सबसे पहले मैं पतित पावन परम आराध्यतम श्री भगवान के अभिन्न प्रकाश विग्रह श्री भगवद्ज्ञान प्रदाता श्रीभगवान की सेवा में अधिकार प्रदानकारी परम करुणामय श्रील गुरुदेव के श्रीपादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ। पूजनीय वैष्णववृन्द के श्रीचरण में प्रणत होकर उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ। भगवद्कथा श्रवण पिपासु भक्तवृन्दों को मैं यथायोग्य अभिवादन करता हूँ।सबकी प्रसन्नता प्रार्थना करता हूँ। आज बहुत शुभदा तिथि है, हरिवासर तिथि, हरि की प्रिय तिथि है। हरि की प्रिय तिथि में हरिभक्त आकर सम्मिलित होते हैं। कोलकाता मठ में ऐसा देखा कि जब राधाष्टमी, जन्माष्टमी, अन्नकूट महोत्सव इत्यादि कोई विशेष तिथि नहीं है किन्तु मठ का हॉल भक्तों से भरा हो तो पंचाङ्ग देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह समझ में आ जाता है कि आज एकादशी तिथि है। जो दूर-दूर से आते हैं अथवा जिनका प्रतिदिन सभा में आना मुश्किल है उन्होंने यह विचार किया (15 दिन में 1 दिन आकर 15 दिन का काम कर लेंगे। Less time, less energy, more profit―Economics.)
यद्यपि घर में बैठकर भी भजन हो सकता है किन्तु एकादशी में धाम में भजन करने का बहुत अधिक लाभ होता है। धाम किसे कहते हैं? भगवान कहते हैं—मद्भक्ताः यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद।
जहाँ पर भक्त भगवान का महात्म्य कीर्तन करते हैं वहाँ भगवान सदैव विराजमान रहते हैं। भक्तश्रेष्ठ गुरुदेव का स्थान भी साक्षात धाम ही है। चैतन्य गौड़ीय मठ दिल्ली का हिस्सा नहीं है। पंचमहाभूत का विकार नहीं है। हम लोग सोचते हैं कि यह तो दिल्ली का ही हिस्सा है। उसी प्रकार देखते हैं कि वृंदावन, गोवर्धन यू॰पी॰(उत्तर प्रदेश) का हिस्सा है। मैं भी ऐसा ही सोचता था परन्तु जब गुरुजी के पास आया, गुरुवर्ग के पास आया, तब उनसे सुना कि वृंदावन यू॰पी॰ अथवा भारत का हिस्सा नहीं है। अपितु गोलोक वृंदावन धाम का अवतरण हुआ है। यह पंचमहाभूत का विकार नहीं है।
हरि र्हि निर्गुणः साक्षात्केवलः प्रकृतेः परः….
श्रीमद्भगवतम 10.88.5
हरि निर्गुण हैं। केवल कहने के लिए है अथवा विश्वास करने के लिए? हरि का धाम भी निर्गुण और अप्राकृत है। प्रकृति के अतीत है। पंचमहाभूत का विकार नहीं है। यह प्राकृत शरीर लेकर, प्राकृत अभिमान लेकर धाम में प्रवेश नहीं हो सकता।
हम समझते हैं कि वृंदावन धाम में पहुंच गए, मथुरा धाम में पहुंच गए , नवदीप धाम में पहुंच गए परन्तु भगवान के साथ हर समय दो शक्तियाँ रहती हैं—एक महामाया और एक योगमाया। जब कोई अन्य स्वार्थ लेकर धाम में जाएँगे, तब महामाया पकड़ लेगी। महामाया के जाल में फँस जाएँगे।वहाँ जाकर भी घृणित कार्य ही करेंगे। जब जागतिक स्वार्थों की पूर्ति के उद्देश्य से धाम में जाएँगे, तो बहिरंगा शक्ति हमें आबद्ध कर लेगी।
यह भी भगवान की कृपा है। जैसे माता-पिता का अपने बच्चों पर वास्तव में प्यार रहता है, वहाँ पर सम्बन्ध है, वे बच्चे को चुंबन करते हैं तथा थप्पड़ भी मारते हैं। थप्पड़ मारना भी प्यार है। इसी प्रकार भगवान का सभी जीवों के प्रति प्यार है। भगवान शुद्ध भक्तों के माध्यम से, अंतरंगा शक्ति के माध्यम से, चिन्मयी शक्ति के माध्यम से प्यार करते हैं और उनके कल्याण के लिए महामाया के रूप में थप्पड़ भी मारते हैं। दोनों क्रियाएँ प्यार ही हैं।
हम लोग समझते नहीं किन्तु हम सब भगवान की ही सन्तानें हैं। क्या हम पर भगवान का प्यार नहीं रहेगा? जैसे—जब एक छोटा सा बालक किसी गंदी चीज़ को उठाकर खाने लगता है तब उसकी माता उसे ऐसा करने से रोकती है। बालक रोना शुरू कर देता है। वह बार-बार रोता है। जब माता ने देखा कि वह बहुत चिल्ला-चिल्लाकर रो रहा है, तब माता को बहुत दुबला भाव आ जाता है। इसी प्रकार भगवान का भी दुबला भाव आता है। भगवान देखते हैं कि ये बद्धजीव मुझे नहीं चाहते अपितु संसार के भोग चाहते हैं। इसलिए भगवान ने अनेक योनियों की सृष्टि की और भोग करने की शक्ति भी दे दी। भगवान कहते हैं कि तुम इन योनियों में प्रवेश कर भोग करो क्योंकि तुम मुझे भोग नहीं कर सकते। तुम्हारी भोग करने की प्रवृत्ति है, इसलिए मैंने विभिन्न भोग योनियाँ सृष्टि की और भोग करने कि शक्ति भी दी, तुम भोग करो। किन्तु उसमें तुम्हें जन्म-मृत्यु, त्रिताप इत्यादि दुःख मिलते रहेंगे। भगवान का थप्पड़ भी आता रहेगा।
स्वयं भगवान जो है उनका स्वरूप है, जो भगवान के लिए निराकार, निर्विशेष, निःशक्तिक, Zero, Cipher इत्यादि विशेषणों का प्रयोग करते हैं वे मूर्ख होते हैं। पूज्यपाद स्वामी महाराज जी ऐसे लोगों को ‘Fool no. 1’ कहते हैं। हमारा व्यक्तित्व है और वे समझते हैं कि भगवान का कोई व्यक्तित्व नहीं है Nothing, He is Formless, Attribute less, Powerless. He has nothing. किन्तु भगवान का स्वरूप है इसीलिए हम जगत में रूप देखते हैं। किसी जड़ पदार्थ का स्वरूप नहीं होता, चेतन पदार्थ का होता है। अणु- चेतन, अणु- स्वरूप, विभु-चेतन, विभु- स्वरूप। वे सर्वज्ञ हैं। वे पूर्णानन्दमय स्वरूप हैं। इच्छा करने से अनंत ब्रह्मांड उत्पन्न कर सकते हैं, और इच्छा करने से उनका नाश भी कर सकते हैं। वे सर्वशक्तिमान हैं। उनके बाहर कोई प्राणी नहीं है। अनंत ब्रह्मांड, अनंत वैकुंठ, अनंत धाम, उनके अंदर ही हैं। वहाँ पर ऐसा कोई माया का Barrier(व्यवधान) नहीं है।
इस संसार में हम प्राकृत शरीर देखते हैं, इसलिए Barrier है, वहाँ पर प्राकृत शरीर नहीं है, इसलिए Barrier कैसे होगा?
इसलिए सब पूर्ण वस्तु के अन्दर है, कुछ भी उनसे बाहर नहीं है। उनको धोखा देकर हम कोई कार्य कर लेंगे, यह असंभव है। कोई व्यक्ति छिपा कर अच्छा काम भी कर सकता है व बुरा काम भी कर सकता है। किन्तु उसका फल भगवान के हाथ में है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
गीता 2.47
गीता में कहते हैं। यह तो कृष्ण के द्वारा ही कही गई बात है। हम गीता पढ़ते हैं परन्तु गीता की शिक्षा में विश्वास नहीं करते तो इसका क्या लाभ है? तुम्हारे अंदर अणुस्वतन्त्रता है। तुम अच्छा काम भी कर सकते हो, बुरा काम भी कर सकते हो। तुम्हें स्वतन्त्रता दे दी है किन्तु relative independence(सापेक्ष/आंशिक स्वतन्त्रता) है, absolute independence(पूर्ण स्वतन्त्रता) नहीं है।
जब इच्छा, क्रिया व अनुभूति न रहे तो जड़ पदार्थ हो जाएगा। वह कुछ बात नहीं कर सकता। एक चींटी भी अपनी इच्छा अनुसार चलती है, हमारी इच्छा अनुसार नहीं चलती। उसके स्वभाव में नहीं है। हम उसको मार सकते हैं किन्तु तब भी वह अपनी इच्छा के अनुसार ही चलेगी। भगवान स्वतः स्वतन्त्र पुरुष हैं। आनन्द सर्वशक्तिमान होता है, आनन्द परम पुरुष होता है। Anand can take initiative.
आनन्द हमें अपनी चेष्टा से नहीं मिलेगा। जब हम अपनी चेष्टा से सुख प्राप्त करने का प्रयास करेंगे तब अपने से निकृष्ट वस्तु, जड़ वस्तु का संग होगा। इसलिए दुनिया में जब तक सुख के लिए प्रयास नहीं होता है तब तक थोड़ा बहुत अच्छा रहता है। जब सुख के लिए प्रयास होगा, दुःख प्रारंभ हो जाएगा। सुख-स्वरूप तो भगवान हैं, वे तो किसी के अधीन नहीं हैं। सुख की कृपा से सुख मिल सकता है। आनन्द की कृपा से आनन्द मिल सकता है। अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है। जहाँ पर व्यक्ति की सुख के विषय में कोई समझ नहीं है और सुख के चरण में उनकी शरणागति नहीं है वहाँ पर आनन्द भी नहीं है।
तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं
स्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदु:खदु:खम् ।
त्वय्येव नित्यसुखबोधतनावनन्ते
मायात उद्यदपि यत् सदिवावभाति ॥
(श्रीमद्भगवतम 10.14.22)
यह ब्रह्मा की उक्ति है। केवल यह पृथ्वी का ही अस्तित्व है ऐसा नहीं है, असीम अनंत ब्रह्मांड है। किन्तु असत्स्वरुपं, सब अनित्य है। यह पृथ्वी उसके समक्ष एक बिंदु मात्र भी नहीं है। असत् स्वरूपम्, जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह एक स्वप्न की भांति है, स्वप्न मन की कोई कल्पना नहीं है। जो स्वप्न देखता है वह सोचता है कि वह वास्तव देख रहा है। स्वप्न टूटने पर ज्ञात होता है कि वह स्वप्न देख रहा था।
वह जो देव प्रसाद ब्रह्मचारी था, देहरादून में बंगाल से एक सज्जन आया तो उनको एक कमरा दे दिया। रात को 1:30 बजे वह चिल्लाता है, “मैं डूब गया, मैं डूब गया, मैं डूब गया, मुझे रक्षा करो । मैं डूब गया।” सब सोचने लगे कि मठ में रहकर डूब गया, कौन कहता है ऐसे? तो सबने देखा कि जिस कमरे में उस सज्जन को रखा था वहाँ से आवाज आ रही है, सब ने वहाँ जाकर देखा कि वह सज्जन स्वप्न में चिल्ला रहा है, “मैं डूब गया, मैं डूब गया।”
उनको उठाकर पूछा कि क्या हुआ?
वे कहते है, “में डूब गया।”
“कहाँ डूब गया?”
“नाँव उल्टी हो गई।”
मठवासी ने पूछा, “नाँव कहाँ है यहाँ?”
उन्होंने कहा,”ओह, यह तो स्वप्न था।”
तो जब तक स्वप्न देख रहा है तब तक वह वास्तव प्रतीत होता है। उसी प्रकार संसार में अभी जो कुछ हम लोग देख रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि यह वास्तव है। किन्तु जब स्वप्न टूट जाएगा क्या होगा? जो भी देख रहा था सब कुछ ही झूठ है। हम लोग तो कई बार बोलते हैं,
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
(गीता 7.14)
इस माया को पार होना बहुत मुश्किल है, असंभव है किन्तु भगवान कहते हैं मेरे चरण में जो शरणागत होगा मैं उसका उद्धार करूंगा किन्तु केवल मात्र जो शरणागत होगा, शरणागत नहीं होगा तो माया से पार नहीं हो सकता है। माया के फँस कर ही रहेगा। मुख में बोल दिया और भीतर में विश्वास नहीं है, भगवान का आश्रय नहीं लिया तो अनुभव कैसे होगा? जो गुण रहने से कोई एक वस्तु का अनुभव होता है, वह गुण तो रहना चाहिए।
फलेन फल कारणं अनुमीयते…
ग्राह से गजेन्द्र का उद्धार करने के लिए भगवान अति-शीघ्र आ गए, किन्तु हम तो कई बार स्तव, स्तुति करते हैं मेरे पास तो भगवान् नहीं आते। उनके पास क्यों आए? क्या भगवान पक्षपाती है? भगवान को कोई रिश्वत दे सकता है? जो रिश्वत देगा वह व्यक्ति भी भगवान का ही है तब किस को रिश्वत देगा? जो वस्तु रिश्वत में देगा वह वस्तु भी भगवान की ही है। दुनिया के जज, मैजिस्ट्रेट को रिश्वत देकर निर्णय इधर-उधर कर सकता है किन्तु भगवान को रिश्वत नहीं दे सकता है इसलिए जब निष्कपट रूप से वास्तव में शरणागत हो जाए, तब साथ साथ में भगवान मिल जायेंगे।
समोऽहं सर्व-भूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
मैं सभी के लिए समान हूँ। कोई मेरा द्वेष्य अथवा प्रिय नहीं है।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्य् अहम् ॥
किन्तु जो भक्ति द्वारा मेरी सेवा करते हैं उनका सब समाधान हो जाएगा। संसार में बहुकष्ट हैं, चाहे संसार में रहें, चाहे मठ में रहें, किसी भजन कुटीर में रहें अथवा कहीं भी रहें। जब शरणागति नहीं हो या भगवान का आविर्भाव हृदय में नहीं हो, अज्ञान तो नहीं जाएगा। जब कमरे में अंधेरा रहेगा तो उल्टा-पुल्टा करते रहेंगे। जब प्रकाश आएगा तो अंधेरे से मिलने वाला कष्ट नहीं रहेगा। फल द्वारा फल के कारण का अनुमान करो।
आज हरि वासर तिथि है। कामदा एकादशी का महात्म्य वराह पुराण में महाराज युधिष्ठिर एवं श्रीकृष्ण संवाद में वर्णित हुआ है। युधिष्ठिर महाराज ने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का क्या नाम है और इसका क्या महात्म्य है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि एक समय सगर वंश के राजा दिलीप ने अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी से प्रश्न किया कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या महात्म्य है? तब वशिष्ठ जी ने कहा—हे राजन्! यह कामदा एकादशी है। इस एकादशी व्रत से समस्त पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। इस एकादशी में जितनी भी असद्गति हैं, उनसे उद्धार हो जाता है। इतना ही नहीं, यह एकादशी पुत्रदा अर्थात् पुत्र देने वाली है।
उन्होंने एक घटना सुनाई जो इस प्रकार थी —प्राचीन काल में रत्नपुर नगर में पुण्डरीक नाम का एक महा-वैभवशाली राजा था, गंधर्व, किन्नर, अप्सरायें आदि जिसकी सेवा करते थे। वे सभी नृत्य-गान आदि करने में बहुत निपुण थे। वहाँ ललिता नाम की एक अप्सरा और ललित नामक गंधर्व का आपस में सम्बन्ध हुआ। दोनों एक-दूसरे के प्रति बहुत आसक्त थे। वे एकदूसरे को छोड़कर एक मुहूर्त भी नहीं रह पाते थे।
एक समय राजा पुण्डरीक ने एक रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन किया। उस कार्यक्रम में ललिता उपस्थित नहीं थी, इसलिए ललित अपनी पत्नी के चिंतन में गीत गा रहा था। उसका मन संगीत में नहीं लग रहा था जिसके कारण गीत का स्वर-ताल भंग हो रहा था। तब राजा के मन में यह विचार आया कि ऐसा किसलिए हो रहा है? वहाँ पर कर्कोटक नाम का एक नाग था। वह इन दोनों के व्यवहार को जानता था इसलिए वह ललित के मन की बात समझ गया और उसने राजा को ललित के स्वर-ताल के भंग होने का कारण बता दिया। तब राजा ने कहा कि यह मेरा अपमान करने के लिए ऐसा कर रहा है। मैं यहाँ पर हूँ, यह भी नहीं सोच रहा है। तब उन्होंने ललित पर क्रोधित होकर उसे अभिशाप दिया कि तुम नर-मांस खाने वाले राक्षस बन जाओ। उसी समय ललित राक्षस बन गया।
उनकी भयंकर मूर्ति देखकर ललिता बहुत दुःखी हो गई और चिन्ता करने लगी कि मैं क्या करूँ? एक दिन वह अपने पति ललित को लेकर वन में चली गई। घूमते-घूमते उसने विध्य पर्वत की चोटी पर शृंगी ऋषि के आश्रम को देखा। उसने शृंगी ऋषि को प्रणाम किया और उनके पास बैठ गई। ललिता को देखकर उन्हें पूछा तुम कौन हो? कहाँ से आई हो? तुम्हारा यहाँ आना कैसे हुआ? तब ललिता ने कहा कि मैं अप्सरा हूँ। मेरा विवाह अति सुन्दर गंधर्व ललित से विवाह हुआ था। किन्तु दैव से पुण्डरीक राजा ने उन्हें अभिशाप दे दिया जिसके फलस्वरूप इनका इस प्रकार भयंकर रूप हो गया। आप मुझे इस अभिशाप से मुक्ति का उपाय बतलाइए।
तब शृंगी ऋषि ने कहा—एक उपाय हो सकता है। यदि तुम चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी व्रत का शास्त्र विधानानुसार पालन करो और उसके पुण्य को अपने पति को दान कर दो, तो उसकी इस शाप से मुक्ति हो जाएगी।
ऋषि के उपदश को सुनकर ललिता ने उसी प्रकार एकादशी व्रत किया। निष्ठा के साथ व्रत करने के बाद उसने मुनि के पास जाकर कहा कि मैं एकादशी व्रत का फल अपने पति को दे रही हूँ। उसी समय उसका पति ललित पहले की तरह सुंदर हो गया तथा दोनों आपस में आनन्द में रहने लगे।
यह एकादशी का वास्तव फल है? यह कर्मकाण्डात्मक फलश्रुति है। हमारे गुरुजी ने हैदराबाद में इस विषय पर कहा था। हमारे किसी गुरुभाई ने बहुत परिश्रम करके इस ‘एकादशी महात्मय’ पुस्तक को छपावाया। परन्तु यह ठीक नहीं है। पहले ही हमारी संसार की नाशवान वस्तुओं की आकांक्षा पूर्ति के लिए इच्छाएँ रहती हैं; इसमें इंधन देना ठीक नहीं है।
श्रीकृष्ण द्वैपायन वेदव्यास मुनि ने लीला करके शिक्षा दी। उन्होंने विचार किया, “मैंने दुनिया के मंगल के लिए इतना कुछ किया किन्तु मुझे सुख क्यों नहीं मिला? संसार के व्यक्तियों को धन मिलने से सुख होता है, इसलिए अर्थशास्त्र लिख दिए; लोग अपनी कामना पूर्ति होने से सुख मानते हैं ,इसलिए कामशास्त्र लिखे, मृत्यु के बाद स्वर्ग आदि सुख चाहते हैं तो धर्मशास्त्र लिख दिए। सांसारिक लोग जो चाहते हैं, मैंने वही लिखा परन्तु मेरे मन में अशांति है।” तब उन्होंने अपने गुरु नारद गोस्वामी के चरण में आश्रय लिया। तब नारद गोस्वामी वहाँ(बद्रिकाश्रम) आए और वेदव्यास मुनि से पूछा—“क्या तुम कुशल हो? क्या तुम्हारी शरीर तथा मन संबंधी आत्मा कुशल में है?”
व्यास जी कहते हैं, “आप तो सब जानते हैं। मैंने दुनिया के मंगल के लिए बहुत कुछ किया किन्तु तब भी मेरे मन में शान्ति नहीं हुई।”
तब नारद गोस्वामी पूछते हैं कि तुमने क्या किया है?
व्यासदेव उत्तर देते हुए कहते हैं, “जगत के लोग धन चाहते हैं, इसलिए मैंने अर्थशास्त्र लिखा, जगत के लोग कामना पूर्ति को सुख मानते हैं, इसलिए कामशास्त्र लिखा; मृत्यु के बाद स्वर्ग आदि सुख चाहते हैं, इसलिए धर्मशास्त्र लिखा। उनके सुख की सब व्यवस्था कर दी किन्तु मेरे मन में फिर भी अशान्ति क्यों है?”
तब नारद जी कहते हैं—
जुगुप्सितं धर्मकृतेऽनुशासत:
स्वभावरक्तस्य महान् व्यतिक्रम: ।
यद्वाक्यतो धर्म इतीतर: स्थितो
न मन्यते तस्य निवारणं जन: ॥
(श्रीमद्भगवतम 1.5.15)
नारद गोस्वामी गुरु हैं। यहाँ पर गुरु शिष्य को शासन कर रहे हैं। नारद जी कहते हैं—“तुमने बहुत ही घृणित कार्य किया। धर्म, अर्थ, काम आदि नाशवान वस्तुओं के लिए जीव की स्वभाविक रुचि है। ऐसे शास्त्र लिखकर तुमने उसकी इच्छाओं को इंधन दे दिया। तुमने ऐसा करके उन्हें अन्ततः दुःख ही दिया है। अतएव तुम्हें दुःख ही मिलेगा।”
इसपर वेदव्यास जी कहते हैं—“मैंने तो मुक्ति के लिए भी व्यवस्था की है।”
नारदजी कहते हैं—“यह तो तुमने और भी घृणित कार्य किया। जो जीव की भगवद् प्रेमानन्द मिलने की संभावना थी, तुमने उसे बिल्कुल खत्म कर दिया। ब्रह्म में उनकी सत्ता को ले कर देना, मुक्ति लेना तो आत्महत्या करने के समान है। निर्विशेष ब्रह्म में अथवा उससे भी अधिक घृणित परमात्मा में उनकी सत्ता को ही लय देना।”
“भगवान जो आनन्द स्वरूप हैं, वह उस आनन्द को प्राप्त कर सकता था किन्तु तुमने तो उन्हें कह दिया कि भगवान का कोई आकार, उनमे कोई विशेषता नहीं है तुम उसमे ले जो जाओ। तुमने कृष्ण का महात्म्य कीर्तन नहीं किया।”
व्यास जी कहते हैं —“मैंने गीता में श्रीक़ृष्ण का महात्म्य कीर्तन किया है।”
नारदजी कहते हैं—“वह तुमने मुक्ति के लिए किया है। वहाँ पर तुम्हारा लक्ष्य मुक्ति है। तुम भगवान की प्रीति के लिए भगवान का महात्म्य कीर्तन करो।”
Western philosophers say like this that Absolute is for itself and by itself. We say Absolute is for Himself and by Himself. It God नहीं He God कहते हैं, वे व्यक्ति हैं।
“भगवान अपने लिए हैं और समस्त वस्तुएँ उनके लिए हैं। इसलिए उनकी प्रीति के लिए उनका महात्म्य कीर्तन करो। उनकी प्रसन्नता से तुम्हारी प्रसन्नता होगी।”
चतुः श्लोकी भागवत का पहला श्लोक है—
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।।
‘अहम्’ कौन बोल रहे हैं? क्या निराकार बोल रहे हैं यहाँ?भगवान कहते हैं कि सृष्टि के पहले मैं था ‘अहम्’ और आगे भी मैं ही हूँ।
हमारे परम गुरुदेव (श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद) ने लिखा है कि भगवान का नाम, रूप, गुण, लीला, परिकर, धाम सब मिलकर ‘अहम्’ शब्द की व्याख्या में आते हैं। सृष्टि के पहले मैं था और जितना सत-असत्, व्यक्त-अव्यक्त, नित्य- अनित्य और अनिर्वचनीय ब्रह्म सब मेरे साथ सम्बन्धयुक्त है। मुझे छोड़कर किसी का अस्तित्व नहीं है।
जैसे इस जगत की एक साधारण युक्ति है— एक घड़ी का कुछ मूल्य है। क्या घड़ी कह सकती है कि मैं अच्छी घड़ी हूँ? चेतन कहता है कि यह घड़ी अच्छी कंपनी की है। घड़ी की सत्ता चेतन के ऊपर निर्भर करती है। चेतन न रहने से उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
Matter has no independent existence of its own. (एक जड़ पदार्थ का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता) ‘Matter’ ‘Matter’ लेकर हम लोग चिल्लाते रहते हैं। समस्त अणु-चेतन के कारण, विभु-चेतन भगवान हैं। वही भगवान ही वास्तव हैं। उनका स्वरूप है—परमानन्द स्वरूप। उसी आनन्द का यदि हम आश्रय लेंगे तो साथ-साथ में सब कुछ समाधान हो जाएगा। यहाँ भगवान् कहते हैं सृष्टि होने के बाद भी मैं ही हूँ। सृष्टि नाश होने के बाद भी मैं ही रहूँगा।
व्यासदेव जी ने चतुश्लोकी भागवत का ध्यान किया और उनका विस्तार कर 18000 श्लोक लिखे।
जगत में हम देखते हैं कि जब तक शरीर में चेतनता है, उसका मूल्य है। जैसे—एक व्यक्ति के पास एक तोता है। तोते को देखकर उसे आनन्द हो रहा है; वह उसे खिलाता है, उसके साथ खेलता है इत्यादि। जब तोते में से प्राण चले जाएँगे तब वह व्यक्ति उसे फेंक देगा। अब वह तोता उसे सुख नहीं देगा।
इसे एक और उदाहरण द्वारा भी समझा जा सकता है। अभी वोट का समय है। वोट को लेकर इतनी हिंसा, दंगे हो रहे हैं। कोई व्यक्ति कितना भी स्वस्थ शरीर वाला क्यों न हो, यदि वह मर जाता है तब उसके वोट की कोई मान्यता नहीं रहती। एक मृत शरीर को रासायनिक प्रक्रिया द्वारा यथावत् रख दिया। तब भी यदि हम ऐसे मृत व्यक्ति को मतदान देने के लिए वोटिंग बूथ में ले जाएँ तो वहाँ के कर्मचारी हमें देखकर कहेंगे कि इन्हें यहाँ से बाहर निकालो, जेल में डालो। इन्होंने मुर्दे को लाकर हमारा बूथ अपवित्र कर दिया।
कोई शरीर को व्यक्ति नहीं मानता। जब तक शरीर के अन्दर आत्मा रहती है, चेतनता रहती हैं तब तक उसका व्यक्तित्व रहता है। व्यावहारिक जीवन में भी हम यह देख रहे हैं। जब व्यक्ति मर जाएगा तो उसके साथ सम्बन्ध नहीं रहता। अधिक दिन रखेंगे तो मृत शरीर से दुर्गन्ध आने लगेगी। सारा वातावरण दूषित हो जाएगा। इसलिए इसे समाप्त करने की क्या व्यवस्था है? इसे श्मशान में जला दो, कब्र में दफ़न कर दो अथवा किसी स्थान पर फेंक दो। किन्तु यहाँ पर मत रखो। जो रखेगा उसे दण्ड मिलेगा। कोई शरीर को व्यक्ति मानता है? नहीं। जब एक अणु-चेतन व्यक्ति के अस्तित्व से अन्यों का अस्तित्व अनुभव करते हैं तो विभु चेतन, जो भगवान है, उनके अस्तित्व से अन्य सबका अस्तित्व अनुभव किया जाएगा।
हम लोग एकादशी व्रत परमानन्द स्वरूप भगवान की प्राप्ति के लिए करते हैं, उनकी भक्ति के लिए करते हैं। यह सब के लिए नहीं कि पहले राक्षस बन गया, फिर व्रत के फल से अच्छा शरीर मिल गया। अच्छा शरीर मिलने से बहुत आनन्द में रहेंगे, विषय-भोग करेंगे। कितने दिन भोग करेंगे? इस सृष्टि में सत्यलोक पर्यन्त सभी लोक महाप्रलय में नष्ट हो जाते हैं।
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति
कामना-वासना से गतागति(आवागमन) होती रहेगी। वास्तव समाधान कब होगा? वास्तव समाधान तब होगा जब पूर्णानन्द स्वरूप भगवान् हमारे हृदय में प्रकाशित हो जाएँगे। उसके लिए क्या करना चाहिए? पूर्णानन्द स्वरूप के साथ हमारा सम्बन्ध होना चाहिए। कैसे होगा? हमारे गुरुजी के माध्यम से सम्बन्ध होगा। गुरूजी हमारा उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करवाएँगे।
दीक्षाकाले भक्त करे आत्मसमर्पण
सेइ काले कृष्ण ताँरे करे आत्मसम।
सेइ देह करे ताँर चिदानन्दमय
अप्राकृतदेहे कृष्ण चरण भजय॥
जब वास्तव शुद्धभक्तों से दीक्षा लेते हैं तब दिव्यज्ञान प्रकाशित होता है। आत्मसमर्पण कहाँ पर होगा?भगवान् तो दिखाई नहीं देते हैं, आत्मसमर्पण सद्गुरु में होगा मैंने बाहर से तो सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण किया किन्तु शरणागत नहीं हुआ। भीतर में कामना है, गुरुजी जब अस्वस्थ हुए, हृदय में pacemaker डालने से ठीक हो जाएगा सुना तो उसे डलवाने का निर्णय ले लिया, उनसे पूछा भी नहीं। हृदय में कामना हैं ना कि गुरूजी के रहने से मेरा फायदा है,
इसे प्रीति नहीं कहते हैं। हमारे गुरुजी भी विशेष रूप से जो बात बोलते थे, उसी प्रकार चिंता करते थे। मैं वैष्णव दासानुदास हूँ। वैष्णव जब कुछ आदेश करते तो वह कार्य वे साथ-साथ में ही कर देते थे। परम पूज्यपाद श्रीधर देव गोस्वामी महाराज जी के साथ गुरुजी का घनिष्ठ सम्बन्ध था। गुरुजी श्रीचैतन्य मठ की सेवा देने के लिए जाएँगे, पूरा इतिहास नहीं बोलेंगे। जब कोई भी व्यक्ति जाने के लिए तैयार नहीं है, जो जाएगा मार खाएगा सब आकर गुरुजी को जाने के लिए कहते हैं, गुरुजी ने उनकी बात मान ली। वैष्णव ने मुझे आदेश दिया तो मै जाऊंगा। हम तो भयभीत हो गए। गुरुजी सभी को वैष्णव देखते हैं। दुनिया में विष्णु वैष्णव छोड़कर और कुछ है ही नहीं। अन्वय अथवा व्यतिरेक रूप से सभी भगवान का है। परन्तु हम लोग वैष्णव को वैष्णव नहीं समझते। वैष्णवों की इच्छा है तो उन्होंने अपने ऊपर कष्ट उठाकर भी सेवा सम्पादित की। जो बात बोलते थे, वह करते थे। मेरे भांति कामातुर व्यक्ति को उस समय बोलना चाहिए था गुरूजी आपकी जैसी इच्छा, किन्तु बोलने की हिम्मत नहीं हुई क्योंकि हृदय में जागतिक कामना हैं न! जब गुरुजी ने सब सेवाचैतन्य मठ में उनको दे दी तो उन्होंने बोल दिया अभी आप यहाँ से चले जाइए। मैं राजा हूँ। गुरूजी ने उसे भी स्वीकार कर लिया, वैष्णव कि आज्ञा समझकर। गुरूजी द्वारा चारों तरफ दुनिया में विपुल प्रचार होगा, उनका प्रसिद्धि बढेगा इसलिए कदाचित उन्होंने ऐसा किया। गुरूजी को सीमित करने के लिए, एक ही स्थान पर अटक कर के रखने के लिए ऐसा किया गया किन्तु ऐसी स्थिती में भी गुरु जी का विचार क्या था? उन्होंने कहा, “यह भी कृष्ण की इच्छा है।” उनके प्रत्येक कार्य में, प्रत्येक स्थिति में ऐसे ही आत्मसमर्पण दीखता था। हम लोगों के मन में दुःख होता है किन्तु उन्होंने कहा, “नहीं ऐसा मत करो।” सब को सम्मान देकर चलो। हम यहाँ भगवान का भजन करने के लिए आए हैं, किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं आएँ। इसमें भगवान की इच्छा है।
बाद में गुरुजी चंडीगढ़ और पंजाब, अन्यान्य कितने स्थानों पर गुरूजी के कितने शिष्य, सब भक्त हो गएँ, ऐसा क्यों हो गया? क्योंकि भगवान ने ऐसी स्थिति निर्माण कर उसे निमित्त बनाकर गुरूजी को उन स्थानों पर भेज दिया।
इस प्रकार गुरुजी को हमने देखा। उस प्रकार आत्मसमर्पण करते हैं गुरुजी को। हमारे गुरुजी के पास जो आया है वह महा भाग्यवान है। ऐसा आदर्श चरित्र हमारी आंखों में और आया ही नहीं। मुख में बोल दिया और काम दूसरा कर लिया ऐसा उनका आचरण नहीं है। हमारे अंदर में कितनी कमियाँ हैं किन्तु गुरुजी का स्नेह, शिष्य वात्सल्य बहुत है। आसाम के कोई गांव का दीनशरण नाम का एक साधारण शिष्य था। उनको क्रोध बहुत जल्दी आ जाता था और क्रोध आने से उनका सिर खराब हो जाता था। उस समय गुरुजी मुझे डिक्टेशन देते थे और मैं लिखता था। मेरी तो सेवा करने कि और कोई योग्यता नहीं, उस समय वे मुझे रसोईघर इत्यादि में दूसरा कोई काम नहीं करने देते थे, वे कहते थे हाथ कटवा लेगा। एक दिन मैंने कहा था मदन प्रभु को कि सब गुरूजी की सेवा कर रहे हैं मैं भी एकदिन करूं? उन्होंने कहा, “ठीक है आप कर लो।” तो फिर मैंने गुरूजी का कमरा साफ किया, आसन लगाया, प्रसाद की थाली ले आया। गुरुजी सब देख रहे हैं। बाद में गुरुजी ने क्या कहा?
“Labourdung, तुम्हारा यह काम नहीं है जाओ जाओ। तुम जाओ। तुम्हारा काम लिखाई-पढाई का है।” मेरी कोई सेवा करने कि योग्यता ही नहीं है, क्या करें? जो गुरुजी की इच्छा है, उस इच्छा के अनुसार चलने के लिए प्रयाश करना चाहिए और गुरु जी अभी नहीं है यह बात नहीं। गुरुजी के अन्तर्ध्यान के बाद हम तो हताश हो गएँ कि कुछ होगा ही नहीं। सब गुरुजी की कृपा से ही हो रहा है गुरुजी अभी भी हमारे पीछे है किन्तु आंखों से हम लोग उनको देख ही नहीं पाते। जब गुरुजी का तिरोभाव उत्सव हुआ, वन गोस्वामी महाराज और अन्यान्य बहुत वैष्णवों को आमंत्रित किया, हजारों लोग है। गुरुजी को ढोका (चने की दाल का पकोड़ा बनाकर सब्जी करते हैं) अच्छा लगता था। मेरी पाचन शक्ति कम है, एकबार मैंने गुरुजी से कहा, “ढोका से पेट में गड़बड़ी होती है, पनीर की सब्जी अच्छी है।” गुरुजी कहते हैं, “धत! तुम कुछ नहीं जानते।” इसलिए मैंने हृषिकेश महाराज से कहा, “गुरुजी के तिरोभाव उत्सव में हम ढोका बनाएंगे” उन्होंने मुझे कहा कि इतने हजारों लोगों के लिए हम लोग आलू कि सब्जी बनाएंगे।, हमारे पास इतनी धन राशी और साधन नहीं है। इतना हम नहीं कर सकते। तो मैं क्या बोलूं। चुपचाप हो गया। किन्तु बाद में ऐसी घटना हो गई, दो व्यक्ति आएँ, उनको पहले भी नहीं देखा बाद में भी नहीं देखा। वे दोनों आकर आकर मुझे लगभग 5000 रुपए देकर चले गएँ। उनका ठीक से पता पूछने का भी मुझे अवसर नहीं मिला। मुझे लगा था कि कदाचित वे बाद में उत्सव का प्रसाद पाने के लिए आएँगे। किन्तु वे लोग आए नहीं। मैं आश्चर्य-चकित रह गया, “अरे यह कौन दे गया? साथ-साथ मैंने हृषिकेश महाराज को बोला यह पैसे से हम ढोका हम बनाएंगे। तब उन्होंने पूछा, “यह कहाँ से मिला?” मैंने कहा कोई दे गया और इसप्रकार महोत्सव हो गया।
पूरी में प्रभुपाद के आविर्भाव स्था नो प्राप्त करने में सब निष्फल हो गए, इस्कॉन इत्यादि बड़ी संस्थाएं भी वहा पर कोर्ट केस इत्यादि मुश्किले देखकर पीछे हत गए, सब भाग गए तब सब प्रभुपाद के जन हमारे गुरुजी के पास आए और कहा,”आप इतनी जगहों पर मठ स्थापित कर रहे हैं, आप हमारा गुरुजी के जन्म स्थान को प्रकाशित कीजिए।” तब गुरूजी ने उस कार्य के लिए इतना परिश्रम किया, उस समय मैंने गुरुजी से कहा,”आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, आप प्रयास छोड़ दीजिए। किन्तु कोई उन्होंने कोई अपने स्वास्थ्य के विषय में कोई चिंता ही नहीं की।उन्होंने मेरी बात का भी कोई उत्तर नहीं दिया। मुझे कहा एक दरखास्त लिखो, हम चीफ जस्टिस सदाशिव त्रिपाठी और एंडोमेंट कमिश्नर से मिलेंगे। मेरी बात का कोई उत्तर ही नहीं दिया। जो पकड़ेगे तो करेंगे ही छोड़ेंगे नहीं। हमारी बात नहीं सुनी।
असंभव कार्य था, वहाँ पर सभी वकील कहते हैं, इविक्शन आर्डर हो गया था 40-45 साल से किराएदार लोग वहाँ पर है, उनको उस स्थान से निकालना असंभव था। आपके गुरुजी कैसे यह कर दिया? गुर्जी ने सब वैष्णवों को वहा आमंत्रित कर उत्सव किया और उसके बाद उन्होंने अंतर्धान लीला की। वह स्थान तो मिल गया किन्तु अब मठ निर्माण कैसे होगा? हम लोग तो यह सोचकर एकदम पानी में ही बैठ गएँ(हताश हो गएँ)। हम चिंता कर रहे हैं तभी एक अजीब सी बात हो गई। पूरी शहर में परम पूज्यपाद कृष्ण दास बाबा जी महाराज, परम पूज्य बाद कृष्ण केशव प्रभु और मैं जगन्नाथ मंदिर की ओर जा रहे थे। उस समय एक व्यक्ति कार में जा रहे थे। उन्होंने अचानक कार को मार्ग में रोक दिया और निचे उतरकर मुझे 500 रुपए तथा उन दोनों को 200-200 रुपए दिए। मैं सोच में पड गया कि इतने पैसे क्यों दे रहे हैं? सिंघानिया नाम था उनका। बाबाजी महाराज बहुत भजन परायण है। उन्होंने बाबाजी महाराज को सत्संग के लिए आमंत्रित किया,बाबाजी महाराज वहाँ गए, रात भर हरिनाम-कीर्तन चलता रहा। बाद में वह व्यक्ति ने आकर कहा कि वे सत्संग भवन, मंदिर सब कुछ निर्माण करवा देंगे। उनको किसने भेजा? गुरुजी ने व्यवस्था की, तुम लोगों को चिंता करने की आवश्यकता नहीं, इसके पास जाओ मिल जाएगा। चिंता से अतीत!
चंडीगढ़ में जहाँ मठ हुआ वह स्थान चीफ कमिश्नर किसी को नहीं देता। गुरुजी को उन्होंने कहा कि मैदान के अंदर से जगह नहीं मिल सकता, आप कोई और स्थान देख लीजिए। गुरुजी कोई और बहुत स्थान दिखाएँ गए किन्तु गुरूजी कहते हैं, “नहीं यही स्थान हमें पसंद है, यही हमारा स्थान होगा।” तो चीफ कमिश्नर कहते कि आपने जब बोल दिया तो दे देंगे। यह साधारण व्यक्तित्व से नहीं होता है।
एक chief architect एक map लेकर आया और उसने कहा कि ऐसा मंदिर निर्माण होगा। देखने में मंदिर भी नहीं है, मस्जिद भी है, कुछ अलग प्रकार का था, उसने यह भी कहा चंडीगढ़ नया स्थान हैं यहाँ पुरातन शैली का निर्माण नहीं चलेगा। गुरूजी कहते हैं, “यह नहीं होगा। सनातन धर्म की परंपरा हम नहीं छोड़ेंगे। यहाँ नवधा भक्ति का पीठ स्थान नौ चूड़ा मंदिर होगा। इस map को काट दो। हम भयभीत हो गएँ, उन्होंने वह मैप को काट दिया। वर्मा साहब (चंडीगढ़ सिटी maker) कहते हैं, “महाराज, महाराज,आप चिंता मत कीजिए मैं कर दूंगा। वहाँ 9 doom वाला 9 साइडेड temple हो गया। साधारण शक्ति से ऐसे कार्य नहीं होते हैं।
गुरुजी हमारे पीछे हैं। गुरुजी का चरण में अपराध हुआ, जो उनका आश्रय लेकर रोते हुए उनसे क्षमा मांगे, तो वे तो कृपालु है ही। यदि हम प्रार्थना करें, “आप कृपा कीजिए आपके आराध्य देव की सेवा प्रदान कीजिए।” तो शुद्ध भक्त सद्गुरु दे सकते है। उनके माध्यम से ही भगवान की सेवा मिलेगी।
ततो दुःसंगम् उत्सृज्य सत्सु सज्जेत् बुद्धिमान्।
सन्तः एवास्य छिन्दन्ती मनोव्यासांगमुक्तिभिः॥
जब मैंने ग्वालपाड़ा में हमारे गुरुजी को पहला प्रश्न किया था उसके उत्तर में उन्होंने यह श्लोक बोला था।
दुःसंग को छोड़कर साधु का संग करना। साधु कौन है?
मयि अनन्यभावेन भक्ति कुर्वन्ति ये दृढाम्
प्रभुपाद जी के बारे में भी सुना है कि प्रभुपाद के पास जो आते थे प्रभुपाद को प्रणाम करते थे, उल्टा प्रभुपाद उनको प्रणाम करते थे।आनेवाले व्यक्ति ने हरिनाम भी नहीं लिया फिर भी उसे उल्टा प्रणाम करते थे। उनके भीतर में जो आत्मा भगवान की ही है।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।
(भगवद्गीता 18.61)
अभी वह हमें समझ में नहीं आ रहा है किन्तु जो शुद्ध भक्त हैं, वे भगवान और भगवान का छोड़कर और कुछ नहीं देखते हैं, उनकी कृपा होने से वही ज्ञान हमारे अंदर भी आ जाएगा।
इसलिए चैतन्य महाप्रभु ने भी कह दिया देखो यह कादशी व्रत भगवान को स्मरण करने के लिए है। भगवान के निकट में निवास करने के लिए है।
उपवास का अर्थ है, उनके निकट वास करना। उनके निकट निवास करने से असत प्रवृत्ति सब ध्वंस हो जाएगी और भगवान में प्रीति होगी।
उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह।
उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः॥
(हः भः विः 13.35)
एकादशी व्रत जो है 64 प्रकार की भक्ति अंगों में से एक अंग है। ऐसा नहीं है कि दुनिया में हम राजा बन जाएंगे, स्वर्ग में जाएंगे, मुक्ति हो जाएगी यह सब नहीं उसका वास्तविक फल नहीं है।
गुरु-पादाश्रयस् तस्मात् कृष्ण-दीक्षादि-शिक्षणम् ।
विश्रम्भेण गुरोः सेवा साधु-वर्त्मानुवर्तनम् ॥
सद्-धर्म-पृच्छा भोगादि-त्यागः कृष्णस्य हेतवे ।
निवासो द्वारकादौ च गङ्गादेर् अपि सन्निधौ ॥
व्यावहारेषु सर्वेषु यावद्-अर्थानुवर्तिता ।
हरि-वासर-सम्मानो धात्र्य्-अश्वत्थादि-गौरवम् ॥
(श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु 1.2.74-76)
यह 10 ग्रहण करने के लिए कहा गया है। उसके अंदर में भगवान की प्रीति के लिए एकादशी व्रत पालन भी है। हमारे गुरुजी जब प्रकट थे तब उन्होंने इस ग्रन्थ के लिए परमिशन नहीं दिया, हमने हैदराबाद में सुना किन्तु हमको कभी नहीं बोला कि इसको लिखो (अनुमोदन नहीं किया) किन्तु किसी ने इसे छपा दिया इसलिए मुझे इसकी भूमिका लिखनी पड़ा। सांसारिक व्यक्ति इसे पसंद करेंगे किन्तु जब हमारा मन दूसरे मतलब के लिए की ओर चला जाएगा। प्रभुपाद बहुत सावधान करते थे।वहाँ थोड़ा कुछ लिख दिया किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं हुआ। पुत्र के लिए इत्यादि इसके लिए एकादशी व्रत नहीं है।
श्री हरिवासरे हरि कीर्त्तन विधान।
नृत्य आरम्भिला प्रभु जगतेर प्राण॥
पुण्यवन्त श्रीवास-अंगने शुभारम्भ।
उठिल कीर्त्तन ध्वनि गोपाल गोविन्द॥
हरि ओ राम राम।