श्रील भक्ति कुमुद संत गोस्वामी महाराज की महिमा

मुझे मेदिनीपुर मठ में श्रील भक्ति कुमुद संत गोस्वामी महाराज के प्रथम दर्शन प्राप्त हुए। मेदिनीपुर मठ में श्रील भक्ति विचार यायावार गोस्वामी महाराज और श्रील गोस्वामी महाराज भी थे। उस समय मैं श्री चैतन्य गौड़ीय मठ, 8, हजरा रोड, कोलकाता में रहता था। वहाँ से, श्री गुरुदेव का निर्देश प्राप्त कर मैं मेदिनीपुर मठ आया था। मेदिनीपुर मठ की स्थापना श्रील गुरुदेव, श्रील यायावार गोस्वामी महाराज और श्रील संत गोस्वामी महाराज के संयुक्त प्रयासों से हुई थी। मठ का नाम ‘ श्री श्यामानंद गौड़ीय मठ’ है। बाद में श्रील संत गोस्वामी महाराज ने उस क्षेत्र में श्रीमन महाप्रभु के संदेश का प्रचार किया और केसियाडी में ‘श्री गौरांग मठ’ की स्थापना की। श्रील महाराज का आविर्भाव स्थान भी मेदिनीपुर जिले में ही है। स्थान का नाम नरमा-धिष्णु है। मेदिनीपुर पहले ओडिशा राज्य में था। श्रील श्यामानंद प्रभु और रसिकानंद देव गोस्वामी का भी आविर्भाव स्थान भी उसी क्षेत्र में है।

श्रील महाराज के पिता का नाम पूज्यपाद श्रीवैकुंठ नाथ राय और उनकी माता का नाम श्रीमती रत्नामयी देवी था। उनके परिवार के सभी सदस्यों में कीर्तन गायन का विशेष गुण था। वे तीन भाई थे, सबसे बड़े राधेश्याम, उनके बाद राधामदनमोहन और सबसे छोटे राधा रमण। राधा रमण बाद में श्रील भक्ति कुमुद संत गोस्वामी महाराज हुए। मठाश्रित होने के बाद भी श्रील प्रभुपाद ने उनका नाम परिवर्तन नहीं किया। उन्होंने ग्यारह वर्ष की आयु से ही मठ में रहना आरंभ कर दिया था। वे मठ में रहते हुए स्कूल में पढाई भी करते थे। जिस स्कूल में उन्होंने पढ़ाई की उसका नाम ‘न्यू इंडियन स्कूल’ है। वे 1321 के बंगाब्द (1941 A.D.) में वैशाख मास की कृष्ण द्वितीया को प्रकट हुए थे। उनके परिवार में भक्तिमय वातावरण था। उनका कन्ठ का स्वर मधुर था। वे बहुत अच्छा कीर्तन करते थे। मुझे गौरांग मठ, केसियाडी में उनके कीर्तन सुनने का अवसर मिला। उन्होंने तब ‘गोपीनाथ मम् निवेदन सुनो..’ ये कीर्तन गाया था। सभी कीर्तन उनको मुखस्थ थे, जिस प्रकार से उन्होंने नृत्य-कीर्तन किया, कि वो देखकर सब आश्चर्य-चकित हो गए, इस प्रकार का कीर्तन कभी देखा नहीं, घंटे-घंटे तक कीर्तन करते थे। उनका कंठ का स्वर अतिशय मधुर, चित्ताकर्षक था, सुन्दर उदाहरण के साथ हरिकथा बोलते थे, उनकी हरिकथा भी चित्ताकर्षक होती थी। वे एक प्रखर वक्ता थे।

उन्होंने खड़गपुर में एक और मठ की स्थापना की। एक बड़ा प्रिंटिंग प्रेस भी वहां स्थापित किया था। उनके सागर महाराज नामक एक स्निग्ध, निष्ठावान और सेवापरायण सेवक थे, उनके चले जाने के बाद उनका मन अत्यंत वेदना-हत हुआ। हम खड़गपुर मठ के वार्षिक समारोह के समय वहाँ जाते थे, तब वहाँ नगर संकीर्तन भी हुआ करता था।

जगन्नाथ पुरी में समुद्र के पास भी उनका एक मठ है। जब हम श्रील प्रभुपाद का आविर्भाव स्थान प्राप्त करने का प्रयास कर रहे थे तब लगभग तीन साल तक जगन्नाथ पूरी में समुद्र के पास स्थित उनके मठ में हम ठहरते थे। हम प्रभुपाद के आविर्भाव स्थान के निकट में ही कहीं रुक सकते थे किन्तु जिन किरायेदारों से उस स्थान को खाली करवाने का प्रयास कर रहे थे, हम यदि निकट में ही रहते तो वे जान लेते कि हम कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं। इसलिए हम उस स्थान से दूर संत गोस्वामी महाराज के मठ में रुके। वहाँ संत गोस्वामी महाराज के दर्शन का भी लाभ प्राप्त होता था। वहाँ एक पीसी माँ थी जो नाना-प्रकार के व्यंजन बनाकर बहुत स्नेह से खिलाती थी। उस समय मेरे साथ गौरांग प्रभु (आचार्य महाराज) थे। हमारे मठ की रजिस्ट्री और अन्य औपचारिकताओं को उस दौरान किया गया था। इसप्रकार श्रील संत गोस्वामी महाराज के मठ में रहकर हमने श्रील प्रभुपाद के अविर्भाव स्थान को प्राप्त किया। इस प्रकार उनके साथ घनिष्ट सम्बन्ध रहा।

उन्होंने कोलकाता के बेहाला में भी एक मठ की स्थापना कि थी, एक पत्रिका में प्रकाशित एक आर्टिकल में श्रील संत गोस्वामी महाराज कहते है, “मैंने यहाँ मठ स्थापन करने कि इच्छा कि थी किन्तु ऐसी प्रतिकुल परिस्थति उपस्थित हुई थी कि चारों दिशाओं में सब मार्ग जैसे बंद हो गए हो ऐसे लग रह था, कहा जाऊ क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। प्रतिष्ठा करने के विचार से विग्रह लेकर आ गया था, किन्तु वातावरण अत्यंत प्रतिकूल था, मुझे किसी प्रकार के झगड़ा-कलह इत्यादि में पड़ना नहीं था, इसलिए मैंने निश्चय किया कि यहाँ मठ बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं यह विग्रह श्रील माधव गोस्वामी महाराज के मठ में दे दूंगा और मैं अंतर्धान करूँगा।”

उस समय गुरुमहाराज और श्रील पूरी महाराज ने उनको आश्वासन देते हुए समझाया कि अस्थिर होने की आवश्यकता नहीं है। उस समय विग्रह बेहाला में ही किसी गृहस्थ के घर में रखे हुए थे. उसी दौरान वहाँ एक अलौकिक घटना घटित हुई | विग्रहों को लेकर उनके गुरुदेव के स्थान पर ले जाने का विचार करके विग्रह को एक पिटारे में रखा हुआ था किन्तु वह पिटारा खुल गया और विग्रह स्वयं ही खड़े हो गए| अर्थात् वे विग्रह कहीं और नहीं जाकर वही रहना चाहते थे, वे उस क्षेत्र में रहकर वहाँ के लोगों को दर्शन देकर उन पर कृपा करना चाहते थे। विग्रह अभी तक प्रतिष्ठित भी नहीं हुए और उन्होंने इस प्रकार की लीला की यह देखकर संत गोस्वामी महाराज बहुत उत्साहित हुए, और तब बेहाला में मठ की स्थापना हुई। इससे पूर्व उनका मन पूर्ण रूप से हताश हो गया था, ऐसा उन्होंने उस आर्टिकल में लिखा हुआ है।

मैं कई बार वार्षिक उत्सव के समय खडगपुर मठ में गया। मैंने श्री गौरांग मठ के सियाडी एवं बेहाला मठ कोलकता के भी दर्शन किए है।