यदि भगवान किसी पर कृपा करें, तभी वह भगवान की सेवा कर सकता है । अन्यथा किसी की सामर्थ्य नहीं है कि इस कोलाहलपूर्ण संसार में रहकर भगवान की सेवा कर सके । हरि-सेवा कोई साधारण वस्तु नहीं है।
जो व्यक्ति जन्म, ऐश्वर्य, पाण्डित्य एवं सौन्दर्य-इन चार मदों एवं विषयों के अधीन है, वह कदापि हरिसेवा नहीं कर सकता। इन चारों मदों को गोपीजनवल्लभ की सेवा में नियुक्त करने पर ही इनके चंगुल से मुक्त होकर हरिसेवा की जा सकती है। तात्पर्य यह है कि जब तक किसी को उच्चकुल में जन्म, सौन्दर्य तथा ऐश्वर्य का अभिमान है, वह कदापि भगवान की सेवा के योग्य नहीं है।
इन चार मदों के वश में होने के कारण ही जीव स्वयं को जगत का भोक्ता समझ रहा है। वह स्वयं प्रभु होना चाहता है, दास नहीं यही अवैष्णवता है। सेव्य (भगवान) एवं सेवक का सम्बन्ध ही भक्ति या सेवा है। में दूसरों का सेव्य (मालिक) हूँ ऐसा अभिमान रहने पर सेवा या भक्ति कैसे सम्भव हो सकती है? क्योंकि सेवा तो सेवक ही करता है, सेव्य नहीं ।
मैं कर्त्ता होकर श्रवण, कीर्तन, दर्शन एवं स्मरण करूँगा, यह कर्मियों या अभक्तों का विचार है अर्थात् कर्त्ताभिमान से श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि भक्ति नहीं है। जब कोई कर्त्ता अभिमान त्यागकर अपनी समस्त प्रकार की चेष्टाओं को भगवान की सेवा में नियुक्त करता है, तभी उसकी समस्त प्रकार की असुविधाएँ दूर हो सकती हैं और वह भगवान की सेवा का आनन्द प्राप्त कर सकता है ।
यदि हम स्वयं को भगवान का सेवक मानते हैं तो हमें २४ घण्टे भगवान की सेवा में लगे रहना चाहिए। हमें सम्पूर्णरूप से भगवान के ऊपर निर्भर रहना चाहिए। हमारी समस्त प्रकार की विपत्तियों और समस्याओं का समाधान एक ही प्रकार से दूर हो सकता है, यदि हम भगवान के विधान पर पूर्णरूप से निर्भर रहें, अर्थात् हमें समस्त प्रकार की विपत्तियों को भगवान की कृपा मानकर सहन करना चाहिए ।
इस संसार में हम लोग पति-पत्नी, पिता-पुत्र, मित्र- मित्र, प्रभु-भृत्य (मालिक – नौकर), इन चार प्रकार के सम्बन्धों में बँधकर सेवा करते हैं । अपने स्वरूप अर्थात् जीव स्वरूपतः कृष्ण का दास है इसे भूलने के कारण ही हम इस जगत में इन चार प्रकार के अनित्य सम्बन्धों में बँध गये हैं। इस संसार में प्रारम्भ में सब-कुछ अच्छा लगता है, परन्तु उसका अन्त बहुत ही नैराश्यजनक और भयानक होता है। “माधव हाय परिणाम निराशा”- हे माधव मुझे परिणाम में निराशा ही हाथ लगी है। परन्तु इन्हीं चार प्रकार के सम्बन्धों में से कोई एक सम्बन्ध भगवान के साथ हो जाने पर हमारा निश्चित रूप से कल्याण हो सकता है तथा तभी भगवान की सेवा हो सकती है। इसी जड़ जगत में रहकर भगवान की सेवा इन चारों में से किसी एक सम्बन्ध के द्वारा करने पर वैकुण्ठ जाया जा सकता है। परन्तु इस जगत में दूसरों से सेवा ग्रहण करने की इच्छा रहने पर संसार में आसक्त होना पड़ता है जिसके फलस्वरूप त्रितापों से दग्ध होना पड़ता है।
हमें सर्वदा स्मरण रखना चाहिए कि हम कृष्ण नहीं हैं, प्रभु नहीं हैं। बल्कि हम कृष्ण के सेवक हैं। कृष्ण ही हमारे नित्य सेव्य तथा नित्य प्रभु हैं। हम कृष्ण के नित्य सेवक हैं, इसे भूलकर कृष्ण की सेवा के विरुद्ध आचरण करने पर ही संसार दशा हो जाती है। तब त्रितापों से ग्रस्त होकर हमारे दुःखों की सीमा नहीं रहती। संसार नरक का द्वार है। वहाँ पर केवल भोग और अपना इन्द्रिय तर्पण है। कृष्ण को भूलने से ही संसार दशा होती है। इसीलिए शास्त्रों में कहा है-
चारि वर्णाश्रमी यदि कृष्ण नाहि भजे ।
स्वधर्म करिलेओ से रौरवे पड़ि मजे ।।
अर्थात् बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार वर्ण और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास ये चार आश्रम हैं। इसे वर्णाश्रम धर्म कहते हैं। यदि कोई अच्छी प्रकार से इस वर्णाश्रम धर्म का पालन तो करता है, परन्तु कृष्ण का भजन नहीं करता है, तो वह स्वधर्म (वर्णाश्रम धर्म) का पालन करते हुए भी रौरव नामक नरक में जाता है।