इस द्वीप का वर्तमान नाम ‘गादिगाछा’ है। यह कीर्तन -भक्ति का क्षेत्र है। गोद्रुमद्वीप नाम होने का कारण यह है – जब श्रीकृष्ण ने इन्द्रपूजा बन्द करके, श्रीगोवर्धन पूजा का प्रवर्तन किया था, तब देवराज इन्द्र ने कोपित होकर व्रजवासियों का विनाश करने हेतु, सात दिन तक कड़कती बिजली के साथ हाथी की सूँड़ के समान मोटी धारा-सी वर्षा की थी। तब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन -धारणपूर्वक व्रजवासियों की रक्षा करते हुए, इन्द्र का गर्व चूर्ण किया था। श्रीकृष्ण -चरणों में हुए इस अपराध से छुटकारा पाने हेतु, देवराज इन्द्र ने सुरभि गाय के साथ नवद्वीप में आकर श्रीगौरांगदेव का भजन किया था।
श्रीगौराङ्गदेव, उनके सम्मुख आविर्भूत होकर उन्हें श्रीनवद्वीप में प्रकट होने की अवधि तक प्रतीक्षा करने को कहा था। सुरभि देवी ने एक पीपल के पेड़ के समीप रहकर प्रतीक्षा की थी। (गो = गाय, द्रुम = वृक्ष, पेड़, गो + द्रुम =गोद्रुम) गो और द्रुम इन शब्दों के समावेश से इस स्थान का नाम हुआ ‘गोद्रुम’ हुआ।
श्रीनवद्वीप – धाम माहात्म्य के आठवें अध्याय में लिखित हैं–
स्वतन्त्र ईश्वर निताइ तबे।
भकत सङ्केते चलिल यबे॥
गादिगाछा ग्रामे पौछिल आसि’।
तथाय आसिया कहिल हासि॥
गोद्रुम नामेते ए द्वीप हय।
सुरभि सतत एखाने रय॥
कृष्णमायावशे देवेन्द्र यबे।
भासाय गोकुल निज गौरवे॥
गोवर्धन — गिरि धरिया हरि।
रक्षिल गोकुल यतन करि’॥
इन्द्रदर्प चूर्ण हइले पर।
शचीपति चिने सारङ्गधर॥
निज अपराध मार्जन तरे।
पड़िल कृष्णेर चरण धरे॥
दयार समुद्र नन्दतनय।
क्षमिल इन्द्रेर , दिल अभय॥
तथापि इन्द्रेर रहिल भय।
सुरभि निकटे तखन कय॥
कृष्णलीला मुइ बुझिते नारि।
अपराध मम हइल भारि॥
शुनेछि कलिते व्रजेन्द्रसुत।
करिबे नदीयालीला अद्भुत॥
पाछे से समय मोहित हब।
अपराधी पुनः ह’ये रहिब॥
तुमि त’ सुरभि सकलि जान।
करह एखन ताहार विधान ॥
सुरभि बलिल चलह याइ।
नवद्वीप-धामे भजि निमाइ॥
देवेन्द्र सुरभि हेथाय आसि’।
गौराङ्ग भजन करिल बसि ‘॥
गौराङ्ग भजन सहज अति।
सहज ताहार फल वितति॥
गौराङ्ग बलिया क्रन्दन करे।
गौराङ्ग दर्शन हय सत्वरे॥
किबा अपरूप रूपलावणि।
देखिल गौराङ्ग प्रतिमा खानि॥
आध आध हासि वरदरूप।
प्रेमे गद्गद रसेर कूप॥
हासिया बलेन ठाकुर मोर।
जानिनु वासना आमि त’ तोर॥
अल्पदिन आछे प्रकट काल।
नदीया नगरे देखिबे भाल॥
से लीला समये सेविवे मोरे।
मायाजाल आर ना धरे तोरे॥
एत बलि’ प्रभु अदृश्य हय।
सुरभि सुन्दरी तथाय रय॥
अश्वत्थ निकटे रहिला देवी।
निरन्तर गौर-चरण सेवि ‘॥
गौद्रुमद्वीप त’ हइल नाम।
हेथाय पूरय भकत-काम॥
स्वतन्त्र ईश्वर श्रीनित्यानन्द प्रभु, भक्तो के साथ चलते हुए, जब गादिगाछा ग्राम में पहुँचे, तब वहाँ हँसते हुए कहने लगे- यह गोद्रुम नाम का द्वीप है, यहाँ सुरभि निरन्तर रहती है। कृष्णमाया के वश में होकर देवराज इन्द्र ने अभिमान में आकर जब गोकुल को डुबाने की चेष्टा की, तब श्रीहरि ने गोवर्धन को धारण करके गोकुल की रक्षा की थी। इन्द्र अपना अभिमान चूर्ण होने पर, शार्ङ्गधर श्रीहरि को पहचान गये। तब अपने अपराध के शोधन के लिये श्रीकृष्ण के चरणों पर गिर पड़े।
दया के समुद्र श्रीनन्दतनय ने इन्द्र का अपराध क्षमा करके अभयदान दिया। तब भी इन्द्र का भय बना ही रहा, और उन्होंने सुरभि के निकट जाकर कहा। मैं, श्रीकृष्णलीला समझ नहीं सका, जिस कारण मेरा भारी अपराध हुआ है। सुना है, श्रीब्रजेन्द्रसुत श्रीकृष्ण कलियुग में प्रकट होकर नदीया में अद्भुत लीला करेंगे। उस समय फिर मैं मोहित होकर पुनः अपराधी न बनूं इसलिये हे सुरभि! तुम सब जानती हो, इसका अभी से ही प्रबन्ध करो।
सुरभि ने कहा कि चलो, श्रीनवद्वीपधाम में जाकर, निमाई का भजन करेंगे। देवराज इन्द्र और सुरभि, यहाँ आकर श्रीगौराङ्ग का भजन करने लगे। श्रीगौराङ्ग जी का भजन करना अति सरल है।यही नहीं सहज भजन होने पर भी इसका फल अति उत्तम है। हे श्रीगौराङ्ग बोलकर क्रन्दन करने से शीघ्र ही श्रीगौराङ्ग के दर्शन होते हैं।
इस प्रकार से भजन करने पर श्रीगौराङ्ग महाप्रभुजी ने उन्हे दर्शन दिया तो वे सोचने लगे कि क्या अपूर्व रूपलावण्य है, मुस्कान भरा वरदरूप है, प्रेम में गद्गद होकर वे आनन्द में विभोर हो गये। श्रीगौराङ्ग ठाकुर हँसते हुए बोले– मैं तुम्हारी इच्छाओं को जानता हूँ ।अभी मेरे प्रकट होने में थोड़े दिन बाकी हैं। तब तुम नदीयानगर में, मुझे अच्छी तरह से देखोगे। उस लीला के समय तुम मेरी सेवा करोगे और तुम माया के वशीभूत नहीं होओगे। इतना कहकर, प्रभु, अदृश्य हो गये। एक अश्वत्थ (पीपल) के निकट श्रीगौर चरणों की सेवा करते हुए, सुरभि गाय सुन्दरी वहीं रह गईं ।चूंकि यहां पर गाय और पेड़ एक साथ रहे ,इसलिये इसका नाम श्रीगोद्रुमद्वीप हुआ। यहाँ भक्तों की सब तरह की कामना पूर्ण होती हैं।
(क) स्वादनन्द – सुखदकुंज – यह स्थान जगत् में शुद्ध भक्तिस्त्रोत के पुनः प्रवाह के मूल- पुरुष एवं श्रीमन्महाप्रभु की आविर्भाव -भूमि के प्रकाशक, जगद्गुरु ,श्री श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की भजन-स्थली है। यहाँ बैठकर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने भक्ति ग्रन्थों की रचना की थी। कुंज के द्वार के निकट श्रीक्षेत्रपाल – शिव विराजमान हैं एवं मध्य में श्रीभक्तिविनोदठाकुर का भजनकुटीर का दो मंजिला मकान है। भजनकुटीर के पश्चिम में उनकी पुष्प- समाधि है। समाधि मन्दिर में श्रीभक्ति विनोद ठाकुर की श्रीमूर्ति एवं श्रीगौरगदाधर जी के श्रीविग्रहगण विराजमान हैं। समाधि- मन्दिर के उत्तर में, श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के अभिन्न सुहृद्र, ॐ विष्णुपाद श्रीश्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज की एक छोटी भजनकुटीर अवस्थित है। श्रील बाबाजी महाराज कभी-कभी यहाँ आकर ठहरा करते थे। समाधि -मन्दिर के पश्चिम-दक्षिण-कोण में श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के प्रिय सेवक, श्रीपाद कृष्णदास बाबाजी का समाधि मन्दिर है।
श्रीनवद्वीपधाम – परिक्रमा के समय, परिक्रमाकारी भक्तगण इस स्थान पर आकर, श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के गुण कीर्तन करते हुए, उनकी कृपा प्रार्थना करते हैं।
(ख) सुवर्णविहार – सत्ययुग के राजा सुवर्णसेन जी ने श्रीनारद के उपदेशानुसार श्रीगौराङ्गदेव जी का भजन करके, इस स्थान पर उनकी सुवर्ण -मूर्ति का दर्शन किया था, इसलिये इस का नाम सुवर्णविहार हुआ है।
‘श्रीनवद्वीपधाम- माहात्भ्य’ सातवें अध्याय में वर्णित है-
सत्ययुगे एइ स्थाने, छिल राजा सबे जाने
श्रीसुवर्ण सेन ताँर नाम।
बहुकाल राज्य कैल, परेते वार्धक्य हैल,
तबु नाहि कार्येते विश्राम॥
विषय आविष्ट चित्त, किसे वृद्धि हय वित्त,
एइ चिन्ता करे नरवर।
कि जानि कि भाग्यवशे, श्रीनारद तथा आइसे,
राजा ताँरे पूजिल विस्तर ॥
नारदेर दया हैल, तत्त्व – उपदेश कैल,
राजारे त’ लइया निर्जने।
नारद कहेन राय, वृथा तब दिन जाय,
अर्थचिन्ता करि’ मने-मने॥
अर्थके अनर्थ जान, परमार्थ दिव्यज्ञान,
हृदये भावह एकबार।
दारा-पुत्र – बन्धुजन, केह नहे निजजन,
मरणेते केह नहे कार॥
तोमार मरण ह’ले, देहटि भासाये जले,
सवे जाबे गृहे आपनार।
तबे केन मिथ्या आशा, विषय- जल-पिपासा,
यदि केह नाहि हैल कार॥
यदि बल लभ’ सुख, जीवने ना पाइ दुःख,
अतएव अर्थ – चेष्टा करि।
सेह मिथ्याकथा राय, जीवन अनित्य हाय,
नाहि रहे शतवर्षोपरि॥
अतएव जान सार, जेते हबे मायापार,
यथा सुखे दुःख नाहि हय।
किसे वा साधिव बल, सेइ त’ अपूर्व फल,
याहे नाहि शोक – दुःख – भय॥
केवल वैराग्य करि’, ताहा ना पाइते पारि,
केवल ज्ञानेते ताहा नाइ।
वैराग्यज्ञानेर बले, विषय-बन्धन गेले,
जीवेर कैवल्य हय भाइ॥
कैवल्ये आनन्द नाइ, सर्वनाश बलि ताइ।
कैवल्येर नितान्त धिक्कार |
एदिके विषय गेल, श्रेष्ठ किछु ना मिलिल,
कैवल्येर करह विचार ॥
एतएव ज्ञानिजन, भुक्ति, मुक्ति नाहि लेन,
कृष्ण भक्ति करेन साधन।
विषयेते अनासक्ति, कृष्णपदे अनुरक्ति,
संबन्धाऽभिधेय – प्रयोजन॥
जीव से कृष्णेरदास, भक्ति बिना सर्वनाश,
भक्तिवृक्षे फले प्रेमफल।
सेइफल प्रयोजन, कृष्णप्रेम नित्यधन,
भुक्ति-मुक्ति तुच्छ से सकल॥
कृष्ण, चिदानन्द – रवि, माया तांर छायाछवि,
जीव तार किरणाऽणु – कण।
तटस्थ धर्मेर वशे, जीव यदि माया स्पर्शे,
माया तारे करय बन्धन॥
कृष्ण बहिर्मुख येइ, मायास्पर्शी जीव सेइ,
मायास्पर्शे कर्मसंग पाय।
मायाजाले भ्रमि’ मरे, कर्मज्ञाने नाहि तरे,
कष्टनाश मन्त्रणा कराय॥
कभु-कर्म आचरय, अष्टांङ्गादि योगमय,
कभु ब्रह्मज्ञान आलोचन।
कभु-कभु तर्क करे, अवशेषे नाहि तरे,
नाहि माने आत्मतत्त्वधन॥
भ्रमिते – भ्रमिते यवे, भक्तजनसंग हबे,
तबे श्रद्धा लभिबे निर्मल।
साधुसंगे कृष्ण भजि, ‘ हृदय – अनर्थ त्यजि, ‘
निष्ठा लाभ करे सुविमल॥
भजिते-भजिते तबे, सेइ निष्ठा रुचि हबे,
क्रमे रुचि हइबे आसक्ति।
आसक्ति हइबे भाव,ताहे हबे प्रेमलाभ,
एइ क्रमे हय शुद्धभक्ति॥
श्रवण- कीर्तन – मति, सेवा- कृष्णाऽर्चन- नति,
दास्य – सख्य – आत्मनिवेदन।
नवधा साधन एइ, भक्तसंगे करे येइ,
सेइ लभे, कृष्णप्रेमधन॥
तुमि राजा भाग्यवान्, नवद्वीपे तब स्थान,
धामबासे तब भाग्योदय।
साधुसंगे श्रद्धा पेये, कृष्णनाम – गुण गेये,
प्रेमसूर्ये कराओ उदय॥
धन्य कलि आगमने,हेथा कृष्ण लये गणे,
श्रीगौरांगलीला प्रकाशिबे।
जेइ गौर नाम लबे, ताते कृष्ण कृपा हबे,
व्रजे वास सेइ त ‘करिबे॥
गौरनाम ना लइया, येइ कृष्ण भजे गिया,
सेइ कृष्ण वहुकाले पाये।
गौरानाम येइ, सद्य कृष्ण पाय सेइ,
अपराध नाहि रहे ताय॥
बलिते बलिते मुनि, अधैर्य हय अमनि,
नाचिते लागिल गौर बलि।
गौरहरि बोल धरि’, वीणा बले गौरहरि,
कबे से आसिब धन्य कलि॥
एइ सब बलि ताय, नारद चलिया जाय,
प्रेमोदय हइल राजार।
गौराङ्ग बलिया नाचे, साधु हैते प्रेम याचे,
विषय – वासना घुचे तांर॥
निद्राकाले नरवर, देखे गौर-गदाधर,
सपार्षदे ताँहार अंङ्गने।
नाचे हरेकृष्ण बलि’, करे सबे कोलाकुलि,
सुवर्ण – प्रतिमा गौर सने॥
निद्राभाङ्गि नरपति, कातर हइल अति,
गौर लागि’ करये क्रन्दन।
दैववाणी हैल ताय, प्रकट समये राय,
हबे तुम पार्षद गणन॥
बुद्धिमन्त खान नाम, पाइबे हे गुणधाम,
सेविबे गौराङ्ग – श्रीचरण।
दैववाणी काणे शुनि’, स्थिर हइल नरमणि,
करे तबे गौराङ्ग भजन॥
सब जानते हैं कि सत्ययुग में इस स्थान का राजा था- श्रीसुर्वणसेन।उसने बहुत लम्बे समय तक राज्य किया।जब शरीर ढल गया, वृद्धा अवस्था आ गई, तब भी राजा ने राज्यकार्य से विश्राम नहीं लिया। उसका चित्त, विषय में आविष्ट था, कैसे धन बढ़े, राजा यही चिन्ता करता रहता था। न जाने कौन-से – भाग्य से, श्रीनारद, उनके पास आये, तब राजा ने विशेष रूप से उनकी पूजा की। श्रीनारद की उन पर दया हुई एवं निर्जन में ले जाकर, वह राजा को तत्त्वोपदेश करने लगे।
श्रीनारद जी ने कहा- राजा! मन – मन में अर्थ की चिन्ता करते-करते तुम्हारा जन्म व्यर्थ जा रहा है। अर्थ को अनर्थ जानो ,परमार्थ ही दिव्यज्ञान है। एक बार हृदय से सोचो, स्त्री- पुत्र बन्धुजन, कोई भी अपने नहीं हैं, मरने पर कोई भी किसी का नहीं होता। तुम्हारे मरने पर तुम्हारे ही परिवार वाले तुम्हारे शरीर को जलाकर व उसकी राख को पानी में बहाकर सब अपने घर चले जायेंगे। यदि कोई किसी का नहीं हुआ, तब विषयभोग पिपासा की झूठी आशा क्यों रखते हो ? यदि कहो कि, सुख लाभ के लिये, जीवन में दुःख नहीं आये, इसलिये अर्थ के लिये प्रयत्न करता हूँ। हे राजा! यह भी असत्य बात है। हाय, यह जीवन अनित्य है, आज से सौ वर्ष के बाद तुम में से कोई नहीं रहेगा। इस कारण सार वस्तु को जानो। माया के पार जाना होगा, जहाँ सच्चा सुख है व जहां दुःख तनिक भी नहीं है। श्रीनारद जी कहते हैं-उस अपूर्व फल की प्राप्ति के लिये, किस प्रकार साधन किया जाय, जहाँ शोक, दुःख, भय नहीं है। केवल वैराग्य करने से, उस फल को नहीं पाया जा सकता। केवल ज्ञान से भी नहीं प्राप्त होगा। वैराग्य, ज्ञान के बल से, विषय- बन्धन से छुटकारा पाकर, जीव को, निर्विशेष ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। किन्तु निर्विशेष ब्रह्मज्ञान मे पूर्ण आनन्द नहीं है। इससे तो जीव का सर्वनाश हो जाता है। निर्विशेष ब्रह्मज्ञान को अत्यन्त धिक्कार है। कैवल्य का विचार करने से, इधर विषय सुख भी गया, उधर श्रेष्ट कुछ भी नहीं मिला। अतएव भक्तजन संसार के भोग व सायुज्य मुक्ति नहीं लेकर, विषयों में अनासक्ति करके, एवं श्रीकृष्ण पादपद्य में अनुरक्त होकर, श्रीकृष्णभक्ति साधना करते हैं।
जीव तो श्रीकृष्ण का नित्य दास है। भक्ति के बिना उसका सर्वनाश है, कारण, भक्तिवृक्ष में ही प्रेमफल फलता है। श्रीकृष्ण- प्रेम सभी जीवों का नित्य-धन है; एवं जीव का वह प्रेम ही प्रयोजन है। भुक्ति-मुक्ति सब उसके समीप तुच्छ हैं। श्रीकृष्ण चिदानन्दमय सूर्य हैं तथा माया उसकी छाया है एवं जीव उसकी किरणों के कण हैं। तटस्थ – धर्म के स्वभाव हेतु जीव यदि माया का स्पर्श करता है माया उसका बन्धन करती है। जीव कृष्ण-बहिर्मुख होने से, माया उसको स्पर्श करती है, माया के स्पर्श से कर्म-संग होता है। तब मायाजाल में फँसकर, जन्ममरण के चक्कर से कष्ट पाता है। इस प्रकार कष्ट के मिटाने के लिए जीव कभी कर्म का आचरण करता है, कभी अष्टाङ्ग योगादि कभी निर्विशेष ब्रह्मज्ञान की समीक्षा करता है। कभी-कभी तर्क करता है, किन्तु तरता नहीं, लेकिन आत्मतत्त्व- धन क्या है, यह नहीं जानता है।
इस प्रकार संसार मे भ्रमण करते-करते जब जीव का सच्चा साधुसंग होता है, तब वह भगवान के प्रति निर्मल श्रद्धा लाभ करता है। साधुसंग में कृष्णभजन करते-करते अनर्थ निवृत्ति होने पर, विशुद्ध निष्ठा लाभ होती है। भजन करते रहने से वही निष्ठा रूचि हो जाती है। रूचि से आसक्ति, आसक्ति से भाव, भाव से प्रेम, इस क्रम से शुद्ध भक्ति लाभ होती है। साधुसंग में जो श्रवण – कीर्तन – स्मरण – पादसेवन-अर्चन – वन्दन- दास्य- संख्य- आत्मनिवेदन यह नौ प्रकार की भक्ति करते हैं, उसी को श्रीकृष्णप्रेमधन लाभ होता है।
राजा, तुम भाग्यवान हो, तुम्हारा, नवद्वीप में स्थान है, धामावास से, तुम्हारा भाग्योदय हुआ है। साधुसंग में श्रद्धा पाकर श्रीकृष्णनाम गुणगान करते हुए अपने ह्रदय में सुदुर्लभ श्रीकृष्ण-प्रेम रुपी सूर्य को उदय कराओ। इस, धन्य -कलि के आगमनपर यहाँ श्रीकृष्ण निजगणों के साथ श्रीगौराङ्ग लीला का प्रकाश करेंगे। जो गौरनाम लेगा, उस पर श्रीकृष्ण की कृपा अवश्य होगी और वही ब्रजवास करेगा। श्रीगौरनाम न लेकर जो केवल श्रीकृष्ण-भजन करेंगे वह बहुकाल के बाद श्रीकृष्ण को प्राप्त करेंगे। जो श्रीगौरनाम लेंगे, वह शीघ्र श्रीकृष्ण को प्राप्त करेंगे, उनका अपराध नहीं रहेगा। इस प्रकार बोलते-बोलते नारदमुनि अधीर होकर श्रीगौरनाम कीर्तन करते हुए नाचने लगे। वीणा के साथ श्रीगौरहरि का कीर्तन करते हुए कहने लगे कि, कब वह धन्य कलियुग आयेगा।
इस प्रकार कहकर, नारद मुनि चले गये, तब राजा को प्रेमोदय हुआ और वे श्रीगौरांङ्ग कहकर राजा नाचने लगे तथा साधुओं से कृष्ण -प्रेम की प्रार्थना करने लगे।उनकी सब विषय-वासना नष्ट हो गईं।एक दिन निद्रित अवस्था में राजा ने श्रीगौर-गदाधर का सपार्षदों के साथ अपने महल के आँगन में दर्शन किया। सभी पार्षदगण, ‘हरे कृष्ण’ कीर्तन करते हुए, सुवर्ण-प्रतिमा श्रीगौरहरि के साथ नाच रहे थे। निद्राभंग होने पर, राजा अत्यन्त अधीर होकर, श्रीगौरहरि कहते हुए रोने लगे। तब दैववाणी हुई– राजन! श्रीगौराङ्ग के प्रकट समय, तुम्हारी गणना पार्षदों में होगी। हे गुणधाम! तुम्हारा नाम, बुद्धिमन्त खान होगा एवं तुम श्रीगौराङ्गदेव के श्रीचरणों की सेवा करोगे। इस प्रकार दैववाणी श्रवण करके, राजा स्थिर हुए, और श्रीगौरांग का भजन करने लगे “।
(ग) देवपल्ली – इस स्थान पर जो भक्ति विघ्न विनाशन, भक्त -वत्सल ,श्रीनृसिंहदेव का श्रीविग्रह है,वह सत्ययुग से प्रकट है, ऐसा कहते हैं। हिरण्यकशिपु को वध करने के बाद व प्रह्लाद पर कृपा करके श्रीनृसिंहदेव ने इस स्थान पर आकर विश्राम किया था। उनकी सेवा करने के लिये ब्रह्मादि देवतागणों ने यहाँ आकर एक ग्राम बसाया था। देवगणों की पल्ली होने के कारण इसका नाम ‘देवपल्ली’ हुआ है। साधारण भाषा में यह ‘देवपाड़ा’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।
‘श्रीनवद्वीप धाम – माहात्म्य’ सातवें अध्याय में कहा है-
दिवसेर शेष यामे, सकले भ्रमय ग्रामे,
प्रभुनित्यानन्द तबे कय।
देवपल्ली एइ हय, श्रीनृसिंहदेवालय,
सत्ययुग हैते परिचय॥
प्रह्लादेरे दया करि, ‘ हिरण्ये वधिया हरि,
एइ स्थाने करिल विश्राम।
ब्रह्मा आदि देवगण, निज-निज निकेतन,
करि’ एक बसाइल ग्राम॥
मन्दाकिनी तट धरि, ‘ टिलाय वसति करि,
नृसिंह – सेवाय हैल रत।
श्रीनृसिंहक्षेत्र नाम, नवद्वीपे एइ धाम,
परमापावन शास्त्रमत॥
सूर्यटिला, ब्रह्माटिला, नृसिंह पूरवे छिला,
एबे स्थान हैल विपर्यय।
गणेशेर टिला हेर, इन्द्रटिला तारपर,
एइरूप बहु टिलामय॥
विश्वकर्मा महाशय, निर्मिला प्रस्तरमय,
कतशत देवेर बसति।
काले सब लोप हैल, मन्दाकिनी शुकाइल,
टिलामात्र आछये संप्रति॥
शिलाखण्ड अगणन, कर एबे दरशन,
सेइ सब मन्दिरेर शेष।
पुनः किछुदिन परे, एक भक्त नरवरे,
पाबे नृसिंहेर कृपालेश॥
बृहत् मन्दिर करि’, बसाइबे नरहरि,
पुनः सेवा करिबे प्रकाश।
नवद्वीप – परिक्रमा, तार एइ एक सीमा,
षोल क्रोश मध्ये एइ वास॥
शाम के समय सभी ग्रामों में भ्रमण करके के बाद नित्यानन्द प्रभु जी कहते हैं – यह देवपल्ली श्रीनृसिंहदेव का देवालय है जिसका परिचय सत्ययुग से पाया जाता है। प्रह्लाद जी पर दया करते हुये व हिरण्यकशिपु को वध करके श्रीहरि ने इस स्थान पर विश्राम किया था। तब ब्रह्मा आदि देवगणों ने अपना-अपना घर बनाकर यहाँ एक ग्राम बसाया था। मन्दाकिनी के तट र टीले पर वास करके सब श्रीनृसिंहदेव की सेवा में अनुरक्त हुये थे।
श्रीनवद्वीपधाम में श्रीनृसिंहक्षेत्र शास्त्र के मत से परमपावन स्थान है। सूर्यटीला व ब्रह्माटीला, श्रीनृसिंहदेव जी के पूर्व में थे, किन्तु अब स्थान उलट-पलट हो गया है। गणेश टीला इसके बाद इन्द्रटीला देखो, इस प्रकार यहाँ बहुत टीले थे। विश्वकर्मा महाशय ने पत्थरों से इनका निर्माण किया था। यहाँ शत-शत देवताओं का वास था। काल के प्रभाव से सब लुप्त हो गये मन्दाकिनी भी सूख गई ,अब सिर्फ कुछ ही टीले रह गये हैं। अब सिर्फ कुछ शिलाखण्डों का दर्शन करो यह सब मन्दिर के बचे हुये अवशेष हैं। कुछ दिन बाद पुनः एक भक्त श्रीनृसिंहदेव की कृपा से एक विशाल मन्दिर निर्माण करके, श्रीनरहरि को विराजमान करके पुनः सेवा प्रकाश करेगा। यह श्रीनवद्वीपधाम परिक्रमा की एक सीमा है सोलह क्रोश के अन्तर्गत ही यह स्थान है।
(घ) हरिहरक्षेत्र – गण्डकी नदी के किनारे अलकानन्दा के पूर्व पार – पर श्रीहरिहरक्षेत्र अवस्थित है। इस स्थान पर भगवान् श्रीहरि, अपने प्रियतम सखा श्रीमहादेव का तत्त्व, जीवों को जताने के लिये प्रकटित हैं। श्रीकृष्ण से श्रीशिव को, भेद देखना महाऽपराध है। जो हर को श्रीहरि का प्रियतम समझते हैं; वही, श्रीहरि एवं हर में शुद्धभक्ति युक्त हैं। श्रीजीव गोस्वामी पाद, श्रीभक्तिसन्दर्भ में लिखते हैं-
शुद्धभक्ताः श्रीगुरोः श्रीशिवस्य च भगवतासह! अभेद-दृष्टिं तत्प्रियतमत्वेनैव मन्यन्ते।
श्रील भक्तविनोद ठाकुर के लिखित ‘श्रीनवद्वीपधाम – माहात्म्य ग्रन्थ के आठवें अध्याय में कहा है:-
अलकानन्दार पूरव पारे।
हरिहरक्षेत्र गण्डक धारे॥
श्रीमूर्ति प्रकाश हइबे काले।
सुन्दर कानन शोभिवे भाले॥
अलका पश्चिमे देखह काशी।
शैव-शाक्त सेवे मुकति दासी॥
वाराणसी ह’ते ए धाम पर।
हेथाय धूर्जटि पिनाकधर॥
गौर गौर बलि सदाइ नाचे।
निजजने गौर भक्ति याचे॥
सहस्र वरष काशीते वसि।
लभे से मुकति ज्ञानेते न्यासी॥
ताहा त’ हेथाय चरणेठेलि।
नाचेन भक्त गौराङ्ग बलि’॥
निर्याण-समये एखाने जीव।
कारणे गौर बलि’ तारेन शिव॥
महावाराणसी ए धाम हय।
जीवेर मीणे नाहिक भय॥
अलकानन्दा के पूर्व-पार गण्डकी नदी के किनारे श्रीहरिहर क्षेत्र अवस्थित है। भविष्य में यहां पर श्रीहरिहर जी की मूर्ति का प्रकाश होगा। यहाँ पर सुन्दर कानन (बाग) की शोभा होगी। अलकानन्दा के पश्चिम में काशी को देखो जिसकी शैव व शाक्त एवं भगवान के चरणों की दासी मुक्ति सेवा करते है। वाराणासी से यह धाम श्रेष्ठ है, यहाँ त्रिशूलधारी शिव – गौर – गौर कहकर सदा नाचते रहते हैं एवं अपने जनों को गौरभक्ति देते हैं। सहस्र वर्ष काशी में वास करके जो संन्यासी, ब्रह्मज्ञान द्वारा मुक्ति लाभ करते हैं, उसी मुक्ति कोय यहाँ चरणों द्वारा ठुकराकर, भक्त लोग गौरांग कहकर नाचते हैं। निर्याण के समय यहाँ जीव के कान में ‘गौर’ नाम सुना कर शिव उसे तार देते हैं। यह धाम महावाराणसी है। यहां जीव को मरने का भय नहीं है।