श्रीमद्भागवत महाभागवत श्रीगुरुदेव एवं गुरुनिष्ठ शुद्धभक्तों के श्रीमुख से ही सुननी चाहिए। जो व्यक्ति स्वयं भागवत नहीं बना है, उससे श्रीमद्भागवत का श्रवण करने से मंगल नहीं हो सकता। जिसका चरित्र खराब है, जिसके चित्त में काम की प्रबल तरंगें उठ रही हैं, जो प्रतिष्ठा और अर्थ का ही इच्छुक है, वह व्यक्ति कभी भी श्रीमद्भागवत का पाठ नहीं कर सकता । उसके मुख से श्रीमद्भागवत कीर्त्तित नहीं हो सकती। ऐसा व्यक्ति श्रीमद्भागवत पाठ के छल से अपनी इन्द्रियों का ही तर्पण करता है। इस प्रकार वह स्वयं तो आत्मकल्याण से वञ्चित होता ही है, दूसरों को भी वञ्चित कर देता है। जो सर्वदा हरिभजन करते हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव का आश्रय ग्रहण कर उनके श्रीमुख से अथवा उनके निर्देशानुसार अन्य शुद्ध वैष्णवों के श्रीमुख से श्रीमद्भागवत श्रवण करना चाहिए। तभी हमारा मंगल हो सकता है एवं हमें भक्ति प्राप्त हो सकती है।
श्रीमद्भागवत ही जिनका जीवन एवं सेव्य स्वरूप है, वे ही वास्तविक रूप में भागवत पाठ करते हैं, ठाकुरजी की सेवा करते हैं, हरिनाम करते हैं, ऐसे ही भक्तों का संग करना चाहिए। उनके लिए अपना सब कुछ अर्पण कर देना चाहिए । क्योंकि वे हमारी तरह भोगों में प्रमत्त नहीं रहते। वे भगवान की सेवा के छल से अपनी एवं दूसरों की वञ्चना नहीं करते अथवा भगवान की सेवा की वस्तुओं को मायिक जानकर उनका परित्यागकर फल्गु वैरागी की भाँति जड़ प्रतिष्ठा का संग्रह नहीं करते।
मैं जिसका संग करूँगा या जिससे कथा सुनूँगा, वह श्रौतपन्थी होना चाहिए । साधु गुरु कभी भी प्रेय पथ स्वीकार नहीं करते । वे श्रेयपन्थी या श्रौतपन्थी होते हैं । श्रौतपन्थी साधु अपने गुरुदेव के श्रीमुख से सत्यपथ या भक्तिपथ में चलने की जो शिक्षा प्राप्त करते हैं, उसी को वे दूसरों को बतलाते हैं। वे दूसरों को अपने मनःकल्पित बात कभी भी नहीं कहते । अनेक समय हमलोग गुरु का आश्रय ग्रहण करते हैं अथवा साधु संग करते हैं-अपने आत्मकल्याण के लिए नहीं, बल्कि प्रेय प्राप्ति अथवा अपस्वार्थ (अपनी कामना वासना को) को पूर्ण करने के लिए। आजकल गुरु ग्रहण करना तो एक श्रेणी के लोगों के लिए नाई या धोबी रखने की भाँति एक लौकिक या कुल परम्परा चल पड़ी है, और एक श्रेणी के लोगों के लिए गुरु करना एक फैशन मात्र हो गया है। साधुसंग या हरिकथा सुनना भी उसी प्रकार का एक कार्य हो गया है। अतः हमारा मंगल कैसे होगा ? उपयुक्त गुरु के मुख से कथा न सुनने पर क्या किसी का कल्याण हो सकता हैं ? इसीलिए जो अपना मंगल चाहते हैं, उन्हें साधुसंग के विषय में सावधान रहना चाहिए । साधु नामधारी लोगों के मुख से हरिकथा सुनने पर विपत्ति में ही पड़ना पड़ता है।
सौभाग्यवश भगवान की कृपा से यदि कोई शुद्ध साधु का संग प्राप्त करता है, तो उससे सत्यवस्तु भगवान एवं भक्ति-विषय में जानने के लिए उसके प्रति प्रगाढ़ निष्ठा होनी चाहिए। हमारे जीवन में जितना समय बच गया है, उसमें से एक मुहूर्त्त का समय भी विषय कार्यों में न गँवाकर भगवान के भजन में ही लगाना चाहिए, हमें सत्संग प्राप्ति के लिए व्याकुल रहना चाहिए । क्योंकि अन्यान्य सभी कर्तव्य सभी जन्मों में पूरे किये जा सकते हैं, परन्तु जीव का एकमात्र कर्तव्य सद्गुरु के चरणाश्रय में कृष्णभजन करना मनुष्य जन्म छोड़कर और किसी जन्म में सम्भव नहीं है।