट गोस्वामी के प्रेम से वशीभूत होकर, उनको सांत्वना देने के लिए वहाँ आना पड़ा।
इस प्रकार भगवान, भक्त की भक्ति से वशीभूत है। एक और उद्धारण है, जब महाप्रभु ने संन्यास ले लिया तब शची माता उनके विरह में क्रंदन करती रहती है। क्या शची माता कोई साधारण महिला है? शची माता कृष्ण-लीला में यशोदा देवी और जगन्नाथ मिश्र, नन्द महाराज है। भगवान के संन्यास लेने से उनकी कैसी स्थित हो गयी, सब समय क्रंदन करती रहती है, भगवान के संन्यास लेने से भक्त को सुख नहीं होता। एक बार रामचन्द्र के विजय दिवस पर शची माता निमाई के लिए रोते -रोते रसोई करते हुए सोचने लगी, निमाई तो यहाँ नहीं है, रसोई किसके लिए बनाऊँ? निमाई को ये सब कैसे खिलाऊँ? उस समय महाप्रभु पुरुषोत्तम धाम में थे परन्तु शची माता के स्नेह से वशीभूत होकर वे रह नहीं सके और वहाँ आ कर उन्होंने सच्ची माता ने बनाये हुए सब व्यंजन खा लिए। खाली पात्र को देख कर शची माता आश्चर्यचकित रह गयी और सोचने लगी, किसने खा लिया? क्या कोई पशु ने खा लिया? मैंने रसोई की या नहीं? शची माता ने रोते हुए फिर रसोई कर महाप्रभु को निवेदन किया, इस बार भी महाप्रभु ने आकर सब खा लिया। पर(चिन्मय) जगत का सम्बन्ध ऐसे ही होता है, भगवान पुरुषोत्तम धाम से वहाँ आ गए, संसार का कोई व्यवधान वहाँ बाधा नहीं दे सकता। जब हमारा भी भगवान के साथ ऐसा सम्बन्ध होगा, भगवान के लिए इस प्रकार तड़पना होगा, तब संसार की कोई बाधा बिच में नहीं आएगी, भगवान् हमारे पास भी उसी प्रकार आ जायेंगे। किन्तु भगवान के लिए उस प्रकार की आतुरता भी भगवान एवं गोपाल भट्ट गोस्वामी और रामचन्द्र कविराज जैसे भक्तों की कृपा से ही आएगी।
रामचन्द्र कविराज, जो नरोत्तम ठाकुर की अभिन्न आत्मा है, वे कृष्ण-लीला में करुणा-मंजरी है। नरोत्तम ठाकुर भी साधारण व्यक्ति नहीं है, वे चम्पकलता या चम्पक मंजरी है। जब नरोत्तम ठाकुर का आविर्भाव ही नहीं हुआ था, तब महाप्रभु नरोत्तम! नरोत्तम! नाम लेकर चिल्लाये थे, यह देख, सब पूछने लगे, क्या हुआ और आप किसका नाम पुकार रहे हैं?
तब महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को कहा, जब में संन्यास लेकर पुरषोत्तम धाम चला गया तब आप जैसे रोए, ऐसे और कोई नहीं रोया और उसी प्रेम को मैंने नरोत्तम को देने के लिये पद्मावती नदी में रख दिया है। जिस स्थान पर महाप्रभु ने प्रेम रखा था उस स्थान का नाम कुतुबपुर था, जब नरोत्तम ठाकुर ने प्रकट होने के बाद वहाँ जाकर स्नान किया, उसी समय पद्मावती ने नरोत्तम को वही प्रेम दिया। रामचन्द्र कविराज नरोत्तम की अभिन्न आत्मा है। नरोत्तम ठाकुर ने अपने एक कीर्तन में रामचन्द्र कविराज जी से कृपा प्राथना की है— “रामचन्द्र संग मांगे नरोत्तम दास”। रामचन्द्र कविराज कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, वे भी महाप्रभु के पार्षद है।
जब सन् 1433 मे गोपाल भट्ट गोस्वामी अपने घर में थे, उनका घर रंगनाथ क्षेत्र मे कावेरी नदी के किनारे पर है। वे महाप्रभु को अपने प्रेम से आकर्षित वहाँ कर ले आए। उस समय उनके पिता वैंकट भट्ट और उनका परिवार लक्ष्मी-नारायण के उपासक थे। वे रामानुज सम्प्रदाय को मानते और बहुत ही निष्ठा के साथ भजन करते थे। वैंकट भट्ट ने महाप्रभु को देखकर उन्हें निमंत्रण करते हुए कहा कि चातुर्मास में तो संन्यासी एक जगह रह कर भजन करते है, इसलिए आप चार मास के लिए हमारे घर में रहिये। तब गोपाल भट्ट गोस्वामी जी को कृपा करने के लिए, उनको दर्शन देने के लिए ही महाप्रभु ने उनका निमंत्रण स्वीकार किया। महाप्रभु ने वैंकट भट्ट के घर में चातुर्मास व्रत का पालन किया। गोपाल भट्ट गोस्वामी को अपने आराध्य देव मिल गए और छोटा बच्चा होते हुए भी वो साक्षात् महाप्रभु की पाद-संवाहन आदि सेवा करते थे , सेवा के रूप में उन्हें अपने हृदय का धन मिल गया। महाप्रभु ने वहाँ रहते हुए देखा वैंकट भट्ट के अन्दर अभिमान है कि हम तो लक्ष्मी-नारायण की उपासना करते हैं और चैतन्य महाप्रभु राधा-कृष्ण की उपासना करते हैं। राधा- कृष्ण, सीता-राम का जन्म हुआ, कृष्ण का जन्म हुआ है किन्तु नारायण का जन्म नहीं हुआ- वे अज है। नारायण अवतारी है और बाकी सब ने तो जन्म लिया है अर्थात् वे सब अवतार हैं। हम लोग तो अवतारी की सेवा करते हैं और चैतन्य महाप्रभु अवतार की सेवा करते हैं – इसलिए हमारी सेवा उच्च कोटि की सेवा है।
एक दिन चैतन्य महाप्रभु ने वैंकट भट्ट को कहा–“आपके आराध्य नारायण! उनके पास षड्विध ऐश्वर्य है, उनके समान ऐश्वर्य अन्य किसी के पास नहीं है और उनकी ही शक्ति लक्ष्मी देवी, उनकी कृपा के बिना किसीको ऐश्वर्य मिलता ही नहीं। किन्तु मेरे आराध्य(कृष्ण) है, उनका कोई ऐश्वर्य है ही नहीं – वह तो एक ग्वाला का लड़का है। गाय को चराकर और दूध बेचकर ही जिनका जीवन-निर्वाह चलता है।मेरे आराध्य के गले में वन माला है, कोई आभूषण नहीं है। उसके सिर पर मोर का पुँछ और हाथ में बंसी है, वे लाठी लेकर घूमता है, गाय और बछड़े को चराता है —इस प्रकार उसका कोई ऐश्वर्य नहीं है और उनके जो पार्षद है वे भी गरीब ग्वाल बाल,गोपी, गोप इत्यादि हैं। किन्तु मेरा एक प्रश्न है —कृष्ण, जो इतना गरीब है उनका संग प्राप्त करने एवं उनकी रासलीला में प्रवेश करने के लिए बिल्व -वन में आकर लक्ष्मी ने तप क्यों किया? जिसके कारण उस स्थान का नाम ‘श्री-वन’ हो गया।”
वैंकट भट्ट कहते हैं, इसमें क्या दोष है?
सिद्धान्ततस्त्वभेदेऽपि श्रीश- कृष्णस्वरूपयोः ।
रसेनोत्कृष्यते कृष्णरूपमेषा रसस्थितिः ॥
(श्रीभक्ति-रसामृत-सिंधु १. २. ५९)
तत्व और सिद्धान्त अनुसार जो लक्ष्मी-नारायण है, राधा-कृष्ण भी वही है। महाप्रभु ने कहा-लक्ष्मी देवी ने ब्रज मे बिल्व -वन में जाकर कृष्ण की रासलीला में प्रवेश करने के लिए तप किया। मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि लक्ष्मी देवी को रासलीला में प्रवेश क्यों नहीं मिला? यह सुनकर वे सोच में पड़ गए और उनका मन दु:खी हो गया। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं देखिए आपने जो श्लोक बताया, उस श्लोक में यह लिखा है कि कृष्ण और नारायण तत्त्व मे एक ही है किन्तु कृष्ण में रस और आनन्द अधिक है। नारायण मे अढ़ाई रस है – ‘शान्त’, ‘दास्य’ और ‘साख्य’ आधा और कृष्ण में पॉँच मुख्य रस तथा सात गौण मिलाकर बारह रस पूर्ण मात्रा में है। इसी रस को आस्वादन करने के लिए लक्ष्मी देवी ब्रज में आई, किन्तु उन्हें उसमें प्रवेश नहीं मिला, क्यों नहीं मिला? क्योंकि उन्होंने ऐश्वर्य भाव लेकर तप किया इसलिए उन्हें बार-बार नारायण ही मिले, किन्तु कृष्ण तो माधुर्य स्वरुप है।
चैतन्य चरितामृत में लिखा है, कृष्ण कहते हैं,
ऐश्वर्य ज्ञाने ते सब जगत मिश्रित,
ऐश्वर्य-शिथिल-प्रेमे नाही मोर प्रित
समग्र जगत ऐश्वर्य ज्ञान (विधि-मार्ग) से भजन करता है,किन्तु ऐश्वर्य से प्रेम शिथिल हो जाता है और भय उत्पन्न होता है। नारायण को देखने से भय उत्पन्न होता है और सब दूर रहते है। जो ऐश्वर्य भाव से मेरा भजन करते है, में उनका भजनीय नहीं हो सकता।
आमारे इश्वर माने, आपनाके हीन, तार प्रेमे वस आमि ना हय अधिन—कृष्ण कहते हैं—जो मुझे ईश्वर मानता और अपने आप को छोटा मानता है, उनके प्रेम से में वशीभूत नहीं होता।
मोर पुत्र मोर सखा मोर प्राणपति
एई भावे येई मोरे शुद्ध-भक्ति
‘मेरा पुत्र है’, ‘मेरा सखा है’ और ‘मेरा प्राणपति है’ (सख्य रस में जो आनंद है, उस से अधिक आनंद वात्सल्य-रस और सब से अधिक आनंद मधुर रस में) —इस प्रकार जिनका भाव है, में उनका वशीभूत हूँ।
आपनाके बड़ माने, अमारे सम-हीन,
से सेई भावे हय आमि तहाँर अधीन
जो अपने आप को बड़ा समझते हैं जैसे कि नन्द महाराज, यशोदा देवी, वे कृष्ण को बच्चा मानते हैं। वे यह मानते हैं कि कृष्ण अपने आप कुछ नहीं कर सकता-खाना बना नहीं सकता, खाना खा नहीं सकता, सो भी नहीं सकता,स्नान भी नहीं कर सकता। इसलिए वे बहुत प्रीति के साथ बच्चे का लालन-पालन करते हैं, उनकी वही प्रीति से भगवान कृष्ण वशीभूत हो जाते हैं। जहाँ पर ऐश्वर्य-युक्त सेवा है, वहाँ पर कृष्ण वशीभूत नहीं होते। इसलिए जब लक्ष्मी देवी ने ऐश्वर्य भाव से तप किया तो नारायण ही आएँगे- कृष्ण कैसे आएँगे? उन्होंने माधुर्य भाव के सेवक- सेविका और गोपियों का आनुगत्य नहीं किया। किन्तु रामायण में लिखा है, जब दण्डकारण्य के ऋषियों ने रामचन्द्र को पति रूप से प्राप्त करने की इच्छा की तब रामचद्र जी ने उनसे कहा-ये लीला मे यह संभव नहीं है, इसमे में एकपत्नी व्रतधर हूँ। जब में ब्रज मे प्रकट होऊँगा तुम लोग भी वहाँ पर गोपी गृह मे जन्म ले लेना गोपी भाव से ही आप लोग मुझे प्राप्त करेंगे।
लक्ष्मीजी कृष्ण के भक्तों को समझ ही नहीं पाई, वे तो उन्हें गरीब ही समझती रही। यहाँ तक की ब्रह्मा भी उन्हें समझ नहीं पाए, दूसरों की तो बात ही क्या? कृष्ण को देख उन्हें ग्वाल-बाल समझकर, सब ग्वाल-बालों और बछड़ों को चोरी करके एक साल तक अपने पास रख लिया। जब वे शरणागत होकर कृष्ण के पास आए, तब कृष्ण ने उनको अपना स्वरूप दिखाया। ब्रह्माजी ने अपने जीवन का उदाहरण देकर दिखाया,यदि हम भगवान के पास जाने की इच्छा करते हैं तो शरणागत होना होगा। जब शरणागत हो जाएँगे और उनकी कृपा मिलेगी तभी तो उन्हें समझेंगे। शरणागत होने के लिए हमें शरणागत भक्त का संग करना होगा, शरणागत भक्त का संग करने से हमारे अन्दर भी शरणागति आ जाएगी और भक्ति की बुनियाद शरणागति हमारे हृदय में है, जो माया के प्रभाव से आच्छादित हुई है, वह भक्त के संग से प्रकाशित होगी।
न तथा ह्यघवान् राजन्पूयेत तपआदिभि: ।
यथा कृष्णार्पितप्राणस्तत्पुरुषनिषेवया ॥
(श्रीमद् भागवतम् 6.1.16)
श्रील शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज को कहते है— कर्म-कांडीय प्रायश्चित, ज्ञान-कांडीय तपस्या, ब्रह्मचार्य, शम-दमादि द्वारा व्यक्ति इस प्रकार पवित्र नहीं हो सकता है,जिस प्रकार शरणागत होने से पवित्र होता है। शरणागति के द्वारा व्यक्ति जिस प्रकार से पवित्र होता हैं अन्य किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता।
शरणागत कैसे होंगे? तत्त पुरुषनिसेवया—भगवान् के जो जन ॐ -तत् सत्, जिनमें शरणागति है, उनकी सेवा करेंगे तो हमारीआत्म-वृति भी प्रकाशित हो जाएगी। तब भगवन के निकट जा सकते हैं। भक्त की कृपा के बिना ये संभव नहीं हो सकता।
भक्तिस्तु भगवद भक्त सङ्गेन परिजायते
सत्संग प्राप्तयते पुंभी सुकृतै पूर्वसञ्चितैः।।
भगवान के भक्त के संग के बिना भक्ति असंभव है। श्री कृष्ण को माधुर्य रस में प्राप्त करने के लिए, माधुर्य रस के भक्त -तात्त्विक ब्रजवासी की कृपा चाहिए,नहीं तो ये असंभव है। गोपाल भट्ट गोस्वामी की कृपा होने से हम लोग नन्दनन्दन कृष्ण को प्राप्त कर सकते हैं।
महाप्रभु से वेंकट भट्ट ने जब इस प्रकार के विचार सुने तब वे लोग लक्ष्मी-नारायण की उपासना को छोड़कर, राधा कृष्णा के भक्त हो गए। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने प्रबोदानन्द सरस्वती से दीक्षा लेने की लीला की। कालियदह के पास प्रबोदानन्द सरस्वती का स्थान है, ब्रज-मण्डल परिक्रमा में हम वहाँ जाते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘राधा-रास-सुधा-निधि’ में लिखा, महाप्रभु के संग से उन लोगों में एकदम परिवर्तन आ गया ओर उन्होंने लक्ष्मी-नारायण की सेवा छोड़कर राधा कृष्ण की सेवा प्रारंभ की।
राधारमण कैसे प्रकट हुए? एक बार गोपाल भट्ट गोस्वामी तीर्थ भ्रमण के लिए उत्तर भारत मे गण्डकी नदी के पास गए थे। वहाँ से वे एक शालिग्राम शिला लेकरआए, कोई कोई कहते हैं 12 शालिग्राम शिला लेकर आए। वृन्दावन में वही शालिग्राम शिला की वे सेवा करने लगे ओर उनकी इच्छा हुई कि यदि ये शालिग्राम, मूर्ति हो जाए तब हम उनको सज्जित(श्रृंगार) कर सकते हैं। उसी समय एक शेठ ने आकर बहुत वस्त्र ओर आभूषण उनको दिए। तब गोपाल भट्ट गोस्वामी चिन्ता करने लगे, ये सब शालिग्राम को कैसे पहनाएंगे – भगवान जब श्री मूर्ति हो तभी उनको ये सब पहनाया जा सकता है। दूसरे सिन प्रातः उठकर उन्होंने देखा कि एक शालिग्राम शिला ने राधारमण विग्रह रूप धारण कर लिया- यह देखकर वे आश्चर्यचकित हो गए। हम विचार नहीं कर सकते कि वे किस प्रकार के भक्त हैं? अर्थात् गोपाल भट्ट गोस्वामी भगवान के पार्षद हैं, जिनके लिए चैतन्य महाप्रभु को वहाँ आना पड़ा ओर जब वो रो रहे थे तब भगवान कृष्ण ‘राधा-रमण’ रूप में प्रकट हो गए।
नाम -विग्रह स्वरूप, तीन एक रूप,
तिने भेद नहीं तिन चिद-आनंद-रूप ।।
(चै. च. म. 7/131)
हमारी दृस्टि कैसी है? हम लोग राधारमण के विग्रह को एक मूर्ति के रूप में देखते हैं। वहाँ राधारमण के पास राधा रानी के स्थान पर, चिह्न के रूप में एक मुकुट रख दिया गया। चैतन्य महाप्रभु ने गोपाल भट्ट गोस्वामी को एक डोर कौपीन ओर एक कृष्ण वर्ण आसन दिया था —आज भी राधा-रमण मन्दिर में इन सब वस्तुओं का दर्शन हम कर सकते हैं।
जब माता-पिता ने शरीर छोड़ दिया तब गोपाल भट्ट गोस्वामी वृन्दावन आ गए और श्रीरूप-सनातन गोस्वामी से मिले। रूप-सनातन गोस्वामी ने एक पत्र लिखकर गोपाल भट्ट गोस्वामी के आगमन के विषय में महाप्रभु को जानकारी दी।तब महाप्रभु ने उत्तर में लिखा, उनको अपने छोटे भाई के जैसे बड़े स्नेह से रखो।
जब रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को ज्ञात हुआ कि एक शालिग्राम से अद्भुत रूप से राधा- रमण विग्रह प्रकट हुए हैं तब वे उनके दर्शन के लिए वहाँ गए। श्री राधा-रमण के दर्शन कर वे आश्चर्य -चकित रह गए एवं और प्रेम में आप्लुत हो गए। वृन्दावन धाम में राधा-रमण मंदिर का विशेष वैशिष्ट है और सब वहाँ दर्शन के लिए जाते हैं। गोपाल भट्ट गोस्वामी के दो शिष्य थे, श्रीनिवास आचार्य और श्री गोपीनाथ पुजारी। गोपाल भट्ट गोस्वामी जब साहरन पुर गए थे तब गोपीनाथ पुजारी के पिताजी ने उनकी बहुत सेवा की थी। उनको पुत्र नहीं था तब गोपाल भट्ट गोस्वामी ने उनकी सेवा से संतुष्ट होकर उनसे कहा तुम्हारा एक बहुत अच्छा पुत्र होगा। जब उन्हें पुत्र प्राप्त हुआ तो वे सोचने लगे ये पुत्र तो गोपाल भट्ट गोस्वामी की कृपा से भगवान की सेवा के लिए हुआ है, इसलिए इसे भगवान की सेवा के लिए समर्पित करना चाहिए और उन्होंने अपने पुत्र को गोपाल भट्ट गोस्वामी को समर्पित कर दिया—ये ही पुत्र गोपीनाथ पुजारी हुए।
श्रीनिवास आचार्य ने गोपाल भट्ट गोस्वामी से दीक्षा ली और उनके शिष्य है—रामचन्द्र कविराज। आज गोपाल भट्ट गोस्वामी की आविर्भाव तिथि है, इस तिथि पर हमें उनकी कृपा प्राथना करनी चाहिए। उनकी कृपा से सर्वार्थ सिद्धि होगी। भक्त भगवान की कृपामय मूर्ति होता है, उनके साथ सम्बन्ध होना अत्यंत आवश्यक है। पहले सूर्य की रोशनी आएगी और फिर उस रोशनी से सूर्य का दर्शन होगा, सूर्य की रोशनी के बिना सूर्य को नहीं देख सकते – उसी प्रकार भक्त की कृपा के बिना भगवान को नहीं देख सकते।
श्री भक्ति विनोद ठाकुर ने अपने एक कीर्तन मे लिखा है—
राधा भजने यदि मति नहीं भेला
कृष्ण भजन तव अकारण गेला।
आतप रहित सूरज नहीं जानी,
राधा विरहित माधव नहीं मानी।।
गोपियाँ और मंजीरियाँ सब उनका ही विस्तार है, उनकी कृपा के बिना, सद्गुरु या शुद्ध भक्त की कृपा के बिना हम भगवान को नहीं जान सकते।
आज का तिथि में, उनके पाद-पद्मों में हृदय से अनन्त कोटि साक्षात् दण्डवत प्रणाम करता हूँ। वे तो कहीं भी प्रकट हो सकते हैं, जैसे जब नरोत्तम ठाकुर वृन्दावन जा रहे थे तब रास्ते में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी प्रकट हो गए थे। नरोत्तम राजा के पुत्र थे,वे प्रेम में उन्मत्त होकर वृन्दावन की ओर जा रहे हैं , उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया था, तीन दिन तक पैदल चलते-चलते पैर मे फुंसी हो गई ओर वे मूर्छित होकर गिर पड़े तब महाप्रभु ने वहाँ पर ब्राह्मण रूप से प्रकट होकर एक लोटे में उन्हें दूध दिया किन्तु उनकी दूध ग्रहण करने की भी ताकत नहीं थी, तब वहाँ पर रूप-सनातन ने प्रकट होकर अपने हाथों से उन्हें दूध पिलाया। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—योग-क्षेम-वहाम्यहम् ।
रामचन्द्र कविराज नरोत्तम ठाकुर का ही अभिन्न स्वरुप है। कविराज का मतलब है—जो कवि रस में श्रेष्ठ है। जब वे वृन्दावन आए थे तब उनका कवित्व और दिव्य रूप देखकर जिव गोस्वामी ने उन्हें कविराज की उपाधि दी थी। रामचन्द्र कविराज जी के छोटे भाई गोविन्द कविराज ने उनके बारे में लिखा है कि वे दिव्यकांति थे और उनके पिता श्रीखण्ड के वासी चिरंजीव सेन और माता सुनन्दा देवी धन्य है। जगन्नाथ देव जी की रथ यात्रा के समय चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल के भक्तों की सात कीर्तन मण्डलियाँ बनाई थी। अद्वैताचार्य की शांतिपुर की एक मंडली, कुलिनग्राम वासी भक्तों की एक मंडली, इस प्रकार से छः मण्डलियाँ तथा अंत में श्रीखण्डवासी भक्ति की भी मण्डली है और उनमें श्रेष्ठ हैं चिरंजीव सेन, जिनके पुत्र हुए रामचंद्र कविराज। श्रीखण्डवासी भक्तों में नरहरि सरकार ठाकुर, रघुनन्दन ठाकुर और मुकुन्द दास भी प्रमुख हैं।
जैसे नरोत्तम ठाकुर की प्रार्थना, प्रेम-भक्ति-चन्द्रिका इत्यादि गीति है, उसी प्रकार रामचंद्र कविराज ने भी गीति की रचना थी। उनकी दिव्य कांति और सुंदरता का जो भी दर्शन करता था वह आकर्षित हो जाता था।वही रामचन्द्र कविराज की आज तिरोभाव तिथि है। वे कृष्ण-लीला में करुणा मंजरी है—कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। कोई-कोई कहते हैं इन्होंने विवाह किया किन्तु, गौड़ीय वैष्णव अभिधान में लिखा है कि विवाह हुआ किन्तु उनका संसार में प्रवेश नहीं हुआ जबकि हमारे परम गुरूजी नित्य लीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद त्रिदण्डी स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने विवाह में विषय में कुछ नहीं लिखा, उन्होंने लिखा रामचंद्र कविराज पूर्ण जीवन ही त्यागी रहे,सब समय वे संसार से अनासक्त ही रहे। कोई कहते हैं उन्होंने तिलिया बुधुरी मुर्शिदाबाद में अपने भाई गोविन्द कविराज के पास जाकर भजन किया, किन्तु प्रभुपाद जी ने बताया वे सदैव श्रीखण्ड में ही रहे।
श्रीनिवास आचार्य ने उनको स्नेह पूर्वक अपना शिष्य बनाया। जब श्रीनिवास आचार्य, श्यामनन्द प्रभु और नरोत्तम ठाकुर, जिव गोस्वामी के आदेश पर वृन्दावन से ग्रन्थ ले जा रहे थे तब मार्ग में जाते समय हिन्दू राजा का राज्य है—यह सोचकर वे एक स्थान पर रात में विश्राम करने लगे, थकान के कारण उनको निद्रा आ गयी, और उस राज्य के राजा वीर हम्बीर,जो दिन में राजा और रात में डकैती करते थे उन्होंने आकर उनके सब ग्रन्थ चोरी कर लिए। सुबह उठकर ग्रंथों को न देखकर वे लोग बहुत दु;खी होकर सोचने लगे, हमारे सब मूल्यवान ग्रन्थ चले गए। तब अपने ग्रंथों को पुनः प्राप्त करने की इच्छा से श्रीनिवास आचार्य वहाँ पर ही रह गए, श्यामनन्द प्रभु उड़ीसा चले गए और नरोत्तम ठाकुर पूर्व बंग चले गए। श्रीनिवास आचार्य ने वहाँ रहकर राजा वीर हाम्बीर और उनके पूरे परिवार को साधु बना दिया। इस प्रकार श्रीनिवास आचार्य ने उनका उद्धार किया। श्रीनिवास आचार्य की कृपा से वे सब वैष्णव बन गये। वीर हाम्बीर राजा ने रामचन्द्र कविराज जो श्रीनिवास आचार्य के शिष्य है, उनको अपना शिक्षा गुरु माना। क्या ऐसा हो सकता है? कोई मास्टर का लड़का, अपने ही क्लास के दूसरे लड़के को पड़ा सकता है—सब शिष्य एक तरह के नहीं होते। गुरु के बहुत शिष्य है, उनमें से कोई एक योग्य शिष्य दूसरों को शिक्षा दे सकता है।
जब रामचन्द्र वृन्दावन आए तब जिव गोस्वामी रामचन्द्र को ‘कविराज’ की उपाधि देने के बाद राधा- दामोदर मन्दिर लेकर गए। राधा-दामोदर का दर्शन करने के बाद मन्दिर के पश्चात में स्थित रूप गोस्वामी के समाधी मन्दिर दर्शन करके उनमें जो प्रेम के अद्भुत विकार उत्पन्न हुए वह देखकर सब आश्चर्य-चकित रह गए।तद्पश्चात राधा कुण्ड में जाकर वहाँ स्नान करने के बाद वे रघुनाथ दास गोस्वामी से मिलने गए और रघुनाथ गोस्वामी को आलिंगन करके उनके शरीर में रोमांच कम्प उत्पन्न हुए। रामचन्द्र कविराज साधारण व्यक्ति नहीं है।आज उनकी तिरोभाव तिथि है। श्री राधा-रमण मंदिर के पीछे गोपाल भट्ट गोस्वामी की समाधी है, वहाँ जाकर हम उनकी परिक्रमा करते हैं। आज श्री रामचंद्र कविराज जो भगवान् के निज जन हैं, उनके पाद-पद्मों में अनन्त कोटि साक्षात् दण्डवत प्रणाम करते हुए उनकी अहुतिकी कृपा प्राथना करता हूँ। जो नरोत्तम ठाकुर के अभिन्न आत्मा स्वरुप है और बहुत कृपालु है। गोपाल भट्ट गोस्वामी और रामचन्द्र कविराज दोनों ही अत्यंत कृपालु है।
हमने साक्षात् रूप से उनके दर्शन नहीं किए, वे लोग भगवान की कृपामय मूर्ति है, यदि हम हृदय से कृपा प्राथना करे तो वे लोग सर्वज्ञ है,हमें उनकी कृपा मिल जाएगी। यादृशि भावना यस्य, सिद्धि भवति तादृशी—हृदय में जिस प्रकार की भावना होगी उसी प्रकार का फल मिलेगा —भगवान हमारे हृदय में विराजमान है और हमारी भावना जानते हैं, वे देखते हम उन्हें चाहते है या नहीं। हृदय में भावना होने से, भावननुसार फल मिल जाता है। हम लोगों ने गोपाल भट्ट गोस्वामी और रामचन्द्र कविराज के दर्शन किए किन्तु हमारे गुरुदेव के दर्शन किए। गुरूजी के प्रत्यक्ष था , परन्तु उनका तत्त्व समझ ही नहीं पाया, सब समय उनकी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं कर पाया और कितने अपराध किए।
श्रीनिवास आचार्य ने ‘षड्गोस्वामी अष्टकम्’ मे गोपाल भट्ट गोस्वामी और अन्य षड् गोस्वामी का बहुत सुन्दर रूप से महात्तम कीर्तन किया है।
संख्यापूर्वक नामगाननतिभि: कालावसानीकृतौ
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ।
राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ।।
षड् गोस्वामी ने किस प्रकार तीव्र भजन किया—संख्या पूर्वक नाम, गान किया—प्रतिदिन हज़ारों वैष्णवों को प्रणाम किया, अपना सर्वेक्षण भजन में व्यतीत किया, निद्रा और आहार को भी जय कर लिया। उनको इस प्रकार तीव्र भजन करने की क्या आवश्यकता है? इस प्रकार तीव्र भाव में भजन कर उन्होंने संसार के जीवों शिक्षा दी।
हमारे गुरुदेव जो उनके ही अभिन्न स्वरुप है, उनका बाहरी स्वरुप भी देखने में साधारण व्यक्ति जैसे नहीं था। सभी उनको प्रभुपाद जी का पुत्र समझते क्योंकि वे देखने में उनके जैसे ही दीखते थे। वे जहाँ भी जाते चाहे पंजाब हो या दक्षिण भारत, सब उनसे आकर्षित हो जाते। गुरुजी के सब गुरु भाईयों ने उनके पास आकर पूरी में प्रभुपाद जी का स्थान प्रकाशित करने के लिए प्रार्थना की। जब गुरुजी कोई कार्य करने का संकल्प करेंगे तो उसे पूर्ण करेंगे ही करेंगे। अभी भी वे ही सब कुछ कर रहे हैं, हम तो मात्र निमित्त है—हमने साक्षात् रूप से देखा,वे हमें बल दे रहे हैं और उनकी सहायता से ही सब कुछ हो रहा है। इसलिए आज की तिथि में उनके पाद-पद्मों मे अनन्त कोटि साक्षात् दण्डवत प्रणाम हुए उनकी अहैतुकी कृपाप्रार्थना करता हूँ, जाने-अनजाने में कितने अपराध किए और उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया। आज की तिथि में मेरे सब अपराधों को क्षमा करके वे मुझे अपने चरणों की सेवा प्रदान करें।