श्रीभगवान्के अवतारोंकी कथा
श्रीसूत उवाच –
जगृहे पौरुषं रूपं भगवान् महदादिभिः ।
सम्भूतं षोडशकलमादौ लोकसिसृक्षया ॥ 1 ॥
सूतः उवाच – सूत ने कहा ; जागृहे – स्वीकार किया ; पौरुषम् – पुरुषावतार के रूप में पूर्ण अंश ; रूपम् – रूप ; भगवान् – भगवान् के व्यक्तित्व ; महत् – आदिभिः – भौतिक जगत के अवयवों सहित ; सम्भूतम् – इस प्रकार सृष्टि हुई ; षोडश – कालम – सोलह मूल तत्त्व ; आदौ – आरंभ में ; लोक – ब्रह्मांड ; शिशुय – सृष्टि करने के उद्देश्य से ।
अनुवाद:- श्रीसूत गोस्वामी कहने लगे-सृष्टिके प्रारम्भमें भगवान् श्रीहरिने लोकोंके निर्माणकी इच्छा की। तब सर्वप्रथम उन्होंने कारणार्णवशायी (कारण समुद्रमें शयनकारी) रूप प्रथम पुरुष अथवा विराट नामक रूप धारण किया। भगवान् के इस रूपमें महत्-तत्त्वसे निष्पन्न मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ और पञ्चमहाभूत- ये सोलह पदार्थ अंश रूपमें विद्यमान थे ॥1॥
यस्याम्भसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतः ।
नाभिहृदाम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजांपतिः ॥2॥
यस्य – जिनके ; अम्भसि – जल में ; शयनस्य – लेटे हुए ; योग निद्राम् – ध्यान में शयन करते हुए ; वितान्वत : – सेवा करते हुए ; नाभि – नाभि ; ह्रद – सरोवर से ; अम्बुजात् – कमल से ; आसीत् – प्रकट हुए ;ब्रह्मा – जीवों के पितामह ; विश्व – ब्रह्माण्ड ; सृजाम् – निर्माता ; पति :- स्वामी ।
तत्पश्चात् श्रीहरिने द्वितीय पुरुषावतारके रूपमें गर्भोदकमें (ब्रह्माण्डके भीतर भरे जलपर) शयन करते हुए योगनिद्राका विस्तार किया । तदनन्तर उनके नाभि-सरोवरसे उत्पन्न कमलसे प्रजापतिनाथ ब्रह्माने जन्म-ग्रहण किया ॥2॥
यस्यावयव – संस्थानैः कल्पितो लोकविस्तरः ।
तद्वै भगवतो रूपं विशुद्धं सत्त्वमूर्जितम् ॥3॥
यस्य – जिसका ; अव्ययव – शारीरिक विस्तार ; संस्थानै : – स्थित ; कल्पित : – कल्पित ; लोक – वासियों के लोक ; विस्तार : – विभिन्न ; तत् वै – परंतु वह ; भगवता :- भगवान का ;- स्वरूप ; विशुद्धम् – विशुद्ध ; सत्त्वम् – अस्तित्व ; ऊर्जितम् – उत्कृष्टता ।
कारणोदकशायी (कारण समुद्रमें शयनकारी) श्रीहरिके उस विराट् रूपके अङ्ग-प्रत्यङ्गमें पाताल आदि समस्त लोकोंसे युक्त प्रपञ्चकी कल्पना की गयी है । उन भगवान् श्रीहरिका स्वरूप रजोगुण और तमोगुणसे रहित सत्त्वमय है, अतः वही रूप अत्यन्त अप्राकृत और विशुद्ध है ॥ 3॥
पश्यन्त्यदो रूपमदभ्रचक्षुषा
सहस्रपादोरुभुजाननाद्भुतम् ।
सहस्रमूर्धश्रवणाक्षिनासिकं
सहस्रमौल्यम्बरकुण्डलोल्लसत् ॥ ४ ॥
पश्यन्ति – देखो ; अदः – पुरुष का रूप ; रूपम् – रूप ; अदभ्र – उत्तम ; चक्षुषा – आँखों से ; सहस्र – पाद – हजारों पैर ; उरु – जाँघें ; भुज – आनन – हाथ और चेहरे ; अदभुतम् – अद्भुत ; सहस्र – हजारों ; मूर्द्धा – सिर ; श्रवण – कान ; अक्षि – आँखें ; नासिकम् – नाक ; सहस्र – हजारों ; मौली – माला ; अंबर – पोशाक ; कुंडल – बालियाँ ; उल्लासत् – सब चमक रहा है ।
योगीजन अपने असीम विज्ञान चक्षुरूप दिव्यदृष्टिसे श्रीहरिके उस परम चमत्कारमय पुरुष रूपको देखते हैं, जिनके असंख्य सिर, कान, नेत्र, नासिकाएँ, भुजाएँ, मुख और चरण हैं । भगवान्का यह रूप असंख्य मुकुट, सुन्दर वस्त्र एवं कुण्डलोंसे परिशोभित रहता है ॥4॥
एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् ।
यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यङ्नरादयः ॥5॥
एतत् – यह (रूप) ; नाना – अनेक ; अवताराणाम् – अवतारों का ; निधनम् – स्रोत ; बीजम् – बीज ; अव्ययम् – अविनाशी ; यस्य – जिसके ; अंश – पूर्ण भाग ; अंशेन – पूर्ण भाग का भाग ; सृज्यन्ते – उत्पन्न करते हैं ; देव – देवता ; तिर्यक – पशु ; नर – आदयः – मनुष्य तथा अन्य ।
वह कारणोदकशायी विष्णु ही लीलाओंकी समाप्तिपर समस्त अवतारोंकी प्रवेश – स्थली हैं। वे अक्षय तथा समस्त अवतारोंके उद्गमस्थान (1) हैं। इसी रूपके अंश ब्रह्मा तथा ब्रह्माके अंश मरीचि आदि ऋषिगण – देव, तिर्यक, मनुष्य आदि समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं॥5॥
स एव प्रथमं देवः कौमारं सर्गमाश्रितः ।
चचार दुश्चरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम्॥6॥
सः – वह ; एव – निश्चय ही ; प्रथमम् – प्रथम ; देवाः – परमेश्वर ; कुमारम् – कुमारों (अविवाहित) का नाम दिया ; सर्गम् – सृष्टि ; आश्रितः – के अधीन ; चक्र – किया गया ; दुष्करम् – करने में अत्यन्त कठिन ; ब्रह्मा – ब्रह्म की व्यवस्था में ; ब्रह्मचर्यम् – अनुशासन में रहकर परब्रह्म को प्राप्त करना ; अखण्डितम् – अखण्ड ।
उन्हीं भगवान् श्रीविष्णुने पहले कौमारसर्गमें सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार – इन चार ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणोंके रूपमें अवतीर्ण होकर अत्यन्त कठोर और अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन किया था ॥6॥
द्वितीयन्तु भवायास्य रसातलगतां महीम् ।
उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेशः शौकरं वपुः ॥7॥
द्वितीयम् – दूसरा ; तु – परंतु ; भावाय – कल्याण के लिए ; अस्य – इस पृथ्वी का ; रसातल – निम्नतम लोक का ; गतम् – गया हुआ ; महीम् – पृथ्वी को ; उद्धारिष्यन् – उठाकर ; उपदत्त – स्थापित ; यज्ञेशः – स्वामी या परम भोक्ता ; सौकरम् – भोगी ; वपुः – अवतार ।
(1) संक्षेपतः भगवान् के अवतारोंकी इस प्रकारसे गणना की जाती है – (1) पुरुषावतार- तीन प्रकारके हैं- महासंकर्षणसे कारणार्णव, गर्भोदक और क्षीरोदकशायी, (2) गुणावतार – ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर, (3) लीलावतार – मत्स्यादि, (4) मन्वन्तरावतार चौदह हैं – यज्ञ, विभु, सत्यसेन, हरि, वैकुण्ठ, अजित, वामन, सार्वभौम, ऋषभ, विष्वक्सेन, धर्मसेतु, सुधामा, योगेश्वर, बृहद्भानु, (5) युगावतार चार प्रकारके हैं – शुक्ल, रक्त, कृष्ण, पीत, (6) शक्त्यावेशावतार – पृथु, व्यास, परशुराम, बुद्ध आदि ।
इस विश्वके कल्याणके लिए यज्ञेश्वर श्रीविष्णुने रसातलमें गयी हुई पृथ्वीका उद्धार करनेकी इच्छासे द्वितीय अवतारमें श्रीवराहरूप धारण किया था ॥ 7 ॥
तृतीयमृषिसर्गं वै देवर्षित्वमुपेत्य सः ।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः ॥8॥
तृतीयम् – तीसरा ; ऋषि – सर्गम् – ऋषियों का सहस्त्राब्दी ; वै – निश्चय ही ; देवर्षित्वम् – देवताओं में ऋषि का अवतार ; उपेत्य – स्वीकार करके ; सः – वह ; तन्त्रम् – वेदों की व्याख्या ; सात्वताम् – जो विशेष रूप से भक्ति के लिए है ; आकाष्ट – संग्रहित ; नैष्कर्म्यम् – निष्फल ; कर्मणाम् – कर्म का ; यतः – जिससे ।
इन भगवान् श्रीविष्णुने ही तृतीय अवतारमें ऋषियोंमें देवर्षि श्रीनारदके रूपमें अवतरित होकर सात्त्वत तन्त्र – पञ्चरात्रकी व्याख्या की थी। उस पञ्चरात्रके अनुसार वर्णाश्रमधर्म आदिका अनुष्ठान करनेसे कर्मबन्धनका नाश होता है ॥8॥
तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी ।
भूत्वात्मोपशमोपेतमकरोद् दुश्चरं तपः ॥9॥
तुर्ये – चतुर्थ वंश में ; धर्म – कला – धर्मराज की पत्नी ; सर्जे – उत्पन्न होने से ; नारा – नारायणौ – नर और नारायण नामक ; ऋषि – ऋषियों से ; भूत्वा – बनकर ; आत्म – उपशम – इन्द्रियों को वश में करके ; उपेतम् – सिद्धि के लिए ; अकारोत् – किया ; दुष्करम् – अत्यंत कठिन ; तपः – तपस्या ।
चतुर्थ अवतारके रूपमें इन्हीं भगवान्ने धर्मकी कला अर्थात् पत्नी – मूर्त्तिके गर्भसे नर-नारायण नामक दो ऋषियोंके रूपमें अवतार ग्रहण किया था। इस अवतारमें उन्होंने आत्माको प्रसन्न करनेवाली अत्यन्त कठोर तपस्याका आचरण किया था ॥9॥
पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् ।
प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्॥10॥
पञ्चमः – पाँचवाँ ; कपिलः – कपिल ; नाम – नाम का ; सिद्धेशः – उत्तमों में श्रेष्ठ ; काल – समय ; विप्लुतम् – खोया हुआ ; प्रोवाच – कहा ; आसूर्ये – आसुरी नामक ब्राह्मण को ; सांख्यम् – तत्वज्ञान ; तत्त्व – ग्राम – सृजनात्मक तत्त्वों का योग ; विनिर्णयम् – व्याख्या ।
पञ्चम अवतारमें वे सिद्धोंमें श्रेष्ठ कपिल नामक ऋषिके रूपमें प्रकट हुए थे। तब उन्होंने कालके प्रभावसे लुप्तप्रायः और तत्त्वोंका निरूपण करनेवाले सांख्य दर्शनका आसुरि नामक ब्राह्मणको उपदेश दिया था॥10॥
षष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया ।
आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान् ॥11॥
षष्ठम् – छठे ; अत्रेः – अत्रि के ; अपत्यत्वम् – पुत्रत्व ; वृतः – प्रार्थना किये जाने पर ;- प्राप्त हुआ ; अनसूयाया – अनसूया द्वारा ; आन्वीक्षिकीम् -के विषय में ; अलर्काय – अलर्क से ; प्रह्लाद – आदिभ्यः – प्रह्लाद आदि से ; उचिवान् – बोले ।
छठे अवतारमें वे महर्षि अत्रिकी पत्नी अनसूयाकी प्रार्थनासे दत्तात्रेय नामक उनके पुत्रके रूपमें प्रकट हुए। इस अवतारमें उन्होंने अलर्क नामक ब्राह्मण और प्रह्लादादि राजाओंको आत्म-विद्याका उपदेश दिया था ॥11॥
ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत ।
स यामाद्यैः सुरगणैरपात् स्वायम्भुवान्तरम्॥12॥
ततः – उसके बाद ; सप्तमे – वंश में सातवें ; आकूट्याम् – आकूति के गर्भ में ; रुचिः – प्रजापति रुचि द्वारा ; यज्ञः – भगवान का यज्ञ के रूप में अवतार ; अभ्यजयत – प्रकट हुआ ; सः – उसने ; यम – अद्यैः – यम आदि के साथ ; सुर – गणैः – देवताओं के साथ ; आपात् – शासन किया ; स्वायंभुव – अन्तरम् – स्वायंभुव मनु का काल परिवर्तन ।
तत्पश्चात् सप्तम अवतारमें वे भगवान् ही प्रजापति रुचिकी पत्नी आकूतिके गर्भसे यज्ञरूपमें प्रकट हुए थे। इन्हीं यज्ञरूपी श्रीहरिने अपने पुत्र याम आदि प्रमुख देवताओंके साथ स्वायम्भुव नामक मन्वन्तरकी रक्षा की थी ॥12॥
अष्टमे मेरुदेव्यान्तु नाभेर्जात उरुक्रमः ।
दर्शयन् वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम्॥13॥
अष्टमे – अवतारों में से आठवें ; मेरुदेव्याम् तु – राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ; जाताः – जन्म लिया ; उरुक्रमः – सर्वशक्तिमान भगवान ; दर्शनायण – दिखाकर ; वर्तमान – मार्ग ; धीराणाम् – सिद्ध प्राणियों का ; सर्व – सबका ; आश्रम – जीवन के क्रम ; नमस्कृतम् -द्वारा सम्मानित ।
भगवान् श्रीविष्णुने आग्नीध्रके पुत्र राजा नाभिकी पत्नी मेरुदेवीके गर्भसे ऋषभ नामसे आठवाँ अवतार ग्रहण किया था। इस अवतारमें उन्होंने धीरजनोंको सभी आश्रमोंके लिए वन्दनीय परमहंसोंका मार्ग दिखलाया था ॥13॥
ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः ।
दुग्धेमामोषधीर्विप्रास्तेनायं स उशत्तमः ॥14॥
ऋषिभिः – ऋषियों द्वारा ; याचितः – प्रार्थना किये जाने पर ; भजे – स्वीकार किया गया ; नवमम् – नौवां ; पार्थिवम् – पृथ्वी का अधिपति ; वपुः – शरीर ; दुग्ध – दूध देने वाला ; इमाम् – ये सब ; ओषधिः – पृथ्वी की उपज ; विप्राः – हे ब्राह्मणों ; तेन – द्वारा ; अयम् – यह ; सः – वह ; उष्टतमः – सुन्दर रूप से आकर्षक ।
हे शौनकादि विप्रो ! मुनियोंके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर उन्हीं भगवान्ने अपने नवम अवतारमें राजा पृथुका रूप धारण किया था । इस अवतारमें उन्होंने पृथ्वीसे औषधियोंके साथ समस्त वस्तुओंका दोहन किया था, इसीलिए यह अवतार परम मनोहर हो गया था॥14॥
रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसम्प्लवे ।
नाव्यारोप्य महीमय्यामपाद् वैवस्वतं मनुम् ॥15॥
रूपम् – रूप ; सः – वह ; जागृहे – स्वीकृत ; मत्स्यम् – मछली का ; चाक्षुष – चाक्षुष ; उदधि – जल ; नमूनावे – जलप्लावन ; नावी – नाव पर ; आरोप्य – चलते हुए ; मही – पृथ्वी ; मय्याम् – डूबी हुई ; आपात् – सुरक्षित ; वैवस्वतम् – वैवस्वत ; मनुम् – मनुष्य का पिता मनु ।
चाक्षुष – मन्वन्तरमें जब समस्त सागरोंके उफननेके कारण सारी त्रिलोकी उसमें डूब रही थी, तब भगवान्ने मत्स्यावतारके रूपमें दसवाँ अवतार ग्रहण किया था और पृथ्वीरूपी नौकाके द्वारा अगले मन्वन्तरके अधिपति सूर्यपुत्र वैवस्वत मनुकी रक्षा की थी ॥ 15 ॥
सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम्।
दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः ॥16॥
सुरा – आस्तिकों का ; असुरणाम् – नास्तिकों का ; उदधिम् – समुद्र में ; मथनाम् – मंथन ; मन्दराचलम् – मन्दराचल पर्वत ; दध्रे – धारण किया हुआ ; कमठ – कछुआ ; रूपेण – रूप में ; पृष्ठे – शंख ; एकादश – पंक्ति में ग्यारहवाँ ; विभुः – महान ।
जिस समय देवता और दानव समुद्र मन्थन कर रहे थे, उस समय उनके मन्थनके लिए भगवान् श्रीहरिने ग्यारहवें अवतारके रूपमें कच्छप रूप स्वीकार किया और मन्दर नामक पर्वतको अपनी पीठपर धारण किया ॥16॥
धान्वन्तरं द्वादशमं त्रयोदशममेव च।
अपाययत् सुरानन्यान् मोहिन्या मोहयन् स्त्रिया ॥17॥
धन्वन्तरम् – भगवान के धन्वन्तरि नामक अवतार ; द्वादशम् – वंश में बारहवें ; त्रयोदशम् – वंश में तेरहवें ; एव – निश्चय ही ; च – तथा ; अपाययत् – पिलाया ; सुरान् – देवताओं को ; अन्यान् – अन्यों को ; मोहिन्या – मनमोहक सौन्दर्य से ; मोहायन् – आकर्षक ; स्त्रीया – स्त्री रूप में ।
वे भगवान् श्रीहरि ही बारहवें अवतारमें धन्वन्तरि – रूपको धारणकर अमृतके कलशको हाथमें उठाये हुए समुद्रसे प्रकट हुए थे। तेरहवें अवतारमें भगवान्ने मोहिनी रूपसे असुरोंको मोहितकर उनकी वञ्चना करके देवताओंको अमृत पान कराया था॥17॥
चतुर्दशं नारसिंहं बिभ्रद् दैत्येन्द्रमूर्जितम् ।
ददार करजैरूरावेरकां कटकृद् यथा ॥18॥
चतुर्दशम् – पंक्ति में चौदहवाँ ; नारा – सिंहम् – भगवान का आधा मनुष्य और आधा सिंह के रूप में अवतार ; बिभ्रट – प्रकट हुआ ; दैत्य – इन्द्रम् – नास्तिकों का राजा ; ऊर्जितम् – सुदृढ़ ; ददार – दो भागों में बँटा हुआ ; करजैः – नाखूनों से ; उरौ – गोद में ; एरकाम – बेंत ; कट – कृत – बढ़ई ; यथा – जैसे ।
चौदहवें अवतारमें भगवान्ने श्रीनृसिंह रूप धारण करके भीषण मदमें मत्त और महाबलवान असुरराज हिरण्यकशिपुको अपनी जंघापर रखकर उसके वक्षःस्थलको अपने नखोंसे अनायास ही इस प्रकार चीर डाला था, जिस प्रकार चटाई बनानेवाला सींकको चीर डालता है ॥ 18 ॥
पञ्चदशं वामनकं कृत्वागादध्वरं बलेः ।
पादत्रयं याचमानः प्रत्यादित्सुस्त्रिविष्टपम्॥19॥
पञ्चदशम् – वंश में पन्द्रहवाँ ; वामनकम् – वामन ब्राह्मण ; कृत्वा – धारण करके ; आगत् – गया ; अध्वरम् – यज्ञक्षेत्र ; बलेः – राजा बलि का ; पद – त्रयम् – केवल तीन पग ; याचनाः – भीख माँगते हुए ; प्रत्यदित्सुः – हृदय से लौटने को तत्पर ; त्रि – पिष्टपम् – तीनों लोकों का राज्य ।
भगवान् श्रीहरि दैत्यराज बलिकी छलनाकर देवताओंको स्वर्गका राज्य प्रदान करना चाहते थे। तब वे पन्द्रहवें अवतारमें वामनरूप धारणकर बलिकी यज्ञशालामें पहुँचे। वे बलिसे त्रिलोकीका राज्य चाहते थे, किन्तु उन्होंने छलपूर्वक केवल तीनपग भूमि ही माँगी ॥19॥
अवतारे षोडशमे पश्यन् ब्रह्मद्रुहो नृपान्।
त्रिः सप्तकृत्वः कुपितो निःक्षत्रामकरोन्महीम् ॥20॥
अवतारे – भगवान के अवतार में ; षोडशमे – सोलहवें ; पश्यन् – देखकर ; ब्रह्म – द्रुहाः – ब्राह्मणों की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए ; नृपन् – राजसी क्रम ; त्रिः – सप्त – तीन बार सात बार ; कृत्वाः – किया था ; कुपिताः – लगे हुए ; निः – निषेध ; क्षत्राम् – शासन वर्ग ; अकारोत् – किया था ; महीम् – पृथ्वी ।
भगवान् विष्णुने सोलहवें अवतारमें परशुरामके रूपमें अवतीर्ण होकर क्रोधके कारण पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियोंसे रहित कर दिया था, क्योंकि ये क्षत्रिय राजा देवता और ब्राह्मणोंसे बहुत द्रोह करने लगे थे॥20॥
ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात् ।
चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधसः ॥21॥
ततः – उसके बाद ; सप्तदशे – सत्रहवें अवतार में ; जातः – प्रकट हुआ ; सत्यवत्यम् – सत्यवती के गर्भ में ; पराशरत् – पराशर मुनि द्वारा ; चाकरे – तैयार ; वेद – तरोः – वेदों के कल्पवृक्ष का ; सखाः – शाखाएँ ; दृष्ट्वा – देखते रहो ; पुंसः – सामान्यतः लोग ; अल्पा – मेधासः – कम बुद्धिमान ।
इसके बाद सत्रहवें अवतारमें भगवान् श्रीहरि पराशर सत्यवतीके गर्भसे कृष्णद्वैपायन श्रीवेदव्यासके रूपमें अवतरित हुए। उस समय मनुष्यकी अल्प धारणा – शक्ति और बुद्धिको देखकर मानव- कल्याणके लिए उन्होंने वेद-वृक्षका विभिन्न शाखाओंमें विस्तार किया॥21॥
नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया ।
समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम् ॥22॥
नर – मनुष्य ; देवत्वम् – देवत्व ; आपन्नः – रूप धारण करके ;सुर – देवताओं का ; कार्य – कार्य; चक्र्य -करने के उद्देश्य से ; समुद्र – हिन्द महासागर ; निग्रह – नियंत्रण आदि ; चक्रे – किया ; वीर्याणि – अलौकिक पराक्रम ; अत : परम् – तत्पश्चात ।
अट्ठारहवें अवतारमें भगवान् श्रीहरि देवताओंका कार्य सम्पूर्ण करनेकी इच्छासे महाराज दशरथके पुत्र नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रके रूपमें अवतरित हुए और उन्होंने सेतु – बन्धन, रावण – संहार तथा माया – सीताका उद्धार आदि बहुत-से वीरतापूर्ण कार्यों (लीलाओं) को किया॥22॥
एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।
रामकृष्णाविति भुवो भगवानहरद्भरम्॥23॥
एकोनविंश – उन्नीसवें में ; विंशतिमे – बीसवें में भी ; वृष्णिषु – वृष्णि वंश में ; प्राप्य – प्राप्त करके ; जन्मनि – जन्म ; राम – बलराम ; कृष्णौ – श्री कृष्ण ; इति – इस प्रकार ; भुवः – संसार का ; भगवान – भगवान का व्यक्तित्व ; अहरत् – हटा दिया गया ; भारम् – बोझ ।
उन्नीसवें तथा बीसवें अवतारोंमें भगवान् श्रीहरिने यदुकुलमें श्रीबलराम और श्रीकृष्ण – ये दो नाम ग्रहण करके पृथ्वीका भार उतारा था ॥ 23 ॥
ततः कलौ संप्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।
बुद्धो नाम्नाञ्जनसुतः कीकटेषु भविष्यति ॥24॥
ततः – तत्पश्चात ; कलौ – कलियुग ; सम्प्रवृत्ते – आरम्भ होने पर ; सम्मोहाय – मोह करने के लिए ; सुरा – आस्तिकों को ; द्विषाम् – ईर्ष्या करने वालों को ; बुद्धः – भगवान बुद्ध ; नाम्ना – नाम का ; अंजना – सुतः – जिसकी माता अंजना थी ; कीकटेषु – गया (बिहार) प्रांत में ; भविष्यति – होगा ।
इसके बाद कलियुगके आनेपर देवताओंके विद्वेषी तामसिक लोगोंको सम्मोहित करनेके लिए इक्कीसवें अवतारमें भगवान् श्रीहरि अञ्जन (अजिन) के पुत्रके रूपमें गयाप्रदेश (बिहार) में बुद्ध नामसे अवतीर्ण होंगे ॥24॥
अथासौ युगसन्ध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु ।
जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः ॥25॥
अथ – तत्पश्चात ; असौ – वही भगवान ; युग – संध्यायाम् – युगों के संयोग पर ; दस्यु – लुटेरे ; प्रायेषु – प्रायः सभी ; राजसु – शासक व्यक्तित्व ; जनित – जन्म लेंगे ; विष्णु – विष्णु नाम से ; यशसः – यशा उपनाम से ; नाम्ना – के नाम से ; कल्किः – भगवान के अवतार ; जगत – पतिः – सृष्टि के भगवान ।
इसके बाद युग – सन्धिका काल उपस्थित होगा अर्थात् कलिका अन्त होगा, उस समय राजा लोग प्रायः दस्यु हो जायेंगे। तब जगत्के रक्षक भगवान् श्रीविष्णु बाइसवें अवतारमें कल्कि नामसे प्रख्यात होकर विष्णुयश नामक ब्राह्मणके घरमें अवतीर्ण होंगे ॥25॥
अवतारा ह्यसंख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः ।
यथाविदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः॥26॥
अवतारः – अवतार ; नमस्ते – अवश्य ; असंख्येयः – असंख्य ; हरेः – हरि, भगवान का ; सत्व – निधेः – अच्छाई के सागर का ; द्विजः – ब्राह्मण ; यथा – जैसा है ; अविदासिनः – अक्षय ; कुल्याः – नाले ; सरसः – विशाल झीलों का ; स्युः – हैं ; सहस्रशः – हजारों।
हे शौनकादि ऋषियों! जिस प्रकार अक्षय-सरोवरसे हजारों छोटी-छोटी नदियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार सत्त्व ( शुद्धसत्त्व चित् और आनन्दके) सागर श्रीहरिसे असंख्य अवतार हैं ॥ (1)26॥
ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः ।
कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयः स्मृताः ॥27॥
ऋषयः – सभी ऋषिगण ; मानवः – सभी मनु ; देवाः – सभी देवता ; मनु – पुत्राः – मनु के सभी वंशज ; महा – ओजसः – अत्यंत शक्तिशाली ; कलाः – पूर्ण भाग के भाग ; सर्वे – सभी सामूहिक रूप से ; हरेः – भगवान के ; एव – निश्चय ही ; स – प्रजापतयः – प्रजापतियों सहित ; स्मृताः – जाने जाते हैं ।
प्रजापतिगण, महान शक्तिशाली मुनि, देवता, मनु तथा मनुपुत्र मानव-सभी श्रीहरिके अंश हैं, उनकी विभूति हैं ॥27॥
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥28॥
एते – ये सब ; च – तथा ; अंश – पूर्ण भाग ; कलाः – पूर्ण भागों के भाग ; पुंसः – परब्रह्म के ; कृष्णः – भगवान कृष्ण ; तु – परंतु ; भगवान् – भगवान् ; स्वयं – साक्षात् ; इन्द्र – अरि – इन्द्र के शत्रुओं को ; व्याकुलम् – व्याकुल ; लोकम् – समस्त लोकों को ; मृदयन्ति – संरक्षण देते हैं ; युगे युगे – भिन्न-भिन्न युगों में ।
पहले कहे गये समस्त अवतारोंमेंसे कोई-कोई पुरुषोत्तम भगवान् श्रीहरिके अंशावतार, कोई कलावतार और कोई शक्त्यावेश अवतार हैं। प्रत्येक युगमें जब भी जगत् असुरोंसे पीड़ित होता है, तब असुरोंके उपद्रवसे जगतकी रक्षा करनेके लिए ये अवतार हुआ करते हैं । किन्तु, व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण तो साक्षात् स्वयं भगवान् (अवतारी ) हैं ॥ २८ ॥ (१) कलियुगमें भगवान् अवतार मूर्ति प्रकाशित न करके स्वयं अवतारी रूपमें अपने रूपको छिपाकर रखते हैं, इसीलिए उनका एक नाम ‘त्रियुगी’ है। तीन युगोंमें ही युगावतार प्रकाशित होते हैं, किन्तु कलियुगमें वे आच्छादित रहते । यह आच्छादन श्रीगौराङ्गदेवमें हादिनीशक्ति श्रीराधाकी कान्ति एवं भावके द्वारा है। भगवान् के ऐश्वर्य प्रकाशक अवतार हैं- नृसिंह, परशुराम, कल्कि और पुरुष । धर्मके प्रकाशक अवतार हैं- नारद, व्यास, वराह और बुद्ध । श्री अर्थात् सौन्दर्य प्रधान अवतार हैं – राम, धन्वन्तरि, यज्ञ, पृथु, बलराम, मोहिनी और वामन। ज्ञान प्रदर्शक अवतार हैं – दत्तात्रेय, मत्स्य, चतुः सन और कपिल । वैराग्य प्रदर्शक अवतार हैं- नारायण, नर, कूर्म और ऋषभ । स्वयं श्रीकृष्ण षडैश्वर्यसे परिपूर्ण और माधुर्यकी महानिधि हैं एवं उनमें ही समस्त अवतार और शक्तियाँ निहित हैं।
जन्मगुह्यं भगवतो य एतत् प्रयतो नरः ।
सायं प्रातर्गृणन् भक्त्या दुःखग्रामाद्विमुच्यते ॥29॥
जन्म – जन्म ; गुह्यम् – रहस्यमय ; भागवत : – भगवान का ; य : – एक ; एतत् – ये सब ; प्रयतः – सावधानी से ; नर : – मनुष्य ; संयम – सायंकाल ; प्रातः – प्रातः ; ज्ञानान् – पढ़ता है ; भक्त्या – भक्तिपूर्वक ; दुःख – ग्रामात् – सभी दुखों से ; विमुच्यते – छुटकारा पाता है ।
भगवान् श्रीहरिके अवतारोंकी यह कथा अति रहस्यमय है। जो मनुष्य पवित्र होकर एकाग्रचित्तसे प्रातः एवं सन्ध्या कालमें भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, वह इस क्लेशजनक संसारसे विमुक्त हो जाता है ॥29॥
एतद्रूपं भगवतो ह्यरूपस्य चिदात्मनः ।
मायागुणैर्विरचितं महदादिभिरात्मनि ॥30॥
एतत् – ये सब ; रूपम् – रूप ; भगवताः – भगवान के ; हि – निश्चय ही ; अरूपस्य – जिसका कोई भौतिक रूप नहीं है ; चित् – आत्मनः – परात्पर की ; माया – भौतिक शक्ति ; गुणाः – गुणों द्वारा ; विरचितम् – निर्मित ; महत् – आदिभिः – पदार्थ के अवयवों से ; आत्मनि – स्वयं में ।
प्राकृत रूपसे रहित अर्थात् अप्राकृतरूप, एकमात्र चिन्मय रसविग्रह परमात्माका यह प्राकृत-स्थूल जगदाकार रूप अनित्य है। इस स्थूलरूप महत्, अहङ्कार, पञ्च – तन्मात्रादि रूप बहिरङ्गाशक्तिसे उत्पन्न गुणों द्वारा जीवकी देह निर्मित हुई है। मायाधीश भगवान् गुणोंसे उत्पन्न जगत्में आबद्ध नहीं होते ॥ 30 ॥
यथा नभसि मेघौघो रेणुर्वा पार्थिवोऽनिले ।
एवं द्रष्टरि दृश्यत्वमारोपितमबुद्धिभिः ॥31॥
यथा – जैसा है ; नभसि – आकाश में ; मेघ – ओघाः – बादलों का समूह ; रेणुः – धूल ; वा – तथा ; पार्थिवः – कीचड़ ; अनीले – वायु में ;- इस प्रकार ; द्रष्टारि – द्रष्टा के लिए ; दृश्यत्वम् – देखने के उद्देश्य से ; आरोपितम् – अभिप्रेत है ; अबुद्धिभिः – अल्पबुद्धि व्यक्तियों द्वारा ।
जिस प्रकार अल्पबुद्धिवाले मूढ़ व्यक्ति आकाशको मेघसे ढका हुआ तथा वायुको धूलसे मलिन आरोप करते हैं, जब कि वास्तवमें मेघ वायु द्वारा चालित होते हैं और धूसरपना ( मलिनता ) धूलमें होता है, उसी प्रकार मूढ़ विवर्त्तवादी ( २ ), सबके द्रष्टा सच्चिदानन्दरूप भगवान्में दृश्य अर्थात् जड़-इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जानेवाले धर्मसे युक्त अचित् शरीरका आरोप करते हैं॥31॥
अतः परं यदव्यक्तमव्यूढगुणबृंहितम् ।
अदृष्टाश्रुतवस्तुत्वात् स जीवो यत् पुनर्भवः ॥32॥
अतः – यह ; परम् – परे ; यत् – जो ; अव्यक्तम् – अप्रकट ; अव्यूढ – आकारहीन ; गुण – बृह्तिम् – गुणों से प्रभावित ; अदृष्ट – अदृश्य ; अश्रुत – अनसुना ; वस्तुत्वात् – वैसा होने से ; सः – वह ; जीवः – जीव ; यत् – जो ; पुनः – भवः – बारम्बार जन्म लेता है ।
इस प्राकृत-जड़ विराट रूपसे पृथक् जो अव्यक्त सूक्ष्मरूप हैं, वह अव्यूढ़ अर्थात् हस्त – पदादि रूपमें अपरिणत मायिक गुणों द्वारा रचित आकार विशेषसे रहित है तथा उसे पहले न तो कभी देखा गया है और न ही उसके विषयमें कभी सुना गया है। इस प्रकार वह सूक्ष्मरूप पुनर्जन्म ग्रहण करनेयोग्य जीवकी उपाधि – सूक्ष्म लिङ्गदेह रूपमें कल्पित होता है ॥32॥
(1) विवर्त्त – मूल वस्तुमें ही अन्य वस्तुके होनेके भ्रमको विवर्त कहते हैं, जैसे रज्जु सर्पका भ्रम ।
यत्रे सदसद्रूपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा |
अविद्ययात्मनि कृते इति तद्ब्रह्म-दर्शनम्॥33॥
यत्र – जब भी ; इमे – इन सबमें ; सत् – असत् – स्थूल तथा सूक्ष्म ; रूपे – रूपों में ; प्रतिसिद्धे – नष्ट होने पर ; स्व – संविदा – आत्मसाक्षात्कार से ; अविद्या – अज्ञान से ; आत्मनि – आत्मा में ; कृते – आरोपित होने पर ; इति – इस प्रकार ; तत् – अर्थात् ; ब्रह्म – दर्शनम् – परम को देखने की प्रक्रिया ।
उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्याके कारण ही आत्मा (जीव) में आरोपित होते हैं। जिस अवस्थामें आत्म-स्वरूपके सम्पूर्ण ज्ञानके प्रभावसे जीवका यह अविद्या द्वारा रचित आरोप दूर हो जाता है, उसी समय आत्मा (जीव ) का चिदानन्दमय ब्रह्मसे साक्षात्कार होता है॥33॥
यद्येषोपरता देवी माया वैशारदी मतिः ।
सम्पन्न एवेति विदुर्महिम्नि स्वे महीयते ॥34॥
यदि – यदि, तथापि ; एषा – वे ; उपरता – शांत हो गए ; देवी माया – मायावी शक्ति ; वैशारादि – ज्ञान से परिपूर्ण ; मति : – ज्ञान से ; संपन्न: – युक्त ; एव – निश्चय ही ; इति – इस प्रकार ; विदु : – जानकार ; महिम्नि – महिमा में ; स्वे – आत्मा में ; महीयते – स्थित होकर ।
तत्त्ववेत्ता जन इस बातसे अवगत हैं कि जब श्रीभगवान्की कृपासे उनकी दैवी-अविद्यारूपी माया दूर हो जाती है, तब जीव स्थूल सूक्ष्म उपाधिसे रहित होकर श्रीभगवान्में मतियुक्त अपने परमानन्द स्वरूपमें विराजित हो जाता है। अपनी ऐसी महिमामें स्थित जीव ही पूज्य होते हैं, अन्यथा अपनी महिमासे भ्रष्ट होनेपर वे निन्दनीय हो जाते हैं ॥34॥
एवं जन्मानि कर्माणि ह्यकर्त्तुरजनस्य च ।
वर्णयन्ति स्म कवयो वेदगुह्यानि हृत्पतेः ॥35॥
एवम् – इस प्रकार ; जन्मनि – जन्म ; कर्माणि – कर्म ; हि – निश्चय ही ; अकर्ताः – निष्क्रिय का ; अजनस्य – अजन्मे का ; च – तथा ; वर्णयन्ति – वर्णन करो ; स्म – अतीत में ; कवयः – विद्वानों का ; वेद – गुह्यानि – वेदों द्वारा अप्राप्य ; हृत् – पातेः – हृदय के स्वामी का ।
श्रीभगवान्की आविर्भाव आदि लीलाएँ जीवके जन्मादिकी भाँति माया-कल्पित नहीं, अपितु मायासे अतीत हैं। यद्यपि वेदोंमें उन अन्तर्यामी श्रीविष्णुके दिव्य जन्म और कर्मको अति रहस्यपूर्ण और परम उपादेय रूपमें भलीभाँति आवृत करके स्थापित किया गया है, तथापि रसिकजन निश्चय ही उन अलौकिक लीलाओंका कीर्त्तन करते हैं॥35॥
स वा इदं विश्चममोघलीलः
सृजत्यवत्यत्ति न सज्जतेऽस्मिन् ।
भूतेषु चान्तर्हित आत्मतन्त्र:
षाड्वर्गिकं जिघ्रति षड्गुणेश: ॥36॥
सः – परमेश्वर ; वा – बारी-बारी से ; इदम् – यह ; विश्वम् – प्रकट हुए ब्रह्माण्ड ; अमोघ – लीलाः – जिसके कार्य निष्कलंक हैं ; सृजाति – रचता है ; अवति अत्ती – पालन करता है और संहार करता है ; न – नहीं ; सज्जाते – उससे प्रभावित होता है ; अस्मिन् – उनमें ; भूतेषु – समस्त जीवों में ; च – भी ; अन्तर्हितः – भीतर रहने वाला ; आत्म – तन्त्रः – स्वतन्त्र ; षट – वर्गिकम् – अपने ऐश्वर्यों की समस्त शक्तियों से युक्त ; जिघ्रति – बाह्य रूप से आसक्त, सुगन्धि को सूँघने के समान ; षट – गुण – ईशः – छहों इन्द्रियों का स्वामी ।
अनुवाद – भगवान, जिनके कार्य हमेशा निष्कलंक रहते हैं, वे छह इंद्रियों के स्वामी हैं और छह ऐश्वर्यों से पूर्ण सर्वशक्तिमान हैं। वे प्रकट ब्रह्मांडों की रचना करते हैं, उनका पालन करते हैं और बिना किसी प्रभाव के उनका संहार करते हैं। वे प्रत्येक जीव के भीतर हैं और हमेशा स्वतंत्र हैं।
न चास्य कश्चिनिपुनेन धातु-
रवैति जन्तु: कुम्नीष उति:।
नामानि रूपाणि मनोवचोभिः
संतन्वतो नटचर्यामिवाज्ञः ॥37॥
न – नहीं ; च – तथा ; अस्य – उनका ; कश्चित – कोई भी ; निपुणेन – निपुणता से ; धातु : – सृष्टिकर्ता का ; अवति – जान सकता है ; जन्तु : – जीव ; कुमनीष : – अल्प ज्ञान से ; ऊति : – भगवान के कार्यकलाप ; नामानि – उनके नाम ; रूपाणि – उनके रूप ; मन : – वाचोभि : – मानसिक चिन्तन या वाणी के बल से ; सन्तन्वत : – प्रदर्शित करके ; नट – कार्यम् – नाटकीय कार्य ; इव – जैसा ; अज्ञ : – मूर्ख ।
अनुवाद – अल्पज्ञ मूर्ख लोग भगवान् के रूप, नाम तथा कार्यकलापों की दिव्य प्रकृति को नहीं जान सकते, जो नाटक में अभिनेता की भाँति अभिनय कर रहे हैं। वे ऐसी बातें न तो अपनी कल्पनाओं में, न ही अपने शब्दों में व्यक्त कर सकते हैं।
स वेद धातु: पदवीं परस्य
दूरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणे:।
योऽमायाया सन्तत्यानुवृत्त्या
भजेत तत्पादसरोगन्धम् ॥38॥
सः – वही ; वेद – जान सकता है ; धातुः – स्रष्टा की ; पदविम् – महिमा को ; परस्य – दिव्यता को ; दुरन्त – वीर्यस्य – महान शक्तिशाली को ; रथ – अंग – पणेः – भगवान कृष्ण को, जो अपने हाथ में रथ का पहिया धारण करते हैं ; यः – जो ; अमाया – बिना किसी संकोच के ; सन्ततया – बिना किसी अन्तराल के ; अनुवृत्य – अनुकूलता से ; भजेत – सेवा करता है ; तत् – पाद – उनके चरणों की ; सरोज – गन्धम – कमल की सुगन्ध को ।
अनुवाद- केवल वे ही जो भगवान कृष्ण के चरणकमलों की अनन्य, अविच्छिन्न, अनुकूल सेवा करते हैं, जो अपने हाथ में रथ का पहिया धारण करते हैं, वे ही ब्रह्माण्ड के रचयिता को उनकी पूर्ण महिमा, शक्ति तथा उत्कृष्टता में जान सकते हैं।
अथेः धन्य भगवंत इत्थं
यद्वासुदेवेऽखिललोकनाथे।
कुर्वन्ति सर्वात्मात्मभावं
न यत्र भूय: पूर्व उग्र: ॥39॥
अथ – इस प्रकार ; इहा – इस संसार में ; धन्याः – सफल ; भगवन्तः – पूर्णतया ज्ञात ; इत्थम् – ऐसा ; यत् – जो ; वासुदेवे – भगवान् को ; अखिल – सर्वव्यापी ; लोक – नाते – समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी को ; कुर्वन्ति – प्रेरित करता है ; सर्व – आत्मकं – शत-प्रतिशत ; आत्मा – आत्मा ; भावम् – परमानंद ; न – कभी नहीं ; यात्रा – जिसमें ; भूयः – पुनः ; परिवर्तः – पुनरावृत्ति ; उग्रः – भयंकर ।
अनुवाद- इस संसार में केवल ऐसी जिज्ञासा करके ही मनुष्य सफल और पूर्णतया ज्ञानी हो सकता है, क्योंकि ऐसी जिज्ञासाएँ उन भगवान् के प्रति दिव्य प्रेम उत्पन्न करती हैं, जो समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं, तथा जन्म-मृत्यु की भयंकर पुनरावृत्ति से शत-प्रतिशत मुक्ति की गारंटी देती हैं।
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम्।
उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवानुऋषि:।
निःश्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत् ॥40॥
इदम् – यह ; भागवत – वह पुस्तक जिसमें भगवान और उनके शुद्ध भक्तों का वर्णन है ; नाम – नाम का ; पुराणम् – वेदों का पूरक ; ब्रह्म – सम्मितम् – भगवान श्रीकृष्ण का अवतार ; उत्तम – श्लोक – भगवान के व्यक्तित्व का ; कारितम् – गतिविधियाँ ; चकार – संकलित ; भगवान – भगवान के अवतार ; ऋषिः – श्री व्यासदेव ; निश्श्रेयसाय – परम हित के लिए ; लोकस्य – सभी लोगों का ; धन्यम् – पूर्णतः सफल ; स्वस्ति – अयनम् – सर्व-आनन्दमय ; महत् – सर्वपरिपूर्ण ।
अनुवाद- यह श्रीमद्भागवतम् भगवान का साहित्यिक अवतार है, तथा इसका संकलन भगवान के अवतार श्रील व्यासदेव ने किया है। यह सभी लोगों के परम कल्याण के लिए है, तथा यह सर्व-सफल, सर्व-आनंदमय तथा सर्व-पूर्ण है।
तदिदं ग्रह्यामास सुतमात्मवतं वरम्।
सर्ववेदेतिहासनां सारं सारं समुद्धृतम् ॥41॥
तत् – वह ; इदम् – यह ; ग्राह्याम् आस – स्वीकार किया गया ; सुतम् – अपने पुत्र को ; आत्मवताम् – आत्मसिद्धों का ; वरम् – परम आदरणीय ; सर्व – सब ; वेद – वैदिक साहित्य (ज्ञान की पुस्तकें) ; इतिहासाणाम् – समस्त इतिहासों का ; सारम् – मलाई ; सारम् – मलाई ; समुद्धृतम् – निकाला गया ।
अनुवाद- श्री व्यासदेव ने समस्त वैदिक साहित्य और ब्रह्माण्ड के इतिहास का सार निकालने के बाद इसे अपने पुत्र को सौंप दिया, जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्तियों में सर्वाधिक आदरणीय है।
स तु संश्रव्यमास महाराजं परीक्षितम्।
प्रायोपविष्टं गंगायां परितं परमर्षिभिः ॥42॥
सः – व्यासदेव के पुत्र ; तु – फिर ; संश्रवयाम् आस – उन्हें सुनाओ ; महा – राजाम् – सम्राट को ; परीक्षितम् – परीक्षित नाम के ; प्रया – उपविष्टम् – जो मृत्युपर्यन्त बिना अन्न-जल के बैठे रहे ; गंगायाम् – गंगा के तट पर ; परीतम – घिरे हुए ; परम – ऋषिभिः – महान ऋषियों द्वारा ।
पुनः इसी श्रीमद्भागवत पुराणका उन आत्मज्ञानी – शिरोमणि श्रीशुकदेव गोस्वामीने गङ्गाके तटपर परम वैराग्यके कारण आमरण अनशनपर बैठे तथा महर्षियोंसे घिरे हुए महाराज परीक्षित्को श्रवण कराया था॥24॥
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ।
कलौ नष्टदृशामेषः पुराणार्कोऽधुनोदितः ॥43॥
कृष्णे – कृष्ण के ; स्व – धाम – अपने धाम ; उपगते – लौटकर ; धर्म – धर्म ; ज्ञान – ज्ञान ; आदिभिः – सम्मिलित ; सह – सहित ; कलौ – कलियुग में ; नष्ट – दृशाम् – दृष्टि खो चुके पुरुषों के ; एषः – ये सब ; पुराण – अर्कः – सूर्य के समान तेजस्वी पुराण ; अधूना – अभी – अभी ; उदितः – उत्पन्न हुआ है ।
धर्मके संस्थापक भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा अपनी लीलाको सम्वरण करके धर्म- ज्ञानादि षडैश्वर्योंके साथ अपने धाममें गमन करनेपर इस कलिकालमें अज्ञानके अन्धकारसे अन्धे हो रहे लोगोंको दिव्य-ज्ञानका आलोक प्रदान करनेके लिए इस श्रीमद्भागवतरूप पुराण सूर्यका उदय हुआ है। श्रीकृष्णरूप सूर्यके अस्त होनेपर श्रीमद्भागवतरूप पुराणसूर्य उदित हुए हैं ॥ 43॥
तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रर्षेर्भूरितेजसः ।
अहञ्चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तदनुग्रहात् ।
सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाधीतं यथामति ॥ 44॥
तत्र – वहाँ ; कीर्तयतः – सुनाते हुए ; विप्राः – हे ब्राह्मणों ; विप्र – ऋषेः – महान् ब्राह्मण ऋषि से ; भूरि – बहुत ; तेजसः – शक्तिशाली ; अहम् – मैं ; च – भी ; अध्यगमम् – समझ सका ; तत्र – उस सभा में ; निविष्टः – पूर्णतया एकाग्र होकर ; तत् – अनुग्रहात् – उनकी कृपा से ; सः – वही बात ; अहम् – मैं ; वः – तुम्हें ; श्रावयिष्यामि – सुनाऊँगा ; यथा – अधीतम यथा – मति – जहाँ तक मेरी अनुभूति है ।
हे शौनकादि ब्राह्मणो ! उस समय परीक्षित्की सभामें उपस्थित रहकर मैंने भी महा- तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ श्रीशुकदेवके मुखसे कीर्त्तित इस कथाको उनकी कृपाके प्रभावसे सुना था । अपने गुरुदेव श्रीशुकदेव गोस्वामीके निकट मैंने जिस रूपमें इस श्रीमद्भागवत कथाको सुना और जिस रूपमें इसका अनुभव किया, उसीके अनुसार ही मैं इसे आपको सुनाऊँगा ॥44॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे ब्रह्मसूत्र – भाष्ये पारमहंस्यां संहितायां वैयासिक्यां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने जन्मगुह्यं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥