गीता में श्रीभगवान ने समस्त प्रकार के धर्मों को छोड़कर उनके चरणों में शरण लेने की बात कही है। जिन भगवान ने गीता में ही उपदेश प्रदान किया है कि स्वधर्म छोड़कर परधर्म ग्रहण करने से अमंगल होता है। अपने धर्म में स्थित रहते हुए मरना भी अच्छा है, परन्तु किसी भी अवस्था में भयावह परधर्म का अनुष्ठान करना अनुचित है, वे भगवान ही यहाँ पर समस्त धर्मों को परित्याग करने की बात कह रहे हैं। इस प्रकार भगवान की इन परस्पर विरोधी जैसी प्रतीत होनेवाली बातों का क्या सामञ्जस्य है ? देखिए, मनुष्य अपनी विद्या, बुद्धि एवं पारदर्शिता के माध्यम से पुरुषोत्तम भगवान को नहीं जान सकता । भगवान की कृपा से ही भगवान को जाना जा सकता है। यदि हम उन कृष्णचन्द्र के औदार्यमयलीला प्रकटकारी श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु की आलोचना करें- जो स्वयं कृष्ण होकर भी कृष्ण की कथाओं का प्रचार करने के लिए जगत में अवतीर्ण हुए, उनकी कथाओं को एकाग्र चित्त होकर श्रवण करें, तभी इस प्रश्न का उत्तर सम्पूर्णरूप से हम प्राप्त कर सकते हैं। महाप्रभु जब संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् काशी में चन्द्रशेखर के घर निवास कर रहे थे। उस समय बंगाल के बादशाह हुसैनशाह के प्रधानमंत्री शाकरमल्लिक (श्रीसनातन प्रभु) वहाँपर उपस्थित हुए । उन्होंने महाप्रभु से पूछा-

के आमि, केन आमाय जारे तापत्रय ।
इहा नाहि जानि-केमने हित हय ।।

अर्थात् हे प्रभु ! आप कृपा करके बतालाइए कि मैं कौन हूँ तथा मुझे आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक ये तीनों ताप किसलिए कष्ट दे रहे हैं? मैं यह भी नहीं जानता कि मेरा कल्याण कैसे होगा? इसके उत्तर में महाप्रभु ने जो कहा, उसे सुनें –

जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास ।
कृष्णेर तटस्था शक्ति भेदाभेद प्रकाश ।।
कृष्ण भुलि सेइ जीव अनादि बहिर्मुख।
अतएव माया तारे देय संसारादि दुःख ।॥
साधु शास्त्र कृपाय यदि कृष्णोन्मुख हय ।
सेइ जीव निस्तरे माया ताहारे छाड्य ।।
ताते कृष्ण भजे करे गुरुर सेवन ।
माया जाल छुटे पाय कृष्णेर चरण ।।

अर्थात् जीव स्वरूपतः कृष्ण का नित्यदास है और कृष्ण की तटस्था शक्ति से प्रकट होता है। तटस्था शक्ति का कृष्ण से भेद एवं अभेद दोनों ही हैं। कृष्ण को भूलने के कारण ही जीव अनादि काल से बहिर्मुख हो गये हैं, इसलिए माया उन्हें नाना प्रकार के सांसारिक दुःख प्रदान करती है। यदि सौभाग्यवश वह कभी साधु और शास्त्र की कृपा से कृष्णोन्मुख होता है, तभी वह माया के फन्दे से मुक्त हो सकता है। तब वह गुरु की सेवा करते हुए कृष्ण का भजन करता है, जिससे अति शीघ्र उसका मायाजाल छिन्न-भिन्न हो जाता है और वह कृष्ण के चरणों को प्राप्त कर लेता है।

जीव भगवान कृष्ण के सेवक हैं। कृष्ण जीव के नित्य प्रभु हैं। कृष्ण की सेवा करना ही जीव का नित्य एवं प्रधान कर्तव्य है। हम देह नहीं हैं, देही- अणुचैतन्य आत्मा हैं, यही शास्त्रों का उपदेश है। किन्तु शास्त्र की इन बातों को भूलकर जब हम इस शरीर एवं मन को ही ‘मैं’ मानता है, तभी समस्त प्रकार की असुविधाएँ आकर हमें घेर लेती हैं। तब हम देह की उत्पत्ति जिस कुल में हुई है, जिस देश में हुई है, उस कुल एवं देश को ही अपना मान लेते हैं। तब हम स्वयं को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, म्लेच्छ, स्त्री इत्यादि होने का अभिमान करते हैं। देह के परिवर्तन अथवा आयु के भेद से स्वयं को बालक, वृद्ध और युवक इत्यादि मानते हैं। उस शरीर को ‘मैं’ जानकर हम स्वयं को भारतवासी, बंगाली, इंग्लैण्डवासी, मुसलमान, मारवाड़ी, पंजाबी और बिहारी इत्यादि मानने लगते हैं । इसके अतिरिक्त आश्रमी के अभिमान से स्वयं को ब्रह्मचारी, गृहस्थ एवं संन्यासी मानने लगते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन अवस्थाओं में ही परस्पर धर्मो में भेद एवं बहुत से धर्मों की उत्पत्ति हुई है।

गीता के वक्ता स्वयं भगवान कृष्ण हैं। वे कह रहे हैं कि आत्मा नित्य है, अपरिवर्तनीय है। देह अनित्य एवं वृद्धि क्षययुक्त है। जो देह के परिवर्तन के साथ ही परिवर्तनहीन आत्मा का परिवर्तन करते या उसका जन्म-मृत्यु स्वीकार करते हैं, वे मूर्ख हैं। अतः इस श्लोक में ‘सर्वधर्म’ का अर्थ है-देह और मन के प्रति आत्मबुद्धि के कारण जितने प्रकार के धर्म उत्पन्न हुए हैं। अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ये चारों वर्ण, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चारों आश्रम एवं इनके अतिरिक्त अन्त्यज आदि धर्म, लौकिक निज भोग या त्यागपर पारलौकिक धर्म, विशेषरूप से कृष्णसेवा धर्म के अतिरिक्त चतुर्दश भुवनों में जितने धर्म हैं, वे सभी धर्म उस ‘सर्वधर्म’ के ही अन्तर्गत हैं, जिन्हें कृष्ण ने परित्याग करने के लिए कहा है।

देह एवं मन के अनित्य धर्म को परित्याग कर आत्मा के नित्यधर्म भगवान की सेवा करनी चाहिए, करुणामय भगवान ने कृपापूर्वक हमें यह शिक्षा प्रदान की है। परन्तु मायाभ्रमित जीव आसानी से इस उपदेश को ग्रहण नहीं कर सकता । इसका प्रमाण इसी श्लोक की दूसरी पंक्ति में मिलता है। इसमें भगवान कह रहे हैं- ‘अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि।’ अर्थात् मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा । अनित्य, जड़ देह एवं मन के धर्म को छोड़कर नित्य धर्म भगवान की सेवा के लिए अग्रसर होते समय आसक्ति एवं मोह के कारण जीव विचार करता है कि इन समस्त धर्मों को छोड़ने से मुझे पाप लगेगा। हाय ! हाय ! कितने दुःख की बात है कि जिस नित्य धर्म (भगवान की सेवा) का पालन न करने से महा अपराध और महापाप होता है, उसके प्रति उदासीन होकर मायाबद्ध जीव अनित्य धर्मों को नित्य मानकर उसको परित्याग करने में पाप समझ रहा है। इतना ही नही उसके लिए शोक भी कर रहा है। इसीलिए भगवान उससे कह रहे हैं कि इन अनित्य धर्मों को परित्याग करने से तुम्हें किसी प्रकार का पाप स्पर्श नहीं करेगा। फिर भी यदि तुम्हें इसका भय है, तो मैं तुम्हें उन समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा।

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण इस जगत में आकर भगवद् भजन की बातें बता गये हैं। परन्तु क्या हम उनकी बातों को मान रहे हैं ? क्या उनके आदेश व निर्देशों का पालन कर रहे हैं ? यदि हम भगवान के उपदेशों को न मानें शास्त्र की बात न सुनें, अपने मन के अनुसार ही आचरण करें, अकर्तव्य को कर्तव्य, कर्तव्य को अकर्तव्य मानें, साधु-गुरु एवं शास्त्रों के वचनों की अवहेलना करें, अपना कर्तव्य स्वयं ही निर्धारित करें, तो दोष किसका होगा ?