॥ श्रीश्रीगुरु – गौराङ्गौ जयतः ॥
श्रीमद्भागवतम्  प्रथमः स्कन्धः

नैमिषारण्यमें शौनकादि ऋषियों द्वारा श्रीसूत गोस्वामीसे प्रश्न
श्रीवेदव्यास द्वारा किया मंगलाचरण
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत् सूरयः ।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥ १ ॥

ॐ=मेरे प्रभु; नमः=नमस्कार है; भगवते= भगवान् को; वासुदेवाय= वासुदेव (वसुदेव पुत्र) या आदि भगवान् श्रीकृष्ण को; जन्म आदि= उत्पत्ति, पालन तथा संहार; अस्य= इस प्रकट ब्रह्माण्ड का; यतः= जिससे; अन्वयात्= प्रत्यक्ष रूप से; इतरतः= अप्रत्यक्ष रूप से; च= तथा; अर्थेषु= उद्देश्यों में अभिज्ञः= पूर्णतया अवगत; स्व-राट्= पूर्ण रूप से स्वतन्त्र; तेने= प्रदत्त; ब्रह्म= वैदिक ज्ञान; हृदा= हृदय की चेतना; य=जो; आदि कवये= प्रथम जीव के लिए; मुह्यन्ति= मोहित होते हैं; यत्= जिनके विषय में; सूरय:= बड़े-बड़े मुनि तथा देवता; तेजः= अग्नि; वारि= जल; मृदाम्= पृथ्वी; यथा= जिस प्रकार; विनिमय:= क्रिया – प्रतिक्रिया, कार्य-कारण; यत्र= जहाँ पर; त्रि-सर्गः= सृष्टि के तीन गुण, सृष्टिकारी शक्तियाँ; अमृषा= सत्यवत्; धाम्ना= समस्त दिव्य सामग्री के साथ; स्वेन= अपने से; सदा= सदैव; निरस्त= अनुपस्थिति के कारण त्यक्त; कुहकम्= मोह को; सत्यम्= सत्य को; परम्=परम; धीमहि= मैं ध्यान करता हूँ ।

जिन परमेश्वरसे इस विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति (पालन) तथा विनाश कार्य अन्वय (कारणकी कार्यमें स्थिति, जैसे- मिट्टीकी घटमें स्थिति) और उसके विपरीत व्यतिरेक ( कारणका कार्यसे पृथक् भाव अर्थात् मिट्टीकी घटसे पृथक् स्थिति) रूपमें साधित होते हैं, जो जगत्के कर्त्ताके धर्मसे सम्पूर्ण रूपमें अवगत हैं, जिनमें स्वतः सिद्ध ज्ञान स्वयं विराजमान है, जिन्होंने आदि कवि ब्रह्माके हृदयमें सङ्कल्पके द्वारा तत्त्व-वस्तुको प्रकाशित किया है, जिन परमेश्वरके सम्बन्धमें ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवता भी मोहमें पड़ जाते हैं; तथा जिस प्रकार तेज, जल और मिट्टीमें परस्पर एकके बदले दूसरी वस्तुका सत्यकी भाँति भ्रम होता है (अर्थात् जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियोंमें जलका, जलमें स्थलका और स्थलमें जलका सत्यकी भाँति भ्रम होता है), उसी प्रकार जिन परमेश्वरमें सत्त्व, रज और तमः गुणोंका अवस्थान सत्यकी भाँति प्रतीत होनेपर भी वस्तुतः जिनमें जड़धर्म सम्भव ही नहीं है, जो माया और मायाके कार्य-कपटतासे सर्वदा मुक्त हैं, समस्त जीवोंके हृदयमें विराजित तथा सर्वदेशकालवर्ती उन्हीं सत्यस्वरूप-लक्षणमय परमेश्वरका हम ध्यान करते हैं ॥ १ ॥

धर्मः प्रोज्झित- कैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किंवापरैरीश्वरः
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥ २ ॥

धर्मः=धार्मिकता; प्रोज्झित= पूर्णतया अस्वीकृत; कैतव:= सकाम विचार से प्रच्छन्न; अत्र = यहाँ; परम:= सर्वोच्च; निर्मत्सराणाम्= शतप्रतिशत शुद्ध हृदय वालों के; सताम्= भक्तों को; वेद्यम्=जानने योग्य; वास्तवम्= वास्तविक; अत्र= यहाँ ; वस्तु= वस्तु, चीज; शिवदम्= कल्याण; ताप त्रय= तीन प्रकार के कष्ट; उन्मूलनम्=समूल नष्ट करना; श्रीमत्= सुन्दर; भागवते=भागवत पुराण में; महा – मुनि= महामुनि (व्यासदेव ) द्वारा ; कृते= संग्रह किया गया, रचना किया गया; किम्=क्या है; वा=आवश्यकता; परैः= अन्य; ईश्वर:=परमेश्वर ; सद्य:= तुरन्त; हृदि= हृदय में; अवरुध्यते= दृढ़ हो गया; अत्र= यहाँ ; कृतिभिः= पवित्र व्यक्तियों द्वारा; शुश्रूषुभिः= संस्कार द्वारा; तत्-क्षणात्= अविलम्ब ।

( अब श्रोतामण्डलीको भागवत – श्रवणमें प्रेरित करानेके लिए कर्म, ज्ञान और भक्तिमूलक अन्यान्य समस्त शास्त्रोंकी अपेक्षा श्रीमद्भागवतकी श्रेष्ठता दिखला रहे हैं -)
महामुनि श्रीनारायणके द्वारा सर्वप्रथम और संक्षेपमें चतुःश्लोकी भागवत प्रकाशित हुई थी। इस श्रीमद्भागवत ग्रन्थमें दूसरोंका उत्कर्ष ( श्रेष्ठता) सहन कर सकनेमें समर्थ अर्थात् मात्सर्य-भावसे रहित, समस्त प्राणियोंके प्रति दयालु साधुओंका परमधर्म अर्थात् कर्म-ज्ञान काण्डके शास्त्रोंमें वर्णित विषयोंसे भी श्रेष्ठ धर्म – शुद्धभक्तियोग निरूपित हुआ है। इस मत्सरतासे रहित सद्धर्ममें फलकी कामनावाले लक्षणोंसे युक्त धर्म, अर्थ, काम तथा सालोक्यादि मुक्तियोंकी इच्छाओं तकका भी स्थान नहीं है। श्रीमद्भागवतरूपी परम ग्रन्थके अनुशीलनके फलसे आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक – ये तीनों प्रकारके मायिक ताप और उनका मूलकारण अविद्या तक सर्वथा नष्ट हो जाते हैं तथा परमानन्दका अनुभव करानेवाले नित्य- अविनाशी अद्वयज्ञान(१) वस्तु-तत्त्वका अनुभव होता है। जैसे ही श्रीमद्भागवतका श्रवणादि अनुशीलन आरम्भ होता है, उसी क्षणसे श्रवण – इच्छुक सुकृतिसम्पन्न श्रोताओंके हृदयमें परमेश्वर श्रीहरि अतिशीघ्र ही अवरुद्ध हो जाते हैं अतः फिर अन्य किसी शास्त्र या मार्गको अनुगमन करनेकी क्या आवश्यकता है? अतएव सभी शास्त्रोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ इस श्रीमद्भागवतका ही नित्यकाल श्रवण करना कर्त्तव्य है ॥२॥
(१) एक अद्वितीय वास्तव वस्तु ।

निगमकल्पतरोर्गलितं फलं
शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्
पिबत भागवतं रसमालयं
मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥ ३ ॥

निगम = वैदिक साहित्य; कल्प-तरो:= कल्पतरु का; गलितम् = पूर्णतः परिपक्व; फलम् = फल; शुक= श्रीमद्भागवत के मूल वक्ता श्रील शुकदेव गोस्वामी के; मुखात्=होठों से; अमृत= अमृत; = द्रव=तरल अतएव सरलता से निगलने योग्य; संयुतम्=सभी प्रकार से पूर्ण; पिबत= पान करो; भागवतम् = भगवान् के साथ चिर सम्बन्ध के विज्ञान से युक्त ग्रन्थ को; रसम्= रस (आस्वाद्य); आलयम् = मुक्ति प्राप्त होने तक या मुक्त अवस्था में भी; मुहुः = सदैव; अहो= हे; रसिका: = रसिक जनो, रसज्ञ; भुवि = पृथ्वी पर; भावुका: = पटु तथा विचारवान।

हे भगवत् – प्रीतिरस- रसिक जनो! हे अप्राकृत रसविशेषकी भावनामें चतुर भक्तो ! श्रीमद्भागवत वेदरूपी कल्पतरुका परमानन्दरसमय परिपक्व फल है। यह छिलका, गुठली आदि कठिन हेय अंशसे रहित तरल होनेके कारण पान करने योग्य है । श्रीशुकदेव गोस्वामीके मुखसे निकलकर शिष्य – प्रशिष्यादिकी परम्पराक्रमसे स्वेच्छासे पृथ्वीपर अखण्ड रूपमें अवतीर्ण इस फलको आपलोग मुक्त अवस्थामें भी पुनः – पुनः पान करते रहें। स्वर्गके सुखोंकी उपेक्षा करनेवाले परम मुक्तपुरुष भी इस रसमय फल (श्रीमद्भागवत) की उपेक्षा न करके नित्यकाल ही इसका सेवन किया करते हैं॥३॥

ॐ नैमिशेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः ।
सत्रः स्वर्गाय – लोकाय सहस्रसममासत ॥४॥

नैमिषे= नैमिषारण्य नामक जंगल में; अनिमिष -क्षेत्रे= विष्णु को (जो पलक नहीं मारते) विशेष रूप से प्रिय स्थल में; ऋषय: = ऋषिगण; शौनक-आदय := शौनक आदि; सत्रम् = यज्ञ; स्वर्गाय= स्वर्ग में जिसकी महिमा का गायन होता है ऐसे भगवान् के लिए; लोकाय= तथा भक्तों के लिए जो भगवान् के सम्पर्क में रहते हैं; सहस्र = एक हजार; समम् = वर्ष; आसत= सम्पन्न किया।

( सर्वप्रथम शास्त्रके आरम्भमें मङ्गलवाचक प्रणव ‘ॐ’ तथा प्रणवसे इस वेदान्त-भाष्य श्रीमद्भागवतका आरम्भ ।)
नैमिषारण्य नामक विष्णुतीर्थमें शौनकादि ऋषियोंने अप्राकृत हरिलोककी प्राप्तिके उद्देश्यसे हजार वर्षोंमें पूर्ण होनेवाले यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया ॥४॥

त एकदा तु मुनयः प्रातर्हुतहुताग्नयः ।
सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात् ॥ ५ ॥

ते = वे (मुनिगण); एकदा = एक दिन; तु= लेकिन; मुनयः = मुनिगण; प्रातः = प्रातः काल; हुत= जलाकर; हुत-अग्नयः= यज्ञ की अग्नि; सत्कृतम् = आदर समेत; सूतम्= श्री सूत गोस्वामी को; आसीनम् = बैठा कर; पप्रच्छुः= पूछा; इदम् = इस पर (निम्नलिखित ) ; आदरात् = आदरपूर्वक।

एकबार प्रातःकालमें शौनकादि ऋषि जब आह्वानीय ( १ ) आदि अग्नियोंमें आहुति प्रदान करके अपने नित्य नैमित्तिकादि कार्योंसे निवृत्त हो गये, तब उन्होंने महाभागवत श्रीसूतजीको बड़े आदरके साथ यथोचित अति-सम्माननीय आसनपर बिठाकर पूजन किया और उनसे इस प्रकार पूछा – ॥५॥
(१)
एक प्रकारकी अग्नि जो विराट् पुरुषका मुख है।

श्रीऋषय ऊचुः-
त्वया खलु पुराणानि सेतिहासानि चानघ ।
आख्यातान्यप्यधीतानि धर्मशास्त्राणि यान्युत॥६॥

ऋषयः=ऋषियों ने; उचुः = कहा; त्वया = आपके द्वारा; खलु = निश्चय ही; पुराणानि = उपवेदों को जिनमें रोचक कथाएँ हैं; स-इतिहासानि= इतिहासों समेत; च=तथा; अनघ= पापों से मुक्त; आख्यातानि= कहा गया; अपि= यद्यपि; अधीतानि=सुपठित; धर्म शास्त्राणि= प्रगतिशील जीवन के लिए सही निर्देश देने वाले शास्त्र ग्रन्थ; यानि = ये सब; उत= व्याख्या की गई।

ऋषियोंने पूछा- हे श्रीसूत गोस्वामी ! आप समस्त पापोंसे सर्वथा मुक्त हैं। आपने महाभारतादि इतिहास ग्रन्थोंके साथ-साथ समस्त पुराणों और जितने भी धर्मशास्त्र हैं, उन सबका अपने गुरुदेवसे अध्ययन किया है। केवल अध्ययन ही किया है, ऐसा नहीं, अपितु आपने उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है ॥ ६ ॥

यानि वेदविदां श्रेष्ठो भगवान् बादरायणः ।
अन्ये च मुनयः सूत परावर – विदो विदुः ॥ ७ ॥

यानि = वह सब; वेद विदाम् = वेदों के पंडित; श्रेष्ठः = ज्येष्ठतम, वयोवृद्ध; भगवान् = ईश्वर के अवतार; बादरायणः = व्यासदेव; अन्ये= अन्य; च= तथा; मुनयः = मुनिगण; सूत= हे सूत गोस्वामी; परावर विदः = विद्वानों में जो भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान से परिचित होता है; विदुः = ज्ञाता ।

वेत्थ त्वं सौम्य तत्सर्वं तत्त्वतस्तदनुग्रहात् ।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥ ८ ॥

वेत्थ=पूर्णतया निष्णात्; त्वम्=आप; सौम्य=शुद्ध तथा सरल व्यक्ति; तत् = वह; सर्वम्=समस्त; तत्त्वत: = वास्तव में; तत् = उनका; अनुग्रहात् = अनुग्रह से; ब्रूयुः = कहेंगे; स्निग्धस्य=विनीत; शिष्यस्य = शिष्य का; गुरवः = गुरुजन; गुह्यम्=गुप्त, रहस्य; अपि उत= से युक्त।

और भी, हे सौम्य श्रीसूत ! आप परम साधु-स्वभावके हैं। वेदोंको जाननेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् वेदव्यास जो कुछ जानते हैं, और दूसरे मुनि सगुण और गुणातीत धाममें अवस्थित ब्रह्मके स्वरूपको जिस रूपमें जानते हैं, आप भी उनकी कृपासे उन इतिहास, पुराणादि समस्त शास्त्रोंको यथार्थ रूपसे जानते हैं । इसका कारण यह है कि जो शिष्य स्निग्ध-स्वभावका होता है, वह गुरुकी प्रीतिका पात्र होता है और ऐसे स्निग्ध शिष्यके निकट ही गुरुजन अति निगूढ़ रहस्यको भी प्रकट कर देते हैं॥ ७-८ ॥

तत्र तत्राञ्जसायुष्मन् भवता यद्विनिश्चितम् ।
पुंसामेकान्ततः श्रेयस्तन्नः शंसितुमर्हसि ॥ ९ ॥

तत्र = वहाँ; तत्र = वहाँ; अञ्जसा = सहज; – आयुष्मन् = दीर्घ जीवन का आशीर्वाद पाये; भवता = आपके द्वारा; यत् =जो कुछ; विनिश्चितम् = निश्चित किया; पुंसाम्= जनसामान्य के लिए; एकान्ततः = नितान्त; श्रेयः = परम कल्याण; तत्= उस; नः=हमको; शंसितुम्=समझाने के लिए; अर्हसि = योग्य हो।

हे आयुष्मन् ( बहुतकाल तक शास्त्र अध्ययनकारी और विचारशील) ! आपने उन सब अध्ययन किये हुए शास्त्रोंसे और गुरुजनोंके उपदेशोंसे कलियुगके जीवोंके एकान्तिक कल्याणका जो सहज साधन निश्चित किया है, उस परम मङ्गलमय साधनको आप हमारे समक्ष कहने में समर्थ हैं। अतएव कृपापूर्वक आप उस रहस्यको हमलोगोंको बतलाइये॥९॥

प्रायेणाल्पायुषः सभ्य कलावस्मिन् युगे जनाः ।
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ॥ १०॥

प्रायेण = प्रायः; अल्प= न्यून; आयुष: =आयु, जीवन अवधि; सभ्य = विद्वत्समाज का सदस्य; कलौ=कलियुग में; अस्मिन् = यहाँ पर; युगे युग में; जना: = लोग, जनता; मन्दा: = आलसी; सुमन्द-मतयः = पथभ्रष्ट; मन्द – भाग्या: = अभागे; हि=और तो और; उपद्रुताः = विचलित।

हे साधु-समाजके भूषण ! आप देश, काल और पात्रको जाननेवाले हैं। इस कलियुगमें प्रायः सभी लोग अल्पायुके हैं। यदि कोई दीर्घायु भी हों, तो परमार्थके प्रति उनकी चेष्टा नहीं होती, अर्थात् इस विषयमें वे बड़े आलसी होते हैं । यदि कोई-कोई निरलस भी हों, तो उनकी बुद्धि बड़ी मन्द होती है। यदि कोई सुबुद्धिसे युक्त भी हों, तो उनका भाग्य बड़ा मन्द होता है अर्थात् उन्हें साधुसङ्ग प्राप्त नहीं होता। यदि सौभाग्यवशतः साधुसङ्ग प्राप्त भी हो जाये, तो वे रोगादि त्रितापों और अनेक प्रकारकी बाधाओंसे विचलित रहते हैं । इसलिए साधुसङ्गमें श्रवणके द्वारा वे अपने परम कल्याणके रूपमें जो कुछ भी निश्चित करते हैं, उसका पालन नहीं कर पाते ॥ १० ॥

भूरीणि भूरिकर्माणि श्रोतव्यानि विभागशः ।
अतः साधोऽत्र यत् सारं समुद्धृत्य मनीषया ।
ब्रूहि भद्राय भूतानां येनात्मा सुप्रसीदति ॥ ११ ॥

भूरीणि = बहुमुखी; भूरि= अनेक; कर्माणि = कर्म, कर्तव्य; श्रोतव्यानि = सीखने योग्य; विभागवश:=विषयानुसार; अतः = अतएव; साधो= हे साधु; अत्र= यहाँ पर; यत्=जो कुछ; सारम्=निष्कर्ष; समुद्धृत्य = चुनाव करके; मनीषया= अपने ज्ञान के अनुसार सर्वश्रेष्ठ; ब्रूहि = कृपा करके बताएँ; भद्राय = कल्याण के लिए; भूतानाम्= जीवों के; येन= जिससे; आत्मा= आत्मा; सुप्रसीदति = पूर्णतया प्रसन्न हो जाती है।

इस जगत्में करने योग्य बहुत-से कर्म हैं तथा श्रवणके योग्य बहुत-से साधन हैं। पुनः उन साधनोंके प्रतिपादक बहुत-से शास्त्र हैं, जिन्हें विभिन्न भागोंमें बाँटा गया है। अतएव हे विद्वन् ! इन श्रेयस्कर साधनोंका मुख्य तात्पर्य अर्थात् जिसे आप सर्वश्रेष्ठ और सहज रूपमें पालनीय समझते हैं, वह क्या है? आपने अपनी अति तीक्ष्ण बुद्धिके प्रभावसे विविध शास्त्रोंसे जिन सार वचनोंको संग्रह किया है, समस्त प्राणियोंके मङ्गल और उन सबकी बुद्धिकी सुप्रसन्नता अर्थात् भगवान्‌ के प्रति उन्मुखताके लिए कृपया हमें उन सब सार – वचनोंको बतलाइये॥११॥

सूत जानासि भद्रं ते भगवान् सात्वतां पतिः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातो यस्य चिकीर्षया ॥ १२ ॥

सूत= हे सूत गोस्वामी; जानसि= जानते हो; भद्रम् ते = तुम्हारा कल्याण हो; भगवान् = भगवान्; सात्वताम् = शुद्ध भक्तों का; पतिः = रक्षक; देवक्याम्=देवकी के गर्भ में; वसुदेवस्य = वसुदेव से; जात: = उत्पन्न; यस्य = जिसके उद्देश्य से; = चिकीर्षया= सम्पन्न करने हेतु।

( पुनः शौनकादि ऋषि उत्सुकतापूर्वक आशीर्वाद देते हुए कह रहे हैं—)

हे श्रीसूत ! आपका मङ्गल हो । सात्त्वतपति अर्थात् शुद्धसत्त्व वैष्णवोंके पालक भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण जिस विशेष उद्देश्यसे श्रीवसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे आविर्भूत हुए थे, उस विषयको आप भलीभाँति जानते हैं ॥१२॥

तनः शुश्रूषमाणानामर्हस्यङ्गानुवर्णितुम् ।
यस्यावतारो भूतानां क्षेमाय च भवाय च॥१३॥

तत् = वे; नः = हमको; शुश्रूषमाणानाम् = जो प्रयत्नशील हैं; अर्हसि = करना चाहिए; अङ्ग = हे सूत गोस्वामी; अनुवर्णितुम् = पूर्ववर्ती आचार्यों का अनुगमन करते हुए व्याख्या करने के लिए; यस्य = जिसका; अवतार: = अवतार; भूतानाम् = जीवों के; क्षेमाय= कल्याण के लिए; च= तथा; भवाय = उन्नति के लिए; च= तथा।

हे सूतजी ! जिनका अवतार अथवा आविर्भाव जीवोंके परम कल्याण तथा उनमें भगवत् – प्रेमकी समृद्धिके लिए होता है, हम उन श्रीवासुदेवकी अवतार – लीलाओंको सुनना चाहते हैं। आप कृपापूर्वक हमारे लिए उनका वर्णन कीजिये ॥१३॥

आपन्नः संसृतिः घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद्विभेति स्वयं भयम्॥ १४॥

आपन्नः=फँसे हुए; संसृतिम् = जन्म-मृत्यु के चक्कर में; घोराम्=अत्यन्त उलझे; यत् = जो; नाम= परम नाम; विवश: = अनजान में; गृणन् = उच्चारण करते हुए; तत:=उससे; सद्य:=तुरन्त; विमुच्येत= मुक्त हो जाता है; यत् = जो; विभेति = डरता है; स्वयम् = स्वयं; भयम् = साक्षात् भय।

जन्म-मृत्युरूप भयङ्कर संसारमें पतित मानव यदि विवश होकर भी भगवान् के नामका उच्चारण कर लें, तो वे तुरन्त ही इस संसार से मुक्त हो जाते हैं । भगवान्‌ के नामोंका ऐसा प्रभाव है कि जिनसे यम और यमदूतोंकी तो बात ही क्या, स्वयं भय ( महाकाल ) भी भयभीत रहता है॥१४॥

यत्पादसंश्रयाः सूत मुनयः प्रश्रमायनाः।
सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टाः स्वर्धन्यापोऽनुसेवया ॥ १५ ॥

यत् = जिसके; पाद= चरणकमल; संश्रयाः = शरणागत; सूत= हे सूत गोस्वामी; मुनयः = बड़े-बड़े मुनिगण; प्रशमायना: = परमेश्वर की भक्ति में लीन; सद्यः = तुरन्त; पुनन्ति = पवित्र हो जाते हैं; उपस्पृष्टाः = केवल संगति से; स्वर्धुनी = पवित्र गंगा का; आप: = जल; अनुसेवया= उपयोग में लाने से।

हे सूतजी ! भगवान्‌के चरणकमलोंका आश्रय ग्रहण करनेवाले तथा उनमें निष्ठायुक्त श्रीशुकादि मुनियोंके निकटमात्र जानेसे अर्थात् उनके दर्शनमात्र करनेसे ही वे उसी क्षण ही लोगोंको पापोंसे मुक्त करके पवित्र कर देते हैं, जब कि गङ्गाकी बहुत समय तक साक्षात् सेवा करनेसे अर्थात् दीर्घकाल तक गङ्गाका स्पर्श, उसमें स्नान आदि करनेके बाद ही वह पवित्र करती है ॥ १५ ॥

को वा भगवतस्तस्य पुण्यश्लोकेड्यकर्मणः ।
शुद्धिकामो न श्रुणुयाद्यशः कलिमलापहम् ॥ १६॥

कः = कौन; वा=बल्कि; भगवतः = भगवान् का; तस्य = उसका; पुण्य = पुण्यात्मा; श्लोक – ईड्य= स्तुतियों द्वारा पूजनीय; कर्मणः = कर्म; शुद्धि काम: = समस्त पापों से उद्धार की इच्छा करने वाला; न=नहीं; शृणुयात् = सुनता है; यश:=यश; कलि कलह के युग का; मल अपहम् = शुद्धि करने वाला।

आत्म-शुद्धिका इच्छुक ऐसा कौन व्यक्ति है, जिसके लिए पावनचरित्र देवताओंके पूज्य उरुक्रम भगवान्‌का कलिकालके कल्मषको हरण करनेवाला पवित्र यशगान श्रवणीय नहीं है। इसलिए सभीको भगवान्‌के यशगानका अवश्य ही श्रवण करना चाहिये ॥ १६॥

तस्य कर्माण्युदाराणि परिगीतानि सूरिभिः ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां लीलया दधतः कलाः ॥ १७॥

तस्य = उसका; कर्माणि= दिव्य कर्म; उदाराणि = उदार; परिगीतानि = प्रसारित; सूरिभिः = महात्माओं द्वारा; ब्रूहि = कृपया कहें; नः = हमसे; श्रद्धा-नानाम्= आदरपूर्वक ग्रहण करने के लिए उद्यत; लीलया= लीलाओं से; दधतः = धारण किये हुए; कलाः = अवतार।

स्वयंरूप अवतारी भगवान् श्रीकृष्ण लीलावशतः ही पुरुषावतारादि कलाएँ धारण करते हैं। नारदादि देवगण उन भगवान्‌की विश्व-सृष्टि आदिरूप महान, अथवा परमानन्द प्रदान करनेवाली जन्मादि लीलाओंका गान करते रहते हैं । उन सब लीलाओंका श्रवण करनेके लिए हम श्रद्धावान बड़े उत्कण्ठित हो रहे हैं, कृपया आप उनका वर्णन कीजिये ॥ १७ ॥

अथाख्याहि हरेर्धीमन्नवतारकथाः शुभाः ।
लीला विदधतः स्वैरमीश्वरस्यात्ममायया ॥ १८ ॥

अथ=अतः; आख्याहि= वर्णन करें; हरे: = भगवान् के; धीमन् = हे बुद्धिमान, अवतार = अवतार; कथा: = कथाएँ; शुभा: = शुभ, कल्याणप्रद; लीला = साहसिक कार्य; विदधतः = सम्पन्न; स्वैरम् = लीलाएँ; ईश्वरस्य = परम नियन्ता की; आत्म= निजी, अपनी; मायया = शक्तियों से।

हे बुद्धिमान सूतजी ! भगवान् श्रीकृष्णने अपनी इच्छाशक्ति (चित्-शक्ति योगमाया) के द्वारा स्वच्छन्द रूपसे जगत्‌की स्थिति ( पालन) के लिए भू-भार- हरण आदि मायातीत लीलाएँ की हैं, अतः आप हमारे निकट भगवान्‌के अवतारोंकी परम – मङ्गलदायिनी कथाओंका वर्णन कीजिये ॥ १८ ॥

वयन्तु न वितृप्याम उत्तमः श्लोकविक्रमे ।
यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥ १९ ॥

वयम् = हम; तु= लेकिन; न=नहीं; वितृप्यामः = तृप्त हो जाएँगे; उत्तम-श्लोक= भगवान्, जिनका यशोगान दिव्य श्लोकों से किया जाता है; विक्रमे = साहसिक कार्य; यत् = जो; शृण्वताम् = निरन्तर सुनने से; रस = रस के; ज्ञानाम् = भिज्ञों को; स्वादु = स्वाद लेते हुए; स्वादु = सुस्वादु स्वादिष्ट; पदे पदे = पग पग पर।

रसिक श्रोता जब पुण्यकीर्त्ति उरुक्रम श्रीकृष्णके गुण और लीला-कथाओंका श्रवण करते हैं, तब उन्हें पद-पदपर नये-नये रसका आस्वादन होता है। इसीलिए श्रीकृष्णकी उन गुण-लीला- कथाओंका और अधिक आस्वादन प्राप्त करनेकी आशासे हमें तृप्ति नहीं हो रही है, अर्थात् उन लीला – कथाओंके श्रवणसे हमारा कौतूहल और आग्रह बढ़ता ही जा रहा है ॥ १९॥

कृतवान् किल कर्माणि सह रामेण केशवः ।
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः॥ २०॥

कृतवान्=किये गये; किल= कौन-कौन; कर्माणि= कार्य; सह= सहित; रामेण= बलराम; केशवः = श्रीकृष्ण ने; अतिमर्त्यानि= अलौकिक; भगवान् = भगवान्; गूढ:=प्रच्छन्न; कपट= ऊपर से; मानुषः = मनुष्य।

भगवान् श्रीश्यामसुन्दर नित्य एवं अप्राकृत वस्तु होकर भी अपने मनुष्यरूपमें आविर्भूत होते हैं और मनुष्योचित लीलाएँ करते हैं, जिन्हें देखकर प्रापञ्चिक लोग श्रीकृष्णको साधारण मनुष्यकी भाँति समझते हैं । किन्तु श्रीकृष्ण अपने स्वरूपको छिपाकर श्रीबलदेवप्रभुके साथ ऐसी अलौकिक लीलाओंका भी प्रदर्शन करते हैं, जिन्हें मनुष्य नहीं कर सकता। अतएव आप परब्रह्म श्रीकृष्णकी उन सब अलौकिक कथाओंका हमारे समक्ष वर्णन कीजिये ॥ २० ॥

कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन् वैष्णवे वयम् ।
आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः ॥ २१ ॥

कलिम् = कलियुग (कलहप्रिय लौह युग); आगतम्= आया हुआ; आज्ञाय =जानकर; क्षेत्रे = भूभाग में; अस्मिन् = इस; वैष्णवे = विशेषतया भगवान् के भक्तों के लिए; वयम्= हम; आसीना: = बैठे हुए; = दीर्घ= दीर्घकालीन; सत्रेण = यज्ञ द्वारा; कथायाम् = शब्दों में; स-क्षणाः =अपने अवकाश के समय; हरे: = भगवान् के।

कलियुगको आया जानकर हम इस पवित्र वैष्णवक्षेत्र नैमिषारण्यमें दीर्घकालीन यज्ञके उपलक्ष्यमें आकर बैठे हुए हैं। अब हमें हरिकथा श्रवण करनेका अवसर प्राप्त हुआ है ॥ २१ ॥

त्वं नः सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् ।
कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम् ॥ २२ ॥

त्वम्=आपने; नः =हम सबों को सन्दर्शितः = मिलाया है; धात्रा =भाग्य से; दुस्तरम् = दुर्लघ्य; निस्तितीर्षताम्=पार करने की इच्छा करने वालों के लिए; कलिम्= कलियुग को; सत्त्व – हरम् = अच्छे गुणों को हरण करने वाला; पुंसाम् = मनुष्य का; कर्ण – धारः = नाविक; इव = सदृश; अर्णवम् = समुद्र ।

यह कलिकाल मनुष्योंकी बल-बुद्धिका नाश करनेवाला है। इस कलिकालरूप दुसाध्य समुद्रको पार पाना बड़ा ही कठिन है। जिस प्रकार समुद्रको पार करनेके इच्छुक लोगोंको कर्णधारकी आवश्यकता होती है, उसी प्रकार इस कलिकालरूप समद्रसे पार जानेके इच्छुक हमलोगोंके लिए कर्णधारके रूपमें विधाताने ही आपको भेजा है, इसीलिए हमें आपके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हो रहा है ॥ २२॥

ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि ।
स्वां काष्ठामधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः ॥ २३ ॥

ब्रूहि = कृपया कहें; योग-ईश्वरे= समस्त योग शक्तियों के स्वामी; कृष्णे = भगवान् कृष्ण; ब्रह्मण्ये=परम सत्य; धर्म धर्म; वर्मणि= रक्षक; स्वाम् = अपना; काष्ठाम्= धाम; अधुना=इस समय; उपेते= चले गये; धर्म: = धर्म; कम्= किसकी; शरणम्= शरण में; गतः = गया हुआ।

हे सूतजी ! श्रीकृष्ण कवच के समान धर्म के रक्षक, ब्राह्मणों के पालक और योगेश्वरों के द्वारा वन्दित हैं। श्रीकृष्ण के द्वारा अपने नित्यधाममें गमन अर्थात् अन्तर्धानरूप अप्रकट लीला में प्रवेश करनेपर सनातन धर्म ने अब किसकी शरण ली है – कृपया इसे बतलाइये ? ॥२३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे ब्रह्मसूत्रभाष्ये पारमहंस्यां संहितायां वैयासिक्यां प्रथम-स्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने ऋषिप्रश्नो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥