भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं कि भगवान को बुलाने के लिए एक घास के तिनके से भी अधिक सुनीच तथा दीन-हीन होना पड़ेगा । विद्या, रूप, धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य इत्यादि के अभिमान को पूर्णरूप से त्यागना पड़ेगा। क्योंकि जबतक एक व्यक्ति को यह अनुभव न हो कि मैं छोटा हूँ अथवा असमर्थ हूँ तो वह दूसरे के सामने कैसे झुकेगा तथा अपनी सहायता के लिए उससे प्रार्थना क्यों करेगा? इस संसार में ही हम देखते हैं कि जब बहुत चेष्टा करने पर भी कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने में असमर्थ हो जाता है, तो उस समय असहाय होकर सहायता के लिए दूसरों से प्रार्थना करता है। प्रार्थना करने का तात्पर्य है- उसका अभिमान अहंकार नष्ट हो चुका है। उसी प्रकार जब श्रीगौरसुन्दर भगवान को बुलाने के लिए कह रहे हैं, तो इसका तात्पर्य यह है कि पहले हमें यह अनुभव करना पड़ेगा कि मैं असहाय हूँ तथा अपनी चेष्टा से इस जन्म-मरण के चक्कर से पार नहीं हो सकता, तभी हम सर्वशक्तिमान भगवान को अपनी सहायता के लिए बुला सकते हैं। परन्तु यदि कोई भगवान को सहायता के लिए पुकारता है केवल अपना काम हल करने के लिए, वास्तव में उनसे प्रीति नहीं है, तो यह दीन-हीनता नहीं है, यह कपटता है, स्वार्थ है ऐसी पुकार भगवान तक नहीं पहुँचती । भगवान परम स्वतन्त्र हैं, पूर्ण चेतन वस्तु हैं, सबके अन्तर्यामी है, वे किसी के अधीन नहीं हैं। जबतक हम अपने अहकार को पूर्णरूप से त्यागकर निष्कपट दीनता में प्रतिष्ठित न हो जाएँ अर्थात् वास्तव में ही दीन-हीन न बन जाएँ, तबतक परम स्वतन्त्र भगवान तक हमारी पुकार नहीं पहुँच सकती।

एक बात और भी है-तृणादपि सुनीच (दीन-हीन) होकर भगवान को पुकारते समय यदि हममें सहनशीलता न हो, तो भी पुकार व्यर्थ हो जायेगी । यदि हम किसी वस्तु के लोभ में पड़कर असहिष्णुता दिखाते हैं, तो यह तृणादपि सुनीच (दीनता) के विरुद्ध है। यदि हमें पूर्ण विश्वास है कि भगवान की कृपा हो जाए तो किसी वस्तु का अभाव नहीं रह सकता, ऐसी अवस्था में तुच्छ वस्तुओं के मोह में पड़कर हम असहिष्णु नहीं बनेंगे अर्थात् यदि कोई हमारी तुच्छ सांसारिक वस्तु को नष्ट भी कर देता है, तो हम उस पर क्रोध नहीं करेंगे।

अनेक समय हम ऐसा सोचते हैं कि भगवान को पुकारने से क्या होगा? शास्त्रों में और भी अनेक उपायों का वर्णन है जैसे कर्म, ज्ञान, तप आदि । अतः मैं किसी अन्य उपाय को ग्रहण कर सकता हूँ। सहनशीलता के अभाव में ही ऐसी सोचें जन्म लेती हैं। ऐसे कुविचारों से रक्षा के लिए हमें एक रक्षक की आवश्यकता होती है। गुरु ही वे समर्थवान रक्षक हैं। श्रीलनरोत्तम ठाकुर कह रहे हैं- “आश्रय लइया भजे, तारे कृष्ण नाहि त्यजे, आर सब मरे अकारण ।” जो गुरु-वैष्णवों के चरणकमलों का आश्रय लेकर भगवान का भजन करता है, उसे तो कृष्ण कभी भी नहीं छोड़ते। इनके अतिरिक्त सब व्यर्थ ही मारे जाते हैं। कृष्ण उनकी ओर देखते तक नहीं।