गुरु और भगवान अधोक्षज वस्तु हैं । Absolute person के साथ में जिनका सम्बन्ध है, वे गुरु को ईश्वर रूप में दर्शन करते हैं। गुरु सेवक भगवान या आश्रय भगवान हैं। इसलिए गुरु भक्त भी हैं, भगवान भी । गुरु भगवान होने पर भी भगवान के प्रिय हैं। गुरु पूर्ण शक्ति हैं तथा श्रीकृष्ण पूर्ण शक्तिमान हैं। शास्त्रों के अनुसार दोनों में कोई भेद नहीं है। जो सदा – सदैव भगवान की सेवा करते हैं, ऐसे भगवान के भक्त श्रीगुरुदेव की सेवा करनी चाहिए । गुरुसेवा के साथ-साथ गुरुनिष्ठ वैष्णवों की सेवा भी करनी चाहिए। साधारण मायाबद्ध जीव को भक्त मानकर उसकी सेवा करने से कोई लाभ नहीं हैं । आजकल वैष्णव के नाम पर अनेक ढोंग चल रहे हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि गुरु एवं वैष्णवों की सेवा ही करनी चाहिए। परन्तु यदि कोई भविष्य में अवैष्णव हो जाये, तो उसकी सेवा में समय व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। श्रीगुरुदेव के चरणकमलों का आश्रय लेकर दृढ़ विश्वासपूर्वक गुरुसेवा करनी चाहिए। शास्त्रों में वर्णन है- ‘विश्रम्भेण गुरोः सेवा’ अर्थात् विश्रम्भपूर्वक गुरुसेवा करनी चाहिए। विश्रम्भ का अर्थ है-दृढ़विश्वासपूर्वक या प्रीतिपूर्वक। दृढ़प्रीतिपूर्वक गुरु एवं वैष्णवों की सेवा करने से मंगल अवश्य ही होगा, श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे। गुरु के प्रति मनुष्य बुद्धि नहीं होनी चाहिए। सद्‌गुरु निर्दोष हैं, अतः उनमें दोष- दर्शन नहीं करना चाहिए।