जीवन परिचय

जीवन परिचय

श्रील श्रीमद् भक्तिदयित माधव गोस्वामी जी महाराज

आप, कलहित जीवों के हृदयों में प्रेम-भक्ति का संचार करने वाले व भक्तों के प्राण-बल्लभ, श्री चैतन्य महाप्रभु जी के परिकरों में से एक हैं। बचपन में ही आपका धर्म के प्रति विश्वास प्रकाशित होने लगा था। 7 वर्ष की बाल्यावस्था में आपका उपनयन संस्कार हुआ । तभी से आप अपनी भक्तिमति माता जी की आज्ञानुसार नियमित भाव से श्रीमद्भागवत गीता, महाभारत व रामायण आदि धर्म शाास्त्रों का पाठ करते थे । धर्मपरायण माता श्री शैवालिनी देवी, आपका धर्म के विषय में तथा ईश्वर-आराधना में उत्साह बढ़ाती थी । यहाँ तक कि 12 वर्ष की छोटी सी आयु में ही आपको सारी गीता कण्ठस्थ हो गयी थी।

18 नवम्बर सन् 1904 की उत्थान एकादशी की परम पवित्र तिथि को आप फरीदपुर (बंगला देश) ज़िले के काँचन-पाड़ा नामक गाँव में एक दिव्य बालक के रूप में प्रकट हुए थे । आप जब छोटे ही थे तो तभी आपके पिता श्री निशीकान्त देव शर्मा बंधोपाध्याय जी परलोकवासी हो गये थे । आपके नाना जी एक प्रसिद्ध धनी व्यक्ति थे । तात्कालीन अंग्रेजी सरकार ने आपके नाना जी को “राज चक्रवर्ती” की उपाधि से विभूषित किया था। आपका सारा बचपन अपने ननिहाल में ही बीता। उसके बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आप कलकत्ता आ गये ।

इन्हीं दिनों अर्थात् उच्च श्रेणियों में पढ़ते समय आपने दरिद्र बालकों की सहायता के लिए बहुत परिश्रम करके एक ग्रन्थागार (library) की स्थापना और बिना मूल्य पुस्तकों के वितरण की व्यवस्था भी की थी। आपकी रूप लावण्ययुक्त सुदृढ़ देह, स्वभाव में मधुरता और सहनशीलता आदि गुण स्वाभाविक ही थे। इसलिए बाल्यवस्था, किशोरावस्था और यौवनावस्था में भी सदा ही आपको प्रधान नेतृत्व पद प्राप्त होता था ।

आपको नेतृत्व की प्राप्ति प्रार्थना करके या वोट द्वारा प्राप्त नहीं होती थी, बल्कि स्वाभाविक ही अपने गुणों के प्रभाव से प्राप्त हो जाती थी । आपके गुणों से आकृष्ट होकर सब लोग, सभी अवस्थाओं में आपको नेता चुन कर सुख अनुभव करते। वास्तविकता यही थी कि आपकी स्वाभाविक गुरुता, आदर्श-प्रियता और योग्यता ही आपको नेतृत्व पद प्रदान करती थी । सुपुरुष तथा दीर्घाकृति रहने के कारण आप यौवन काल में ग्वेलों में बहत ही निपुण थे । इसलिए खिलाड़ी भी आपको सदा अपना कप्तान बना लेते थे। नाटक आदि में अभिनय करने की आपमें अत्यन्त अद्भुत कुशलता थी, जिससे आपको इस क्षेत्र में भी नेतृत्व पद प्राप्त होता रहा। इस प्रकार कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जिसमें आपको स्वाभाविक ही दक्षता और प्रवीणता प्राप्त न थी। यही नहीं, समस्त परोपकारी संस्थाओं में भी नेता के रूप में आप ही उनकी परिचालना करते रहे । देश स्वाधीनता के आन्दोलनों को भी आप नियोजित करते रहे। कलकत्ता आने पर आपके हृदय में भगवान् के लिए विरह-व्याकुलता बहुत तीव्र हो गई। श्री नारायण मुखोपाध्याय आदि आपको, आपके कमरे में व्याकुलता से भगवान् को पुकारते हुए और रोते हुए देखा करते थे। उस समय आप दिन में एक बार खाना खाते थे और सब समय भगवत चिन्तन में बिताते थे ।

एक रात एक अपूर्व स्वप्न में नारद ऋषि जी ने आकर आपको सांत्वना प्रदान की, तथा मन्त्र प्रदान किया और कहा कि इस मन्त्र के जाप से तुम्हें सबसे प्रिय वस्तु की प्राप्ति होगी। परन्तु स्वप्न टूट जाने के पश्चात् बहुत चेष्टा करने पर भी वह सारा मन्त्र आपको याद नहीं हो पाया। मन्त्र भूल जाने पर आपके मन और बुद्धि में अत्यन्त क्षोभ हुआ और दुःख के कारण आप मोहित हो गए । सांसारिक वस्तुओं से उदासीनता चरम सीमा पर पहुँच गई और आपने संसार को त्याग देने का संकल्प लिया। उस समय आपकी माता जी दुर्गापुर में रहती थीं। अपनी माता जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आप दुर्गापुर पहुँच गए। आपकी भक्तिमति माता जी ने भी आपके संकल्प में बाधा नहीं डाली। तब क्या था-भगवान् के दर्शनों की तीव्र इच्छा को लेकर, संसार को त्याग कर आपने हिमालय की ओर प्रस्थान किया । लोहा जिस प्रकार चुम्बक द्वारा खींचे जाने पर किसी बाधा की परवाह नहीं करता, उसी प्रकार जब आत्मा में भगवान् का तीव्र आकर्षण उपस्थित होता है, तब जगत् का कोई भी बन्धन या बाधा उसको रोकने में समर्थ नहीं होती ।

आप हृदय में तीव्र इच्छा को लेकर श्री हरिद्वार में आ गए। यहाँ से अकेले ही बिना किसी सहायता के हिमालय पर्वत पर चले गए। जंगलों से घिरे हुए निर्जन पहाड़ पर तीन दिन और तीन रात तक भोजन और निद्रा का त्याग कर, अत्यन्त व्याकुलता के साथ एकाग्रचित्त से आप भगवान् को पुकारते रहे । भगवान् के दर्शनों की तीव्र इच्छा होने के कारण आपका बाह्य ज्ञान प्रायः लुप्त हो गया था। उसी समय वहाँ आकाशवाणी हुई “आप जहाँ पहले रहते थे, वहाँ आपके होने वाले गुरुदेव जी का आविर्भाव हो चुका है, इसलिए आप अपने स्थान को वापस लौट जाओ” दैववाणी के आदेश को शिरोधार्य करके आप पर्वत से नीचे हरिद्वार में आ गए। यहाँ आपने कुछ दिन तक ठहरने का निश्चय किया। यहीं पर एक दिन एक साधु पुरुष से आपकी भेंट हो गई। उनको आपने अपनी दैववाणी की कथा सुनाई और उन्हें उपदेश करने की प्रार्थना की। उन्होंने भी आपको घर लौट जाने की सम्मति दी और कहा कि वहाँ ही आपको श्री सद्‌गुरु की प्राप्ति होगी। तब आपने यह निश्चय किया कि कुछ दिन पवित्र तीर्थ स्थान हरिद्वार में ठहर कर वापस कलकत्ता जाऊँगा लेकिन इसे भाग्य की विडम्बना कहो या भगवान् की परीक्षा कि एक धनी व्यक्ति जो अपनी धर्मपत्नी को साथ लेकर तीर्थ स्नान व दर्शन करने आया हुआ था, की आपसे उस समय भेंट हुई जब आप ब्रह्मकुण्ड से स्नान करके आ रहे थे। आपकी यौवनावस्था और सुन्दरता को देखकर दोनों आकर्षित हो गए। उन्होंने आपको बहुत से फल और मिठाई भेंट की तथा आपको उनके वास स्थान पर आने के लिए प्रार्थना की। प्रतिदिन इसी प्रकार भेंट देने और बार-बार अपने निवास स्थान पर आने के लिए अनुरोध करने पर सदाचार की रक्षा हेतु एक दिन आप उनके घर चले गए । सेट-सेठानी ने आपको बहुत सी खाने की वस्तुएँ दीं तथा आनके साथ बहुत प्यार और स्नेह का व्यवहार किया । बाद में यह प्रस्ताव रखा कि आप हमारे पुत्र बन जाएँ, क्योंकि उनके कोई सन्तान नहीं थी । हम आपको अपनी सारी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बना देंगे। यह बात सुनकर आप अपने मन में चिन्ता करने लगे कि मैं तो संसार छोड़कर आया हूँ, वहीं ऐसा तो नहीं कि माया मुझे इस नये तरीके से आकर्षित करना चाहती है । आपने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और उनके घर से चले आए, परन्तु सेठ-सेठानी प्रतिदिन आपके पास आते, आपको बहुत प्यार और स्नेह करते तथा बार-बार अपना प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए अनुरोध करते । जिस हृदय में भगवान् को पाने की तीव्र इच्छा हो उस हृदय को जगत् का कोई भी प्रलोभन खींच नहीं सकता परन्तु जो विषयों की अभिलाषा रखते हैं, ऐसे पुरुषों द्वारा इस प्रकार विपुल सम्पत्ति का परित्याग संभव नहीं है। आपके हृदय में भोग की आकांक्षा तो थी ही नहीं एवं श्री भगवान् की आराधना की निष्कपट तीव्र इच्छा होने के कारण आपने इस प्रस्ताव को विपदायुक्त जाना और उसे ग्रहण न करके, हरिद्वार में अधिक ठहरने के प्रोग्राम को छोड़कर कलकत्ता वापस आ गये ।

सन् 1925 में श्रील प्रभुपाद, भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी जी से आपकी प्रथम भेंट नवद्वीप धाम में हुई ।

इसके बाद 1 नवम्बर सन् 1927 को राधाष्टमी की पावन तिथि पर आपने “श्रील प्रभुपाद” जी से मन्त्र-दीक्षा ॥प्त की। तब आप मात्र 24 वर्ष के थे। श्रील प्रभुपाद जं ने आपका नाम “श्री हयग्रीव दास ब्रह्मचारी” रखा। आः के पिता जी ने आपका नाम हेरम्ब कुमार बंधोपाध्याय रखा ।। ।

श्री गुरु पादाश्रय के बाद कलान्तिरहित सेवा प्रचेष्टा से नाप श्रील प्रभुपाद जी के सेवकों में एक प्रधान सेवक ने ।

आपकी गुरु निष्ठा व सेवा को देखकर सभी आश्चर्यचकित हो जाते थे । यही कारण था कि आप कुछ ही समय में एक तेजस्वी प्रचारक के रूप में प्रख्यात हो गये । श्रील प्रभुपाद जी भी आपकी सेवा-प्रचेष्टा देखकर आपको Volcanic energy वाले कहते थे ।

इस प्रकार सेवा करते-करते 40 वर्ष की अवस्था में आपने श्री जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) टोटा-गोपीनाथ मन्दिर में श्री श्रीमद्भक्ति गौरव वैखानस महाराज जी से त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण किया । तब से ही आप परिव्राजकाचार्य, त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज जी के नाम से सुपरिचित हुए ।

संन्यास लेने के बाद अपने गुरु महाराज जी व श्री चैतन्य महाप्रभु जी के मनोभीष्ट को पूर्ण करने के लिए आपने, अपने आपको सर्वतोभाव से नियुक्त किया। महापुरुषोचित सौन्दर्य, अति अद्भुत आध्यात्मिक शक्तियुक्त आदर्श जीवन द्वारा एवं कृष्ण भक्ति विषय में सुसिद्धांत पूर्ण भाषणों द्वारा, जहाँ पर भी जाते वहीं सब को आकृष्ट करते । आपकी भाषण करने की ऐसी ही माधुर्य पूर्ण शैली थी कि दूसरे दूसरे विचार परायण व्यक्ति उन्हें सुनकर दुःख तो मानते ही नहीं थे बल्कि आदर से ग्रहण करते । भारत के विभिन्न प्रतिष्ठानों में भी आप गये एवं विचार प्रकट किये । आपके अति अद्भुत सुमहान् आदर्श चरित्र और वीर्यवती श्री हरिकथा द्वारा, भारतवर्ष की पूर्व सीमा से पश्चिम सीमा और उत्तर सीमा से दक्षिण सीमा तक सैकड़ों जीव आकृष्ट होकर व भक्ति सदाचार में प्रतिष्ठित होकर गौड़ीय वैष्णव धर्म में दीक्षा ग्रहण करते हुए आज भी भजन साधन कर रहे हैं। आपने भारत के उत्तरांचल में श्री वृन्दावन में, पश्चिमांचल में चण्डीगढ़ में, दक्षिणांचल में हैदराबाद में व पूर्वांचल में गोहाटी में विराट प्रचार केन्द्रों की स्थापना की। प्रचार केन्द्रों के साथ-साथ आपने संस्कृत शिक्षा प्रतिष्ठान, विश्व धर्म के विचार के लिए ग्रन्थागार, मुद्रणालय, प्राथमिक उच्च माध्यमिक शिक्षा केन्द्र और दातव्य चिकित्सालय की भी व्यवस्था रखी। इस समय आपके द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों में स्थापित 20 प्रचार केन्द्र शुद्ध भक्ति शिक्षा का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं।

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