जय जय नदियाबिहारी – गौरचंद्र
जय एकचक्रा – पति प्रभु-नित्यानंद।।१।।
नदियाविहारी श्रीगौरचंद्र की जय हो!जय हो! एकचक्रा नामक ग्राम के अधिपति श्री नित्यानंद प्रभु की जय हो।।१।।
जय शांतिपुरनाथ अद्वैत ईश्वर।
रामचंद्रपुरवासी जय गदाधर ।।२।।
शांतिपुर के नाथ श्रीअद्वैत आचार्य प्रभु की जय हो।रामचंद्रपुर के निवासी श्रीगदाधर पंडित की जय हो।।२।।
जय जय गौड़भूमि चिन्तामणिसार।
कलियुगे कृष्ण यथा करिला विहार ।।३।।
चिंतामणि के सारस्वरूप उस श्री गौड़मंडल की जय हो ! जय हो ! जहाँ पर कलयुग में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाएँ की हैं।। ३।।
श्रीजाह्नवी पार ह’ये पद्मार नंदन।
किछुदूरे गिया बले, देख भक्तगण।।४ ।।
पद्मवतीनन्दन श्रीनित्यानंद प्रभु श्रीजाह्नवी को पार करके कुछ दूर तक चलने के उपरांत भक्तो से कहने लगे -देखो ! ।।४।।
बिल्वपक्ष-नाम एइ स्थान मनोहर।
बेलपुखरिया बलि’ बले सर्व नर ।। ५।।
बिल्वपक्ष नामक यहस्थान मनमोहक है । आजकल सभी लोग इसे बेल पुखुरिया कहते हैं।।५।
ब्रजधामे जारे शास्त्रे बले बिल्ववन।
नवद्वीपे सेई स्थान कर दर्शन।। ६।।
शास्त्र व्रजधाम मे जिस स्थान को बिल्ववन (बेलवन) कहते हैं, नवद्वीप उसी का दर्शन करो।।६।।
पञ्चवक्त्र बिल्वकेश आछिल हेथाय।
एकपक्ष बिल्वदले आराधिया ताँय।।७।।
ब्राह्मण सज्जनगनणे तुषिल ताँहारे।
कृष्णभक्ति वर दिल ताहा सबाकारे ।।८।।
यहाँ पर पंचमुख बिल्वकेश नामक शिवजी विराजमान थे,अनेक ब्राह्मणों ने 15 दिनों तक बेल के पत्तों द्वारा उनकी आराधना की थी।श्रीशिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें श्रीकृष्ण भक्ति का वर प्रदान किया था।।७-८।।
सेइ विप्रगण मध्ये निम्बादित्य छिल।
विशेष करिया पंचवक्त्रे आराधिल ।।९।।
उन ब्राह्मणों में श्रीनिम्बादित्य भी विद्यमान थे,उन्होंने बहुत भक्तिपूर्वक पंचमुख शंकर जी की आराधना की ।। ९।।
कृपा करि’ पंचवक्त्र कहिला तखन।
एइ ग्रामा-प्रांते आछे दिव्य बिल्ववन।।१०।।
उनकी आराधना से प्रसन्न होकर पंचमुख शंकर ने श्रीनिम्बादित्य को कहा- इस ग्राम की सीमा पर एक दिव्य (बिल्ववन) है।।१०।।
सेई वन्मध्ये चतु: सन आछे ध्याने।
ताँदेर कृपाय तव ह’बे दिव्यज्ञाने।।११।।
उस वन मे चतु: सन (सनक, सनंदन,सनातन और सनत्कुमार)ध्यान में मग्न हैं।उनकी कृपा से तुम्हें दिव्यज्ञान की प्राप्ति होगी।।११।।
चतु:सन गुरु तव, ताँदेर सेवाय।
सर्व अर्थ लाभ तव हइबे हेथाय।।१२।।
चतु:सन तुम्हारे गुरु हैं।उनकी सेवा से तुम्हारी सब प्रकार की मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।।१२।।
एत बलि महेश्वर हइल अंतर्धान।
निंबादित्य अन्वेक्षण करि पाय स्थान।।१३।।
इतना कहकर महेश्वर अंतर्धान हो गए।श्री निंबादित्य उनके द्वारा बताए गए स्थान को ढूंढते – ढूंढते इस बिल्ववन आ पहुंचे।।१३।।
बिल्ववन मध्य देखे वेदी मनोहर।
चतु: सन बसियाछे ताहार ऊपर ।।१४।।
सनक, सनंद और ऋषि सनातन।
श्री सनत् कुमार – एइ ऋषि चारिजन।।१५।।
उन्होंने श्री सनक, सनंदन,सनातन और सनत्कुमार नामक चार ऋषियों को बिल्ववन में एक सुंदर वेदी के ऊपर बैठ हुए देखा।।१४-१५।।
वृद्धकेश -सन्निधाने अन्य अलक्षित।
वस्त्रहीन सुकुमार उदार चरित।।१६।।
वृद्धकेश नामक शिव के निकट बैठे हुए परम उदार – चरित्रवाले उन चार वस्त्रहीन सुकुमारों को कोई भी साधारण व्यक्ति नहीं देख सकता था।।१६।।
देखि ‘ निंबादित्य आचार्य परम कौतुके।
‘हरे कृष्ण’ ‘हरे कृष्ण’ डाकि’ बले सुखे ।।१७।।
उन्हें देखकर श्री निंबादित्य आचार्य उत्सुकतापूर्वक अत्याधिक आनंद से भरकर ” हरे कृष्ण ,हरे कृष्ण” कहकर पुकारने लगे।।१७।।
हरिनाम शुनि’ काने ध्यान भंग हैल।
सम्मुखे वैष्णवमूर्ति देखिते पाइल।।१८।।
हरिनाम सुनने से उनका ध्यान भंग हो गया और उन्होंने अपने समक्ष एक वैष्णव को खड़े हुए देखा।।१८।।
वैष्णव देखिया सबे ह’ये हृष्टमन।
निंबादित्ये क्रमे क्रमे देय आलिंगन।।१९।।
उन चारों कुमारों ने एक- एक करके श्री निंबादित्य को आलिंगन प्रदान किया।।१९।।
के तुमि, केन वा हेथा बल परिचय।
तोमार प्रार्थना मोरा पुरा’ब निश्चय।।२०।।
उन्होंने श्री निंबादित्य से पूछा – तुम कौन हो? यहाँ किसलिए आए हो? अपना परिचय बताओ।हम तुम्हारी अवश्य इच्छा पूर्ण करेंगे।।२०।।
शुनि निंबादित्य दंडवत् प्रणमिया।
निज परिचय देय विनीत हइया।।२१।।
उनकी बात सुनकर सबसे पहले श्री निंबादित्य ने उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात विनीत होकर अपना परिचय देने लगे।।२१।।
निम्बाकर्केर परिचय करिया श्रवण।
श्री सनत्कुमार कय सहास्य वदन।।२२।।
कलि घोर हइबे जानिया कृपामय।
भक्ति प्रचारिते चित्ते करिल निश्चय।।२३।।
श्रीनिंबार्क का परिचय जानकर श्री सनत् कुमार ने मुस्कुराते हुए कहा- घोर कलियुग आनेवाला है।ऐसा जानकर जीवों के परम कल्याण हेतु परम कृपामय सर्वेश्वरेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने चित्त में भक्ति का प्रचार करने का दृढ़ निश्चय किया।।२२-२३।।
चारिजन भक्ते शक्ति करिए अर्पण।
भक्ति प्रचारिते विश्वे करिल प्रेरण।।२४।।
भगवान् ने चार भक्तों में अपनी शक्ति का संचार करके उन्हें जगत् में भक्ति का प्रचार करने हेतु भेजा।।२४।।
रामानुज, मध्व , विष्णु – एइ तीनजन।
तुमि त’ चतुर्थ हओ भक्त महाजन।।२५।।
वे चार भगवत् – शक्ति संपन्न महाजन श्री रामानुज, श्री मध्व, श्रीविष्णु स्वामी और हे भक्तप्रवर! चौथे तुम हो।।२५।।
ब्रह्मा मध्वाचार्य, रुद्र विष्णुके स्वीकार।।२६।।
श्रीलक्ष्मीदेवी ने श्रीरामानुजाचार्य को,श्रीब्रह्मा ने श्रीमध्वचार्य को और श्रीरूद्र ने श्रीविष्णुस्वामी को अपने अपने भक्ति सम्प्रदाय में अंगीकार किया है।।२६।।
आमरा तोमाके आज जानिनु आपन।
शिष्य करि’ धन्य हइ, एइ प्रयोजन ।।२७।।
आज से हम तुम्हे अपने भक्ति-सम्प्रदाय में स्वीकार कर रहे हैं।तुम्हें अपना शिष्य बनाकर धन्य हो जाना ही हमारा प्रयोजन है।।२७।।
पूर्वे मोरा अभेद- चिन्ताय छिनु रत।
कृपायोगे सेइ पाप हैल दूरगत।।२८।।
हम पहले अभेद ब्रह्मज्ञान की चिंता में निमग्न रहते थे, किन्तु भगवान की विशेष कृपा से हमारा वह पाप दूर हो गया है।
एबे शुद्धभक्ति अति उपादेय जानि।
संहिता रचना करियाछि एकखानि।।२९।।
अब हमने जान लिया है कि शुद्धभक्ति ही उत्कृष्ट वस्तु है।हमने भक्ति पर आधारित एक संहिता की रचना भी की है।।२९।।
सनत् कुमार-संहिता इहार नाम हय।
एइमते दीक्षा तव हइबे निश्चय।।३०।।
गुरु-अनुग्रह देखि’ निम्बार्क धीमान।
अविलम्बे आईला करि’ भागीरथी-स्नान।।३१ ।।
श्रीगुरु पादपदम के ऐसे अनुग्रह को देखकर बुद्धिमान श्रीनिम्बार्क बिना किसी विलम्ब के भागीरथी में स्नान करके आये।
साष्टागे पडिया बले सदैन्य वचन।
“ए अधमे तार” नाथ पतितपावन।।३२।।
उन्होंने साष्टांग प्रणाम करके दीनतापूर्वक कहा कि हे नाथ!पतितपावन ! इस अधम का उद्धार कीजिये।।३२।।
चतुःसन कैल श्री युगल-मन्त्र दान।
भावमार्गे उपासना करिल विधान।। ३३ ।।
श्री चतुःसन ने उन्हें युगल (श्रीराधाकृष्ण का) मंत्र प्रदान किया तथा भावमार्ग से श्रीराधाकृष्ण की आराधना करने की शिक्षा प्रदान की ।।३३।।
मंत्र लभि’ निम्बादित्य सिद्धपीठस्थाने।
उपासना करिलेन संहिता-विधाने ।। ३४।।
मंत्र प्राप्त करके श्रीनिम्बादित्य आचार्य ने इसी सिद्ध पीठ मे बैठकर सनत्कुमार -संहिता के मतानुसार युगलकिशोर की आराधना की।।३५।।
कृपा करि’ राधाकृष्ण ता’रे देखा दिल।
रूपेर छटाय चतुदिके आलो हैल ।। ३५।।
श्रीराधाकृष्ण ने कृपा करके उन्हें अपना दर्शन प्रदान किया। श्रीराधाकृष्ण के रूप की छटा से चारों दिशाओं मे प्रकाश छा गया।।३५।।
मृदु मृदु हासिमुखे बलेन वचन।
धन्य तुमि निम्बादित्य करिले साधन।। ३६ ।।
अतिप्रिय नवदीप आमा दोहाकार।
हथा दोहे एकरूप सचीर कुमार।। ३७।।
मंद मंद मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा – हे निम्बादित्य ! तुम धन्य हो। तुमने इस नवद्वीपमें बैठकर हमारी आराधना की है।यह नवदीप हम दोनों को बहुत प्रिय है। हम दोनों यहाँ पर मिलकर एक ही रूप धारण करके श्री सचिनन्दन के रूप में सदैव वास करते है।। ३६-३७।।
बलिते-बलिते गौर रूप प्रकाशिल।
रूप देखि निम्बादित्य विहल हइल।। ३८ ।।
इतना कहते -२ उन्होंने अपने गौर रूप को प्रकाशित किया। उसके उस रूप को देखकर श्री निम्बादित्य परम विहल हो गए।। ३८।।
बले-‘कभु नाहि देखि नाहि शुनि काने।
हेन अपूर्व रूप आछे कोनखाने।।३९।।
श्री निम्बादित्य ने कहा – मैंने न तो कभी ऐसे अपूर्व रूप का दर्शन किया है और न ही अपने कानो से ऐसे रूप के विषय में कभी श्रवण किया है।।३९।।
कृपा करि’ महाप्रभु बलिल तखन।
‘ए रूप गोपन एबे कर महाजन।। ४०।।
श्रीमान महाप्रभु ने कृपा करके कहा – हे -निम्बादित्य महाजन !अभी इस रूप के विषय में किसी को कुछ मत बताना इसे गुप्त रखन। ।४०।।
प्रचारह कृष्णभक्ति युगल -विलास।
युगल- विलासे मोर अत्यंत उल्लास।। ४१।।
अभी तुम युगल -विलासरूपी कृष्णभक्ति का प्रचार करो। हे निम्बार्क ! युगल -विलास में मुझे अत्यंत उल्लास की प्राप्ति होती है।। ४१।।
जे- समय गौर रूप प्रकट हइबे।
श्रीविद्या विलासे तबे बड़ा रंग हबे।। ४२।।
जिस समय मेरा गौर रूप प्रकाशित होगा। उस समय मै विद्या -विलास रुपी अनेक लीलाय करूँगा।। ४२।।
से समये काश्मीर -प्रदेशे जनम ल’ये।
भ्रमिबे भारतवर्ष दिग्विजयी हये ।। ४३।।
उस समय तुम कश्मीर प्रदेश में जनम ग्रहण करोगे और पूरे भारत वर्ष में दिग्विजयी बनकर भ्रमण करोगे।। ४३।।
केशव काश्मीरी – नामे सकल तोमाय ।
महाविद्यावान बलि सर्वत्रेते गाए।। ४४।।
तुम्हारा नाम केशव कश्मीरी होगा तथा सभी तुम्हे महाविद्वान मानेगे।। ४४ ।।
भ्रमिते भ्रमिते एइ नवदीपधामे।
आसिया थाकिबे तुम्ही मायापुर -ग्रामे।। ४५।।
भ्रमण करते -करते तुम इस श्री नवद्वीपधाम में आकर श्रीमायापुर ग्राम में रहोगे। ४५।।
नवदीपे बड़े बड़े अध्यापकगण।
तव नाम शुनि करिबेक पलायन ।। ४६।।
श्रीनवदीपके बड़े बड़े अध्यापक तुम्हारा नाम सुनने मात्र से ही पलायन कर जायेंगे।। ४६।।
आमी त तखन विद्या विलासे मातिब।
पराजिया तोमा सबे आनंद लभिब।। ४७।।
उस समय मै विद्याविलास के रस में मत रहूँगा ,इसलिए तुम पराजित करके मै सभी बालको के साथ बहुत आनंदित होऊंगा।। ४७।।
सरस्वती -कृपा बले जानिये मम तत्त्व।
आश्रय करिबे मोरे छाड़िया महत्व ।। ४८।।
देवी सरस्वती की कृपा से तुम मेरे तत्त्व को जान जाओगे और अपने अहंकार को छोड़कर मेरा आश्रय स्वीकार करोगे।। ४८।।
भक्ति दान करि आमी तोमारे तखन ।
भक्ति प्रचारिते पुन करीब प्रेरण ।। ४९ ।।
तुम्हे भक्ति का दान करने के उपरान्त मैं पुन तुम्हे भक्ति का प्रचार क्ररने के लिए भेजूँगा।। ४९।।
अतएव द्वैताद्वैत-मत प्रचारिया।
तुष्ट कर एबे मोरे गोपन करिया।।५०।।
अतएव अभी मेरे स्वरूप को गुप्त रखकर तुम द्वैताद्वैत (निम्बार्क) मत का प्रचार करके मुझे संतुष्ट करो।।५०।।
जबे आमि संकीर्तन आरंभ करिब।
तोमादेर मत – सार निजे प्रचारिब।।५१।।
जब मैं प्रकट होकर संकीर्तन आरंम्भ करूँगा, उस समय मैं भी तुम्हारे द्वैताद्वैत मत के सार का प्रचार करूँगा।।५१।।
मध्व हयते सारद्वय करिब ग्रहण।
एक हय केवल – अद्वैत निरसन ।।५२।।
कृष्णमूर्ति नित्य जानि’ ताँहार सेवन।
सेइ त’ द्वितीय सार जान महाजन ।।५३।।
हे महाजन! मैं मध्व- सम्प्रदाय से केवलाद्वैत का खण्डन और श्रीकृष्ण के विग्रह को नित्य मानकर उनकी सेवा नामक दो सार वस्तुओं को ग्रहण करूँगा।।५२-५३।।
रामानुज हैते आमि लइ दुइ सार।
अनन्य भकति, भक्तजन – सेवा आर।।५४।।
श्रीरामानुज से अनन्यभक्ति और भक्तों की सेवा नामक दो वस्तुओं को स्वीकार करूँगा।।५४।।
विष्णु हैते दुइ सार करिब स्वीकार।
त्वदीय – सर्वस्व – भाव, रागमार्ग आर।।५५।।
श्रीविष्णुस्वामी से त्वदीय-सर्वस्व-भाव (भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे सर्वस्व हैं) और रागमार्ग नामक दो सार वस्तुओं को स्वीकार करूँगा।।५५।।
तोमा हैते लब आमि दुइ महासार।
एकांत राधिकाश्रय, गोपिभाव आर ।।५६।।
तुम्हारे (श्रीनिम्बादित्य-सम्प्रदाय से) भी एकांत राधिकाश्रय (अनन्य भाव से श्रीमती राधाजी के चरणकमलों का आश्रय) और गोपीभाव नामक दो वस्तुओं को स्वीकार करूँगा।।५६।।
एत बलि ‘ गौरचन्द्र हैल अदर्शन।
प्रेमे निम्बादित्य कत करिल रोदन।।५७।।
इतना कहकर श्रीगौरचंद्र अन्तर्धान हो गये और श्रीनिम्बादित्य प्रेम में मत्त होकर क्रन्दन करने लगे।।५७।।
गुरुपादपद्मे नमि ‘ चले देशांतर।
कृष्णभक्ति प्रचारिते हइया तत्पर।।५८।।
(श्रीमन् महाप्रभु के आदेश का भलीभाँति पालन करने हेतु) श्रीनिम्बादित्य ने सर्वप्रथम अपने गुरुपादपद्म को प्रणाम किया और फिर कृष्णभक्ति का प्रचार करने में तत्पर होकर दूसरे स्थान पर चले गये।।५८।।
दूर हैते रामतीर्थ जीवेरे देखाय।
कोलासुरे हलधर वधिल यथाय।।५९।।
श्रीनित्यानन्द प्रभु ने दूर से ही श्रीजीव को रामतीर्थ नामक स्थान के दर्शन कराये, जहाँपर श्रीबलदेव ने कोल नामक असुर का वध किया।।५९।।