आज नवद्वीप धाम परिक्रमा का अधिवास कीर्तन महोत्सव है। कल सुबह से परिक्रमा प्रारम्भ होगी। नवदीप धाम का अर्थ नए(नवीन) द्वीप नहीं, अपितु नौ द्वीप होता है। अन्तर्द्वीप, सीमन्तद्वीप, गोद्रुमद्वीप, मध्यद्वीप, कोलद्वीप, ऋतुद्वीप, जह्नुद्वीप, मोदद्रुमद्वीप, रुद्रद्वीप—इन नौ द्वीपों से नवद्वीप बना है। एक-एक द्वीप, भागवत में वर्णित नवधा भक्ति का पीठ स्थान है जो निम्नलिखित हैं—

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्॥

इस नवधा भक्ति का अनुशीलन करना होगा परन्तु उसमें एक विधि बतलाई गई है। भक्ति कब होगी? भगवान का होकर, भगवान को स्वयं को अर्पित करके जब भगवान की साक्षात् प्रीति के लिए करें तब भक्ति होगी। जब हम प्राकृत जगत के किसी मिथ्या अभिमान को लेकर कुछ करेंगे तो कर्मानुग क्रिया होगी किन्तु भक्ति नहीं होगी। हमारा स्वयं के शरीर पर भी अधिकार नहीं है। यह शरीर कहाँ से मिला है? गीता में भगवान परा प्रकृति एवं अपरा प्रकृति के विषय में कहते हैं। अपरा प्रकृति के आठ वैभव हैं—क्षिति(भूमि), आप(जल), तेज(अग्नि), मरुद्(वायु), खं(आकाश), मन, बुद्धि और अहंकार। भगवान की अपरा प्रकृति भगवान की प्रकृति शक्ति है। उसी शक्ति से हमें यह शरीर मिला है। शक्ति का मालिक(स्वामी) कौन है? भगवान हैं। तब शक्ति से जो शरीर तैयार हुआ उसका मालिक कौन होगा? भगवान। शक्ति के ऊपर भी मेरा अधिकार नहीं है। यह शरीर भी भगवान का है। सूक्ष्म शरीर(मन, बुद्धि एवं अहंकार) भी भगवान की अपरा प्रकृति का अंश है। भगवान अपरा प्रकृति के अधिपति हैं। इसलिए उससे उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु के स्वामी भी भगवान ही होंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। इसे समझने के लिए अधिक बुद्धि लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 7.5)

गीता को सम्पूर्ण विश्व में माना जाता है। गीता की शिक्षा को हमें मानना पड़ेगा। आत्मा परा प्रकृति का अंश है। परा प्रकृति कृष्ण की है इसलिए परा प्रकृति के अंश आत्मा के स्वामी भी भगवान ही हैं। मेरा शरीर भी भगवान का है, सूक्ष्म शरीर भी भगवान का है, मेरी आत्मा भी भगवान की है— इस विषय में प्रतिष्ठित होकर चलना पड़ेगा।

अधिवास का अर्थ होता है—preliminary function। अर्थात् कल होने वाली श्रीनवदीप धाम परिक्रमा के लिए प्राक्-प्रस्तुति कि किस प्रकार हम लोगों को परिक्रमा करनी होगी। परिक्रमा का एक और अर्थ है जो हमारे गुरुवर्ग तथा गुरुजी हम सभी को समझाते थे। इतने भक्तों को बुलाकर प्रतिदिन सुबह जाकर, दोपहर के बाद, तो कभी शाम को, तो कभी रात को परिक्रमा से लौटकर आएँगे; बीच में किसी स्थान पर प्रसाद पाएँगे, धूप लगेगी, इतना परिश्रम होगा, इतना कष्ट उठाकर सबको बुलाने का कारण क्या है? यदि ऐसा कहा जाए कि जो व्यक्ति यहाँ पर दिन-रात न खाकर रहेगा, उसे पाँच लाख रुपए मिलेंगे, तो कौन है जो ऐसा नहीं करेगा?

यस्मिन् प्राप्ते सर्वमिदं प्राप्तं भवति
यस्मिन् ज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति
तद् एव ब्रह्म

(यदि परिक्रमा में होने वाले परिश्रम के बदले) संसार से मुक्ति और भगवान की प्राप्ति हो सकती है तो उसके मूल्य में यह परिश्रम कुछ भी नहीं है।

जैसे—जब हम पतंग उड़ाते हैं, उसके लिए एक चरखी का प्रयोग करते हैं। जब धागे को चरखी से खोलते हैं तो पतंग आकाश में और ऊपर जाती है तथा जब धागे को विपरीत दिशा में घुमाते हैं तो पतंग वापिस नीचे की ओर आने लगती है। इसी प्रकार जब हम संसार को केन्द्र करके घूमेंगे, शरीर में ‘मैं’ बुद्धि करके शरीर संबंधी व्यक्तियों में ‘मेरे’ बुद्धि करके कि यह मेरा शरीर है, स्त्री है, पुत्र है, मकान है, दुकान है, देश है इत्यादि—इस प्रकार का मिथ्या अभिमान करेंगे तथा संसार में अपने इन्द्रिय-इन्द्रियार्थ दे देंगे तब संसार में फँस जाएँगे। संसार में आसक्त होते जाएँगे। भगवान की माया शक्ति से जो कुछ मिला है वह नश्वर है। माया शक्ति के त्रिगुण हैं—सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण। रजोगुण से जन्म होता है और जिसका जन्म हुआ, उसका कुछ समय के लिए सत्त्वगुण से संरक्षण होता है और तमोगुण से नाश होता है। जन्म, स्थिति और भंग–यह जगत की तीन अवस्थाएँ हैं। यह शरीर किसी का हमेशा नहीं रहेगा। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.27)

यह तो होगा ही। जितने दिन शरीर रहेगा तीन प्रकार के ताप अवश्य ही मिलेंगे—आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक ताप।

शरीर अथवा मन से होने वाले ताप को आध्यात्मिक ताप कहते हैं। जैसे—अपने प्रियतम जन के मरने पर शोक होना, रोग-व्याधि से होने वाला दुःख इत्यादि शारीरिक एवं मानसिक ताप आध्यात्मिक ताप के अन्तर्गत आता है। अन्य प्राणियों से मिलने वाले ताप को आधिभौतिक ताप कहते हैं। जैसे—मच्छर, मक्खी इत्यादि जीतने भी प्रकार के जीव-जन्तु हैं। परन्तु सबसे खतरनाक स्वयं मनुष्य ही हैं। मनुष्य बिना किसी शत्रुता के, केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अन्यों को मार देते हैं। किसी ने Aeroplane को Hijack कर लिया, कहीं पर ट्रेन की बोगी को उड़ा दिया, कहीं किसी को मार दिया इत्यादि। मनुष्य इतने क्रूर बन चुके हैं। इसकी प्रतिक्रिया अवश्य ही होगी। “To every action, there is equal and opposite reaction.” प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी ही। एक हाथ में थप्पड़ मारने पर वह थप्पड़ वापिस उस हाथ में लगेगा ही। जब हिंसा करेंगे तो प्रतिहिंसित होना ही पड़ेगा। इसका परिणाम हमें दिखता नहीं परन्तु ऐसा होगा। अपनी जीविका के लिए मनुष्यों ने इतना क्रूर और भयानक रूप धारण कर लिया है। प्रतिदिन अखबार में आने वाले अनेकों समाचार इस बात की ही पुष्टि करते हैं। किन्तु ऐसी भयंकर मूर्ति धारण करने के फलस्वरूप उन्हें (प्रकृति की) भयंकर ध्वंस मूर्ति भी देखनी पड़ेगी। क्या होगा इसका पता नहीं चलेगा? इतना सहज नहीं है कि प्रकृति ऐसे चुपचाप रह जाएगी!

बुद्ध देव ने आकर अहिंसा का प्रचार किया।

‘मा हिंसात् सर्वाणि भूतानि’—किसी भी प्राणी पर हिंसा नहीं करना, मनुष्य तो दूर की बात है। हिंसा करने से प्रतिहिंसित होना ही पड़ेगा। कोई उसे रोक नहीं सकता।

इसी प्रकार एक होता है आधिदैविक ताप। Natural Calamities(प्राकृतिक आपदाएँ) यथा तूफान, सुनामी इत्यादि इसके अंतर्गत हैं। जो हम पहले कर्म किए हुए हैं, उसी का फल भोग रहे हैं। अभी वर्त्तमान के जो कर्म हैं, इनका फल बाद में होगा। भुगतने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

संसार में हम जो इतना कष्ट पाते हैं इससे मुक्ति का उपाय क्या है? परमानन्द स्वरूप कौन है? “रसो वै सः’—श्रुति में लिखा है। रस, आनन्द स्वरूप सर्वशक्तिमान भगवान हैं। आनन्द जड़ पदार्थ नहीं है। जड़ पदार्थ को जहाँ रख दें वहीं पड़ा रहेगा। आनन्द ऐसा नहीं है। कुछ लोगों का ऐसा मानना होता है कि जिसे हम साक्षात् आंखों से, इंद्रियों से देखते हैं वह वास्तव है और जो हम नहीं देखते हैं—आत्मा, परमात्मा; वह अवास्तव है। इस सम्बन्ध में पूज्यपाद स्वामी महाराज जी कहते थे—

“I think them to be fool no.1.”

क्या जड़ पदार्थ कभी आकर कहता है कि मैं जड़ हूँ? घड़ी कभी आकर कहेगी कि मैं घड़ी हूँ? यह सिद्धान्त समझने के लिए अधिक बुद्धि की आवश्यकता नहीं है। जड़ पदार्थ का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, जब अणु चेतन है तब तक उसका मूल्य है, चेतन वस्तु जब चली जाएगी तो मूर्ति या शरीर का कोई मूल्य नहीं है। यदि कोई व्यक्ति यहाँ पर मर जाएगा तो सब के हृदय में घबराहट होगी। उसे छूने से स्नान करना पड़ेगा। कोई शरीर को व्यक्ति नहीं मानता। जब तक उसमें चेतन सत्ता रहती है, तब तक इच्छा, क्रिया और अनुभूति रहती है। हम अणु सच्चिदानन्द हैं जिस कारण हम हमेशा जीवित रहना चाहते हैं, कोई मारना नहीं चाहता। मैं ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। क्या ज्ञान के अभाव में ज्ञान के लिए माँग हो सकती है? क्या यह बात तर्कसंगत है? मुझमें वह सत्ता है इसीलिए मेरी ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा है। मेरे अन्दर आनन्द है, इसलिए मैं आनन्द चाहता हूँ। अणुचेतन-अणुव्यक्ति, विभुचेतन-विभुव्यक्ति।

“Nothing is the cause of something”— is an irrational talk.

जहाँ पर जो वस्तु नहीं है, वहाँ से वह वस्तु नहीं आ सकती। दो लकड़ियों के घर्षण से आग नहीं लगती। लकड़ी में पंचमहाभूत का विकार, आग, भी है। आग ढकी हुई है, घर्षण करने से वह प्रकाशित होती है। Nothing से something नहीं हुआ।

अणुचेतन कहाँ से आया?

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति।
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म॥
(तैत्तिरीयोपनिषद् 3.1)

समस्त अणुचेतन विभु चेतन से आए हैं। विभु चेतन में विभु इच्छाशक्ति, विभु क्रियाशक्ति तथा विभु अनुभवशक्ति है। आनन्द व्यक्ति है। Anand can take initiative. Anand is not inert matter that cannot do anything. Anand is Supreme Lord Himself. ‘सीमार मध्ये असीम’—देखा जाता है कि भगवान सीमा के अन्दर हैं किन्तु वे असीम हैं। देखने में छोटे गोपाल हैं परन्तु उनके भीतर अनन्त ब्रह्माण्ड घूम रहे हैं। सीमा के अन्दर भी असीम हैं। यही उनकी अचिन्त्य शक्ति है। भगवान क्षीरसागर में शयन-लीला कर रहे हैं और साथ ही अनन्त क्षीर सागर, अनन्त ब्रह्माण्ड उनके अन्दर हैं। उनके लिए सब कुछ सम्भव है, कुछ भी असम्भव नहीं है। भगवान सर्वशक्तिमान हैं। वे जो चाहें, वह कर सकते हैं। आनन्द व्यक्ति है। आनन्द की कृपा से आनन्द मिलेगा। हम अपने प्रयास से उसे प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसा सोचकर हम बहुत बड़ी भूल करेंगे। आनन्द व्यक्ति है, सबका कारण है। हमें आनन्द की प्राप्ति के लिए उसकी शरण में जाना होगा, तब कृपा आएगी।

क्या कोई रात में सूर्य को देख सकता है? सम्पूर्ण विश्व की बिजली जला देने पर भी क्या हम सूर्य को देख सकते हैं? नहीं, यह करने से सूर्य को देखा नहीं जा सकता। सूर्य को देखने के लिए उनकी कृपा की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। सूर्य उदित होने पर उनकी किरणों से ही उन्हें देखा जाएगा। इसी प्रकार भगवान की कृपा से भगवान को देखा जाएगा, विश्व को भी देखा जाएगा। इसलिए उनका होकर उनकी प्रीति के लिए भक्ति करनी होगी। भक्ति की परिभाषा हम लोग प्रायः सुनते हैं—

सर्वोपाधि विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्।
हृषिकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते॥

समस्त उपाधियों से मुक्त नहीं, निर्मुक्त नहीं, विनिर्मुक्त होना होगा। यदि किसी भी प्रकार का मिथ्या अभिमान रहे तब भक्ति नहीं होगी। इसलिए मुक्त शब्द से संतोष नहीं हुआ, निर्मुक्त से भी नहीं हुआ, ‘विनिर्मुक्तं’ शब्द का प्रयोग किया गया। उपाधि की गन्ध भी नहीं रहनी चाहिए। तब भक्ति होगी। यह होना इतना सहज नहीं है। ‘सर्वोपाधि विनिर्मुक्तं’—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र; ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी एवं संन्यासी; मैं भारत का हूँ, पाकिस्तान का हूँ, चीन का हूँ अथवा पृथ्वी का हूँ; फलाँ पार्टी का हूँ इत्यादि जीतने भी अभिमान हैं, ये सब दूषण है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही अमंगल स्वरूप है। इसलिए कोई अभिमान नहीं रखना चाहिए। हमें अपने चित्त से सब प्रकार के जड़ाभिमान को सम्पूर्ण रूप से बाहर निकालना होगा। यह ध्रुव ने किया था किन्तु हम लोग नहीं कर सकते। इसलिए सौतेली माता सुरुचि के वचनों पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। जहाँ आत्मा धीर-स्थिर भाव में स्थित है, वहाँ भगवान की उपासना और उनका संग किया जा सकता है। यदि वास्तविक वस्तु ही न हो, तब कैसे होगा। यदि किसी हिलते हुए पूतले के साथ किसी वस्तु को लगा दें तो वह भी हिलने लगेगी। यदि मन को संसार के साथ, देह अथवा देह सम्बन्धी व्यक्तियों के साथ लगा देंगे तो उसी प्रकार कार्य करने लगेंगे। भगवान धीर-स्थिर हैं। जब वहाँ पर मन लगाएँगे तो हम भी धीर-स्थिर हो जाएँगे। अस्थिरता नहीं रहेगी।

By the fruits you can understand whether your attention is concentrated to the God or not. (फल द्वारा हम अनुमान लगा सकते हैं कि हमारा ध्यान भगवान में एकाग्र है या नहीं।) अपने आपको स्वयं ही देख लीजिए। इसलिए समस्त उपाधियों से निर्मुक्त हो जाना चाहिए, उन्हें बिलकुल छोड़ देना चाहिए। ज्ञानी लोग भी उपाधि छोड़ देते हैं। वे कहते हैं कि हम सत्त्वगुण, रजोगुण अथवा तमोगुण नहीं चाहते; संसार का नाशवान स्वर्गादि सुख नहीं चाहते; सत्यलोक में जाना भी नहीं चाहते; हम ब्रह्म में लीन हो जाएँगे। परन्तु केवल त्रिगुण को छोड़ने से ही भक्ति नहीं होगी।

तत्परत्वेन निर्मलम्।

हरि ॐ तत् सत्। जब भगवान के हो जाएंगे तब मन निर्मल होगा। मैं दुनिया का नहीं हूँ, मैं चैतन्य महाप्रभु का हूँ, राधा कृष्ण का हूँ, गौरांग का हूँ, गुरु जी का हूँ, वैष्णव का हूँ—इससे ही मन पवित्र हो जाएगा। कोई भय नहीं रहेगा। हम मुख से तो बहुत बोलते हैं किन्तु हृदय से बोलना चाहिए। केवल मुख से बोलने से नहीं होगा।

न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
(शिक्षाष्टकम्-4)

शिक्षाष्टक का यह श्लोक हम बोल देते हैं। बाहर से कहते हैं,“मैं धन नहीं चाहता हूँ” परन्तु भीतर में ऐसा विचार करते हैं कि धन की आवश्यकता तो पड़ती ही है। भगवान धन दे देंगे। वे भीतर के भाव को देखकर वस्तु देंगे। भावग्राही जनार्दन, भाषाग्राही नहीं। आगे कहते हैं, “मैं जन नहीं चाहता हूँ, स्त्री-पुत्र यह सब नहीं चाहता हूँ, पाण्डित्य नहीं चाहता हूँ, मुक्ति नहीं चाहता हूँ।”, किन्तु भीतर में चाहते हैं। केवल मुख से कहने से नहीं होगा। सब छोड़कर भगवान में अहैतुकी भक्ति करनी होगी। अहैतुकी भक्ति कैसे होगी? उसे करने का क्या उपाय है? इसके विषय में प्रायश्चित प्रसंग में कहा गया है। भागवत के षष्ठम् स्कन्ध में इसका वर्णन आता है। कर्मकाण्डीय प्रायश्चित अथवा ज्ञानकाण्डीय प्रायश्चित में भी पाप का मूल रहता है किन्तु केवला भक्ति से समस्त पापों का समूल नाश हो जाएगा।

केचित् केवलया भक्त्या वासुदेवपरायणाः।
अघं धुन्वन्ति कात्स्न्येन नीहारमिव भास्करः॥
(श्रीमद्भागवतम् 6.1.15)

जब वासुदेव परायण होंगे, वासुदेव को श्रेष्ठ रूप से आश्रय करेंगे, उनके हो जाएँगे, तब समस्त प्रकार के प्रायश्चित हो जाएँगे।

आगे वर्णन किया—

न तथा ह्यघवान् राजन्पूयेत तप आदिभि:।
यथा कृष्णार्पितप्राणस्तत्पुरुषनिषेवया ॥
(श्रीमद्भागवतम् 6.1.16)

कृष्णार्पितप्राणस्तत्पुरुषनिषेवया—कृष्णार्पित प्राण वाला भाव कब आएगा? यदि शरणागत नहीं होगी तब भक्ति नहीं होगी। वासुदेव परायण होना होगा अर्थात् वासुदेव को श्रेष्ठ रूप से आश्रय करना होगा। यह शर्त है। ऐसा होने से समस्त पापों का जड़ से नाश हो जाएगा।

इससे पूर्व शुकदेव गोस्वामी यह भी बताते हैं कि जिस प्रकार बाँस की झाड़ में आग लगने से सब कुछ जल जाता है उसी प्रकार ज्ञानकाण्डीय प्रायश्चित से सब पाप ध्वंस तो हो जाते हैं।

तपसा ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च।
त्यागेन सत्यशौचाभ्यां यमेन नियमेन वा॥
देहवाग्बुद्धिजं धीरा धर्मज्ञा: श्रद्धयान्विता:।
क्षिपन्त्यघं महदपि वेणुगुल्ममिवानल:॥

तब परीक्षित महाराज जी का प्रश्न हुआ कि बाँस की झाड़ में आग लगने से सब जल तो जाएगा परन्तु बाँस की मूल तो भूमि में रहती है। वर्षा होने पर पुनः उत्पन्न वह हो सकता है। इसलिए आप ऐसा कुछ उपाय बताइए जिसमें उसके पुनः उत्पन्न होने की कोई भी सम्भावना न हो। ज्ञानकाण्डीय प्रायश्चित में भी डर है। जब तक श्रेष्ठ रस नहीं मिले तब तक गिरने का डर है। इसीलिए कहा—कृष्णार्पितप्राणस्तत्पुरुषनिषेवया। जो भगवान के शरणागत हुआ है ऐसे भक्त की सेवा-परिचर्या करने से आत्मा की वृत्ति प्रकाशित हो जाएगी। भगवान में अहैतुकी भक्ति प्रकाशित होगी। अपनी चेष्टा से यह नहीं होगा।

भक्तिस्तु भगवद्भक्त संगेन परिजायते।
न तथा ह्यघवान् राजन्पूयेत तप आदिभि:।
यथा कृष्णार्पितप्राणस्तत्पुरुषनिषेवया ॥
(श्रीमद्भागवतम् 6.1.16)

पापिष्ठ व्यक्ति कर्मकाण्डीय अथवा ज्ञानकाण्डीय प्रायश्चित से इतना पवित्र नहीं हो सकता जितना भगवान में अर्पित होने से हो सकता है। उनमें कैसे अर्पित होंगे? शरणागत भक्तों के अनुगत्य द्वारा। इसलिए शरणागत भक्त के आनुगत्य में परिक्रमा करनी होगी। जब भक्तों का आनुगत्य करके परिक्रमा करेंगे तब “मैं दुनिया का नहीं हूँ , भगवान का हूँ”—यह भावना उदित होगी। नवद्वीप धाम के विषय में कलकत्ता में भी कहा था। श्रील प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद ने अनेक श्लोकों द्वारा इसका महात्म्य वर्णन किया। हमारे मठ के ‘नवदीप धाम महात्म्य’ नामक ग्रन्थ में इसके बारे में लिखा है—

श्रुतिच्छान्दोग्याख्या वदति परमं ब्रह्मपुरकम्—अर्थात् जिसे छान्दोग्य नामक उपनिषद में परम ब्रह्मपुर कहा गया है, यह भगवान का धाम है, जगत की कोई जड़ वस्तु नहीं है।

स्मृतिर्वैकुण्ठाख्यं वदति किल यद् विष्णुसदनम्—स्मृति-शास्त्र में इसे विष्णु का स्थान, वैकुण्ठ कहा गया है।

सितद्वीपंचान्ये विरलरसिकोऽयं व्रजवनम्—पुराणों में जिसे ‘श्वेतद्वीप’ कहकर वर्णन किया है तथा विरल-रसिक-भक्तगण ‘व्रजधाम’ कहते हैं।

नवद्वीपं वन्दे परमसुखदं तं चिदुदितम्—उसी नवद्वीप धाम की मैं वन्दना कर रहा हूँ। नवदीप धाम अनुभव कर सकता है। वह धाम अचेतन वस्तु नहीं है। धाम चेतन है, वहाँ का सब कुछ चेतन है। कोई अचेतन वस्तु है ही नहीं। सब नित्य है। हम धाम में यह शरीर लेकर प्रवेश नहीं कर सकते।

ईशोद्यान के बारे में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने लिखा—

मायापुर-दक्षिणांशे जाह्नवीर तटे।
सरस्वती संगमेर अतीव निकटे॥
ईशोद्यान नाम उपवन सुविस्तार।
सर्वदा भजनस्थान हउक आमार॥

अर्थात् श्रीश्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी कहते हैं कि मायापुर के दक्षिण भाग में जाह्नवी नदी के किनारे व सरस्वती नदी के संगम के बिल्कुल पास ही ईशोद्यान नाम से बड़ा सुन्दर उपवन है जो सर्वदा मेरा भजन-स्थान हो।

जिस प्रकार राधाकुण्ड बहुलावन के अन्तर्गत है, ईशोद्यान भी उसी प्रकार होगा। यहाँ पर भी राधाकुण्ड है। ईशोद्यान अर्थात् ईशा (राधा) का उद्यान। इसी कारण गुरुजी ने इस स्थान पर मठ निर्माण किया। गुरुजी की कृपा से यहाँ राधाकुण्ड और श्यामकुण्ड भी प्रकाशित हो गए। यद्यपि तत्त्व में वे यहाँ नित्य विराजमान हैं, तथापि बाहर में भी दोनों प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं।

यह धाम स्थूल नेत्रों द्वारा देखा नहीं जाता, यह तो अप्राकृत है। जब उनके शरणागत होकर करेंगे, तब दर्शन कर पाएँगे। इसी नवद्वीप धाम में गौरांग महाप्रभु के पादपद्म हैं, उनके पार्षदों के पादपद्म हैं।

गौरांगेर दुटिपद, यार धन सम्पद,
से जाने भक्ति-रस-सार।

(श्रीगौरांग महाप्रभु जी के श्रीचरण युगल ही जिसकी धन-सम्पत्ति हैं, वह ही भक्तिरस के सार को जानता है।)

यदि भक्ति प्राप्त करने की इच्छा है इस विशेष कलियुग में श्रीगौरांग महाप्रभु अवतरित हुए। विशेष द्वापर में ही नन्दनन्दन श्रीकृष्ण आते हैं। प्रत्येक चतुर्युग में नहीं आते। हमारा अहोभाग्य है कि हम इस कलियुग में आए। भक्ति रस, श्रेष्ठ रस के सार को उनकी कृपा से स्वयं प्राप्त कर लेंगे।

गौरांगेर मधुर लीला, यार कर्णे प्रवेशिला,
हृदय निर्मल भेल तार॥

जिनके कान में गौरांग महाप्रभु की मधुर लीला ने प्रवेश किया, उसी का हृदय निर्मल हो गया।

ये गौरांगेर नाम लय, तार हय प्रेमोदय,
तारे मुञि याइ बलिहारी।

(जो श्रीगौरांग महाप्रभु जी का नाम लेता है, उसके हृदय में प्रेमोदय हो उठता है, मैं उसके बलिहारी जाता हूँ।)

यदि कोई ऐसा सोचे कि वह शची माता का पुत्र तो एक साधारण बालक है तब सब कुछ ही गड़बड़ हो जाएगा। वे स्वयं भगवान हैं। राधा रानी का भाव लेकर नन्दनन्दन कृष्ण, गौरांग रूप से आए।

गौरांग-गुणेते झुरे, नित्यलीला तारे स्फुरे,
से जन भकति-अधिकारी॥

जिसके गौरांग गुण सुनने से आँखों से अश्रु बहते हैं, उसी के अन्तःकरण में भगवान की नित्यलीला का स्मरण हो उठता है और वास्तव में वही भक्ति का अधिकारी है।

गौरांगेर संगि-गणे, नित्यसिद्ध करि’ माने,
से याय व्रजेन्द्र-सुत पाश।

(श्रीगौरांग महाप्रभु के संगी-गणों को जो नित्य मानता है, वह व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण के पास पहुँच जाता है।)

व्रजेन्द्रनन्दन के पास कब हम लोग जा सकता है? जब नवदीप धाम परिक्रमा नहीं होगी तो ब्रजमण्डल धाम परिक्रमा नहीं होगी कौन ले जाएँगे? गौरांग महाप्रभु।

श्रीगौड़मण्डल-भूमि, येवा जाने चिन्तामणि,
तार हय ब्रजभूमे वास॥

(श्रीगौड़मण्डल भूमि को जो चिन्तामणि की तरह समझता है, उसका ब्रजभूमि में वास होता है।) ब्रजभूमि और गौर भूमि एक ही हैं, इनमें कोई अन्तर नहीं है। हम लोग इन जड़ नेत्रों से देखते हैं कि यहाँ मच्छर है, यहाँ से भागो नहीं तो बीमारी हो जाएगी। हम लोग देखते हैं कि यह मच्छर है किन्तु शुद्ध भक्त उसमें भी सौंदर्य दर्शन करता है।

गौरप्रेमरसार्णवे, से तरंगे येवा डुबे,
से राधामाधव-अन्तरंग।
गृहे वा वनेते थाके, हा गौरांग ब’ले डाके,
नरोत्तम मांगे तार संग॥

(गौर-प्रेमरस सागर की तरंगों जो डूबता है, वह राधा-माधव जी का अन्तरंग जन होता है। चाहे कोई घर में रहे या वन में रहे, श्रीनरोत्तम दास ठाकुर जी कहते हैं कि यदि वह ‘हा गौरांग’ कह कर उच्च स्वर से पुकारता है तो मैं उसका संग चाहता हूँ।)

नरोत्तम ठाकुर हमारे गुरु हैं जिनके परिवार के हम सदस्य हैं। नरोत्तम ठाकुर महाप्रभु के आविर्भाव के काफी समय बाद आए परन्तु महाप्रभु जब वृन्दावन जाने के लिए कानाई नाटशाला से होकर गए थे, वहाँ ‘नरोत्तम! नरोत्तम!’ कहकर चिल्लाये थे। चंपकलता एक सखी हैं जिनकी एक मंजरी का नाम चंपक मंजरी। वह है नरोत्तम ठाकुर। हम लोगों नरोत्तम ठाकुर के परिवार के हैं। उनकी कृपा और नित्यानन्द प्रभु की कृपा (अवश्य ही लेनी चाहिए।)

भवार्णवे पड़े मोर आकुल पराण।
किसे कूल पा’व, तार ना पाई सन्धान॥

मैं समुद्र में गिर गया हूँ। इस भवसमुद्र से कैसे पार हुआ जाएगा?

ना आछे करम-बल, नाहि ज्ञान -बल।
याग-योग तपोधर्म―ना अच्छे सम्बल॥

वेद निहित कर्म, ज्ञान, तपस्या अथवा योग, कुछ भी नहीं साधन मेरे पास नहीं है।

नितान्त दुर्बल आमि, ना जानि साँतार।
ए विपदे के आमारे करिबे उद्धार??

हमें तैरना भी नहीं आता। इसलिए वहाँ पर हम लोग को सावधान कर दिया कि जिन्हें तैरना नहीं आता वह वहाँ नहीं जाना। ज़रा सा फिसलने से संभलना कठिन हो जाएगा? इस विपद से कौन हमारा उद्धार करेगा?

विषय-कुम्भीर ताहे भीषण-दर्शन।
कामेर तरङ्ग सदा करे उत्तेजन॥

मेरे अन्दर विषय कुंभीर बैठा हुआ है। काम का तरंग चल रहा है। अपना इंद्रिय तर्पण करने के लिए मेरी चिंता रहती है।

जहाँ काम, ताहाँ नही राम।
रवि रजनी नाहि मिले एक ठाम॥

जहाँ काम है वहाँ राम नहीं है, धाम नहीं है, गुरु नहीं है, वैष्णव नहीं है, कुछ भी नहीं है।

विषय-कुम्भीर ताहे भीषण-दर्शन।
कामेर तरंग सदा करे उत्तेजन॥
प्राक्तन वायुर वेग सहिते ना पारि।
कान्दिया अस्थिर मन, ना देखि काण्डारी॥
ओगो श्रीजाह्नवा देवी! ए दासे करुणा।
कर आजि निजगुणे, घुचाओ यन्त्रणा॥
तोमार चरण-तरी करिया आश्रय।
भवार्णव पा’र हब क’रेछि निश्चय॥
तुमि नित्यानन्द-शक्ति कृष्णभक्ति-गुरु।
ए दासे कत करह दान पदकल्पतरु॥
कत कत पामरेरे करे’छ उद्धार।
तोमार चरणे आज ए काङ्गाल छार॥

जाह्नवा देवी और वसुधा देवी नित्यानन्द जी की शक्ति का प्रकाश हैं। बलदेव जी की शक्ति है, रेवती देवी(और वारुणि)। नित्यानन्द प्रभु ने अपने आपको इतना विस्तार किया कि किसी प्रकार की परवाह नहीं की। ऐसे कि वीरचन्द्र प्रभु भी आए और फिर गंगादेवी उनका आश्रय लेकर आविर्भूत हुईं, जिनके दर्शन मात्र से पवित्र हो जाते हैं। उन्होंने अपना विस्तार करके ऐसी व्यवस्था कर दी कि जीव जिस किसी प्रकार से पवित्र होकर भगवान के पास पहुँच जाए। किन्तु हम लोगों की बुद्धि नहीं है, एकदम मूर्ख हैं। जो उनकी कृपा है उसे ही नहीं समझ पाते और गलत समझते हैं।

कल से परिक्रमा आरम्भ होगी। यहाँ से वैष्णव जाएँगे।