श्रीचैतन्य महाप्रभु ने भोग और त्याग दोनों को ही त्याग करने के लिए कहा है। चक्षु, कर्ण, नासिका, जिहा, त्वचा आदि इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस, गन्ध आदि विषयों को ग्रहण करना ही भोग है। यद्यपि यह भोग कुछ समय के लिए आनन्ददायक होता है, परन्तु इसका परिणाम बहुत ही भयानक होता है । इसीलिए भोग की अपेक्षा त्याग की महिमा अधिक है। त्याग अथवा वैराग्य बहुत ही अच्छा है, परन्तु जिस वैराग्य या त्याग में ‘नेति नेति’ कहते हुए विषयों का त्याग करते-करते अन्त में भगवान एवं भक्तों को भी त्याग देते हैं, यह त्याग भी एक प्रकार से भोग ही है। अर्थात् मायावादी लोग संसार को मिथ्या जानकर संसार की प्रत्येक वस्तु को अनित्य एवं मिथ्या जानकर यह भी सत्य नहीं है, यह भी सत्य नहीं है, कहकर उनका परित्याग कर देते हैं। परन्तु दुर्भाग्यवशतः भगवान एवं भक्ति को भी जागतिक (मायिक) वस्तु मानकर उसका भी त्याग कर देते हैं। वे इस जगत को कष्टमय जानकर इससे मुक्त होना चाहते हैं। इस प्रकार कष्ट न चाहकर मुक्तिसुख प्राप्ति की आशा तो सबसे बड़ा भोग है। जो इस जगत को मिथ्या मानते हैं, कौए की विष्ठा की भाँति अपवित्र मानते हैं, उनका ऐसा विचार सर्वथा भ्रमपूर्ण है। क्योंकि वास्तव में जगत की सृष्टि सर्वशक्तिमान श्रीभगवान ने की है। यदि हम उनकी सृष्टि को अनित्य या मिथ्या मानें, तो इसका अर्थ यह हुआ कि हम भगवान की शक्ति को स्वीकार नहीं करते। जब कि शास्त्रों का वास्ततिक अर्थ यह है कि जगत की समस्त वस्तुएँ सत्य हैं, किन्तु नाशवान हैं।

भोग जिस प्रकार किसी व्यक्ति को सांसारिक वस्तुओं को भगवान की सेवा की वस्तु समझने नहीं देता, बल्कि उसके अन्दर यह भाव ले आता है कि में ही भोक्ता हूँ। अर्थात् जैसे विषय भोग में फंसा हुआ व्यक्ति स्वयं को ही जगत का भोक्ता अथवा मालिक मानने लगता है, उसी प्रकार त्याग भी किसी को भक्ति से दूर कर देता है। त्याग भी उसे यह समझने नहीं देता कि संसार की सभी वस्तुएँ भगवान की सेवा की वस्तुएँ हैं। वह उसके हृदय में यह भाव उत्पन्न कर देता है कि संसार की प्रत्येक वस्तुएँ दुःखदायी और बन्धन का कारण हैं, अतः उनका परित्याग करने से ही कल्याण हो सकता है। इस प्रकार वह भगवान, भक्ति और भक्तों के श्रीचरणों में अपराध कर देता है।

जगत की सभी वस्तुएँ विश्व का वैभव है। रूप, रस आदि सभी इन्द्रियों के विषय हैं। अतः इन्द्रियाँ अपने इन रूप, रस आदि विषयों से कभी भी विमुख नहीं हो सकतीं । यद्यपि कोई-कोई बाह्य इन्द्रियों को जैसे चक्षु, कर्ण, नासिका, जिहा, त्वचा आदि को रोक भी लेते हैं, परन्तु अन्तः इन्द्रिय मन से उन विषयों को भोग करते रहते हैं। यदि कोई विषयों को त्यागने के उद्देश्य से विषयों को ग्रहण करने वाले बाह्य इन्द्रियों को ही नष्ट करने की चेष्टा करता है, तो वैराग्य प्राप्ति से पहले ही उसे इन्द्रियों के नाश होने पर शारीरिक पीड़ा उठानी पड़ती है।

भक्त विषयों को न तो भोग करता है, न उसका त्याग करता है। वह तो उन समस्त विषय – भोगों को भगवान की सेवा की वस्तु मानकर उन्हें भगवान की सेवा में लगाता है। वे विषयों के प्रति आसक्ति त्यागकर शरीर धारण के लिए जितनी आवश्यकता है, उतना ही ग्रहण करते हैं तथा स्वयं को भगवान का सेवक जानकर निरन्तर भगवान की सेवा में लगे रहते हैं। त्याग एवं भोग आत्मा की वृत्ति नहीं है, सेवा ही आत्मा की नित्य वृत्ति है। मुक्त आत्माएँ (जीव) वैकुण्ठ में अपने प्रभु की सेवा में विभोर रहते हैं। भाग्यवान बद्धजीव बद्ध अवस्था से मुक्त या शुद्ध होने के लिए भगवान के द्वारा दिए हुए इन्द्रियों एवं विषयों को अपने भोग में नहीं लगाते, तथा न ही उन्हें दुःखमय जानकर उनका त्याग करते हैं। वे तो केवल भगवान की सेवा के अनुकूल विषयों को ग्रहण करते हैं तथा प्रतिकूल विषयों का त्याग करते हैं।