सेवा करते-करते सेवा की प्रवृत्ति जागेगी। जहाँ पर गुरुसेवा की इच्छा ही नहीं है, वहाँ पर बढ़ने की बात ही नहीं है। यदि हमारी चित्तवृत्ति गुरु-चरणों में होगी, तो हम कहीं भी क्यों न रहें, हमारी सेवा करने की इच्छा बढ़ेगी । नहीं तो संसार करने की प्रवृत्ति ही बढ़ेगी। सदा-सर्वदा भगवान की सेवा करने से समस्त प्रकार की असुविधाएँ दूर हो जाएँगी। परन्तु यदि हम भगवान की सेवा न कर संसार की सेवा, माया की सेवा में और अपनी भोग की वस्तुओं को ही एकत्रित करने में लगे रहे तो, अवश्य ही नाना प्रकार के अमंगल एवं अशान्ति आकर हमें घेर लेंगे। भक्तों का संग और उनकी सेवा के बिना भक्ति नहीं बढ़ सकती।
हमने गुरु एवं श्रीकृष्ण के चरणों में आश्रय तो लिया, परन्तु उनकी सेवा में लेशमात्र भी रुचि नहीं है। यदि हम भक्तिमार्ग का आश्रय लेकर भक्ति न करें, विभिन्न प्रकार से उनकी सेवा की चेष्टा न करें, तो हम अपने कल्याण की आशा कैसे रख सकते हैं ?
हमें सर्वप्रथम श्रीगुरुदेव के चरणों का आश्रय लेना होगा। अर्थात् हमें छोटा होना होगा, यही आश्रय का अर्थ है। आश्रित का कार्य है, भृत्य (सेवक) होकर सेव्य की सेवा करना । परन्तु क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? हमें अपना सर्वस्व गुरुपादपद्म में अर्पण करना होगा, तभी हमें पूर्णवस्तु भगवान की प्राप्ति हो सकती है । परन्तु बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि गुरुचरणों में सर्वस्व-त्याग तो दूर की बात है, हम लेशमात्र भी (कुछ भी) नहीं देना चाहते तथा मुख ही मुख में कहते हैं- हमें कृपा चाहिए, भगवान चाहिए । परन्तु भगवान तो अन्तर्यामी हैं। उन्हें हम धोखा नहीं दे सकते। गुरुसेवा की प्रवृत्ति न जागने पर कृष्णसेवा की प्रवृत्ति कैसे बढ़ सकती है? गुरुपादपद्म का दर्शन करने पर भी यदि स्त्रीसंग की इच्छा, संसार की प्रवृत्ति बढ़ती है, तो इसका तात्पर्य यह है कि हमारी उन्नति नहीं हो रही है, बल्कि हमारा पतन ही हो रहा है। यदि कोई वास्तव में ही गुरुपदाश्रय कर प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा करे, तो उसे अवश्य ही कृष्णसेवा की प्राप्ति होगी, कृष्ण के विषय में दिव्यज्ञान प्राप्त होगा तथा उसकी सेवावृत्ति बढ़ने के कारण उसे सेवानन्द प्राप्त होगा।
अतः हमें वही कार्य करने चाहिए, जिनके द्वारा विषयों को बढ़ाने की प्रवृत्ति तथा संसार की वासना कम हो। ऐसा होने पर ही कर्त्ताभिमान या भोक्ताभिमान दूर हो सकता है। ऐसी अवस्था में ही जगत को श्रीकृष्ण के भोग्यवस्तु के रूप में अनुभव किया जा सकता है। मैं कर्त्ता हूँ, भोक्ता हूँ- यह अभिमान दूर होने पर ही भगवान की सेवा की प्रवृत्ति बढ़ती है। संसार की वासना प्रबल रहने पर, संसार के लिए अधिक व्यस्त रहने पर भगवान की सेवाप्रवृत्ति उदित नहीं हो सकती । भगवान की सेवा के लिए उत्कण्ठा जागने पर मनुष्य स्वयं को गुरु का पुत्र मानता है। जिसके फलस्वरूप जागतिक माता – पिता, बन्धु – बान्धवों से उसका सम्बन्ध नष्ट हो जाता है। तभी उसका मंगल होता है अर्थात् उसका वास्तविक मठवास होता है।