भारतीय पंचांग के अनुसार अग्रहायण मास वर्ष का प्रथम महीना है। इसे मार्गशीर्ष भी कहा जाता है क्योंकि इस मास में सरसों की फसल उगाई जाती है। एकादशी तिथि की मूर्तिमान स्वरूप, भगवान की दिव्य शक्ति, इस मास के कृष्ण-पक्ष के ग्यारहवें दिन प्रकट हुईं। इस विशेष दिन को उत्पन्ना एकादशी नाम दिया गया। श्रील गुरुदेव उत्पन्ना एकादशी की महिमा बताते हैं और एकादशी-व्रत के पालन से संबंधित महत्वपूर्ण शिक्षाएँ देते हैं।
आज बहुत ही शुभ तिथि है। आज उत्पन्ना एकादशी तिथि है। एकादशी तिथि कैसे प्रकट हुईं? इसका उल्लेख एकादशी महात्म्य में किया गया है। भारतीय कैलेण्डर के अनुसार यह अग्रहायन मास है। यह वर्ष का प्रथम मास है। इसे मार्गशीर्ष मास कहा जाता है, क्योंकि इस मास में खेतों में सरसों की फसल होती है। यह देखने में बहुत सुन्दर होती है, जिस से सभी का हृदय प्रसन्न हो जाता है। शास्त्रों में अग्रहायण या मार्गशीर्ष मास का बहुत महत्व बताया गया है।
एकादशी महात्म्य में पुराणों से प्रमाण लेकर एकादशी तिथि की महिमा बतलाई गई है। प्रमाण के रूप में भगवान कृष्ण तथा अर्जुन के बीच की वार्तालाप का उल्लेख किया गया है, जिसमें अर्जुन भगवान कृष्ण से पूछते हैं कि एकादशी तिथि तथा नक्त भोजन का क्या महत्व है? भगवान कृष्ण उत्तर देते हुए कहते हैं कि नक्त भोजन का अर्थ है, “दशमी के दिन एकाहार (एक बार भोजन ग्रहण करना), एकादशी के दिन निराहार (भोजन ग्रहण नहीं करना) तथा द्वादशी के दिन भी एकाहार करना। एकादशी तिथि को विश्वास पूर्वक तथा श्रद्धा पूर्वक पालन करने से मंगल की प्राप्ति होती है।
एकादशी तिथि का प्रकाट्य किस प्रकार हुआ? इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि एक बार देवतागण भगवान श्री हरि की शरण में पहुंचे तथा अपना दुःख निवेदन करते हुए बोले कि,” हे भगवन, हम देवतागणों को राक्षसों द्वारा स्वर्गलोक से निर्वासित कर दिया गया है। ब्रह्म वंश में नाड़ीजंघ असुर आया और उसे अवलम्बन करके उसके पुत्र के रूप में मुर असुर आया जो बहुत शक्तिशाली और महा-पराक्रमी है, उसके साथ हम सब देवता मिलकर भी लड़ाई नहीं कर पाए। कृपया आप उसका वध करके हमारा रक्षण कीजिये। आप ही हमारे सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता है। इसीलिए हम आपसे प्रार्थना कर रहे हैं। तब भगवान श्री हरि ने क्रोध प्रदर्शित किया और देवतागणों से कहा कि वे लोग युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाए, वे स्वयं उनके साथ युद्ध में जाएंगे तथा उस राक्षस का वध करेंगे।
तब भगवान तथा देवता गण राक्षसों से युद्ध करने के लिए गए। जब वे वहाँ पहुंचे तब मुर दानव उन्हें देखकर गर्जना करने लगा। जब युद्ध आरम्भ हुआ तब देवता गण राक्षसों की शक्ति के आगे निर्बल हो गए तथा वहाँ से भाग खड़े हुए। भगवान श्री हरि वहाँ युद्ध में धीर-स्थिर होकर डटे रहे तथा उन्होंने सभी राक्षसों का वध कर दिया। किन्तु मुर दानव के साथ उनका युद्ध दस हजार वर्ष तक चला। यह भी भगवान की लीला है, अन्यथा उनकी केवल इच्छा मात्र से ही अनंत कोटि ब्रमाण्ड का विनाश हो जाता है। उन्होंने मुर दानव को हराकर विश्राम करने के उद्देश्य से बद्रीनारायण चले गए। मुर दानव फिर से खड़ा हुआ तथा भगवान श्री हरि से युद्ध करने के लिए उन्हें खोजने लगा। अन्ततः उसने भगवान श्री हरि को विश्राम करते हुए देखा। वह उन्हें मारने के उद्देश्य से उनकी ओर दौड़ा। किन्तु उसी समय भगवान श्री हरि के दिव्य शरीर से एक दिव्य नारी प्रकट हुईं। उसने मुर दानव के साथ युद्ध किया तथा उसके सिर को दो भागों में विभक्त कर उसे मृत्यु दण्ड प्रदान किया। क्या वास्तव में भगवान श्री हरि विश्राम कर रहे थे? यह तो उनकी लीला थी। तब भगवान ने अपने चक्षु खोले तो उस दिव्य नारी को अपने सामने खड़े पाया। श्री हरि ने उस दिव्य नारी से पूछा,”आप कौन हैं?” वे सब जानते हैं उनसे ही तो वह नारी निकली हे फिर भी वे उससे पूछते हैं। तब उस दिव्य नारी ने उत्तर दिया, जब आप विश्राम कर रहे थे, एक दानव आपको मारने के उद्देश्य से आया। तब मै आपके दिव्य अंग से प्रकट हुई और उस दानव का वध कर दिया। भगवान श्री हरि उस दिव्य नारी से प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा,” आज एकादशी है।” आज से तुम्हारा नाम एकादशी होगा। जो कोई एकादशी तिथि का पालन करेगा उसके सभी प्रकार के पाप ध्वंश हो जायेंगे।
कर्मकाण्ड शास्त्रों में एकादशी के फल के विषय में लिखा है,”पापों से मुक्ति तथा स्वर्ग की प्राप्ति।” किन्तु शुद्ध भक्तों को स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा नहीं होती। क्योंकि क्षीणेपुण्ये मर्त्य लोकं विशन्ति ..पुण्य समाप्त होने के बाद जीव को स्वर्ग से दोबारा धरती पर आना पड़ता है।
जो लोग कर्मी (कर्मकाण्डी) हैं वे स्वयं को शरीर मानते हैं तथा एकादशी तिथि का पालन भौतिक लाभ जैसे कि पुत्र प्राप्ति इत्यादि के लिए करते हैं। उनके लिए इस प्रकार के फल का वर्णन किया गया है।
“उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणः सह।
उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः”॥
(श्री हरि भक्ति विलास-13.14)
अर्थात सभी प्रकार के पापों से मुक्त होकर और सभी सद्गुणों को के साथ भगवान के निकट वास करना वही एकादशी व्रत का वास्तविक उद्देश्य है।
उपावृत्तस्य पापेभ्यो- समस्त भोगों को विशेष रूप से छोड़ देना। हम अपने ने निकृष्ट वस्तु को ही भोग कर सकते हैं। भोग प्रवृत्ति से हम नाशवान, जड़ वास्तु में हम फंस जायेंगे। किन्तु एकदशी व्रत का उद्देश्य है भगवान् में फंसना अर्थात् उनमें रति-प्रीति होना।
श्रीचैतन्य चरितामृत में वर्णन है कि भक्ति के 64 अंगों में से एक अंग है, “एकादशी तिथि का पालन करना।” सभी प्रकार के भक्ति के अंगो का पालन करने का उद्देश्य है, भगवान श्री हरि का स्मरण करना। जैसा कि पद्म पुराण में वर्णन है,
स्मर्तव्यं सततं विष्णुः विस्मर्तव्यो न जातुचित् ॥
सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतयोरेव किंङकराः ॥
भक्ति के 64 प्रकार के मुख्य अंगों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। उन 64 अंगों में से जिन दस मुख्य अंगो का पालन करने के लिए निर्देश दिया गया है, उनमें से एक है एकादशी तिथि का पालन करना।
आदौ गुरु पादाश्रय, कृष्ण-दिक्षादि-शिक्षा
विश्रम्भेण गुरु-सेवन, सद् धर्म शिक्षा,
साधु वर्तमानुवर्त्मन,कृष्ण प्रित्ये भोग त्याग,
कृष्ण तीर्थे वास, यवादार्थानुवर्दिता, एकादशी उपवास
धात्री अश्वथ गौ,विप्र, वैष्णव पूजन, सेवा नामापराध दूरे विसर्जन।
एकादशी तिथि का पालन करने से भगवान श्री हरि अत्यन्त प्रसन्न होते हैं।
अन्य दिनों की अपेक्षा एकादशी तिथि के दिन भजन करने से कई गुना अधिक फल की प्राप्ति होती है। यदि एकादशी तिथि का पालन धाम में किया जाए तो परिणाम अत्यन्त मंगलदायक होते हैं। उदाहरण के लिए जिस प्रकार महाराज अम्बरीष ने एक वर्ष तक मथुरा धाम में एकादशी तिथि का पालन किया। जिस कारण से भगवान को स्वयं ऋषि दुर्वासा से उनकी रक्षा के लिए आना पड़ा।
वह स्थान जहाँ जहाँ भगवान के भक्त,भगवान श्री हरि की महिमा, लीला का श्रवण तथा कीर्तन करते हैं, वह भी धाम कहलाता है। इसीलिए श्री चैतन्य गोड़िय मठ( विशुद्ध भक्ति प्रचार केन्द्र) भी धाम है। हमारे परम गुरुदेव नित्य लीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद श्रीला भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद कहा करते थे कि उन्होंने कभी भी कलि के स्थान कलिकत्ता(कोलकाता का पूर्व नाम) में वास नहीं किया। भले ही वे वहाँ पर शारीरिक रूप वे कोलकाता में बागबाज़ार गौड़ीय मठ में रहते थे। क्योंकि गौड़ीय मठ का अवतरण हुआ है,वह पृथ्वी का कोई साधारण भाग नहीं है। मठ साधारण पृथ्वी का हिस्सा नहीं है। जैसे मथुरा, वृन्दावन धाम इत्यादि भारत या पृथ्वी के किसी भी हिस्से का भाग नहीं है। यह चिन्मय तथा शाश्वत स्थान हैं। मथुरा, वृन्दावन धाम इत्यादि इस जड़ प्रकृति की तरह जल, वायु , अग्नि तथा पृथ्वी इत्यादि तत्वों से नहीं बने हैं तथा ना ही हम अपने भौतिक शरीर के द्वारा इस धाम में प्रवेश कर सकते हैं। “गर्ग संहिता” में यह उल्लेख मिलता है, कि चौरासी कोस ब्रजमण्डल धाम का अवतरण भगवान श्री कृष्ण की इच्छा से हुआ है। जिस प्रकार गोवर्धन जी पहले द्रोण पर्वत के पुत्र रुप में अवतरित हुए। उसके पश्चात् पुलस्त्य मुनि उन्हें काशी ले जाना चाहते थे किन्तु गोवर्धन जी की इच्छा ब्रजमंडल धाम में रहने की थी। जिस कारण से पुलस्त्य मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया कि वे प्रतिदिन आकार में सरसों के दाने जितना घटते जाएंगे। गोवर्धन जी वास्तविक आकार में 64 मील लम्बे, 24 मील चौड़े तथा 16 मील ऊंचे थे। अब यह 7 मील से भी कम रह गए हैं। इसी क्रम में कुछ हजार वर्ष पश्चात् वह अंतर्धान हो जाएगें। शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि जब तक पृथ्वी पर गंगा नदी तथा गोवर्धन जी है तब तक संसार में सुरक्षा तथा शान्ति बनी रहेगी। किन्तु जब ये अंतर्धान हो जाएंगे तब रक्षा करनेवाला कोई नहीं होगा।
जिस प्रकार धाम इत्यादि इस पृथ्वी का भाग नहीं है, उसी प्रकार श्री चैतन्य गौड़ीय मठ भी इस पृथ्वी का हिस्सा नहीं है। श्री चैतन्य गौड़ीय मठ, श्री राधा-कृष्ण की आराधना का स्थान है। यह भी एक धाम है। जैसे हरि प्रकृति से अतीत, निर्गुण होते हैं वैसे ही उनका धाम भी प्रकृति से अतीत होता है। प्राकृत शरीर, जागतिक अभिमान और भोग बुद्धि लेकर कोई वास्तविक रूप से उसमें प्रवेश नहीं कर सकता।
भगवान स्वयं कहते हैं कि, “मद् भक्त यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामी नारद” अर्थात हे नारद, मेरे भक्त जहाँ पर भी मेरी महिमा गुणगान करते हैं, मैं वहीं पर वास करता हूँ।
इसलिए एकादशी तिथि का पालन यदि ऐसे धाम में किया जाए जहाँ पर शुद्ध भक्तों का वास है, तो उस एकादशी तिथि पालन से प्राप्त लाभ को शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।
“उपवास” शब्द का अर्थ है, “भगवान के निकट वास करना।” भगवान के निकट वास करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? वे निर्गुण तथा अप्राकृतिक है। प्राकृतिक शरीर के द्वारा उनके निकट नहीं जाया जा सकता है।
तब इसका क्या उपाय है?
इसका उत्तर हमें चैतन्य चरितामृत में मिलता है-
दीक्षा काले शिष्य करे आत्मसमर्पण
सेइ काले कृष्ण तारे करे आत्म सम।
सेइ देह करे तारे चिदानन्द-मय
अप्राकृत देहे कृष्ण चरणे भजय।
अर्थात दीक्षा-मन्त्र लेते समय शिष्य गुरुदेव के चरणों का पूर्ण रूप से आश्रय ग्रहण कर उनके शरणागत हो जाता है।
भगवान का अनन्य भक्त भगवान की कृपामूर्ति स्वरूप है। भगवान गुरु रूप से कृपा करते हैं। जब उनका आश्रय लेंगे तब भगवान् गुरु के माध्यम स्वीकार करके शिष्य के शरीर को सच्चिदानंदमय कर देते हैं। उसी अप्राकृत शरीर से कृष्ण की सेवा होती है।
किन्तु मेरे जैसा बद्ध-जीव जिसकी शरीर में ‘मैं’ बुद्धि है वह प्राकृत शरीर लेकर कैसे भगवान के निकट वास कर सकता है? किन्तु श्रीमन् चैतन्य महाप्रभु कलियुग-पावन अवतारी है। जिस प्रकार ब्रजमण्डल धाम में वंशीवट रास स्थली है, उसी प्रकार श्री धाम मायापुर में श्रीवास आंगन में संकीर्तन रास स्थली है। श्रीमन महाप्रभु श्रीवास आंगन संकीर्तन रास स्थली में एकादशी तिथि पालन की शिक्षा प्रदान करते हैं।
श्री हरिवासेर हरि कीर्तन विधान
नृत्य आरम्भिला प्रभु जगतेर प्राण।
अर्थात एकादशी तिथिहरिवासर तिथि में हरि-कीर्तन ही विधान है।श्री चैतन्य महाप्रभु जो इस जगत के प्राण हैं तथा राधा-कृष्ण का संयुक्त रूप हैं, वह श्रीवास आंगन में कीर्तन के साथ-साथ नृत्य लीला करके जीवों को यह शिक्षा प्रदान करते हैं कि एकादशी तिथि का पालन किस प्रकार करना चाहिए।
पुण्यवन्त श्रीवास आंगने शुभारम्भ
उठीले कीर्तन ध्वनि गोपाल गोविन्द।
हरि ओ राम राम! हरि ओ राम राम!
श्रीमद्भागवत में वर्णन है कि-
कलेर दोष-निधे राजन
अस्ति ह्येको महागुणः।
कीर्तनाद एव श्री कृष्णस्य
मुक्त-संघः परं व्रजेत।।
अर्थात यद्यपि कलियुग दोषों, पापों तथा अधर्म रूपी सागर है, तथापि इस कलियुग का एक विशेष गुण है कि कोई भी जीव कृष्ण कीर्तन के द्वारा इस भौतिक संसार के दुःख रूपी सागर से बन्धन-मुक्त होकर भगवान के धाम की प्राप्ति कर सकता है।
श्रीमद्भागवत में एक ओर वर्णन आता है (1.1.17) कि पाण्डवों के अन्तिम उत्तराधिकारी महाराज परीक्षित एक बार अपने राज्य के निरीक्षण के लिए भ्रमण पर निकले तब उन्होंने देखा, एक व्यक्ति राजा का वेश धारण कर गाय को मार रहा था। उसके पास ही एक बैल खड़ा था, जिसके चार की जगह एक ही पांव था, जिस पर वह खड़ा था।
महाराज परीक्षित ने उनसे पूछा, “तुम कौन हो?”
उसने उत्तर दिया, “मैं कली हूँ।”
महाराज परीक्षित ने पूछा, “कली का क्या अर्थ है”?
उसने उत्तर दिया, “पाप, अधर्म और अशान्ति”।
तब महाराज परीक्षित ने कहा, यदि ऐसा है तो मेरे राज्य में तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं है। तुम शीघ्र ही यह स्थान छोड़कर कहीं और चले जाओ अन्यथा मैं तुम्हें मृत्युदण्ड दूंगा।
जैसे परीक्षित महाराज उसे मारने गए कली ने तत्क्षण उनकी शरण ग्रहण कर ली ताकि वे उसका वध ना कर सकें। परीक्षित महाराज ने उससे कहा,”ठीक है, तुम शीघ्र’ही यह राज्य छोड़कर चले जाओ।” तब उसने कहा, हे राजन! इस पृथ्वी पर सर्वत्र ही केवल आपका राज्य है। आप कृप्या मुझे रहने के लिए स्थान दीजिए। तब महाराज परीक्षित में कलि को रहने के लिए चार स्थान दिए। ध्युतम (जुए का स्थान), पानम (नशा), स्त्रियम (स्त्रियों के साथ अवैध सम्बन्ध) तथा सुना (मांस खाना)। कली ने महाराज परीक्षित से रहने के लिए एक स्थान और मांगा। तब उन्होंने कलि को रहने के लिए एक स्थान और दिया “धन”। धन अर्थात लक्ष्मी। लक्ष्मी देवी सदैव भगवान नारायण की सेवा में रहती हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति धन को भगवान नारायण की सेवा में ना लगाकर उस धन के द्वारा स्वयं आनन्द प्राप्ति करता है, तब उस धन में लक्ष्मी के स्थान पर कली का वास हो जाता है।
इसलिए वह लोग जो अपना वास्तविक मंगल चाहते हैं, उन्हें इन चार स्थानों से सदा दूर रहना चाहिए। और अर्थ का दुरोपयोग नहीं करना चाहिए। यदि कोई धार्मिक व्यक्ति (गुरु) इस प्रकार की शास्त्र विरोधी क्रियाओं में लिप्त होता है, तो उसे अन्यों की अपेक्षा अधिक क्षति पहुंचती है। क्योंकि साधारण लोग उसे अपने आदर्श के रूप में स्वीकार करके उसका अनुसरण करते हैं। इसी प्रकार यदि कोई राजा शातिर या दुराचारी है तो राज्य की जनता अपने राजा का अनुसरण करेगी। यह अच्छा नहीं है। इसीलिए एक धार्मिक व्यक्ति (गुरु) तथा एक राजा को इस प्रकार की क्रियाओं में लिप्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि इन दोनों का लोगों के द्वारा अनुसरण किया जाता है।
कली के इन पांच स्थानों से बचने के लिए सदा हरि नाम संकीर्तन करते रहना चाहिए।
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः|
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकिर्त्तानात् || (१२ | ३ | ५२)
सत्तयुग में भगवान की प्राप्ति का साधन “ध्यान” था। क्योंकि सत्तयुग में धर्म के चार पैर अर्थात तप (तपस्या), शौचम (स्वच्छता), दया (दया),तथा सत्यम (सत्य)उपस्थित थे। इसीलिए उस युग के लोगों के लिए ध्यान करना सम्भव था। उस समय मन चंचल नहीं होता था।
उसके पश्चात त्रेता युग में “तपस्या” के जाने के कारण धर्म के केवल तीन पैर ही रह गए तथा विषय का प्रवेश होने के कारण एक पैर “अधर्म” का आ गया। जिस कारण से जीव की भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति होनी आरम्भ हो गयी। मन चंचल रहने लगा। इसीलिए त्रेता युग में जीवों के लिए ध्यान करना सम्भव नहीं था। तब ऋषियों-मुनियों ने यह उपाय निकाला कि जीव जिन विषयों में लिप्त है और जिन भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्त है, उन्हीं विषयों तथा वस्तुओं को भगवान की सेवा में नियोजित किया जाए। यहां पर विचार यह है कि जीव की जिस वस्तु में आसक्ति होती है, उसकी बुद्धि उसी वस्तु के पीछे दौड़ती रहती है। उदाहरण के लिए मेरे हाथ में एक घड़ी है। यदि कोई चोर उस घड़ी को चुराकर भाग जाए तो हम भी चोर के पीछे पीछे भागेंगे। यदि चोर पायखाना ( मल त्याग करने का स्थान) जाएगा तो हम भी वहाँ जाएंगे, यदि चोर मन्दिर की ओर भागेगा तो हम भी मन्दिर की ओर भागेंगे। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस घड़ी में हमारी आसक्ति है वह जहां-जहाँ जाएगी हम भी वहाँ जाएंगे। दुकान में बहुत घडी है उसके पीछे है भागेंगे किन्तु इस घडी में आसक्ति हुई है, सम्बन्ध है इसलिए उसके पीछे भागेंगे। इसी प्रकार हमारा मन इस संसार की जिस वस्तु में आसक्त रहेगा, वह उसी वस्तु के पीछे दौड़ता रहेगा। इसलिए मन को एकाग्र करने के लिए जिस विषय में हमारी आसक्ती है उसी विषय या वस्तु को भगवान की सेवा में नियोजित कर देना चाहिए।
इसलिए त्रेता युग में भगवान को प्राप्त करने का साधन “यज्ञ” था। अर्थात यज्ञ (अग्नि-यज्ञ) में द्रव्यों की आहुति देकर भगवान विष्णु के लिए अपनी आसक्त वस्तुओं का त्याग करना तथा मन को उनकी सेवा में लगाना।
द्वापर युग में धर्म का दूसरा पैर शौचम (स्वच्छता) भी चला गया। मन तथा इन्द्रियां अधिक चंचल हो गईं। जीव में भोग करने की प्रवृत्ति विकसित हो गई। अब यज्ञ करना भी सम्भव नहीं था। क्योंकि यज्ञ में मन्त्रों का उच्चारण यथार्थ रूप से नहीं करने पर विपरीत परिणामों की प्राप्ति होती है। इंद्र ने जब उनके गुरु विश्वरूप का वध कर दिया तब विश्वरूप के पिता त्वष्टा ऋषि ने अपने पुत्रकी हत्या का बदला लेने और इंद्र को मारने के लिए एक यज्ञ किया। किन्तु यज्ञ में आहुति देते समय मंत्र का उच्चारण गलत हो जाने से उसका शत्रु राक्षश वृतासुर उत्पन्न तो हुआ किन्तु वह इंद्र को वध करने की जगह इंद्र उसका वध करेगा। क्योंकि मंत्र में इंद्र शब्द पर अधिक भार देने से इंद्र, उसके शत्रु से अधिक बलवान हो गया। मंत्र केउच्चारण में गलती करने से यज्ञ का फल विपरीत हो गया। इसलिए अजितेन्द्रिय व्यक्ति यज्ञ भी नहीं कर सकता।
इसलिए द्वापर युग में भगवान की प्राप्ति का साधन (पूजा-अर्चन) अर्थात विग्रह पूजा था। ताकि हमारी सभी इन्द्रियों तथा विषय वस्तुओं को भगवान की सेवा में लगाया जा सके जिससे हमारा मन एकाग्र होकर भगवान का चिन्तन कर सके।
कलियुग में धर्म का तीसरा पैर “दया” भी चला गया। जिस कारण से मन तथा इन्द्रियां सब समय चंचल और अस्थिर रहते हैं। कलियुग में पूजा करने की सामग्री जैसे कि घी इत्यादि भी शुद्ध नहीं है।
कलियुग का जीव अधिकतर समय व्याधियों से ग्रसित रहता है। शास्त्रानुसार व्याधि से ग्रसित व्यक्ति विग्रह पूजा करने का अधिकारी नहीं होता। इसीलिए कलियुग के जीव विग्रह पूजा करने के योग्य भी नहीं हैं।
इसीलिए कलियुग में भगवान की प्राप्ति का एकमात्र साधन “हरि नाम-संकीर्तन” है। जो वस्तु सतयुग में “ध्यान” द्वारा, त्रेता युग में “यज्ञ” द्वारा तथा द्वापर युग में “विग्रह पूजा-अर्चन” के द्वारा प्राप्त की जा सकती थी। वही वस्तु कलियुग में “हरि नाम-संकीर्तन” के द्वारा सहजता से प्राप्त की जा सकती है। प्रत्येक युग में एक महामन्त्र होता है। इसलिए प्रत्येक युग के जीवों को उस युग के अनुसार दिए गए महामन्त्र का कीर्तन करना चाहिए जिससे कि वह भगवद्-प्राप्ति कर सके।
सतयुग युग का महामन्त्र है:-
नारायण परा वेदा नारायण पराक्षरा
नारायण परा मुक्तिर नारायण परा गति:।
त्रेता युग का महामन्त्र है:-
रामा नारायणानन्त मुकुन्द मधुसूदन
कृष्ण केशव कंसारे हरे वैकुण्ठ वामन।
द्वापरयुग का महामन्त्र है:-
हरे मुरारे मधु कैतभारे गोपाल गोविन्द मुकुन्द शौरे
यज्ञेष नारायण कृष्ण विष्णु निराश्रयम मं जगदीश रक्षा।
कलियुग का महामन्त्र है:-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
कलियुग में प्रत्यक्ष रूप से भगवान के नाम द्वारा भगवान को स्मरण करने का विधान है। इसके सिवा कलियुग में भगवद्-प्राप्ति का ओर कोई उपाय नहीं है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। इति षोडषकं नाम्नाम् कलि कल्मष नाशनं।नात: परतरोपाय: सर्व वेदेषु दृश्यते॥शास्त्रों के द्वारा तथा महापुरुष सन्त जैसे की तुलसीदास जी के द्वारा भी यह बतलाया गया है ” कलियुग केवल नाम अधारा सुमिर सुमिर नर उतरे हि पारा”।
जब हमारा स्वास्थ्य अच्छा था तब हम प्रचार पार्टी के साथ पंजाब के शहरों और गांवों में जाया करते थे। एक बार हम पंजाब के कीरतपुर नामक स्थान के एक मन्दिर में गए। वहाँ के स्थानीय वासियों ने हमें बतलाया कि, महाराज वास्तविकता में इस स्थान का नाम ‘कीर्तनपुर’ क्योंकि यहां “गुरु नानक देव” जी ने कीर्तन किया था। हमारे शास्त्रों में इसका वर्णन है। क्या आप लोग भी यहां कीर्तन करेंगे?
“हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् , कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा”।
अर्थात यहां पर इस बात का सत्यापन करने के लिए तीन बार दृढ़ता पूर्वक कहा गया है, “हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव” केवल मात्र “हरिनाम, हरिनाम, हरिनाम” ही उपाय है। यदि यह पूछा जाए क्या कलियुग में ओर कोई उपाय है? तो उसके लिए कहा गया है, कलियुग में ओर कोई उपाय ” निश्चित ही नहीं है, निश्चित ही नहीं है, निश्चित ही नही है।” साधारणतया हम समाज में भी देखते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग भिन्न-भिन्न देवी देवताओं के उपासक हैं, किन्तु मृत्यु के पश्चात सभी “राम नाम सत्य है” का ही उच्चारण करते हैं। जैसे कि बंगाल में लोग देवी के उपासक हैं, किन्तु किसी की मृत्यु होने पर वे “हरि बोल हरि बोल” का कीर्तन करते हैं।कोई ‘बोल देवी बोल’ नहीं बोलता।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भगवान का शुद्ध नाम भगवान के शुद्ध भक्तों के संग में रहकर ही सम्भवपर है क्योंकि भक्त भगवान को, भगवान की सेवा प्राप्ति के लिए ही स्मरण करते हैं या उन्हें पुकारते हैं। इसीलिए चैतन्य महाप्रभु संकीर्तन के विषय में शिक्षा प्रदान करते हुए कहते हैं:-
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निर्निवापणं
श्रेय:कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतस्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्।
अर्थात हमें अपने इष्ट श्रीश्री राधा कृष्ण का नाम संकीर्तन करते रहना चाहिए। इससे हमारा चित्त रूपी दर्पण मार्जन हो जाएगा। हमारे चित्त में जो कामनाएं वासनाएं हमें ना ना प्रकार के दुःख प्रदान करती हैं, वह सब चित्त से परिष्कार हो जाएंगी। अन्य किसी भी प्रकार का ध्यान, योग तथा ज्ञान ऐसा करने में समर्थ नहीं है। यही कामनायें, वासनायें इस संसार में दावाग्नि के समान हैं जिसमें जीव सब समय जलता रहता है। यदि हम कीर्तन करेंगे तो यह दावाग्नि स्वयं ही चली जाएगी। इसके साथ साथ तीन तरह के ताप, जन्म, मृत्यु आदि का भय भी चला जाएगा। तब किसी भी प्रकार का दुःख नहीं रहेगा। तब चारों मंगल आ जायेगा।
संसार के सभी जीव भगवान के नित्य दास हैं। किन्तु कलियुग में जीव की स्मरण शक्ति अल्प होने के कारण उसको यह अनुभव नहीं है कि वह भगवान का नित्य दास है। हम भगवान को भूलने के कारण इस पृथ्वी पर आए हैं। इस युग में सभी जीवों में अहं (अहंकार) भाव होने के कारण वे स्वयं भी दुःखी रहते हैं तथा अन्य को भी दुःखी करते हैं। इसी कारण से सम्पूर्ण पृथ्वी पर अशान्ति तथा लड़ाई-झगड़ा देखने को मिलता है। इसका एकमात्र कारण हमारा मिथ्या अहंकार है, जिसके कारण सम्पूर्ण पृथ्वी ही दावाग्नि में जल रही है।
वास्तविकता में सभी जीव भगवान से हैं, भगवान में हैं, भगवान के लिए हैं, भगवान के द्वारा हैं। यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ॥। इस पृथ्वी पर जितने भी मनुष्य हैं, चाहे वह किसी भी देश के या धर्म से क्यों ना हो, वह सभी ही भगवान की शक्ति का अंश है। यदि हमारी किसी व्यक्ति से प्रीति है, तो उस व्यक्ति से सम्बन्धित वस्तुओं से भी हमारी प्रीति होगी। यदि हमें किसि से प्यार है तो हम उसके शरीर के किसी अंग को काट सकते हैं? If you love me, love my dog. उसी प्रकार यदि कोई जीव भगवान से प्रीति करता है तो वह सभी जीवों से ही प्रति करेगा क्योंकि वह सभी जीवों के हृदय में विराजित भगवान के दर्शन करेगा। तब भला वह किसी से हिंसा कैसे कर सकता है? तब उसके लिए एक चींटी को मारना भी असम्भव हो जाएगा। किन्तु ऐसी भावना मात्र मनुष्य योनि में ही प्राप्त की जा सकती है। क्योंकि भगवान ने मनुष्य को विवेक दिया है। जिससे वह अच्छे और बुरे का अन्तर कर सकता है। एकमात्र मनुष्य योनि भगवान की भक्ति करने के लिए अनुकूल है। यदि मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी भगवान का भजन ना किया जाए, उसे व्यर्थ ही गवां दिया जाए तो इसे “आत्महत्या” कहा जाएगा।
इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि वह केवल मात्र भारतवर्ष में रहने वाले जीवों का उद्धार करने के लिए ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के जीवों का मंगल करने के लिए वे आए हैं। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर नाम संकीर्तन की महिमा का प्रचार करने का आदेश दिया था। चैतन्य महाप्रभु ने यह शिक्षा दी है कि केवल मात्र शुद्ध आचरण वाले भक्तों के संग में रहकर नाम संकीर्तन करना चाहिए, वह भक्त जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भगवान की सेवा में अर्पित कर दिया है। ऐसे भक्तों के संग में भगवान का नाम कीर्तन करने से चित्त रूपी दर्पण मार्जित होगा तथा सम्पूर्ण विश्व में शान्ति स्थापित हो जाएगी।
पृथ्वी ते आछे जत नगर आदि ग्राम
सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।
चैतन्य महाप्रभु के इसी आदेश का पालन करवाने के लिए श्रीला भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज में मुझे तीन बार चिट्ठी लिखकर विदेश में जाकर प्रचार करने का आदेश दिया।
मैंने उनसे प्रश्न किया कि “मै तो संसार छोड़ कर भगवान का भजन करने के लिए मठ मन्दिर में वैष्णवों के निकट आया हूँ। यदि विदेश में जाकर मेरा पतन हो गया तो”? क्या आप मेरा उत्तरदायित्व लेंगें? श्रीला भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज ने उत्तर दिया कि, आपके गुरुदेव आपका उत्तरदायित्व लेंगे आपको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। महाप्रभु के नाम का प्रचार सर्वत्र होना चाहिए। किन्तु मैं जहाँ भी गया भक्तों के बीच रहा। भक्तों के संग में रहने से किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता। साधु संगे कृष्णनाम एई मात्र चाइ।संसार जिनिते आर कौन वस्तु नाइ॥