ब्रह्म वैवर्त पुराण में कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास मुनि ने निर्जला एकादशी की महिमा का वर्णन किया है। श्रील गुरुदेव ने एकादशी के महत्व को समझाते हुए कहा है कि वृंदावन, नवद्वीप, पुरी जैसे धाम में एकादशी का पालन करने का लाख गुना अधिक लाभ होता है। एकादशी पालन करने का हमारा एकमात्र उद्देश्य ‘अहैतुकी भक्ति की प्राप्ति’ होना चाहिए।
आज पाण्डवा निर्जला एकादशी तिथि है। वैसे तो हम घर में भी तिथि पालन कर सकते हैं, किसी अन्य स्थान पर भी कर सकते हैं परन्तु जब भगवद्धाम में करें तो उसका महात्म्य करोड़-करोड़ गुना अधिक होता है। जैसे वृन्दावन धाम, मथुरा धाम, पुरुषोत्तम धाम, नवद्वीप धाम में व्रत पालन करने से उसका करोड़ गुना अधिक फल है।
स्थूलरूप से देखने पर ऐसा ज्ञात होता है कि श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ कोलकाता का हिस्सा है किन्तु हमने गुरुजी(श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी) से परम गुरुजी(श्रील प्रभुपाद) के विषय में एक घटना सुनी थी। जब श्रील प्रभुपाद बागबाज़ार गौड़ीय मठ कोलकाता में रहते थे, उस समय वे कहते थे, “मैं कलि के स्थान, कलिकाता में नहीं रहता।” तब सब सोचते हैं कि प्रभुपाद कलकत्ता में रहकर ऐसे कैसे कह सकते हैं कि वे कलकत्ता में नहीं रहते? उनके आराध्य देव श्रीराधागोविंद जी वहाँ विराजमान हैं। राधागोविंद देव जी कहाँ रहते हैं? अपने धाम में। इसलिए उन्होंने ऐसा कहा कि मैं कलकत्ता में नहीं, धाम में रहता हूँ। जहाँ शुद्ध भक्त अपने आराध्य देव को प्रकाशित करते हैं तथा उनकी सेवा के लिए व्यवस्था करते हैं, वह स्थान भी धाम है।
मद्भक्ताः यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद।
जहाँ पर भगवान के भक्त उनका महात्म्य-कीर्तन करते हैं, उनका होकर उनकी सेवा करते हैं, वह धाम ही है। मठ भी धाम है। आप लोग यदि कोलकाता मठ में आएँ व देखें कि भक्तों द्वारा संकीर्तन भवन पूरा भरा हुआ है किन्तु जन्माष्टमी, राधाष्टमी इत्यादि कोई विशेष अनुष्ठान भी नहीं हैं तब आपको पंचांग देखने की आवश्यकता नहीं है। आपको पता चल जाएगा कि आज हरिवासर तिथि है। जो मठ के पास में ही रहते हैं उनके लिए कोई असुविधा नहीं है। परन्तु जो दूर से आते हैं वे सोचते हैं कि पंद्रह दिनों में एक दिन मठ में जाएँगे। प्रतिदिन मठ जाना कठिन है इसलिए एकादशी के दिन गुरुजी के स्थान पर जाएँगे जिससे पन्द्रह दिन का कार्य एक ही दिन में हो जाएगा।
इसका भी कारण है। भगवान के शुद्ध भक्तों के द्वारा प्रतिष्ठित विग्रह जहाँ पर उपस्थित हों, वह कोई साधारण स्थान नहीं अपितु धाम है। धाम में व्रत करने का बहुत महात्म्य है। आज पंजाब, मुम्बई आदि हिन्दी भाषी क्षेत्रों से आए कुछ भक्त भी कथा में उपस्थित हैं। बांग्ला बोलने से तो वे समझेंगे नहीं इसलिए मैं हिन्दी में कथा कहूँगा। बांग्ला में न बोलने के कारण आप सब मेरा अपराध न लेना।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास मुनि ने ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष में होने वाली इस निर्जला एकादशी तिथि के महात्म्य का वर्णन भीमसेन से किया है। पराशर ऋषि एवं सत्यवती देवी को अवलंबन करके वेदव्यास मुनि का आविर्भाव हुआ। आविर्भाव होने के साथ-साथ ही उन्होंने अपनी माता से कहा कि आप कृपया घर लौट जाइए तथा मुझे अकेला छोड़ दीजिए। यदि आपको कोई आवश्यकता हो तो आपके याद करने के साथ ही साथ मैं आ जाऊंगा। इस बात से समझना चाहिए कि वेदव्यास मुनि कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं।
अपने पिता शान्तनु की प्रसन्नता के लिए भीष्म ने तो प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं शादी नहीं करूँगा। भीष्म अम्बा, अम्बिका तथा अम्बालिका नामक तीन कन्याओं को हरण करके ले आए थे। अम्बा का शाल्व से प्रेम था, इसलिए भीष्म ने उसे छोड़ दिया तथा अम्बिका व अम्बालिका के साथ सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य का विवाह सम्पन्न किया। किन्तु विचित्रवीर्य ने स्त्रीसंग से पहले ही शरीर छोड़ दिया। सत्यवती ने पुत्र-शोक से रोना शुरू कर दिया। तब सत्यवती ने भीष्म को बहुत समझाया (तथा विचित्रवीर्य की दोनों स्त्रियों से पुत्र उत्पन्न करने के लिए कहा) परंतु भीष्म यही कहते हैं कि मैं अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोडूंगा। तब वेदव्यास मुनि को अवलम्बन करके धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर हुए। पाण्डु के ही पुत्र पंचपाण्डव हुए। इसलिए वेदव्यास मुनि पाण्डवों के पितामह हैं। पंचपाण्डव के विग्रह हमारे दिल्ली मठ में भी हैं।
एक बार कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास मुनि के पास भीम ने कहा—आप मेरे पितामह हैं। आप बताइए कि मैं क्या करूँ? मेरे सब भाई, द्रौपदी, माता कुन्ती, सभी हरिवासर एकादशी तिथि करते हैं। वे मुझे भी इसका पालन करने के लिए कहते हैं। मैं तो उपवास नहीं कर सकता क्योंकि मैं वृकोदर हूँ, मेरे उदर(पेट) में वृक नामक अग्नि है। कितना भी खा लेने से उदरपूर्ति नहीं होती। मुझे बहुत ही तीव्र भूख लगती है। अतएव मैं उपवास नहीं कर सकता हूँ। अन्य जो कुछ भी कहें, दान-पुण्य इत्यादि, मैं यथाशक्ति कर सकता हूँ किन्तु न खाकर मैं नहीं रह सकता हूँ। आप कृपा करके बताइए कि मैं क्या करूँ?
तब वेदव्यास मुनि कहते हैं कि हरि वासर तिथि साल में 24 एवं 1 महीने में 2 होती है। भीमसेन ने यह प्रश्न वेदव्यास मुनि को द्वापर युग में किया था। हम अभी कलियुग में हैं।
कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै: ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥
(श्रीमद् भागवतम 12.02.52)
सतयुग में ध्यान, त्रेता युग में यज्ञ, द्वापर में अर्चन और कलियुग में हरिकीर्तन करना होगा। कलियुग में श्रीहरिनाम संकीर्तन ही सर्वोत्तम साधन है।
हरेर नाम हरेर नाम हरेर नामैव केवलं।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(बृहद नारदीय पुराण 38.126)
अर्थात् हरिनाम, हरिनाम, निश्चय ही हरिनाम। केवलं—निश्चय ही हरिनाम, यह छोड़कर अन्य कोई साधन निश्चय नहीं है, निश्चय नहीं है, निश्चय नहीं है। ज़ोर देकर बार-बार कहा।
अभी हम लोग जिस अवस्था में हैं, उसमें हम सांसारिक इच्छाओं को छोड़ने में असमर्थ हैं। इसलिए शास्त्रों में फलश्रुति का उल्लेख किया गया है। शास्त्रों में वर्णाश्रम धर्म से आरम्भ किया है। यद्यपि जो वस्तु महाप्रभु देने के लिए इस जगत में आए, यह उससे बाहर का विषय है तब भी इससे धर्म का आरंभ किया। इन फलश्रुतियों में लालच दिखाया जाता है।
जैसे—आजकल के समय में कैप्सुल होता है, हमारे समय में ऐसी कड़वी दवाई होती थी कि बच्चे उसे पी नहीं पाते थे। एक बालक को उसके माता-पिता दवाई पीने के लिए बार-बार कहते हैं किन्तु वह दवाई नहीं पीता। वे उसे समझाते भी हैं कि यदि तुम दवाई नहीं लोगे तो मर जाओगे। वह बालक कहता है कि मैं मर जाऊंगा परन्तु दवाई नहीं लूंगा क्योंकि दवाई बहुत कड़वी है। माता-पिता चिन्तित होकर डॉक्टर से पूछने लगे कि क्या करें? डॉक्टर साहब उनसे पूछते हैं कि इस बच्चे को खाने में क्या अच्छा लगता है? माता-पिता ने बताया कि इसे रसगुल्ला बहुत पसन्द है। तब डॉक्टर ने कहा—ठीक है, बच्चे के लिए अच्छा सा रसगुल्ला देख कर ले आओ। तब डॉक्टर बच्चे को रसगुल्ला दिखाकर कहते हैं कि क्या तुम इसे खाओगे? बच्चा कहता है—दो, दो, दो। तब डॉक्टर कहता है कि ऐसे नहीं देंगे, पहले यह दवाई पीनी पड़ेगी। दवाई पीने से तुम्हें एक रसगुल्ला मिलेगा। तब रसगुल्ले के लालच से उस बालक ने दवाई पी ली। उसे लगता है कि दवाई लेने से रसगुल्ला मिलता है। वह यह नहीं समझता कि उसे रसगुल्ला इसलिए दिया जाता है ताकि उसके लोभ में वह दवाई ले ले तथा उसकी बीमारी दूर हो सके।
यहाँ पर वेदव्यास मुनि ने कहा कि यदि तुम स्वर्ग में जाना चाहते हो तथा नरक से बचना चाहते हो तो तुम्हें वर्ष की 24 एकादशियों में उपवास करके भोजन अवश्य त्यागना ही पड़ेगा। यह सुनकर भीम स्तभ रह गए तथा कांपते हुए कहने लगे—मैंने तो एक दिन में ही कितनी बार भोजन कर लेता हूँ। मैं एक क्षण भी भूखा नहीं रह सकता, तब वर्ष में चौबीस एकादशी उपवास कैसे करूँगा? अतः आप ही बताइए कि मैं क्या करूँ? यहाँ पर वेदव्यास मुनि ने भीम को एकादशी व्रत पालन के लिए स्वर्ग का लालच दिया किन्तु महाप्रभु ने कभी भी ऐसी शिक्षा नहीं दी। श्रील नरोत्तम ठाकुर ने कहा—
पुण्य से सुखेर धाम, ताहार न लईओ नाम।
पाप-पुण्य दुइ परिहरि।
इन्द्रियों के विषय भोगों से मिलने वाला अनित्य सुख हमारे पतन का कारण बनेगा। स्वर्ग में जाने पर भी जब हमारे पुण्य क्षय हो जाएँगे तो हमें वहाँ से पुनः मृत्युलोक में फेंक दिया जाएगा। इससे और भी अधिक दुःख मिलता है। जब किसी को उच्च अधिकारी के पद पर बिठाया जाए और वहाँ से उसका पतन हो, तब अधिक कष्ट होता है। स्वर्ग में उपर उठा दिया जाता है किन्तु पुण्य क्षय होने पर, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति, तब दुःख होगा। वैसे तो यह समग्र ब्रह्माण्ड दुःखमय है, किन्तु हम लोग स्वर्ग को बहुत अच्छा मानते हैं। यद्यपि एकादशी महात्म्य में अन्त में वैकुण्ठ के बारे में भी कुछ कहा गया है किन्तु मुख्य रूप से धन आदि विषय-भोगों पर ही अधिक चर्चा की गई है। कर्मकाण्डत्मक शास्त्र(स्मार्त्त शास्त्र) कहते हैं कि यदि हम व्रत करें तो हमें धन, समृद्धि, स्वर्ग इत्यादि सुख मिलेंगे तथा यदि न करें तो नरक में जाना होगा। पुनः भीम को बोल दिया वर्ष की२४ एकादशी का पालन करना चाहिए। क्या भीम कोई साधारण व्यक्ति हैं जो नरक जाने के भय से कांप रहे हैं अथवा जिन्हें स्वर्ग का प्रलोभन दिखाया जा रहा है। भीम द्वितीय हनुमान जी हैं। उनके माध्यम से वेदव्यास जी हमें शिक्षा दे रहे हैं। स्मार्त्त शास्त्रों में इस प्रकार के प्रलोभन सांसारिक लोगों को आकृष्ट करने के लिए होते हैं जिससे कि वे धर्म में प्रवृत्त हो सकें। इनमें हमारा वास्तविक मंगल नहीं है। पहले गौड़ीय मठ में ऐसा महात्म्य सुनने को नहीं मिलता था। महाप्रभु ने हमें अहैतुकी भक्ति की शिक्षा दी है। महाप्रभु कहते हैं—
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
(श्रीशिक्षाष्टकम्-4)
महाप्रभु स्वयं कह रहे हैं कि मैं सब के लिए समान हूँ। तुम लोग भीतर से मुझे नहीं चाहते हो। तुम लोग परमानन्द को, परम मंगल को चाहते हो तो कहो, हृदय से कहो—“मैं धन नहीं चाहता हूँ।” तब हम भीतर से सोचते हैं कि धन न मिलने से कैसे होगा? हम बाहर से तो कह देते हैं परन्तु भीतर से सांसारिक वस्तुओं की कामना करते हैं। हम जो भीतर में चिन्ता करते हैं भगवान उसी के अनुरूप फल देते हैं। हमारा पालन करने वाला कौन है? हमारी रक्षा करने वाला कौन है? भगवान ही हैं। हम अधिक से अधिक धन कमाने के लिए एक साथ कितने सारे व्यापार करने लग जाते हैं।
सनातन गोस्वामी के सेवक ईशान ने अपने पास एक सोने का मोहर बचा लिया था। जब सनातन गोस्वामी को यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने ईशान से कहा कि क्या यह मोहर तुम्हारी रक्षा करेगा? तुम अभी वापस चले जाओ। सनातन गोस्वामी ने प्रधानमंत्री का पद छोड़ दिया। उन्हें ऐसा विश्वास था कि साक्षात् भगवान ही उनकी रक्षा करने वाले व पालन करने वाले हैं। इस प्रकार की भावना का होना अत्यन्त दुर्लभ है।
इसलिए भीतर से कहना पड़ेगा कि मैं धन नहीं चाहता हूँ। सब कुछ तो भगवान का ही है। हमारे शरीर के ऊपर भी हमारा अधिकार नहीं है। यह भगवान की अपरा प्रकृति का अंश है। प्रकृति के स्वामी भगवान हैं इसलिए अपरा प्रकृति से उत्पन्न हमारे स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर के स्वामी भी भगवान ही हैं। परा प्रकृति का अंश आत्मा के स्वामी भी भगवान ही हैं। इसलिए सब कुछ भगवान का ही है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा है—
आत्मनिवेदन, तुया पदे करि’,
हइनु परम सुखी।
दु:ख दूरे गेल,चिन्ता ना रहिल,
चौदिके आनन्द देखि॥
जब भगवान में आत्मनिवेदन कर दिया तो क्या कोई दुःख रहेगा? ‘न धनं’—हृदय से कहना बहुत कठिन है। ‘न जनं’—स्त्री, पुत्र आदि यह सब नहीं चाहते। जिसका पुत्र नहीं होता वह गोद लेकर भी पुत्र करता है। ऐसा देखा गया कि हमारे अपने मठ में ही किसी ने बच्चे को गोद लिया। ये सभी सम्बन्ध नाशवान हैं। हम देखते भी हैं कि अधिक दिन यह शरीर नहीं रहेगा। किसी भी समय यह शरीर चला जा सकता है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.27)
जिसने जन्म ग्रहण किया है उसकी मृत्यु निश्चित है तथा मृत्यु होने से पुनः जन्म होना भी निश्चित है। भगवान स्वयं कह रहे हैं कि तुम हृदय से कहो—“मैं धन नहीं चाहता, जन नहीं चाहता, पांडित्य नहीं चाहता, मुक्ति नहीं चाहता।
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
“हे भगवान, मेरी आपमें अहैतुकी भक्ति हो जाए”—यदि हम हृदय से ऐसा कहें तो भगवान उसी समय आ जाएँगे। यदि थोड़ा सा भी हृदय में भगवान के माधुर्य का आस्वादन हो जाए तो संसार के इन जड़ सम्बन्धों का नाश हो जाएगा।
यहाँ एकादशी महात्म्य वर्णन में वेदव्यास मुनि भीम को कहते हैं कि एकादशी व्रत पालन करने से आप स्वर्ग में जाएँगे तथा पालन न करने से नरक में जाना होगा। शास्त्रों में इस प्रकार के प्रलोभन साधारण मनुष्यों को आकृष्ट करने के लिए हैं जिससे कि वे भी एकादशी व्रत पालन करें। वेद व्यास मुनि स्वयं जानते हैं। क्या वे इन अस्थायी लाभ प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन देंगे? पूर्व में उन्होंने स्वयं भी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मुक्ति के बारे में लिखा था। किन्तु यह सब लिखने पर भी उन्हें शान्ति नहीं मिली। तब अपने गुरुदेव नारद गोस्वामी की कृपा से उन्होंने श्रीमद्भागवत लिखी जिससे उन्हें परमानन्द की प्राप्ति हुई।
जब भीम ने कहा कि मैं चौबीस एकादशी का पालन नहीं कर पाऊंगा तब वेद व्यास मुनि ने उन्हें कहा कि आप निर्जला एकादशी व्रत का पालन करें। उस दिन पानी तक का परित्याग करना होगा। जल से आचमन किया जा सकता है परन्तु आचमन का पानी इतना कम होना चाहिए कि जिसमें एक सरसों के दाने के बराबर मोती उस जल में किसी प्रकार से डूब जाए। एकादशी से आरंभ करके, दूसरे दिन द्वादशी को, प्रातःकाल स्नान आदि करने के बाद स्वर्ण व जल दान करने की विधि है। उसके पश्चात् ब्राह्मण व अपने परिवार के साथ बैठकर अन्नादि ग्रहण करके व्रत को विश्राम देना चाहिए। इस प्रकार निर्जला एकादशी व्रत का विधिवत् पालन करने से एक वर्ष में आने वाली सभी एकादशी तिथियों के व्रत पालन का फल मिल जाएगा। महाप्रभु ने एकादशी तिथि में क्या आचरण करके दिखाया?
श्री हरिवासरे हरीकीर्तन विधान। नृत्य आरम्भिला प्रभु जगतेर प्राण॥
पुण्यवन्त श्रीवास-अंगने शुभारम्भ। उठिल कीर्तन ध्वनि गोपाल गोविन्द॥
हरि ओ राम राम।।
कलियुग में क्या साधन है?
कलियुग केवल नाम आधारा।
सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा॥
सभी कहते हैं कि कलियुग में एकमात्र नाम ही सहारा है। हरिनाम अवश्य ही करना पड़ेगा। चैतन्य महाप्रभु ने शिक्षाष्टकम् के प्रथम श्लोक में कृष्ण-कीर्तन का महात्म्य वर्णन करते हुए कहा—
चेतोदर्पणमार्जनं भावमहादावाग्निनिर्वापणं
श्रेय:कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् ।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतस्वादनं
सर्वात्मस्न्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम् ॥
पहले श्लोक के ऊपर श्रील प्रभुपाद ने ‘श्रीश्री गुरु गौरांगौ जयतः’ नहीं, अपितु ‘श्री कृष्ण कीर्तनाय नमः’ लिखा। अर्थात् मैं श्रीकृष्ण-कीर्तन को प्रणाम करता हूँ। किन्तु प्रणाम तो व्यक्ति को होता है। श्री कृष्ण-कीर्तन कोई व्यक्ति है? कीर्तन ही भगवान है। कृष्ण नाम ही कृष्ण है। इसीलिए प्रभुपाद जी ने ‘श्री कृष्ण कीर्तनाय नमः’ लिखा। यह श्रीकृष्ण संकीर्तन कौन करेगा? श्री कृष्ण संकीर्तनकारी गुरुदेव की जय हो जाए। श्री कृष्ण का संकीर्तन अर्थात् सम्यक रूप से कीर्तन सद्गुरु व शुद्ध भक्त ही कर सकते हैं, सभी नहीं कर सकते। उनकी कृपा होने से मेरे हृदय के अन्दर से आएगा। उनकी कृपा के बिना ऐसा होना बहुत कठिन है। हमारे हृदय में बहुत प्रकार की गंदगी भरी हुई है। जब तक हृदय से भगवान को नहीं मांगेंगे तब तक कैसे होगा? भगवान तो हृदय को देखकर फल देंगे।
हम क्या बोलते हैं, भगवान यह नहीं देखते, वे हृदय की भावना को देखते हैं। उन्होंने हमें शरणागत होने के लिए कहा है।
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु जीवे दया करि।
स्वपार्षद स्वीय धाम सह अवतरि॥
अत्यन्त दुर्लभ प्रेम करिवारे दान।
शिखाय शरणागति भकतेर प्राण॥
दैन्य, आत्मनिवेदन, गोप्तृवे वरण।
‘अवश्य रक्षिबे कृष्ण’—विश्वास पालन॥
हमारे अन्दर दीनता होनी चाहिए। हमें ज़रा सा भी कोई कुछ कह दे तो हम क्रोधित हो जाते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है—
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।
जब विषयों का ध्यान करते रहेंगे तो उसका संग हो जाएगा। ‘संगात् संजायते कामः’—विषयों का संग करने से काम उत्पन्न होता है। रसगुल्ला, राजभोग या दिल्ली का लड्डू कहने की तीव्र इच्छा थी, कहीं से १०० राजभोग लेकर आए किन्तु कोई व्यक्ति आधा से भी अधिक लेकर भाग गया हम विचलित हो जायेंगे, उस व्यक्ति को पकड़ने के लिए दोडेंगे। उसको पकड़कर मारेंगे, हो सकता है क्रोध में लोग हत्या भी कर लेते हैं बाद में पश्चाताप करते हैं। ऐसा देखा जाता है क्रोध में कोई कोई अपने भाई तक को भी मार देते हैं।
‘कामात् क्रोधोभिजायते’—काम होगा तो उससे क्रोध होगा। क्रोध में व्यक्ति अपने सम्बन्धों को भी भूल जाता है तथा बाद में उसे पश्चात्ताप होता है। क्रोध से क्रमशः मोह होता है, मोह से स्मृतिविभ्रम तथा उससे अन्ततः बुद्धिनाश हो जाता है।
गीता का केवल पाठ कर लिया व उसके अर्थ का चिन्तन नहीं किया तो क्या लाभ है? यदि हम सोचें कि मैं कृष्ण का हूँ, मैं दुनिया का नहीं हूँ—तो दीनता स्वाभाविक रूप से आ जाएगी। जब लोग शास्त्रों के वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाते तो उसे माइथोलॉजी(काल्पनिक) कह देते हैं। जैसे कि हमने कल सुना कि गंगा देवी हिमालय की पुत्री है। क्या पर्वत की पुत्री हो सकती है? यह कैसे संभव है? इसी प्रकार गोवर्धन द्रोण पर्वत के पुत्र हैं।
जब पुलस्त्य मुनि गोवर्धन पर्वत को हाथ में लेकर काशीधाम जाना चाहते थे तो गोवर्धन पर्वत बहुत हल्के हो गए ताकि वे आराम से उसे उठाकर ले जा सकें। किन्तु जैसे ही गोवर्धन ने वृंदावन धाम व यमुना नदी को देखा उनकी वहीं रुकने की इच्छा हुई तथा वह भारी हो गए। तब ऋषि ने पर्वत को नीचे उतार दिया तथा स्वयं यमुना स्नान के लिए चले गए। जब ऋषि वापस आए तो उन्होंने गोवर्धन से अपने साथ चलने का अनुरोध किया, किन्तु गोवर्धन ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। तब पुलस्त्य मुनि ने अपने पूरे बल का प्रयोग करके गोवर्धन पर्वत को उठाने का प्रयास किया परन्तु वे नहीं उठा पाए। इससे ऋषि को क्रोध आ गया तथा उन्होंने गोवर्धन को श्राप दिया कि उनका परिमाण प्रतिदिन एक तिल के दाने के बराबर कम होता जाएगा। इस प्रकार इन लीलाओं के बारे में कोई सोच सकता है?
हमारा भजन केवल मात्र अहैतुकी भक्ति पाने के लिए है। मैं कृष्ण का हूँ। मैं दुनिया का नहीं हूँ, मैं उनका हूँ। हृदय से ऐसी चिन्ता करनी चाहिए। हमें निरपराध होकर भगवान का नाम करते रहना चाहिए तथा निरन्तर गुरुजी की कृपा प्रार्थना करते रहनी चाहिए। हमें गुरु परम्परा का समरण करना चाहिए तथा उनकी कृपा प्रार्थना करनी चाहिए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर, श्रीरूप-सनातन आदि षड्गोस्वामियों को स्मरण करना चाहिए। श्री रूपमंजरी बहुत दयालु हैं। यदि हम कृपा प्रार्थना करेंगे तो वे अवश्य कृपा करेंगे। किन्तु हमारे हृदय में कोई अन्य कामना नहीं होनी चाहिए।
दैन्य, आत्मनिवेदन, गोपतृत्वे वरण, भगवान ही हमारा पालन करने वाले हैं। हम सोचते हैं कि अमुक व्यक्ति ने हमें नौकरी दी किन्तु वास्तव में भगवान ही हमारा पालन करने वाले हैं। वे ही हर विपत्ति से हमारी रक्षा करने वाले हैं। क्या भगवान ने ध्रुव जी की रक्षा नहीं की? हम इसे कल्पना समझते हैं। ध्रुव जी जब वन में भगवान की आराधना करने गए तब वे छोटे से बालक थे। वे भगवान की खोज करते हुए पुकार रहे थे—‘कहाँ पद्मपलाश लोचन हरि?’ ध्रुव जी ने किसी के भी प्रति विद्वेष भाव नहीं रखा। He effaced from the heart all hostile mentality to anybody in this world. भगवान की खोज करते-करते उनके सामने शेर आ गया। वे शेर की आंखों में देखते हुए कहते हैं कि क्या तुम ही पद्मपलाशलोचन हरि हो? शेर ने उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाई क्योंकि भगवान शेर के भीतर भी बैठे हैं। इसलिए उसका हृदय परिवर्तित हो गया। उन्होंने कई हिंसक जानवरों का सामना किया किन्तु उनमें से किसी ने भी उनपर किसी प्रकार की हिंसा नहीं की। यहाँ तक कि उनके पिता, सौतेली माता सब रोने लग गए। उनका पिता उत्तानपाद ध्रुव के विरह में पागल हो गए तथा ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ध्रुव के विरह में वह मर जाएंगे। तब भगवान ने नारद ऋषि को उनके पिता के पास भेजा। नारद मुनि राजा उत्तानपाद को कहते हैं कि आप इतने विद्वान होकर क्या कर रहे हैं? उत्तानपाद विलाप करने लगे कि मेरा पुत्र मेरी गोद पर बैठना चाहता था। मैंने उसका त्याग कर दिया जिस कारण वह वन में चला गया। उसे किसी हिंसक जानवर ने खा लिया, वह मर गया। तब नारद गोस्वामी उन्हें आश्वासन देते हुए कहते कि तुम्हारे पुत्र को मारने वाला इस संसार में कोई नहीं है। वह भगवान द्वारा रक्षित है तथा बिल्कुल ठीक है। वह वापस आ जाएगा, आप चिन्ता मत कीजिए। बाद में ध्रुव जी आ गए, उनकी आने की इच्छा नहीं थी किन्तु भगवान की इच्छा पूर्ति के लिए वे राज्य में वापस आ गए।भगवान अपने शरणागत भक्तों की रक्षा करते हैं।
वाञ्छा…