सद्गुरु श्रीचरण आश्रय
श्रीगुरुदेव का चरणाश्रय करने पर कृष्णनाम, कृष्णमन्त्र इत्यादि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। किन्तु श्रीगुरुदेव की प्रचुरमात्रा में सेवा करने की बुद्धि न होने पर इन सब अप्राकृत (भगवान एवं भक्ति) वस्तुओं की अनुभूति नहीं होती । विश्रम्भपूर्वक अर्थात् दृढविश्वास या प्रीतिपूर्वक श्रीगुरुदेव की सेवा न करने पर तथा श्रीगुरुदेव के निर्देशानुसार भक्तिमार्ग में अग्रसर न होने पर हमारा वास्तविक कल्याण नहीं हो सकता अर्थात् हमें भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । क्योंकि आध्यक्षिक लोग तर्कपन्थी होते हैं। तर्कपथ का अवलम्बन करने पर नौतपथ या भक्तिमार्ग की बातें समझ में नहीं आ सकतीं। क्योंकि तर्क बुद्धि की उपज है, परन्तु भक्ति बुद्धि से अतीत होती है। किसी भक्तगुरु के चरणों के आश्रय में रहकर ही उनके आनुगत्य में भक्तिपथ में विचरण न करने पर बुद्धि का उपयुक्त व्यवहार नहीं हो सकता। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है- आदौ गुरुपदाश्रय तस्माद् कृष्ण दीक्षादि शिक्षणम्, विश्रम्भेण गुरोः सेवा, साधु वर्मानुवर्तनम् । अर्थात् सर्वप्रथम साधक को गुरुपदाश्रय करना चाहिए । तत्पश्चात् उनसे कृष्णदीक्षा एवं शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, तत्पश्चात् प्रीतिपूर्वक गुरुसेवा एवं महाजनों के द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अवलम्बन करना चाहिए ।