भक्तों के संग से ही भक्ति प्राप्त होती है। अन्य किसी उपाय डीं। कृष्णप्राप्ति ही जीवों का सर्वश्रेष्ठ मंगल है। परम सौभाग्य से ही प्राप्ति होती है। ब्रह्माण्ड भ्रमण करने की इच्छा समाप्त होने पर जीव भाग्यवान हो जाता है। गुरु की कृपा के बल से ही आत्मधर्म प्रकाशित होने पर जीव को भक्तिलता का बीज प्राप्त होता है। गुरु की कृपा और कृष्ण की कृपा भिन्न नहीं है। अर्थात् प्रकृष्टरूप से आनन्दित होकर जो दिया जाता है-यही प्रसाद का अर्थ है। महाप्रभु ने कहा है-

ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव ।
गुरुकृष्ण प्रसादे पाय भक्तिलता बीज ।।

सेवक होकर प्रभु की सेवा करना ही भक्ति है। भक्ति का तात्पर्य है-प्रभु का सुखविधान। अपने सुख के लिए प्रभु की सेवा भक्ति नहीं कही जा सकती।

गुरु से ही भक्ति का बीज प्राप्त होता है। माली होकर हमें इस बीज को हृदयरूपी क्षेत्र में आरोपणकर उसे श्रवण कीर्तनरूपी जल से सींचना पड़ेगा। मैं सेवक हूँ, सेवा ही मेरा धर्म है-इन विचारों में प्रतिष्ठित होना ही माली होना है। भक्तिलता का बीज जो कि गुरु के निकट से प्राप्त होता है, कृष्ण ही अहैतु की कृपा के कारण स्वयं गुरुरूप में उसे प्रदान करते हैं। उस बीज को प्राप्त करके हमें कृष्णसेवा ही करनी चाहिए। ऐसा न कर यदि मैं सेवा से उदासीन रहूँ, तो अनेक प्रकार की विपत्तियाँ मुझे घेर लेंगी। गुरुदेव की कृपाके बल से भजन की समस्त प्रकार की बाधाएँ अवश्य दूर हो जाएँगी। भजन की बाधा दूर होने पर ही हमारे लिए सुविधा होगी। गुरु के मुख से तथा साधुओं के मुख से ही श्रवण होता है। गुरु-वैष्णवों के निर्देशानुसार कीर्तन इत्यादि भी श्रवण के अन्तर्गत हैं। श्रीगुरुदेव के चरणकमलों से एक क्षण के लिए भी च्युत हो जाने पर हमारे सिर पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ेगा। श्रवण-कीर्तन ही जल है। सींचनेवाला गुरु का आश्रित भक्त हैं। विश्रम्भ अर्थात् प्रगाढ़ निष्ठा एवं प्रीतिपूर्वक सर्वदा गुरु की सेवा करना ही एकमात्र कर्तव्य है । गुरु-वैष्णवों का संग करना ही हमारा कर्तव्य है। हमें भक्तिलता को यत्नपूर्वक पालन करना चाहिए । हमें अच्छी प्रकार से भगवान की सेवा करनी चाहिए। यदि हम इन सबका पालन करेंगे तो कभी भी विपत्ति में नहीं पड़ेंगे। नहीं तो हमारे मार्ग में असुविधाएँ निश्चितरूप से आएँगी।