सबसे पहले मैं पतितपावन परम आराध्यतम श्री भगवान के अभिन्न प्रकाश विग्रह, श्री भगवद् ज्ञान प्रदाता, श्री भगवान की सेवा में अधिकार प्रदान करने वाले, परम करूणामयी श्री गुरुदेव के श्री पादपद्म में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ, पूजनीय वैष्णव वृन्द के चरणों में प्रणत होकर उनकी अहैतुकी प्रार्थना करता हूँ। भगवत कथा श्रवण पिपासु भक्तवृंदो का मैं यथा योग्य अभिवादन करता हूँ, सबकी प्रसन्नता की प्रार्थना करता हूँ।
आज हरिवासर तिथि है हरि की प्रिय तिथि। मैं जहाँ भी जाता हूँ, यह बात कहता हूँ कि कलकत्ता मठ में जन्माष्ट्मी,राधाष्ट्मी,अन्नकूट,विशेष उत्सव पर बहुत भीड़ होती है और बाकी के दिन नजदीक के ही लोग आते हैं। किन्तु जब आप लोग देखेंगे कोई विशेष तिथि नहीं है, फिर भी हॉल भरा हुआ है तब पंचांग देखने की आवश्यकता नहीं है, उस दिन एकादशी है। हरिवासर तिथि में, हरि की प्रिय तिथि में घर में भी भजन करें तो उसका महात्मय है किन्तु यदि मठ में रहकर करें तो उसका महाम्य उससे भी अधिक है। हमारे परम गुरुदेव नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद १०८ भक्ति सिद्धांत सरस्वती प्रभुपाद जब बाग़ बाजार गौड़ीय मठ(कलकत्ता) में रहते थे और कहते थे, मैं कली के स्थान कलकत्ता में नहीं रहता हूँ। मैं तो नित्यधाम में रहता हूँ। शुद्ध भक्त द्वारा प्रतिष्ठित विग्रह (नाम,विग्रह, रूप तीन एक रूप, तिने भेद नाही, तिन चिदानंद रूप) तीनो में भेद नहीं है, तीनों सचिदानंद रूप हैं- हम यह मुख से कहते तो हैं किन्तु उस पर विश्वास नहीं है, प्राकृत नेत्रों से उन्हें नहीं देखा जा सकता। अप्राकृत व्यक्ति द्वारा उन्हें अनुभव किया जा सकता है, अप्राकृत व्यक्ति जिस स्थान पर अपने आराध्य देव को प्रकाशित करते है, वह स्थान भी धाम है। श्री श्री गौरांग राधा माधव जी हमारे गुरूजी के द्वारा प्रतिष्ठित विग्रह है ,इसलिए ये स्थान भी धाम है। परम गुरूजी कहते हैं ,मैं धाम में हूँ, मैं कलि के स्थान कलकत्ता में नहीं हूँ। जो लोग यहाँ आये हैं,वे सब भी धाम में आये हैं। धाम अवतरित होता है ,धाम इस जगत का हिस्सा नहीं है या पंचमहाभूत का विकार नहीं है। जैसे वृन्दावन धाम प्राकृत इन्द्रियों से नहीं देखा जा सकता, धाम अप्राकृत है, जब हम भगवान्गु में एवं भगवान्रु की कृपामय मूर्ति गुरु में शरणागत हो जायेंगे तब अप्राकृत शरीर से धाम में प्रवेश होगा, नहीं तो नहीं होगा। मठ से दूर रहनेवाले भक्त सोचते हैं कि प्रतिदिन मठ में आना मुश्किल होता हैं,किन्तु मठ में जाने से पारमार्थिक कल्याण होता है, गुरूजी का मठ भी धाम है ,भक्तो के साथ मठ में जाकर हरिवासर तिथि पालन करने से करोड़ो गुना फल मिलता है। इसलिए उन लोगो ने विचार किया कि १५ दिन में एक बार मठ जाकर १ दिन में १५ दिन का काम कर लेंगे। कम समय ,कम शक्ति ,अधिक फायदा, इसलिए सब हरिवासर तिथि पर कलकत्ता मठ में आते हैं। इसी प्रकार आप लोगो के यहाँ भी एकादशी व्रत पालन होता है। मेरा स्वास्थय ठीक नहीं है इसलिए, जब भी वैष्णव मुझे आज्ञा करते हैं उसी तिथि में जाकर वैष्णव का दर्शन और उनकी आज्ञा पालन करता हूँ । यहाँ पर १५ दिन में भक्त दूर-दूर से आकर रहते है, मैं मठ में रहकर भी १0-१५ दिन में कथा करता हूँ|आज जो हरिवासर तिथि अपरा एकादशी तिथि है| यह तिथि इस बार तो वैशाख मास में आई है, वैसे यह ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी है| अपरा एकादशी के महात्मय में ब्रह्मांड पुराण से प्रमाण दिया गया है| इसमें युधिष्ठर कृष्ण संवाद है|
युधिष्ठिर महाराज ने भगवान् कृष्ण से प्रार्थना की कि ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है और इसका क्या महत्व है| तब कृष्ण कहते हैं तुमने जगत के लोगो के हित के लिए यह प्रश्न किया| इस एकादशी का बहुत महात्म् है| जितने भी तरह के पाप हैं एकादशी उनको नष्ट कर देती है ,और जितने तरह के पुण्य का फल है सब यह एकादशी व्रत करने से मिलता है| इसलिए इसे अपरा कहते है, अपरा का अर्थ होता है असीम जिससे श्रेष्ठ(बड़ा) कुछ नहीं है। मिथ्या (झूठ) बोलना, दूसरों को धोखा देना और भी जितनी तरह के पाप हैं जैसे कि ब्रह्म हत्या, गौ हत्या, भ्रूण हत्या आदि, एकादशी उन सभी पापों को नष्ट कर देती हैं।
और जितने भी पुण्य हैं जैसे कि प्रयाग में जाकर माघ या कार्तिक महीने में स्नान करना, सूर्य ग्रहण के समय कुरूक्षेत्र में स्नान करना, कुंभ, बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे पवित्र स्थानों पर स्नान इत्यादि जितने भी प्रकार के स्नान हैं, अथवा हाथी का दान, घोड़ा का दान,गौ-दान, भू-दान, और जितने प्रकार के दान हैं, एक अपरा एकादशी व्रत का पालन करने से उन सभी का फल मील जाएगा। आखरी में यह सब करने के बाद भी जब त्रिविक्रम भगवान् की आराधना करेंगे तो भगवद धाम चले जायेंगे। इसमें एक बात ध्यान देने वाली है, जब एक एकादशी का व्रत इतने पाप नाश करने और इतना पुण्य देने वाला है तो कोई विद्वान व्यक्ति कहेगा हम पूरा साल पाप करते रहेंगे, झूठ बोलते रहेंगे,दान भी कुछ नहीं करेंगे केवल यह ज्येष्ठ मास की अपरा एकादशी का पालन कर लेंगे तो सारा फल मिल जाएगा। किन्तु जिस प्रकार नाम के बल पर पाप बुद्धि (अर्थात् नाम सभी पापों का नाश कर देता इसलिए हम नाम करते हुए पापा करते रहेंगे) से अपराध होगा उसी प्रकार एकादशी का महात्मय सुनकर उसके बल पर पाप करते रहेंगे तो उल्टा फल होगा। नाम किसी भी पाप को नाश कर देता है इसलिए पूरा दिन पाप करके सोने के समय ‘हरे कृष्ण’ बोलेंगे तो पाप चला गया। फिर सुबह उठकर फिर पाप करते हैं इस प्रकार नाम का आश्रय लेकर पाप करने से कपटता होती है। और भगवान के नाम में अपराध होने से भगवद प्रेम नहीं होता—
कृष्ण नाम (भगवद नाम) नाहीक अपराधे विचार हैं।
कृष्ण आपराधिक नाहीं विकार।।
१० तरह के अपराध का विचार। नाम अपराध होने से कृष्ण प्रेम नहीं होग।
कृष्ण नामे अपराधेर आछे विचार।
कृष्ण नामे अपराधे नाहीं विकार।।
कृष्ण नाम में १० तरह के अपराध का विचार है। नामअपराध होने से भगवद-प्रेम नहीं होग।
सांकेतिक नामाभास मात्र से अजामिल मुक्त हो गया। इसलिए हम भी दिन में पाप करके रात में ‘हरे कृष्ण’ बोल देने मात्र से मुक्त हो जायेंगे, यह विचार नाम के बल पर पाप-बुद्धि है, जिससे से नामापराध होगा।
इस कलियुग में वही कृष्ण राधा रानी का भाव लेकर गौरांग महाप्रभु और बलराम जी नित्यानंद जी के रूप में आए।
कृष्ण नाम मे अपराध का विचार है किन्तु चैतन्य नित्यानंद नाम मे अपराध का विचार नहीं है। चैतन्य नित्यानंद में बल है इसलिए सारा दिन वैष्णव निंदा करेंगे,गुरु निंदा करेंगें और रात को सोने के समय निताई गौरांग करेंगे-यह केवल कपटता है। कपट व्यक्ति अधिक अपराधी है। वे किसी का मंगल नहीं चाहते उसका उल्टा फल होता है।
यह बात मैंने दिल्ली में कहीं थी, हम लोग एकादशी महात्मय ग्रंथ पढ़ते हैं, किन्तु उस ग्रन्थ के प्रीफेस(भूमिका) में सावधान कर दिया गया है, वैष्णव जागतिक पुण्य फल जैसे कि स्वर्ग आदि की प्राप्ति को तुच्छ मानते हैं। पाप पुण्य दुई परिहरी वे पाप फल या पुण्य फल कुछ नहीं चाहते केवल भगवान् का भजन करना चाहते हैं। ६४ भक्ति के अंगों में से एक अंग है, एकादशी व्रत का पालन। किन्तु सबसे पहले होता है,
आदौ गुरुपदाश्रय,विश्रम्भेण.. इनमें से मुख्य है गुरुपदाश्रय। चैतन्य गौड़ीय मठ में भक्त एकादशी व्रत का पालन भगवान् को प्राप्त करने के लिए करेंगे, स्वर्गादि सुख की प्रप्ति के लिए नहीं। जब क्षत्रिय युद्ध से भाग जाता है, तो उसे नरक में जाना पड़ेगा किन्तु एकादशी व्रत पालन करते हैं उनको स्वर्ग लाभ होता है। भक्त स्वर्ग लाभ नहीं चाहते, स्वर्गादि लोक तो संसार के अंतर्गत है। आविन्चम अमंगलम्, भक्त भगवान् की प्रीति छोड़ कर कुछ और नहीं चाहते, यह चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है।
पंचम स्कन्ध में शुकदेव गोस्वामी परिक्षित महाराज से वर्णन किया है कि किस प्रकार के पाप से नरक में क्या फल भोगना पड़ता है। वहाँ उन्होंने भीषण-भीषण नरक का वर्णन किया है। जब हम छोटे थे तब नरक के चित्रपट दिखाए जाते थे किन्तु अब यह सब नहीं दिखाते क्योंकि कि हमें पाप करने का मौका चाहिए, इस प्रकार के नरक देखने से तो पाप करने से भय लगेगा, इसलिए अब नहीं दिखाते। हमें एक फिल्म दिखाई थी जिसमें दो व्यक्ति कहीं से आये हैं, उन्होंने एक व्यक्ति को पकड़ा और आरी से उसका सर काटते लगे एक आदमी के सिर को आगे से काटता है।जो व्यक्ति आये थे वे यमराज के दुत थे। जब हम लोगों ने यह सब सुना और देखा, तो हम लोग बहुत भयभीत हो गए। और दुसरे एक प्रकार के नरक में एक कड़ाई को आग पर रखा गया है, कड़ाही बहुत गरम है, बाद में उसमें जीवित प्राणियों को जिंदा उसमे छोड़ देते हैं और वह तड़पता है। कुंभीपाक नरक में जीव को विष्ठा,बिच्छू कीड़ा जैसे जीव जन्तु तथा अन्य गंदी वस्तुओं के बिच फेंक देते हैं और लोग चिल्लाते हैं। हमारे मठ के दो व्यक्ति यमपुरी देखकर आये हैं। शुकदेव गोस्वामी ने वर्णन किया कि किस पाप का क्या फल होगा। परिक्षित महाराज जी शुकदेव गोस्वामी जी से कहते हैं कि जो व्यक्ति पाप कर चुका है उनके लिए इससे बचने का कोई उपाय है। तो वो बोले, “हाँ, इन नरक से मुक्ति का उपाय है।“ राजा परीक्षित पूछा,” नरक की मुक्ति का क्या उपाय है?” शुकदेव गोस्वामी ने कहा इसके लिए प्रायश्चित करने की व्यवस्था है।
इसके लिए प्रायश्चित करना होगा। लघु पाप के लिए लघु दंड होगा, भयंकर पाप करने से भयंकर दंड मिलेगा। जब एक व्यक्ति एक बिल्ली को मार देता है तब उसे एक महीने तक चन्द्रायण व्रत रखना पड़ेगा और बिल्ली के वजन जितना नमक दान करना पड़ेगा। एक व्यक्ति ने गौ हत्या की, गाय के पूरे शरीर में देवताओ का अधिष्ठान है तब उसे एक महीने का चन्द्रायण व्रत रखना होगा और गाय के वजन से स्वर्ण दान करना होगा। लघु पाप से लघु प्रायश्चित, गुरु पाप से गुरु प्रायश्चित। जब ये सब बातें शुकदेव जी ने बोली तो परीक्षित महाराज कहते है कि इस प्रकार तो बहुत लोगो को करते देखा जाता है जैसे एक व्यक्ति ने गन्दा काम किया, उसको दंड मिला, बदनामी हुई, जेल में गया और फिर जेल से मुक्त हो कर फिर दुबारा पाप करता है इस प्रकार के प्रायश्चित की जो व्यवस्था दी गयी है वह तो सम्यक प्रकार से नहीं है।
दृष्टश्रुताभ्यां यत्पापं जानन्नप्यात्मनोऽहितम् ।
करोति भूयो विवश: प्रायश्चित्तमथो कथम् ॥
क्वचिन्निवर्ततेऽभद्रात्क्वचिच्चरति तत्पुन: ।
प्रायश्चित्तमथोऽपार्थं मन्ये कुञ्जरशौचवत् ॥
(श्रीमद भागवत 6.1.9-10)
देखा जाता है कि पाप करके नरक में जाना पड़ता है देख़ते, सुनते और जानते हुए भी व्यक्ति जेल से मुक्त होकर फिर दुबारा पाप करता है क्योंकि चोरी करने की आदत जो है, वह आदत जाती नहीं है, इसलिए इस प्रकार के प्रायश्चित का क्या लाभ है कि व्यक्ति देख़ते, सुनते भी फिर वही पाप करता है।
कोई- कोई पाप से निवृत हो जाता है, कोई -कोई फिर वही पाप करता है। इसकी व्याख्या विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद इस प्रकार करते है की जो यौवन काल में पाप से निवृत्त हुआ, बूढ़ा होकर फिर वही पाप करता है।
जिस प्रकार हाथी का स्नान करना वृथा है, हाथी तालाब में जाकर स्नान करता है फिर तालाब से निकल कर सूंढ से फिर अपने ऊपर कीचड़ डाल लेता है, कर्मकाण्ड में प्रायश्चित की व्यवस्था इस प्रकार से ही है।
तब शुकदेव गोस्वामी कहते हैं आपका इस प्रकार से कहना यथार्थ है, जिसकी देहात्म बुद्धि है, जो कर्म में लिप्त है, देह में और देह सम्बन्धी वस्तुओ में जिनकी ‘मैं’ बुद्धि है उनके लिए इसप्रकार के प्रायश्चित की व्यवस्था है। इस से श्रेष्ठ एक और व्यवस्था है,
कर्मणा कर्मनिर्हारो न ह्यात्यन्तिक इष्यते ।
अविद्वदधिकारित्वात्प्रायश्चित्तं विमर्शनम् ॥
(श्रीमद भागवत 6.1.11)
कर्म से कर्म की आत्यंतिक निर्वृति नहीं होती है थोड़ा ध्यान देकर सुने, इस संसार में माया के तीन गुण सत, रज और तम से चालित होकर जीव कार्य करते हैं। तामसिक अभिमान से पाप किया और फिर सात्विक अभिमान से प्रायश्चित किया जाता है। किन्तु दोनों की जड़ मिथ्या अभिमान है। मैं सात्विक, राजसिक, तामसिक नहीं हूँ मैं तो आत्मा हूँ, सच्चिदानंद हूँ। जो कर्म सात्विक अभिमान से किया गया वह भी मिथ्या अभिमान से और जो तामसिक अभिमान से किया गया वह भी मिथ्या अभिमान से कर्म हुआ। एक मिथ्या से दूसरे मिथ्या को आवृत नहीं कर सकते है, एक अभिमान से पाप किया दूसरे अभिमान से पुण्य किया, तो वहाँ पुण्य कर्म से पाप कर्म को काट नहीं सकते। शरीर में और शरीर सम्बन्धी वस्तुओ में ‘मैं’ बुद्धि करने वाला अविद्या से ग्रस्त है, सात्विक, राजसिक, तामसिक अभिमान से ग्रस्त है। इसलिए आत्मसाक्षात्कार का ज्ञान ही संभव [permanent ] प्रायश्चित है।
आप कहेगे हम लोग तो गृहस्थ विषयी है आत्मसाक्षात्कार ज्ञान कैसे होगा, बहुत कठिन है। तो उत्तर में कहते हैं,
नाश्नत: पथ्यमेवान्नं व्याधयोऽभिभवन्ति हि ।
एवं नियमकृद्राजन् शनै: क्षेमाय कल्पते ॥
(श्रीमद भागवत 6.1.12)
एक उदाहरण देकर समझा रहे हैं, जब शरीर में बीमारी होती है तो कहा जाता है कि आप बद परहेज मत करो, अच्छा परहेज करो, बद परहेज के कारण जो बीमारी हुई है वह धीरे-धीरे वह ठीक हो जाएगी, नयी बीमारी आएगी नहीं। इसी प्रकार शास्त्र के विधि-निषेध, नीति-नियमों के अनुसार चलने से धीरे -धीरे आत्मसाक्षात्कार हो जाएगा।
कौन से नियमों का अनुशीलन करना है? तो उत्तर में कहते हैं,
तपसा ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च ।
त्यागेन सत्यशौचाभ्यां यमेन नियमेन वा ॥
देहवाग्बुद्धिजं धीरा धर्मज्ञा: श्रद्धयान्विता:।
क्षिपन्त्यघं महदपि वेणुगुल्ममिवानल: ॥
(श्रीमद भागवत 6.1.13-14)
इन सब प्रसंग की जब मठ में आलोचना होती तो विस्तार रूप से होती है यहाँ पर विस्तार रूप से आलोचना संभव नहींहै। ‘तपसा’ का अर्थ है तपस्या के द्वारा भोगराहित्य(भोग का त्याग) और मन को एकाग्र करना। ‘ब्रह्मचर्येण’— ब्रह्मचर्य पालन करना वास्तव में ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है ब्रह्म की परिचर्या या गुरु की परिचर्या करना। ये बाते अभी यहाँ नहीं करेंगे। ‘शमेन’—अंतर इन्द्रिय निग्रह (मन को निग्रह करना)। दमेन— बाहरी इन्द्रिय द्वारा वैराग्य,त्यागेन जो आपको प्राप्त हुआ है उस पर दूसरों का भी अधिकार है, यह सोचते हुए उसे दूसरों में दान करना। इस प्रकार करने से आप अपने आप को हल्का अनुभव करेंगे। सत्य सत्यनिष्ठा, शौच अर्थात् पवित्रता, विश्नाथ चक्रवर्ती ठाकुर टिका में कहते हैं— मिथ्या दम्भ, मान परित्याग ही वास्तव पवित्रता है। ‘देहवाग्बुद्धिजं धीरा’—जिसकी देह में बुद्धि नहीं है धीर व्यक्ति, जिसने इन्द्रियों को निग्रह कर दिया है ऐसा धीर व्यक्ति, ब्रह्मज्ञ व्यक्ति के, जिस प्रकार बांस के झाड़ में आग लगाने से सारा झाड़ जल जाता है इस प्रकार उस व्यक्ति के समस्त पाप ध्वंस हो जाते हैं। ये ज्ञान मार्ग द्वारा आत्मसाक्षात्कार की विधि है जिससे आत्मसाक्षात्कार का ज्ञान होगा और तब असत् कार्य या पाप करने की वृति नहीं रहेगी।
किन्तु जब शुकदेव गोस्वामी जी ने ये उदाहरण दिया बांस के झाड़ में आग लगने से सारा झाड़ जल जायेगा, माना ऊपर से तो जल गया पर उसकी जड़े तो मिटटी के अन्दर रह गई जब दुबारा पानी बरसेगा तो झाड़ फिर उग आएंगे। परीक्षित महाराज ने प्रश्न किया कि आपने जो उदाहरण दिया उससे लगता है की इसमें भी दुबारा पाप करने का भय है तब शुकदेव गोस्वामी कहते, “हाँ, ये प्रश्न कोई कर सकता है। इसमें भी पुनः पाप करने का भय है। इस प्रकार के प्रायश्चित अधिक कर्मकांडी और ज्ञानकाण्डी करते हैं, किन्तु इससे से भी श्रेष्ठ एक और प्रायश्चित है।”
केचित्केवलया भक्त्या वासुदेवपरायणा: ।
अघं धुन्वन्ति कार्त्स्न्येन नीहारमिव भास्कर: ॥
(श्रीमद भागवत 6.1.15)
एकमात्र भक्ति को अवलम्बन करने से, वासुदेव में अनन्य रूप से आश्रय लेने से, हृदय से भगवान् का आश्रय लेने से, जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही ओस की गंध भी नहीं रहती, उसी प्रकार पाप की गंध तक नहीं रहेगी, साथ-साथ समस्त पाप समूल ध्वंश हो जायेंगे।
गीता में भी लिखा है,
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता 7.19)
बहुत जन्म के बाद किसी ज्ञानी को यह ज्ञान होता है कि वासुदेव ही सर्व है’, पहले वह’ सोचता था कि अपनी इच्छा से या आरोह पंथ से, अपने दिमाग, बुद्धि से भगवान् को जान लेंगे परन्तु अब इसे छोड़ देगा और पूर्ण शरणागत हो जायेगा।
यहाँ पर साफ बोला दिया ‘वासुदेव परायण:’ तब अघं धुन्वन्ति कार्त्स्न्येन नीहारमिव समस्त पाप मूल से ध्वंश हो जायेंगे जैसे भास्कर (सूर्य) के आने से जैसे निहारिका अर्थात् ओस की बूंदें साथ-साथ ही ध्वंश हो जाती है, उसकी गंध तक नहीं रहती।
इस प्रकार भक्ति ही सम्यक (पूर्ण) प्रायश्चित है परन्तु इसका उदाहरण बहुत कम मिलता है। कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में जितने प्रकार के प्रायश्चित की व्यवस्था है,नारायण से विमुख होकर करने से जीव शुद्ध नहीं हो सकता है। इसका उदाहरण दिया गया है जिस पात्र के आधार में मदिरा है उस पात्र को दुनिया की सभी नदियों के जल में धोने से भी पवित्र नहीं होगा। आधार ही जब ख़राब है, भगवत विमुख आधार जब रहे तब व्यक्ति किसी भी प्रकार से पवित्र नहीं होगा, जितने भी प्रकार के कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के प्रायश्चित कर लें।
जो भागवत में वेद व्यास मुनि ने लिखा है, जिस भागवत को लिख करके वेद व्यास मुनि को परम शांति मिली, उस भागवद-धर्म का अनुशरण करके हमें भी परम शांति मिल सकती है, यह सोचना चाहिए।
सकृन्मन: कृष्णपदारविन्दयो-
र्निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह ।
न ते यमं पाशभृतश्च तद्भटान्
स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृता:॥
विषयो में फंसे हुए मन को यदि कोई भगवान में लगाता है, उनको किसी भी जन्म में यम या यमदूतो (हाथ में फंदा लेकर उनके लेने के आये हुए) को स्वप्न में भी नहीं देखना पड़ता।
न तथा ह्यघवान् राजन्पूयेत तपआदिभि: ।
यथा कृष्णार्पितप्राणस्तत्पुरुषनिषेवया ॥
परीक्षित महाराज को शुकदेव मुनि को कहते है, ऐसी शरणागति जब हो जाएगी तब वास्तव कल्याण हो जाएगा, भगवान मिल जाएगे। पापिष्ट व्यक्ति कर्मकांड और ज्ञानकाण्ड ऐसा पवित्र नहीं हो सकता जैसा भगवान् में शरणागति द्वारा पवित्र होता है। किन्तु भगवान् में शरणागति कैसे होगी? तत्पुरुषनिषेवया— जब भगवान् में शरणागत भक्त की सेवा करेंगे। कृष्णार्पितप्राण— कैसे कृष्ण में अर्पित होंगे, भगवान् के भक्त का संग करने से। भक्त की आत्मा की वृति प्रकाशित है उनका संग करने से हमारी आत्मा की वृति भी प्रकाशित हो जाएगी।
अजामिल जो ब्राह्मण थे उनके पिताजी का आदेश हुआ की वे हवन करने के लिए जंगल से लकड़ी ले आये। जब वो जंगल में गए तो वहाँ उन्होंने कूद्रश्य देखा। कूद्रश्य भी देखना नहीं चाहिए। एक व्यक्ति वेश्या के साथ काम में लिप्त था। उस कूद्रश्य को देख कर उनमें विकार आ गया। उनको वेश्या का संग करने की इच्छा हुई। मैं तो ब्राह्मण हूँ, मेरी तो स्त्री है मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए, यह विचार उनको आया।किन्तु जितना ही वेश्या को भूलने का प्रयास करते हैं, उतना ही वेश्या का ध्यान आता जा रहा है, भगवान की चिंता करनी चाहिए परन्तु वेश्या की चिंता करते करते, धीरे-धीरे छिप कर वे वेश्या का संग करने लगे। पिता सोच रहे हैं कि मेरा लड़का बहुत अच्छा है, पिता उनको पैसे देते है और धीरे-धीरे सब पैसा ख़तम हो गया। तब अजामिल पिता-माता और अपनी विवाहित स्त्री की चिंता छोड़कर वेश्या के पास उसका संग करने के लिए चले गए। वेश्या को खुश करने के लिए चोरी डकैती सब करने लगे। द्वादश गुण से युक्त ब्राह्मण का भी ये हाल हुआ। उनको वेश्या के गर्भ से दस पुत्र की प्राप्ति हुई और दैव योग से उन्होंने अपने दसवें पुत्र का नाम नारायण रखा।
वृद्व अवस्था में सब समय वे अपने पुत्र नारायण को पुकारते रहते हैं,नारायण, मेरे साथ बैठ कर खा, मेरे साथ चल, मेरे साथ सो..उनको अपने पुत्र में इतनी आसक्ति हो गयी। उनकी मृत्यु का समय आ गया। जीव शरीर, मन और वाणी से पाप करता है इसलिए मृत्यु के समय तीन यमदूत आएंगे। उनके दाँत बड़े-बड़े और आंखे अग्नि के गोले के समान होती है। देखने से ही डर लगने लगता है। अजामिल को ले जाने के लिए भी ऐसे तीन भयंकर यमदूत आ गए। जब मृत्यु का समय आया भयभीत होकर नारायण-नारायण चिल्लाने लगेतो उसी समय विष्णु दूत भी आ गए क्योंकि वैसे तो पुत्र का नाम बोला पर विष्णु उद्देश्य होने से उनका सांकेतिक नामाभास हो गया। ये वाला नामाभास सबसे निन्म कोटि का है। नाम पुकारते ही चार विष्णुदूत आ गए। यमदूत विष्णुदूतों से बोले आप लोगो के चेहरे तो बहुत सुन्दर है किन्तु आपका कार्य अच्छा नहीं है, आपने हमारे कार्य में बाधा दी, हम लोग यमराज के दूत हैं, ये पहले बहुत अच्छा था पर वेश्या का संग करके उसने बहुत घृणित कार्य किए, चोरी डकैती की और प्रायश्चित भी नहीं किया। इसलिए हम इसे लेने के लिए आए हैं। विष्णुदूतों ने कहा,
अयं हि कृतनिर्वेशो जन्मकोट्यंहसामपि ।
यद्व्याजहार विवशो नाम स्वस्त्ययनं हरे: ॥
(श्रीमद भागवत 6.२.7)
इसने इस जन्म का नहीं करोड़ो जन्मो का प्रायश्चित किया और मुक्ति का साधन बन गया।एक निष्पाप व्यक्ति को तुम ले यमपुरी ले जाओगे? उन्होंने यमदूतों को रोक लिया। अजामिल ने यमदूत और विष्णुदुत का वार्तालाप सुना।और जब विष्णुदूत और यमदूत चले गए। सांप के जहरीले दन्त भग्न हो जाने के बाद उसके काटने से जहर का असर नहीं होता वैसे ही बाद में अजामिल वेश्या और परिवार के साथ रहने पर भी उनकी उनमें आसक्ति नहीं रही। उसके बाद वे हरिद्वार चले गए और भगवान् का भजन किया और मृत्यु के समय विष्णुदुत आ कर उन्हें धाम में ले गए इस तरह मृत्यु के समय भगवान का नाम पुकारने से उनका उद्धार हो गया।
यदि आप लोगों की भी इच्छा एकादशी व्रत करने की है तो उसका उद्देश्य केवल भगवान का नाम (हरिनाम)करना ही होना चाहिए। इसलिए घर में पुत्र, पुत्री का नाम भगवान और भगवद् शक्ति पर ही रखना चाहिए। अब अलग जमाना आ गया है हम बच्चों के नाम भगवान के नाम पर नहीं रखते जैसे राम,नारायण ,कृष्ण आदि। अब हम बिबली, पिंकी, जैसे नाम रखते हैं। और हमें इन्हीं नामों में आसक्ति हो जाती है।मान लीजिए यदि किसी के बच्चे का नाम पिंकी है तो वह सब समय यही कहेगा पिंकी मेरा प्यारा बच्चा, अरे पिंकी यह खा ले,मेरे साथ सो जा,और यदि उसी समय यमदूत आ जाए तो उस समय डर के मारे मुख से पिंकी ही निकलेगा और यमदूत उसे पकड़कर यमपुरी ले जायेंगे। यदि आप लोगों की यमपुरी जाने की इच्छा नहीं है तो अपने बच्चों का नाम भगवद् और भगवद् शक्ति पर ही रखना।
चंडीगढ़ मठ के मठ रक्षक पूज्य पाद त्रिदंडी स्वामी श्रीमद् भक्ति सर्वस्व निश्किन्चन् महाराज में देखा कि भगवान् के सामने छोटा कीर्तन किया परन्तु ह्रदय से। कीर्तन हृदय होना चाहिए। जैसे द्रौपदी अपनी लाज बचाने के लिए लिए अर्जुन,भीम,भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य सबको पुकारती है किन्तु जब से हृदय से पुकारा तो कृष्ण आ गए। इसलिए कीर्तन करते हैं,
हरि हे दयाल मोर जय राधा नाथ।
बार बार एइ बार लह निज साथ।।१।।
बहु योनि भ्रमि नाथ,लइनु शरण।
निजगुणे कृपा कर अधमतारण।।२।।
यहाँ ‘हरि’ कृष्ण हैं जो सब के दु;ख को दूर करते हैं,जो दही माखन चुराने वाले हैं,समस्त पाप का हरण करने वाले, गोपियों के वस्त्र चुराने वाले।वल्लभाचार्य जी ने चौरागगण्यं अष्टकम में लिखा, उसका पाठ पुरुषोत्तम मास में करने को कहा गया है। हरि कौन हैं? सब के पाप हरण करने वाला, राधा रानी के हृदय का हरण करने वाले हैं, नविन बादल की कान्ति हरण करनवाले हैं।जो एक बार उनका आश्रय लेता है, उनका सब कुछ हरण कर लेते हैं।
हरि हे दयाल मोर जय राधा नाथ,
बार बार एइ बार लह निज साथ
बहु योनि भ्रमि नाथ, लइनु शरण,
निज गुणे कृपा कर, अधम तारण
बहुत योनियों में भ्रमण करने पर कितना कष्ट मिला, आप तो अधम तारण है, मेरे कोई गुण नही है, आप अधम को तारण करने वाले हैं।
जगतकारण तुमि, जगतजीवन,
तोमा छाड़ा कार नहि हे राधा रमण,
जगत के नाथ हैं आप जगत के जीवन हैं तुम्हें छोड़ कर मैं किसी का नहीं हूँ।
भीतर में इस प्रकार का भाव भगवान के लिए होना चाहिए।
भुवन मङ्गल तुमि, भुवनेर पति,
बहुत योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिला। भगवान मंगलमय है, भुवन का पति हैं।
तुमि उपेक्षिल नाथ, की हइबे गति,
तुम जब मेरी उपेक्षा करोगे, मेरे उपर ध्यान नही दोगे तो मेरा क्या होगा?
भाबिया देखिनु एई जगत माझारे।
तोमा बिना केह नहि ए दासे उद्धारे।।
मुझ दास का उद्धार करनेवाला और कोई नहीं हैं। हृदय से भगवान को प्रार्थना करेंगे तो उनका संग हो जायेगा।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
(गीता 9.29)
भगवान प्रत्येक के लिए समान है, किन्तु वे कहते हैं जो मेरी भक्ति करते हैं, मैं उनमें हूँ, वे मझमें हूँ। इसलिए हृदय से भगवान् को पुकारने से उनका संग हो जाएगा।
एकादशी के दिन क्या करना चाहिए उस विषय में श्री वास आंगन में महाप्रभु का उपदेश है,
श्री हरिवासरे हरि कीर्तन विधान
नृत्य आरंभिला प्रभु जगतेर प्राण
पुण्यवंत श्रीवास अंगने शुभारंभ
उठिल कीर्तन ध्वनि गोपाल गोविंद
हरि ओ राम राम हरि ओ राम राम…
इसलिए अब तो समय हो गया…
महाप्रभु का भी कीर्तन है, वह भी करना चाहिए
जीवन हैल शेष, न भजिल ऋषिकेश…