सम्बन्ध – श्रीभगवान् अभिधेय – श्रीभक्ति, प्रयोजन – प्रेम सम्बन्ध–श्रीभगवान्
व्यास उवाच
इति सम्प्रश्न- संहृष्टो विप्राणां रौमहर्षणिः
प्रतिपूज्य वचस्तेषां प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ १॥
व्यासः उवाच – व्यास ने कहा ; इति – इस प्रकार ; संप्रश्न – उत्तम प्रश्नों से ; संहृष्टः – पूर्णतया संतुष्ट होकर ; विप्राणाम् – वहाँ उपस्थित ऋषियों के ; रौमहर्षणिः – रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा के ; प्रतिपूज्य – उनका धन्यवाद करके ; वाचः – वचन ; तेषाम् – उनके ; प्रवक्तुम् – उन्हें उत्तर देने के लिए ; उपाक्रमे – प्रयत्न किया ।
शौनकादि ब्राह्मणोंके इन प्रश्नोंको सुनकर रोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवा सूत अत्यधिक सन्तुष्ट हुए । उन्होंने ऋषियोंके इन सर्व – हितकारी वचनोंका अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहने लगे – ॥१॥
श्रीसूत उवाच –
यं प्रवव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु-
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥ २ ॥
सूतः – सूत गोस्वामी ; उवाच – कहा ; यम् – जिसे ; प्रव्रजन्तम् – संन्यास आश्रम में जाते समय ; अनुपेतम् – यज्ञोपवीत द्वारा सुधारे बिना ; अपेत – अनुष्ठानों को किए बिना ; कृत्यम् – नियत कर्तव्यों से ; द्वैपायनः – व्यासदेव ; विरह – वियोग ; कटारः – भयभीत होकर ; आजुहावा – चिल्लाया ; पुत्र इति – हे मेरे पुत्र ; तत् – मयातया – उस प्रकार लीन होकर ; तारवः – सारे वृक्षों ने ;अभिनेदुः – उत्तर दिया ; तम – उसकी ओर ;– सारे ; भूत – जीव ; हृदयम् – हृदय ; मुनीम – मुनि ; अनात: अस्मि – प्रणाम करें ।
श्रीसूत गोस्वामीने कहा- जन्मके साथ ही उपनयनादि संस्कारके अनुष्ठानसे रहित अपने पुत्र श्रीशुकदेवजीको संन्यासके उद्देश्यसे अकेले ही वनमें जाते देखकर विरहकातर श्रीव्यासने ‘पुत्र-पुत्र’ कहकर उन्हें उच्चस्वरसे पुकारा था । उस समय शुकभावमय ( अर्थात् शुकमें तन्मय) वृक्षोंने ही प्रतिध्वनिके छलसे विरहमें कातर पिताको उत्तर दिया था। अपने योगबलके प्रभावसे सभी प्राणियोंके हृदयमें विराजमान उन श्रीशुकदेव मुनिको मैं प्रणाम करता हूँ । (जिस प्रकार उन्होंने जड़ वृक्षोंमें प्रविष्ट होकर प्रत्युत्तर दिया था, उसी प्रकार वे मेरे भी अन्तःकरणमें प्रवेश करके मेरे मुखसे भागवत कहें ) ॥२॥
यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक-
मध्यात्म – दीपमतितितीर्षतां तमोऽन्धम् ।
संसारिणां करुणयाह पुराणगुह्यं
तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम् ॥ ३॥
यः – वह जो ; स्व – अनुभवम् – स्वयं को आत्मसात् कर चुका है (अनुभव किया है) ; अखिल – चारों ओर ; श्रुति – वेदों को ; सारम् – पवित्र ; एकम् – एकमात्र ; अध्यात्म – दिव्य ; दीपम् – प्रकाश ; अतीतिर्शताम् – जीतने की इच्छा रखने वाला ; तमः अन्धम् – घोर अंधकारमय भौतिक जगत ; संसारिणाम् – भौतिकवादी पुरुषों का ; करुणाया – अहैतुकी दया से ; आह – कहा ; पुराण – वेदों का पूरक ; गुह्यम् – अत्यंत गोपनीय ; तम – उसके लिए ; व्यास – सुनुम – व्यासदेव के पुत्र ; उपायामि – नमस्कार करता हूँ ; गुरुम् – गुरु को ; मुनिनाम् – महान ऋषियों को ।
विषयोंमें आसक्त जो लोग संसाररूप गहन अज्ञानसे पार जानेके इच्छुक हैं, उन पर कृपा करनेके लिए वेद और उपनिषदादिका सारस्वरूप अनुपम यह श्रीमद्भागवत आत्म-तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले दीपकके समान है। जिन्होंने समस्त पुराणोंके रहस्यस्वरूप गोपनीय इस श्रीमद्भागवतकी रस – उत्कर्षमयी महिमाको अपने अनुभव द्वारा बोला था, ऐसे भागवतोपदेशक मुनियोंके गुरु व्यासपुत्र श्रीशुकदेव गोस्वामीकी मैं शरण लेता हूँ ॥ ३ ॥
नारायणं नमस्कृत्य नरञ्चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ ४ ॥
नारायणम् – भगवान् को ; नमः – कृत्या – सादर नमस्कार करके ; नाराम् च एव – तथा नारायण ऋषि को ; नारा – उत्तमम् – श्रेष्ठतम मनुष्य को ; देवीम् – देवी ; सरस्वतीम् – विद्या की स्वामिनी ; व्यासम् – व्यासदेव ; ततः – तत्पश्चात ; जयम् – जो कुछ जीतने के लिए है ; उदीरयेत् – घोषित किया जाए ।
भगवान्के अवतार पुरुषोत्तम नारायण और नर ऋषि इस शास्त्रके दो अधिष्ठातृ देवता हैं, पराविद्या रूपिणी देवी सरस्वती इस शास्त्रकी शक्ति हैं तथा व्यासदेव इस शास्त्रके ऋषि हैं- इन सबको प्रणाम करके ही अन्तःकरणके समस्त विकारोंपर विजय प्राप्त करनेके उपायस्वरूप इस श्रीमद्भागवत महापुराणका पाठ करना चाहिये ॥४॥
मुनयः साधु पृष्टोऽहं भवद्भिर्लोकमङ्गलम् ।
यत्कृतः कृष्णसंप्रश्नो येनात्मा सुप्रसीदति ॥ ५ ॥
मुनयः – हे मुनियों ; साधु – यह प्रासंगिक है ; पृष्ठः – प्रश्न किया गया ; अहम् – मेरे द्वारा ; भवद्भिः – आप सभी के द्वारा ; लोक – जगत् ; मंगलम् – कल्याण ; यत् – क्योंकि ; कृतः – बनाया गया ; कृष्ण – भगवान् ने ; सम्प्रश्नः – प्रासंगिक प्रश्न ; येन – जिससे ; आत्मा – स्वयं ; सुप्रसीदति – पूर्णतया प्रसन्न हो ।
हे ऋषियो! आपके द्वारा किये गये सभी प्रश्न उत्तम हैं, अतः वे समस्त भुवनका मङ्गल करनेवाले हैं। आपके ये प्रश्न श्रीकृष्ण विषयक होनेके कारण आत्माको सम्पूर्ण रूपसे प्रसन्न (सन्तुष्ट ) करनेवाले हैं॥५॥
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥ ६ ॥
सः – वह ; वै – निश्चय ही ; पुंसाम् – मनुष्यों के लिए ; परः – उत्तम ; धर्मः – वृत्ति ; यतः – जिससे ; भक्तिः – भक्तिमय सेवा ; अधोक्षजे – परब्रह्म तक ; अहैतुकी – अकारण ; अप्रतिहता – अखंड ; यया – जिससे ; आत्मा – स्वयं ; सुप्रसीदति – पूर्णतया संतुष्ट हो जाती है ।
जिस धर्ममें इन्द्रिय- ज्ञानसे अतीत भगवान् श्रीकृष्णमें लौकिक कामनासे रहित नित्य – निरन्तरमयी श्रवण – कीर्त्तन आदिरूप ऐकान्तिकी स्वाभाविकी और निरपेक्ष भक्ति बनी रहे, वही मनुष्यमात्रके लिए परम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ धर्म है-ऐसी भक्तिके बलसे ही समस्त अनर्थ दूर हो जाते हैं और आत्मा सुप्रसन्न हो जाती है॥६॥
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानञ्च यदहैतुकम् ॥७॥
वासुदेवे – कृष्ण को ; भगवती – भगवान के प्रति ; भक्ति – योगः – भक्ति सेवा का संपर्क ; प्रयोजितः – लगाया जा रहा है ; जनयति – उत्पन्न करता है ; आशु – बहुत जल्द ; वैराग्यम् – वैराग्य ; ज्ञानम् – ज्ञान ; सीए – और ; यत् – जो ; अहैतुकम् – अकारण ।
भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णके प्रति परम-धर्म अर्थात् (प्रेम) भक्तिको उदय करानेकी चेष्टारूप श्रवण – कीर्त्तन आदि (साधन) भक्ति योगके अनुष्ठित होते-होते अनायास ही विषयोंसे वैराग्य हो जाता है तथा अभेद-मोक्षकी कामनासे रहित भगवान्को प्राप्त करानेवाले शुद्ध अद्वयज्ञानका उदय होता है ॥७॥
धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेन- कथासु यः ।
नोत्पादयेद् यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ ८ ॥
धर्मः – कार्य ; स्वनुष्ठितः – अपनी स्थिति के अनुसार किया गया ; पुंसाम् – मानवजाति का ; विश्वक्सेन – भगवान् के (पूर्णांश) का ; कथासु – के संदेश में ; यः – जो है ; न – नहीं ; उत्पन्नेत् – उत्पन्न करता है ; यदि – यदि ; रतिम – आकर्षण ; श्रमः – व्यर्थ परिश्रम ; एव – केवल ; हि – निश्चय ही ; केवलम् – पूर्णतया ।
मनुष्य द्वारा वर्णाश्रमरूप अपने धर्मका ठीक-ठीक पालन करनेपर भी यदि उसकी श्रीभगवानकी लीला-कथाओंमें रति अर्थात् आसक्तिरूप रुचि उत्पन्न नहीं होती है, तो उसका स्वधर्म पालन निश्चित रूपसे केवलमात्र श्रम ही है। अतः स्वधर्मको छोड़कर श्रवण – कीर्त्तनादि भक्तिरूप परमधर्मका ही पालन करना चाहिये ॥ ८ ॥
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते ।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥ ९॥
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता ।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥ १०॥
धर्मस्य – वृत्तिगत कार्य ; हि – निश्चय ही ; आपवर्ग्यस्य – परम मोक्ष ; न – नहीं ; अर्थ: – अन्त ; अर्थाय – भौतिक लाभ के लिए ; उपकल्पते – के लिए है ; न – दोनों में से किसी के लिए नहीं ; अर्थस्य – भौतिक लाभ के लिए ; धर्म – एक – अन्तस्य – परम वृत्तिगत कार्य में लगे हुए के लिए ; काम : – इन्द्रियतृप्ति ; लाभाय – प्राप्ति ; हि – ठीक ; स्मृत : – महान ऋषियों द्वारा वर्णित है । कामस्य – इच्छाओं का ; न – नहीं ; इन्द्रिय – इन्द्रियों का ; प्रीति – तृप्ति ; लाभः – लाभ ; जीवेत् – आत्मरक्षा ; यावता – इतना ही ;– जीव की ; तत्त्व – परम सत्य ; जिज्ञासा – जिज्ञासाएँ ; न – नहीं ; अर्थः – अन्त ; यः च इहा – अन्य जो कुछ भी ; कर्मभिः – वृत्ति द्वारा।
( नवम और दशम श्लोकमें अन्यान्य धर्मोंके साथ परमधर्म के पार्थक्यका विचार कथित हुआ है – )
कर्मीजन अपने वर्णाश्रमधर्मको ही परमधर्म मानते हैं, किन्तु उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। उनके मतानुसार धर्मका फल अर्थ है, अर्थका फल काम है और कामका फल जड़ – इन्द्रियोंका भोग- विलास है । भोग-विलासमें इन्द्रियोंकी प्रसन्नता तभी तक रहती है, जब तक जीवका औपाधिक नश्वर जीवन रहता है। जब तक तत्त्व-जिज्ञासाका अभाव रहता है, तभी तक जीवकी इन्द्रिय-भोगकी चेष्टा रहती है और इन्द्रियाधिपति भगवान् श्रीहृषीकेशके विषयमें कोई प्रयत्न नहीं होता। धर्मका फल विषयभोग नहीं, बल्कि मोक्ष है । अर्थ भी केवल धर्मके लिए है, भोगविलासके लिए नहीं । इस जगत् में स्वर्गादिकी प्राप्तिके लिए जो नित्य – नैमित्तिक अनुष्ठान किये जाते हैं, वह भी प्रयोजन नहीं है । भगवत् – जिज्ञासा ही जीवनका एकमात्र मुख्य प्रयोजन है ॥ ९ – १०॥
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते॥११॥
वदन्ति – वे कहते हैं ; तत् – वह ; तत्त्व – विदः – विद्वान आत्माएँ ; तत्त्वम् – परम सत्य ; यत् – जो ; ज्ञानम् – ज्ञान ; अद्वयम् – अद्वैत ; ब्रह्म इति – ब्रह्म के रूप में जाना जाता है ; परमात्मा इति – परमात्मा के रूप में जाना जाता है ; भगवान इति – भगवान के नाम से जाने जाते हैं ; शब्द्यते – ऐसा लगता था ।
अद्वयज्ञान अर्थात् एक अद्वितीय वास्तव – वस्तुको ही तत्त्ववेत्ताजन परमार्थ कहते हैं । साधकोंके विभिन्न भाव-भेदसे वह एक ही तत्त्व – वस्तु तीन नामोंसे जानी जाती है-ज्ञानीके निकट चिन्मात्र ज्योतिःपुञ्ज ब्रह्मरूपमें, योगियोंके लिए आकारसे युक्त चिन्मय परमात्माके रूपमें तथा भक्तोंके लिए स्वयं स्वरूप श्रीभगवान्के रूपमें प्रकाशित होती है॥११॥
तच्छ्रद्दधाना मुनयो ज्ञानवैराग्ययुक्तया ।
पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भक्त्या श्रुतगृहीतया ॥ १२ ॥
तत् – वह ; श्रद्धाधानः – गम्भीर जिज्ञासु ; मुनयः – ज्ञान ; वैराग्य – वैराग्य ; युक्तया – भलीभाँति सुसज्जित ; पश्यन्ति – देखता है ; आत्मनि – अपने अन्दर ; च – तथा ; आत्मानम् – परमात्मा ; भक्त्या –भक्ति में ; श्रुत – वेद ; गृहीतया – भलीभाँति ग्रहणकिया हुआ ।
श्रीगुरुमुखसे श्रौतपथके (१) सेवनके फलसे अर्थात् शास्त्रोंके श्रवणसे जब सुकृति प्राप्त होती है तथा फिर क्रमशः सम्बन्धज्ञानके उदित होनेपर हृदय विषय – भोगोंसे रहित होकर शुद्ध हो जाता है, तब अप्राकृत वस्तुमें सुदृढ़ विश्वाससे युक्त मुनि अर्थात् कीर्त्तनकारी अपने शुद्ध हृदयरूप वृन्दावनमें भक्तिका आश्रय करके भगवान्में ही परमात्मा और ब्रह्मरूप तत्त्व – वस्तुकी उपलब्धि करते हैं॥१२॥
अतः पुंभिर्द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रम विभागशः ।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम् ॥ १३ ॥
अतः – इस प्रकार ; पुम्भिः – मनुष्य द्वारा ; द्विज – श्रेष्ठाः – हे द्विजों में श्रेष्ठ ; वर्ण – आश्रम – चार वर्णों तथा चार आश्रमों की संस्था ; विभागाः – विभाग द्वारा ; स्वनुष्ठितस्य – अपने – अपने निर्धारित कर्तव्यों के अनुसार ; धर्मस्य – व्यवसायिक ; संसिद्धिः – सर्वोच्च सिद्धि ; हरि – भगवान् को ; तोषणम् – प्रसन्न करने वाला ।
अतएव हे शौनकादि ऋषियो ! मनुष्य द्वारा वर्णभेद अथवा आश्रम भेदसे जिस किसी भी विभागमें स्थित होकर त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम) के अन्तर्गत स्वधर्मका उत्तम रूपसे अनुष्ठान करनेका चरम फल श्रीहरिको सन्तुष्ट करना ही है । श्रीहरिके सन्तुष्ट होनेसे ही समस्त धर्मोकी सम्पूर्ण सिद्धि होती है ॥ १३ ॥
(१) भजनीय वस्तुका सेवन- धर्म ही श्रौतपथ है।
तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः ।
श्रोतव्यः कीर्त्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा ॥ १४ ॥
तस्मात् – अतः ; एकेन – एक के द्वारा ; मनसा – मन के ध्यान से ; भगवान् – भगवान् को ; सात्वताम् – भक्तों के ; पतिः – रक्षक ; श्रोतव्यः – सुनने योग्य है ; कीर्तितव्यः – महिमा करने योग्य है ; च – तथा ; ध्येयः – स्मरण करने योग्य है ; पूज्यः – पूजा करने योग्य है ; च – तथा ; नित्यादा – निरंतर ।
अतः श्रीहरिको प्रसन्न करनेके लिए सदा-सर्वदा एकान्त चित्तसे कर्म-ज्ञानादिके अनुष्ठानकी चञ्चलताको त्यागकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी कामनाकी गन्धसे भी रहित होकर सर्वप्रथम श्रीगुरुमुखसे भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरिकी कथाओंका श्रवण करना चाहिये। तत्पश्चात् उन हरिकथाओंका कीर्त्तन एवं हरि विषयक स्मरण करना चाहिये। ऐसा होनेपर भजनीय वस्तु श्रीहरिका पूजारूपमें नित्य ही अनुशीलन सम्भवपर है ॥ १४ ॥
यदनुध्यासिना युक्ताः कर्म ग्रन्थिनिबन्धनम्।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्यात् कथारतिम् ॥ १५॥
यत् – जो ; अनुध्या – स्मरण ; असिन – तलवार ; युक्ताः – सुसज्जित होकर ; कर्म – प्रतिक्रियात्मक कार्य ; ग्रन्थि – गाँठ ; निबन्धनम् – आपस में जोड़ता है ; छिन्दन्ति – काट देता है ; कोविदः – बुद्धिमान ; तस्य – उसका ; कः – जो ; न – नहीं ; कुर्यात् – करेगा ; कथा – संदेश ; रतिम – ध्यान ।
विवेकके अभावमें हरिकथाका श्रवण – कीर्त्तन – स्मरण आदि न कर जीव अपनेको मायाका भोक्ता मान लेता है । किन्तु जिन भगवान्के नित्य-निरन्तर स्मरणरूप खड्ग (तलवार) से विवेकीगण अहङ्कारजनक फल-भोगमयी समस्त कर्मोंकी गाँठोंका छेदन कर डालते हैं, ऐसे भगवान्की कथामें किसकी रुचि नहीं होगी ? ॥ १५ ॥
शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेव – कथारुचिः ।
स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थनिषेवणात् ॥ १६ ॥
शुश्रुषोः – जो श्रवण में लगा हुआ है ; श्रद्धाधानस्य – ध्यानपूर्वक ; वासुदेव – वासुदेव के प्रति आदरपूर्वक ; कथा – संदेश ; रुचिः – आत्मीयता ; स्यात् – संभव होता है ; महत् – सेवया – शुद्ध भक्तों की सेवा से ; विप्राः – हे द्विजों ; पुण्य – तीर्थ – जो समस्त पापों से शुद्ध हो गए हैं ; निषेवनात् – सेवा से ।
हे शौनकादि ऋषियो ! विष्णुतीर्थ ( भगवत् – भक्तोंकी अधिष्ठित भूमि) की परिक्रमा तथा सद्गुरु और कृष्ण भक्तोंकी सेवासे ही साधु, गुरु एवं शास्त्रके वचनोंमें श्रद्धा होती है। ऐसे श्रद्धावानजन जब – कथाको श्रवण करनेके अभिलाषी होते हैं, तब उनकी भगवत्-भगवान् श्रीवासुदेवमें रुचि उत्पन्न होती है॥ १६॥
शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्त्तनः।
हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत् सताम्॥१७॥
शृण्वताम् – जिन्होंने भगवान् का संदेश सुनने की इच्छा विकसित कर ली है ; स्व – कथाः – उनके अपने शब्द ; कृष्णः – भगवान् का संदेश ; पुण्य – गुण ; श्रवण – सुनना ; कीर्तनः – कीर्तन ; हृदि अन्तः स्थितः – अपने हृदय में ; हि – निश्चय ही ; अभद्राणि – पदार्थ के भोग की इच्छा ; विधुनोति – शुद्ध करती है ; सुहृत् – उपकारक ; सततम् – सत्यवादियों की ।
श्रीकृष्णके नामोंका श्रवण और कीर्त्तन सभीको पवित्र करनेवाला हैं। वे श्रीकृष्ण अपनी अप्राकृत लीला – कथा अथवा नाम – गुण श्रवण करनेवालोंके हृदयमें अन्तर्यामी – चैत्यगुरुके रूपमें विराजित होकर हृदयकी पाप-वासनाओंको समूल नष्ट कर डालते हैं, क्योंकि वे साधुओंके एकमात्र नित्य हितैषी हैं ॥ १७॥
नष्टप्रायेष्व भद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।
भगवत्युत्तमः श्लोके भक्तिर्भवति नेष्ठिकी ॥ १८ ॥
नष्ट – नष्ट हो गया ; प्रायेषु – लगभग शून्य ; अभद्रेषु – जो कुछ भी अशुभ है ; नित्यम् – नियमित रूप से ; भागवत – श्रीमद्भागवत, या शुद्ध भक्त ; सेवया – सेवा करके ; भगवती – भगवान के प्रति ; उत्तम – दिव्य ; श्लोक – प्रार्थनाएँ ; भक्तिः – प्रेमपूर्ण सेवा ; भवति – अस्तित्व में आता है ; नैष्ठिकि – अपरिवर्तनीय ।
नित्य – निरन्तर श्रीमद्भागवतकी श्रवणकीर्त्तनादिरूप सेवा और भक्त-भागवतकी परिचर्यारूप सेवा करनेसे अशुभ वासनाओंका प्रायः नाश हो जाता है। तब मनुष्योंमें पुरुषोत्तम श्रीकृष्णके प्रति अचला एवं नैष्ठिकी भक्तिका उदय होता है ॥ १८॥
तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्च ये ।
चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति ॥ १९ ॥
तदा – उस समय ; राजः – रजोगुण में ; तमः – तमोगुण में ; भावः – स्थिति ; काम – वासना और इच्छा ; लोभ – लालसा ; अद्यः – दूसरे ; च – तथा ; ये – वे जो भी हों ; चेताः – मन ; एतैः – इनसे ; अनाविद्धम – प्रभावित हुए बिना ; स्थितम् – स्थिर होकर ; सत्व – सतोगुण में ; प्रसीदति – इस प्रकार पूर्णतया संतुष्ट हो जाता है ।
जिस समय नैष्ठिकी भक्ति उदित होती है, उस समय रजोगुण और तमोगुणसे उत्पन्न भजनमें विघ्न डालनेवाले छः शत्रु- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य – जात – रति (१) भक्तको आवृत नहीं कर पाते, क्योंकि उसका मन शुद्धसत्त्वमें निमग्न होनेके कारण दुःसङ्गसे प्रभावित नहीं होता। इस प्रकार शुद्ध निर्मल जीवात्मा दुर्गतिको प्राप्त न करके हरिसेवामयी चित्तवृत्तिमें अवस्थित होकर प्रसन्न हो जाता है॥१९॥
(१) जिसमें रति उत्पन्न हुई है।
एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः ।
भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसंगस्य जायते ॥२०॥
एवम् – इस प्रकार ; प्रसन्न् – सजीव ; मनसः – मन का ; भगवत् – भक्ति – भगवान् की भक्तिमय सेवा ; योगतः – सम्पर्क से ; भगवत् – भगवान् के सम्बन्ध में ; तत्त्व – ज्ञान ; विज्ञानम् – विज्ञानमय ; मुक्त – मुक्त ; संगस्य – संगति का ; जायते – प्रभावी होता है ।
इस प्रकार प्रत्येक क्षण भगवान् श्रीकृष्णका आसक्तिपूर्वक भजन करनेसे साधकका प्रशान्त चित्त आनन्दसे भर जाता है तथा कामादि वासनाओंसे रहित हो जाता है । तदुपरान्त श्रीभगवान्में प्रेममय भक्तियोगका उदय होनेपर साधकको भगवान् और उनकी समस्त शक्तियोंका विज्ञान अर्थात् साक्षात् अनुभूति होती है॥ २० ॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ २१ ॥
भिद्यते – छेदा हुआ ; हृदय – हृदय ; ग्रन्थियाँ : – गांठें ; छिद्यन्ते – टुकड़े-टुकड़े कर दिया ; सर्व – सब ; संशय : – संशय ; क्षियन्ते – समाप्त ; च – तथा ; अस्य – उसके ; कर्माणि – सकाम कर्मों की शृंखला ; दृष्टे – देखकर ; एव – निश्चय ही ; आत्मनि – स्वयं पर ; ईश्वरे – प्रभुत्व रखते हुए ।
इस प्रकार आत्माओंके आत्मा भगवान्के स्वरूपका साक्षात्कार होनेपर उस भगवत्-तत्त्ववेत्ताके हृदयकी गाँठ अर्थात् चित्-जड़ ग्रन्थनरूप अहङ्कार नष्ट हो जाता है, असम्भवादि सन्देहरज्जु छिन्न-भिन्न हो जाती है और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है ॥२१॥
अतो वै कवयो नित्यं भक्तिं परमया मुदा ।
वासुदेवे भगवति कुर्वन्त्यात्म- प्रसादनीम् ॥ २२ ॥
अतः – अत :; वै – अवश्य ; कवयः – सभी दिव्यवादी ; नित्यम् – अनादि काल से ; भक्तिम् – भगवान की सेवा ; परमाया – सर्वोच्च ; मुदा – अत्यंत प्रसन्नता से ; वासुदेव – श्री कृष्ण ; भगवती – भगवान का व्यक्तित्व ; कुर्वन्ति – प्रस्तुत करो ; आत्मा – स्वयं ; प्रसादानीम् – जो सजीव करता है ।
इसीलिए बुद्धिमान व्यक्ति निश्चय ही अति आनन्दपूर्वक नित्य निरन्तर भगवान् श्रीवासुदेवकी भक्ति (प्रेममयी सेवा) करते रहते हैं, क्योंकि ऐसी भक्ति आत्माको प्रसन्न करनेवाली है ॥ २२ ॥
सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तै-
र्युक्तः परः पुरुष एक इहास्य धत्ते ।
स्थित्यादये हरि – विरिञ्चि- हरेतिसंज्ञाः
श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्वतनोर्नृणां स्युः॥२३॥
सत्त्वम् – अच्छाई ; रजः – वासना ; तमः – अज्ञान का अंधकार ; इति – इस प्रकार ; प्रकृतिः – भौतिक प्रकृति के ; गुणः – गुण ; तैः – उनके द्वारा ; युक्तः – सम्बद्ध ; परः – दिव्य ; पुरुषः – व्यक्तित्व ; एकः – एक ; इहा अस्य – इस भौतिक जगत का ; धत्ते – स्वीकार करता है ; स्थिति – आदये – सृष्टि, पालन तथा संहार आदि के विषय में ; हरि – भगवान विष्णु ; विरिन्ची – ब्रह्मा ; हर – भगवान शिव ; इति – इस प्रकार ; संज्ञाः – विभिन्न लक्षण ; श्रेयांसि – परम लाभ ; तत्र – उसमें ; खलु – निस्संदेह ; सत्त्व – अच्छाई ; तनोः – रूप ; नृणाम् – मनुष्य का ; स्युः – प्राप्त ।
सत्व, रज और तम – ये तीन प्रकृतिके गुण हैं। इन तीन गुणोंके अधीश्वररूपमें एक परमपुरुष तुरीय (तीनों गुणोंसे अतीत ) श्रीनारायण अपनी माया – शक्तिके द्वारा इस विश्वका पालन, उत्पत्ति और ध्वंस करनेके लिए क्रमशः विष्णु, ब्रह्मा और शिव- ये तीन नाम धारण करते हैं। इनमेंसे सत्त्वगुणके विग्रह वासुदेव श्रीविष्णु ही भक्तोंका अभिलषित मङ्गल करते हैं, ब्रह्मा और शिव नहीं । अतः अन्य देवताओंकी उपासनाको छोड़कर एकमात्र भगवान् श्रीवासुदेवकी ही उपासना करनी चाहिये ॥ २३ ॥
पार्थिवाद्दारुणो धूमस्तस्मादग्निस्त्रयीमयः ।
तमसस्तु रजस्तस्मात् सत्त्वं यद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ २४ ॥
पार्थिवत् – पृथ्वी से ; दारुणः – लकड़ी ; धूमः – धुआँ ; तस्मात् – उससे ; अग्निः – अग्नि ; त्रयी – वैदिक यज्ञ ; मयाः – निर्मित ; तमसाः – तमोगुण से ; तु – परन्तु ; राजः – रजोगुण से ; तस्मात् – उससे ; सत्त्वम् – सतोगुण से ; यत् – जो ; ब्रह्म – परम सत्य ; दर्शनम् – अनुभूति ।
पृथ्वीका रूपान्तर चेतनाहीन जड़ लकड़ी प्रकाशसे रहित होती है, अतः उससे धुआँ श्रेष्ठ है, क्योंकि वह वस्तुका अल्पमात्र प्रकाशक और कर्मसाधक है। वस्तुके आभासरूप इस धुएँसे अग्नि श्रेष्ठ है, क्योंकि वह साक्षात् रूपसे तीनों वेदोंमें उक्त यज्ञ-यागादिके द्वारा सद्गति प्रदाता होनेके कारण क्रियासाधक और वस्तुकी प्रकाशक है। इसी प्रकार तमोगुण प्रकाशरहित और लयात्मक है। इसकी अपेक्षा सत्त्वगुणकी निकटतावशतः रजोगुण तमोगुणसे श्रेष्ठ है और उस सत्त्वाभास रजोगुणसे साक्षात् वस्तुका प्रकाशक होनेके कारण सत्त्वगुण श्रेष्ठ है। ब्रह्मके साक्षात् रूप- गुणके आविर्भावका द्वारस्वरूप होनेके कारण सत्त्वगुण भगवान्के दर्शन करानेवाला है। इसी प्रकारसे शिव-ब्रह्मादिमें विष्णु ही श्रेष्ठ हैं ॥ २४ ॥
भेजिरे मुनयोऽथाग्रे भगवन्तमधोक्षजम्।
सत्त्वं विशुद्धं क्षेमाय कल्पन्ते येऽनु तानिह ॥ २५ ॥
भेजिरे – सेवा की हुई ; मुनयः – ऋषियों की ; अथ – इस प्रकार ; अग्रे – पहले से ; भगवन्तम् – भगवान् की ; अधोक्षजम् – परात्पर ; सत्त्वम् – अस्तित्व ; विशुद्धम् – तीनों गुणों से ऊपर ; क्षेमाय – परम लाभ पाने के लिए ; कल्पन्ते – योग्य ; ये – उन ; अनु – अनुसरण करते हैं ; तान् – उन ; इहा – इस भौतिक जगत में ।
इसीलिए प्राचीन कालमें सत्त्वगुणयुक्त ऋषि केवल विशुद्ध सत्त्वमय मूर्ति – अप्राकृत वैकुण्ठाधीश्वर श्रीविष्णुकी उपासना किया करते थे। अतएव इस संसारमें जो सौभाग्यवान पुरुष उन्हीं भजन-परायण मुनियोंका अनुसरण करते हैं, वे भी चरम – कल्याणके पात्र बनते हैं ॥ २५ ॥
मुमुक्षवो घोररूपान् हित्वा भूतपतीनथ ।
नारायणकलाः शान्ता भजन्ति ह्यनसूयवः॥२६॥
मुमुक्षवः – मोक्ष चाहने वाले व्यक्ति ; घोर – भयानक, वीभत्स ; रूपान् – ऐसे रूपों को ; हित्वा – अस्वीकार करते हुए ; भूत – पतिन् – देवता ; अथ – इस कारण से ; नारायण – भगवान् की ; कलाः – पूर्ण अंश ; शान्तः – आनन्दमय ; भजन्ति – पूजा करते हैं ; हि – निश्चय ही ; अनसूयावः – ईर्ष्या रहित ।
अतएव अपने अनर्थोंको दूर करनेके इच्छुक लोग असत्- तृष्णाओंसे रहित होकर शान्त भावसे रहते हुए न तो किसीकी निन्दा करते हैं और न ही किसीमें दोष देखते हैं। वे भयङ्कर -आकृतिवाले तमोगुणी – रजोगुणी भूतों, प्रजापतियों और पितरों आदिकी उपासनाका त्याग करके भगवान् श्रीनारायणके अंश -कलावतारोंकी ही आराधना किया करते हैं ॥ २६॥
रजस्तमः प्रकृतयः समशीला भजन्ति वै ।
पितृभूत-प्रजेशादीन् श्रियैश्वर्य-प्रजेप्सवः॥ २७॥
राजाः – रजोगुणी ; तमः – तमोगुणी ; प्रकृत्यः – उस वृत्ति के ; सम – शीलः – समान कोटि के ; भजन्ति – पूजते हैं ; वै – वास्तव में ; पितर – पितरों को ; भूत – अन्य जीवों को ; प्रजेषा – आदिन् – ब्रह्माण्डीय शासन के नियन्ता ; श्रिया – संवर्धन ; ऐश्वर्य – धन और शक्ति ; प्रजा – संतान ; ईप्सवः – ऐसी इच्छा रखने वाले ।
किन्तु जो रजगुणी और तमोगुणी स्वभावके हैं, वे धन, ऐश्वर्य और सन्तानकी कामनासे पितर भूत और प्रजापति आदि लौकिक फल-प्रदान करनेवाले अपने-अपने इष्ट देवताओंकी उपासना किया करते हैं। इन लोगोंका स्वभाव भी अपने इष्ट देवताओंसे मिलता-जुलता होता है॥२७॥
वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः॥
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः ।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ॥ २८ ॥
वासुदेव – भगवान् ; पराः – परम लक्ष्य ;वेदः – प्रकट शास्त्र ; वासुदेव – भगवान् ; पराः – पूजा करने के लिए ; मखाः – यज्ञ ; वासुदेव – भगवान् ; पराः – प्राप्ति का साधन ; योगाः – रहस्यमय सामग्री ; वासुदेव – भगवान् ; पराः – उनके अधीन ; क्रियाः – सकाम कर्म; वासुदेव – भगवान् ; परम् – सर्वोच्च ; ज्ञानम् – ज्ञान ; वासुदेव – भगवान् ; परम् – सर्वोत्तम ; तपः – तपस्या ; वासुदेव – भगवान् ; परः – श्रेष्ठ गुण ; धर्मः – धर्म ; वासुदेव – भगवान् ; पराः – परम ; गतिः – जीवन का लक्ष्य ।
चारों वेदोंका तात्पर्य भगवान् वोसुदेव श्रीकृष्ण ही हैं, वेदोंमें उक्त समस्त यज्ञ यज्ञेश्वर श्रीविष्णुके उद्देश्यसे ही हैं, योगशास्त्र भी योगेश्वरेश्वर श्रीविष्णुके उद्देश्यसे हैं और योगशास्त्रोंमें कही गयी क्रियाओंका तात्पर्य भी श्रीविष्णुभक्ति ही हैं। इसी प्रकार ज्ञान – शास्त्र भी भगवान् श्रीवासुदेवको ही लक्ष्य करते हैं, ज्ञान और वैराग्य (तपस्या) भी हरिभक्तिके उद्देश्यसे ही हैं। दान- व्रतादि विषयक धर्मशास्त्रोंका तात्पर्य भी हरिभक्तिमें पर्यवसित होता है। अतएव स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिरूप अनित्य सुखोंका परित्याग करके हरिभक्तिरूप नित्यानन्द ही जीवनका परमलक्ष्य होना चाहिये ॥ २८॥
स एवेदं ससर्जाग्रे भगवानात्ममायया ।
सदसद्रूपया चासौ गुणमय्याऽगुणो विभुः ॥ २९ ॥
सः – वह ; एव – निश्चय ही ; इदम् – यह ; ससर्ज – निर्मित ; अग्रे – पहले ; भगवान् – भगवान् ; आत्म – माया – अपनी निजी शक्ति से ; सत् – कारण ; असत् – कार्य ; रूपया – रूपों से ; च – तथा ; असौ – वही भगवान ; गुण – माया – प्रकृति के गुणों में ; अगुणः – दिव्य ; विभुः – परम ।
ऐसे भगवान् स्वयं निर्गुण हैं, किन्तु उनकी बहिरङ्गा-शक्ति त्रिगुणमयी है। वे भगवान् सृष्टिके प्रारम्भमें कारणोदकशायी प्रथम पुरुषके रूपमें प्रथमतः कार्य-कारण रूपवाली अपनी माया – शक्तिके प्रति ईक्षणकर इस विश्वकी सृष्टि करते हैं॥२९॥
तया विलसितेष्वेषु गुणेषु गुणवानिव ।
अन्तः प्रविष्ट आभाति विज्ञानेन विजृम्भितः ॥ ३० ॥
तया – उनके द्वारा ; विलासिटेषु – यद्यपि कार्य में ; एषु – ये ; गुणेषु – प्रकृति के गुणों से ; गुणवान् – गुणों से प्रभावित ; इव – मानो ; अन्तः – भीतर ; प्रविष्टः – प्रविष्ट ; आभाति – प्रतीत होता है ; विज्ञानेन – दिव्य चेतना से ; विजृम्भितः – पूर्णतया प्रबुद्ध ।
भगवान् श्रीवासुदेव अपनी चित्-शक्तिके प्रभावसे परम स्वतन्त्र अधीश्वर हैं। यह वित्रितापूर्ण जड़ आकाशादि प्रपञ्चमय विश्व उनकी बहिरङ्गा माया- शक्तिसे उत्पन्न है । पुनः इस विश्वमें अन्तर्यामी रूपसे अनुप्रविष्ट होनेके कारण वे भगवान् सगुणके समान प्रकाशित होते हैं, किन्तु वास्तवमें वे ब्रह्माण्डके अन्तर्गत गुणातीत द्वितीय पुरुष गर्भोदशायी विष्णु हैं॥३०॥
यथा ह्यवहितो वह्निर्दारुष्वेकः स्वयोनिषु ।
नानेव भाति विश्वात्मा भूतेषु च तथा पुमान्॥३१॥
यथा – जितना ; हि – ठीक उसी प्रकार ; अवहिताः – से भरा हुआ ; वह्निः – अग्नि ; दारुषु – काष्ठ में ; एकः – एक ; स्व – योनिषु – अभिव्यक्ति का स्रोत ; नाना इव – विभिन्न सत्ताओं की तरह ; भाति – प्रकाशित करता है ; विश्व – आत्मा – परमात्मा के रूप में भगवान ; भूतेषु – जीवों में ; च – तथा ; तथा – उसी प्रकार ; पुमान् – परम पुरुष ।
अग्निका उत्पत्तिस्थान काष्ठ है तथा उसमें अग्नि व्याप्त रहती है, किन्तु प्रकाशके तारतम्यसे वह एक ही अग्नि विभिन्न प्रकार से प्रकाशित होती है। उसी प्रकार तृतीय पुरुष क्षीरोदकशायी विष्णु प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामी रूपसे रहकर अनेक प्रकारकी विचित्र विभूतियों (योनियों) के रूपमें प्रकाशित होते हैं॥३१॥
असौ गुणमयैर्भावैर्भूतसूक्ष्मेन्द्रियात्मभिः ।
स्वनिर्मितेषु निर्विष्टो भुङ्क्ते भूतेषु तद्गुणान् ॥ ३२ ॥
असौ – वह परमात्मा ; गुण – मयैः – प्रकृति के गुणों से प्रभावित ; भवैः – स्वाभाविक रूप से ; भूत – निर्मित ; सूक्ष्म – सूक्ष्म ; इन्द्रिय – इन्द्रियों द्वारा ; आत्मभिः – जीवों द्वारा ;- निर्मितेषु – अपनी ही रचना में ; निर्विष्टः – प्रवेश करके ; भुङ्क्ते – भोगने का कारण बनता है ; भूतेषु – जीवों में ; तत् – गुणान् – उन प्रकृति के गुणों को ।
वे विश्वात्मा लीलामय श्रीहरि विविध व्यूहोंका विस्तार करके पञ्चभूत, तन्मात्रा, इन्द्रिय और मनरूप त्रिगुणमय भावोंसे अपने द्वारा बनायी हुई देव – नर – तिर्यक् आदि योनियोंमें प्रविष्ट होकर जीवोंको उन-उन योनियोंके अनुरूप विषयोंका लीलाक्रमसे भोग कराते हैं॥३२॥
भावयत्येष सत्त्वेन लोकान् वै लोकभावनः ।
लीलावतारानुरतो देव-तिर्यङ्नरादिषु ॥ ३३॥
भवयति – पालन करता है ; एषः – इन सबको ; सत्ववेण – सतोगुणी ; लोकान् – सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ; वै – सामान्यतः ; लोक – भावनाः – समस्त ब्रह्माण्डों का स्वामी ; लीला – लीलाएँ ; अवतार – अवतार ; अनुरताः – भूमिका ग्रहण करते हुए ; देव – देवताओं में ; तिर्यक – निम्नतर पशुओं में ; नर – आदिषु – मनुष्यों के बीच में ।
सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुने देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि योनियोंमें जो-जो लीलावतार प्रकट किये हैं, वे स्वयं उनमें अनुरक्त होकर सत्त्वगुणके द्वारा ही प्राणियोंका पालन करते हैं॥३३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे ब्रह्मसूत्र – भाष्ये पारमहंस्यां संहितायां वैयासिक्यां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने श्रीभगवदनुभाव-वर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥