यह स्थान सर्वविदाररूपी रस या शारदापीठ के नाम से प्रसिद्ध है। ऋषिगण इस स्थान पर आकर अविद्या को पराजित करते हैं। इस स्थान पर श्रीबाल्मीकि को काव्यरस, धन्वन्तरी को आयुर्वेद तथा विश्वामित्र को धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त हुई। यहीं पर महा तेजस्वी वेदव्यास ने पुराण आदि को प्रकाशित किया। इसी स्थान पर शौनकादि ऋषियों ने वेदों के मन्त्रों का गान किया। इसी उपवन में उपनिषद रूपी ऋषियों ने श्रीगौरसुन्दर की आराधना की। श्री गौरसुन्दर नवद्वीप मण्डल में आविर्भूत होंगे, यह जानकर देवगुरु बृहस्पति श्रीगौरसुन्दर की सेवा के लिए नवद्वीप मण्डल स्थित विद्यानगर में श्रीवासुदेव सार्वभौम के रूप में अवतीर्ण हुए। उनके पिता का नाम महेश्वर विशारद है। उनके द्वारा सेवित विग्रह का नाम गौर नित्यानन्द है। वासुदेव सार्वभौम को मन में भय अनुभव हुआ कि यदि मैं इस अपरा विद्या के जाल में फंसा रहूँगा तो मैं कहीं विद्या स्वरूप गौरसुन्दर को न खो दूँ। उनकी सेवा से वंचित न हो जाऊँ। इसी आशंका से उनकी गौरसुन्दर के आविर्भाव से पहले ही नीलाचल जाने की इच्छा हुई। क्योंकि भविष्य में श्रीमन् महाप्रभु उनको साथ लेकर मायावद का खण्डन करेंगे। वह गृहस्थ होते हुए भी संन्यासियों के गुरु थे, एक अध्यापक थे। उन्होंने मायावद का विचार और प्रचार किया। किन्तु जब वे निलाचल आए तब श्रीगौरसुन्दर की कृपा से उनके विचार परिवर्तित हो गए और अविद्या विलास को पूर्ण रूप से छोड़ दिया। दो प्रकार की शिक्षा होती है – भौतिक शिक्षा और भक्ति शिक्षा। जहाँ सेव्यवस्तु की नित्यता और उपासक वस्तु की नित्यता पर विश्वास ना हो तो वह वास्तविक भक्ति नहीं है। वास्तविक भक्ति के विषय में ऋग्वेद (1.22.20) में बतलाया गया है –
तद् विष्णो परमम पदम् सदा पश्यन्ती
सूर्य: दिवीव चक्षुर्तातम।
सभी वैष्णवों का इस पर एक ही मत है। इसी दृष्टिकोण को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने कहा कि जब आपकी सेव्य वस्तु नित्य ज्ञात हो और उपासक भी नित्य ज्ञात हो, तब सेवा भी नित्य ज्ञात होगी। ऋग्वेद में कहा गया है कि वे सदैव भगवान विष्णु के चरण कमलों का ध्यान करते हैं, जिसका अर्थ है नित्य और नित्य समय अर्थात् सब समय के लिए। इसलिए भगवान विष्णु के चरण कमल नित्य होने चाहिए और चरण कमलों का ध्यान करने वाला भी नित्य होना चाहिए। तब अवलोकन नित्य हो सकता है। शुद्धता और देखना भी नित्य होना चाहिए। सेवा का उद्देश्य नित्य भक्ति होनी चाहिए और इसका उपासक भी नित्य होना चाहिए। तभी भक्ति हो सकती है। भगवान की कृपा के बिना कोई भी ऐसा नहीं कर सकता। अतः सभी वैष्णव आचार्यों ने कैवल्य अद्वैतवाद का दृढ़ता से खण्डन किया है। यह प्रगाड़ भक्ति है। बृहस्पति ने वासुदेव सार्वभौम के रूप में जन्म ग्रहण किया। उस समय वे कैवल्य अद्वैतवाद की शिक्षा देते थे। उन्होंने पुरी जाने की योजना बनाई और सभा पण्डित बने। वे राजा प्रतापरुद्र की सभा के प्रसिद्ध पण्डित बने। गृहस्थ होते हुए भी वे मायावादी सन्यासीयों के गुरु थे। किन्तु जब चैतन्य महाप्रभु उनसे मिले तो…… बहुत लम्बी लीला है। मैं इस पर विस्तार से चर्चा सकूँ इतना समय नहीं है। बतलाने लगा तो सारा भोजन बासी हो जायेगा। तब आप इसे ग्रहण नहीं कर पाओगे। किन्तु मेरे गुरु महाराज के एक बड़े गुरु भ्राता हमें इस विषय पर एक उदाहरण देकर समझाया करते थे। आपने उनके दर्शन नहीं किये और हमारे भारतीय शिष्यों ने भी उनके दर्शन नहीं किये। जब मैंने उन्हें देखा तो वह लगभग 80 वर्ष के थे। वह मुझे एक उदाहरण दिया करते थे। एक कुँए में, हमने आसाम राज्य में देखा है। लोग बरसात के मौसम में कुँए से पानी प्राप्त करते हैं। तो एक कुँए में एक बड़ा मेंढक रहता था। वह बहुत बड़ी-बड़ी आवाज़ निकालता था और दूसरे छोटे मेंढक वह सोचते थे कि यह हमारा राजा है और इस ब्रह्माण्ड का स्वामी है। सभी छोटे मेंढक उसके सामने सिर झुकाते और पूजा करते। एक बार बहुत अधिक वर्षा के कारण पानी कुँए के ऊपर आ गया और एक छोटा सा मेंढक छलाँग लगाकर कुँए से बाहर किनारे पर आ गया। वहाँ एक हाथी खड़ा था। उसे देखकर छोटे मेंढक ने सोचा ओह!! यह अवश्य ही भगवान हैं। वह विचार करने लगा कि उससे बहुत बड़ी गलती हुई है। बड़ा मेंढक हाथी के सामने कुछ भी नहीं है। उसने दोबारा पानी में छलाँग लगाई और मेंढक राजा के सामने आ खड़ा हुआ और कहने लगा ओह!! राजा हमसे गलती हुई है। तुम इस कुँए के राजा नहीं हो। वहाँ मैंने तुमसे कहीं अधिक बड़े प्राणी को देखा है। वह तुमसे कहीं अधिक बड़ा है। राजा मेंढक ने कहा कि मैंने अभी भोजन नहीं लिया इसीलिए मैं अभी कमजोर हुँ यह कहकर उसने अपना पेट फूलाना आरम्भ किया और छोटे मेंढक से पूछने लगा, क्या वह इतना बड़ा है? जिसको तुमने ऊपर देखा। छोटे मेंढक ने कहा वह इससे कहीं अधिक बड़ा है। तुम जो दिखा रहे हो वह उससे करोडों गुना अधिक बड़ा है। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। यह बोलकर राजा मेंढक ने दोबारा से पेट को फुलाना आरम्भ किया और छोटे मेंढक से पूछने लगा, क्या वह इतना बड़ा है? नहीं, छोटे मेंढक ने उत्तर दिया। और राजा मेंढक अपने पेट को और फुलाता चला गया। फूलते फूलते उसका पेट फट गया और उसके पेट की आँतें बाहर निकल आईं। क्या मैं स्वयं को भगवान का सकता हूँ? इसका क्या परिणाम होगा? हम नष्ट हो जाएंगे। हम सबसे सूक्ष्म कण हैं।
सोहम् सोहम् करने के बाद हमें पूर्ण हरि हो जाना चाहिए? भगवान पूर्ण है। वह तर्कहीन है। जीव भगवान जितना ज्ञानी नहीं हो सकता। वे सदैव पूर्ण हैं। इस प्रकार का पूर्ण ज्ञान किसी भी समय और किसी भी रूप में विद्यमान नहीं हो सकता। मैं भगवान हूँ, मैं ब्रह्मा हूँ, ऐसा कहकर यदि कोई भगवान पर प्रहार करेगा तो केवल उसकी ही मृत्यु होगी। भगवान् स्वयं परमशक्ति हैं। चैतन्य महाप्रभु ने वासुदेव सार्वभौम के सभी मायावाद निष्कर्षों का खण्डन किया और उनको मायावाद के चंगुल से बचाया। हम भी उनके चरण कमल की रज प्राप्त कर इस मायावद के चंगुल से बच सकते हैं।
यह विद्या का स्थान है, भगवान श्रीकृष्ण सभी प्रकार की विद्या के साथ विद्यानगर में प्रकट हुए थे, सभी प्रकार के पण्डित सर्वोच्च ज्ञान प्राप्ति के लिए यहाँ आते थे।