श्रीरूपगोस्वामी भगवान के नित्यसिद्ध परिकर हैं। वे जगद्गुरु एवं भक्त-सम्राट हैं। वे कृष्णलीला की श्रीरूपमञ्जरी गोपी हैं। वे श्रीगौरसुन्दर के अन्तरंग भक्त हैं। वे जीव तत्त्व नहीं हैं, अपितु जीवों के प्रभु स्वरूपशक्ति तत्त्व हैं। वे श्रीमती राधिकाजी की प्रिय किंकरी हैं।
श्रीगौरसुन्दर के अन्यान्य भक्तों की अपेक्षा श्रीरूपगोस्वामी का विशेष वैशिष्ट्य हैं। वे प्रभु श्रीगौरसुन्दर के अत्यन्त ही प्रिय हैं। वे प्रभु के हृदय के भावों को जिस प्रकार स्पष्ट रूप से जान लेते थे, वैसा अन्य कोई नहीं जान पाता था। क्योंकि श्रीस्वरूप रूप के अनुगत जनों के हृदय में ही श्रीगौरसुन्दर के हृदय का निगूढ़भाव प्रकाशित हो सकता है। श्रीरूपगोस्वामीजी के सभी लोग ऋणी हैं। जब तक श्रीगौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय रहेगा, तबतक श्रीरूपगोस्वामीजी के अपूर्व दान को भुला न सकेगा।
जो श्रीकृष्ण की गोद में, वक्षस्थल में एवं मस्तक पर रहते हैं, अर्थात् कृष्ण जिन्हें सर्वदा अपने कन्धे एवं मस्तक पर धारण करते हैं, अर्थात् जो कृष्ण के अत्यन्त ही प्रिय हैं, वे ही हमारे नित्य उपास्य श्रीरूपगोस्वामी प्रभु हैं। हम उनकी चरणधूलि की ही कामना करते हैं। हमारी आशा भरोसा एकमात्र श्रीरूपगोस्वामी के चरणों में ही है।
कृष्ण की सेवा कैसे प्राप्त की जा सकती है ? इसके उत्तर में श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी प्रभु कह रहे हैं- श्रीरघुनाथदास गोस्वामीजी की कृपा से ही कृष्ण की सेवा प्राप्त होती है।
हम श्रीरूपगोस्वामी के चरणकमलों से जितनी दूर होंगे, प्रभु श्रीगौरसुन्दर के श्रीचरणकमलों से भी उतनी ही दूर होंगे । श्रीरूपगोस्वामीजी के अनुगत जन ही कृष्णभक्तिरूप सम्पत्ति के अधिकारी हैं। श्रीरूपगोस्वामीजी कृष्णभक्ति के जीवन्त आदर्श हैं। साधारण ऐतिहासिक लोगों की दृष्टि में वे अपने बड़े भाई श्रीसनातन गोस्वामी के शिष्य हैं। परन्तु श्रीसनातन गोस्वामी भी रूपगोस्वामी जी की कृपा की वाञ्छा करते हैं। श्रीसनातन गोस्वामीजी कहते हैं-जिसपर रूपगोस्वामीजी की कृपा नहीं होगी, वे कदापि श्रीराधागोविन्द की सेवा प्राप्त नहीं कर सकते।
कर्मकाण्डी और ब्रह्मज्ञानी जब भक्ति को लोप करने की चेष्टा कर रहे थे, उनके बल का नाश करने के लिए भक्ति का प्रचार करने वाले श्रीगौरसुन्दर के सेनापतियों की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में श्रीरूपगोस्वामी ही प्रभु के दो प्रधान सेनापति हुए। श्रीरूपगोस्वामी सेनापति और उनके अनुगत जन उनकी सेना हैं। श्रीस्वरूप दामोदर गौड़ीय वैष्णवों के ईश्वर हैं। वे ही सेना का गठन करते हैं, भक्ति के विरुद्ध अन्याभिलाषी, कर्मी, ज्ञानी एवं योगी सम्प्रदाय को पराजित करने के लिए।
उस रूपानुग सेना के हाथ में किसी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र नहीं हैं। उनका तो एकमात्र अस्त्र है-कीर्तन। उन भक्तिविरोधी सम्प्रदायों से और दुःख से कैसे अपनी रक्षा करनी चाहिए, प्रभु श्रीगौरसुन्दर ने प्रयाग में इसकी शिक्षा श्रीरूपगोस्वामी को अपनी शक्ति संचरितकर प्रदान की। उन सेनापतियों ने अपनी सेना के द्वारा जैसा युद्ध किया, उसकी आलोचना करने पर हम भी भक्ति विरोधी सम्प्रदायों के विचारों के विरुद्ध गोली चलाकर असवृत्ति, कर्माग्रह, फलकामना, अन्याभिलाषिता, पाषण्डता, नास्तिकता, विद्धभाव इत्यादि को नष्ट कर सकते हैं।
श्रीजीवगोस्वामी रूपानुग – सैन्यसिंह हैं। उन्होंने अपने अमोघ विचाररूपी बाण के द्वारा समस्त प्रकार के असत् मतों का खण्डन किया। श्रीरूप-सेनापति के अनुगत हैं- श्रीजीवगोस्वामी एवं श्रीरघुनाथदास गोस्वामी । श्रीरूपगोस्वामी उनके दासों के निकट जिस दुर्लभ सम्पत्ति को रख गये हैं, उसे हम श्रीनरोत्तम ठाकुर और श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के निकट प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम वास्तव में ही निष्कपटरूप से उस अमूल्य सम्पत्ति को चाहते हैं, तभी हम श्रीरूपगोस्वामी की सम्पत्ति उस सेवा सम्पत्ति को पा सकते हैं। श्रीरूपगोस्वामी जी का सौन्दर्य, माधुर्य, अलौकिकी असामान्या अहेतुकी अमन्दोद दया- कृपा-पराकाष्ठा की प्राप्ति होने पर कुरूप एवं विरूपानुगत्य नहीं रहता और सर्वत्र ही सुरूप एवं सुदर्शन होता है। तब विश्वभर के लोग जिस जड़ रूप के लिए पागल रहते हैं, उसे कुरूप जानकर उस पर थूकेंगे।
जिस रूप के द्वारा कृष्ण की सेवा की जाती है, इस समय वह उपाधि द्वारा ढका हुआ है । उपाधियाँ दो प्रकार की होती हैं। मानसिक उपाधि और शारीरिक उपाधि । उस रूप का विरोधी होकर कोई कर्मी, अन्याभिलाषी, ज्ञानी एवं कोई योगी के रूप में सजा हुआ है। कभी-कभी मन से सोचता है कि मैं मनुष्य हूँ, देवता हूँ, पण्डित हूँ, मूर्ख हूँ, धनी हूँ, गरीब हूँ, पिता हूँ, पुत्र हूँ, ब्राह्मण हूँ, संन्यासी हूँ। धन-सम्पत्ति का रूप, स्त्री का रूप, प्रतिष्ठा का रूप हमें आकर्षित कर लेता है तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए हम क्या कुछ नहीं करते ? श्रीरूपगोस्वामी ने श्रीगौरसुन्दर के जिस परमाकर्षक रूप के विषय में बताया है, उस रूप को प्राप्त करने के लिए क्या हमारे हृदय में एक बार भी लोभ नहीं जागेगा ?
सेवोन्मुख, निष्कपट एवं दैन्यमय प्रीति – चक्षुओं के द्वारा ही श्रीरूपगोस्वामीजी के चरणकमलों का दर्शन हो सकता है। हमारा भजन, पूजन, सर्वस्व, यह एवं परकाल जब सब श्रीरूपगोस्वामी के चरणकमल ही बन जाएँगे, तभी श्रीचैतन्यमहाप्रभु को पूर्णरूप से प्राप्त किया जा सकता है । अतः श्रीरूपगोस्वामी के चरणकमल ही हमारे लिए एकमात्र आशा और भरोसा हैं । उनकी कृपा ही हमारी एकमात्र अवलम्बन है ।। यही प्रार्थना है-
आददानस्तृणं दन्तैरिदं याचे पुनः पुनः ।
श्रीमदूपपदाम्भोजधूलि : स्याज्जन्मजन्मनि ।।
अर्थात् मैं दाँतों में तिनका धारणकर (अति दीनहीन भाव से) यही प्रार्थना करता हूँ कि जन्म-जन्मों तक श्रीरूपगोस्वामीजी के चरणकमलों की धूलि बन जाऊँ।