श्रीश्रीकृष्णचैतन्यचन्द्रो विजयतेताम्
श्रीश्रीचैतन्यचरितामृत
पहले अध्यायका सार इस अध्यायके प्रथम चौदह श्लोकोंमें परमतत्त्वका निर्णय किया गया है। अगले तीन (पन्द्रहसे सतरह) श्लोकोंमें श्रीवृन्दावन स्थित श्री श्रीराधामदनमोहन, श्रीश्रीराधागोविन्द और श्रीश्रीराधागोपीनाथका मङ्गलाचरण दिया गया है। उक्त चौदह श्लोकोंके प्रथम श्लोकमें सामान्य रूपसे परमतत्त्वकी छह प्रकारकी अभिव्यक्तियोंकी वन्दना की गयी है और सम्पूर्ण प्रथम अध्यायमें उनकी विशेष व्याख्या प्रस्तुत हुई है। गुरु शब्दके द्वारा दीक्षागुरु और शिक्षागुरु- दोनोंको ही ग्रहण करना होगा। शिष्यमें यह अभिमान होना चाहिये कि दोनों प्रकारके गुरु श्रीकृष्णके प्रकाश हैं। ईशभक्त अर्थात् भगवान्के भक्त सिद्ध और साधकके भेदसे दो प्रकारके हैं। स्वयंरूप- श्रीकृष्ण और उनके कायव्यूह ईश-तत्त्वके अन्तर्गत हैं। अंशावतार, गुणावतार और शक्त्यावेशावतार – ये तीन प्रकारके अवतार हैं। इसी (अवतार) प्रसङ्गमें श्रीकृष्णके प्रकाशतत्त्व और विलास तत्त्वका विचार किया गया है। श्रीकृष्णकी तीन प्रकारकी शक्तियाँ हैं- वैकुण्ठादिमें लक्ष्मियाँ, द्वारकामें महिषियाँ और व्रजमें गोपियाँ व्रजगोपियाँ इन तीनों शक्तियोंमें सर्वोत्तम हैं। श्रीकृष्ण और श्रीकृष्णके कायव्यूह ईशतत्त्व हैं और समस्त भक्तगण आवरण- तत्त्व हैं [अर्थात् ईशतत्त्वके चारों ओर उनको आवृत किये हुए स्थित हैं], इसलिये उनकी शक्ति- विशेष हैं। शक्ति-शक्तिमान्में अभेद – बुद्धिसे नित्य अभेद और शक्तिमान्से शक्तिकी पृथक् – बुद्धिसे उनमें नित्य भेद प्रतीत होता है। इस प्रकार एक अखण्ड-तत्त्व अपनी अचिन्त्य – शक्तिके द्वारा प्रतिपादित होता है। इस सिद्धान्तका नाम वेदान्त सम्मत अचिन्त्यभेदाभेद-तत्त्व है। इस अध्यायके अन्तिम भागमें श्रीचैतन्यचन्द्र और श्रीनित्यानन्दका स्वरूप और माहात्म्य कहा गया है।
(अमृतप्रवाह भाष्य )
– मंगलाचरणारम्भ-
श्रीकृष्णचैतन्यतत्त्वको सामान्य नमस्कार :-
वन्दे गुरुनीशभक्तानीशमीशावतारकान् ।
तत्प्रकाशांश्च तच्छक्तीः कृष्णचैतन्यसंज्ञकम् ॥१॥
अनुवाद – समस्त गुरुवर्ग, भगवद्भक्तों, भगवान्के अवतारों, भगवान् के प्रकाश, भगवान्की शक्तियों तथा श्रीकृष्णचैतन्य नामक स्वयं भगवान् इन अभिन्नावरणात्मक छह तत्त्वोंकी मैं, ग्रन्थकार कृष्णदास कविराज, वन्दना करता हूँ ॥ १ ॥
अमृतानुकणिका – ग्रन्थकार श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामीने इस ग्रन्थके प्रथम श्लोकमें वन्दनात्मक मङ्गलाचरणके अन्तर्गत अपने इष्टदेवकी अहैतुकी कृपा प्राप्तिके लिये प्रार्थना की है। श्रीराधाभावद्युति सुवलित श्रीकृष्णस्वरूप, रसराजमहाभावके मूर्त्तविग्रह श्रीकृष्णचैतन्यदेव ही उनके इष्टदेव हैं। श्रीकृष्णचैतन्यदेवकी वन्दनाके साथ-साथ ग्रन्थकारने इस श्लोकमें गुरुवर्ग, भक्तों, अवतारों, प्रकाश और शक्तियोंको भी समान भावसे नमस्कार किया है, इसलिये इसे ‘सामान्य’ नमस्काररूप मङ्गलाचरण कहा गया है ॥ १ ॥
इष्टदेव – युगलके प्रति विशेष नमस्कारः
एक साथ चन्द्र-सूर्यवत् निताइ गौरका उदय और जीवों पर दया :-
वन्दे श्रीकृष्णचैतन्यनित्यानन्दी सहोदितौ ।
गौड़ोदये पुष्पवन्तौ चित्रौ शन्दौ तमोनुदौ ॥ २ ॥
अनुवाद – मैं श्रीकृष्णचैतन्य और श्रीनित्यानन्दकी वन्दना करता हूँ, जो सबका मङ्गल करनेके लिये और अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये गौड़देशरूपी क्षितिजपर एक साथ चन्द्र एवं सूर्यके समान आश्चर्यजनक रूपसे उदित हुए हैं ॥ २ ॥
अमृतानुकणिका – यहाँपर केवल इष्टदेवको ही नमस्कार किया है और उसके साथ अन्य किसीको नमस्कार नहीं किया है, इसलिये यह ‘विशेष’ नमस्काररूप मङ्गलाचरण है । यहाँपर श्रीकृष्णचैतन्यके साथ श्रीनित्यानन्द प्रभुकी वन्दना होनेपर भी इस श्लोकको विशेष – वन्दानात्मक मङ्गलाचरण कहा गया है, क्योंकि श्रीकृष्णचैतन्य और श्रीनित्यानन्द प्रभुमें स्वरूपतः कोई भी भेद नहीं है, वे दोनों एक ही तत्त्व हैं ॥ २ ॥
ग्रन्थकी प्रतिपाद्य तत्त्ववस्तुका निर्देश;
अद्वितीय परमतत्त्व एक ही श्रीगौर-कृष्णका तीन प्रकारसे प्रतीति भेद :-
यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनुभा
य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांशविभवः ।
षड्रैश्वर्यैः पूर्णो य इह भगवान् स स्वयमयं
न चैतन्यात् कृष्णाज्जगति परतत्त्वं परमिह ॥ ३॥
अनुवाद – उपनिषदोंमें जिनको अद्वैत ब्रह्म कहा जाता है, वे मेरे प्रभुकी अङ्गकान्ति हैं। जिनको योगशास्त्रोंमें आत्मान्तर्यामी पुरुष या परमात्मा कहते हैं, वे मेरे प्रभुके अंशस्वरूप हैं। जिनको ब्रह्म और परमात्माका आश्रय एवं अशिस्वरूप षड़ेश्वर्यपूर्ण भगवान् कहा जाता है, मेरे प्रभु वे स्वयं भगवान् हैं। इसलिये श्रीकृष्णचैतन्यकी अपेक्षा जगत्में और कोई परतत्त्व अर्थात् श्रेष्ठ तत्त्व नहीं है ॥ ३ ॥
अमृतानुकणिका – इस श्लोकमें वस्तु निर्देशरूप मङ्गलाचरण किया गया है ॥ ३ ॥
आशीर्वाद और गौरावतारके बाह्यकारणके वर्णनमें औदार्यविग्रह महावदान्य श्रीगौरका अतुल्य दान :-
(विदग्धमाधव १/२) –
अनर्पितचरीं चिरात् करुणयावतीर्णः कलौ
समर्पयितुमुत्रतोज्ज्वलरसां स्वभक्तिश्रियम्।
हरिः पुरटसुन्दरद्युतिकदम्बसन्दीपितः
सदा हृदयकन्दरे स्फुरतु वः शचीनन्दनः ॥ ४ ॥
अनुवाद-सुवर्ण कान्तिसमूहके द्वारा देदीप्यमान शचीनन्दन श्रीगौरहरिकी सदा तुम्हारे हृदय-कन्दरामें स्फूर्ति हो । जिस सर्वोत्कृष्ट उज्ज्वल – रसका दान चिरकालसे किसी भी अवतारने जगत्को नहीं दिया था, निजभक्तिकी शोभारूपी उसी सम्पत्तिका दान करनेके लिये वे परमकरुणावशतः कलियुगमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४ ॥
श्रीगौरावतारके मूल-प्रयोजनके निर्देशमें श्रीराधा, श्रीकृष्ण और उनके मिलित तनु
श्रीगौरका तत्त्व- का – वर्णन:-
श्रीस्वरूपगोस्वामि- कड़चा-
राधा कृष्णप्रणयविकृतिर्ह्रादिनी शक्तिरस्मा-
देकात्मानावपि भुवि पुरा देहभेदं गतौ तौ ।
चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं
राधाभावद्युतिसुवलितं नौमि कृष्णस्वरूपम् ॥ ५ ॥
अनुवाद – श्रीकृष्णके प्रणयकी विकार अर्थात् प्रेमविलासरूपा ह्लादिनी शक्तिके प्रभावसे श्रीराधाकृष्ण स्वरूपतः एक आत्मा होते हुए भी विलासतत्त्वकी नित्यताके कारण श्रीराधा – श्रीकृष्ण नित्यरूपसे दो स्वरूपोंमें विराजमान हैं। वही दो तत्त्व अब एक स्वरूपमें चैतन्य-तत्त्वरूपमें प्रकट हुए हैं, इसलिये श्रीराधाकी भाव और कान्तिके द्वारा सुवलित उन्हीं श्रीकृष्णस्वरूप श्रीगौरसुन्दरको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ५ ॥
श्रीगौरावतारके मूल प्रयोजनात्मक तीन गुह्य कारण :-
श्रीराधायाः प्रणयमहिमा कीदृशो वानयैवा-
स्वाद्यो येनाद्भुतमधुरिमा कीदृशो वा मदीयः ।
सौख्यञ्चास्या मदनुभवतः कीदृशं वेति लोभा-
त्तद्भावाढ्यः समजनि शचीगर्भसिन्धौ हरीन्दुः॥६॥
अनुवाद – श्रीमती राधिकाके अलौकिक प्रेमकी महिमा कैसी है? वह मेरी अद्भुत मधुरिमा कैसी है, जिसका श्रीमती राधिका आस्वादन करती हैं? मेरी मधुरिमाकी अनुभूतिसे श्रीमती राधिकाको कौनसा अनिर्वचनीय सुख मिलता है ? इन तीन विषयोंके प्रति लोभ उत्पन्न होनेपर श्रीकृष्णरूप चन्द्रने शचीगर्भरूप समुद्रसे जन्म ग्रहण किया ॥६॥
स्वयंप्रकाश भगवान् श्रीबलदेवस्वरूप श्रीनित्यानन्दतत्त्व और उनको प्रणाम; उनके पाँचरूप :-
संकर्षण: कारणतोयशायी गर्भोदशायी च पयोब्धिशायी ।
शेषश्च यस्यांशकलाः स नित्यानन्दाख्यरामः शरणं ममास्तु ॥ ७ ॥
अनुवाद – सङ्कर्षण, कारणोदशायी विष्णु, गर्भोदशायी विष्णु, क्षीरोदशायी विष्णु और शेष जिनके अंश और कला हैं, उन्हीं श्रीनित्यानन्द नामक श्रीबलरामकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ॥७॥
(१) वैकुण्ठमें सङ्कर्षण-रूप :-
मायातीते व्यापिवैकुण्ठलोके पूर्णैश्वर्ये श्रीचतुर्व्यूहमध्ये |
रूपं यस्योद्भाति सङ्कर्षणाख्यं तं श्रीनित्यानन्दरामं प्रपद्ये ॥ ८ ॥
अनुवाद – मायासे अतीत सर्वव्यापक वैकुण्ठलोकमें वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध-उस पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त चतुर्व्यूहमें जो सङ्कर्षणरूपसे विराजमान हैं, उन श्रीनित्यानन्दस्वरूप श्रीबलरामके श्रीचरणकमलोंमें मैं शरणागत होता हूँ ॥ ८ ॥
(२) प्रकृतिपर ईक्षण कर्त्ता, जीव और जगत् के कारण परमात्मा, कारणोदशायी प्रथम पुरुष :-
मायाभर्त्ताजाण्डसंगश्रयाङ्गः
शेते साक्षात् कारणाम्भोधिमध्ये ।
यस्यैकांशः श्रीपुमानादिदेव-
स्तं श्रीनित्यानन्दरामं प्रपद्ये ॥ ९ ॥
अनुवाद – जिनके एक अंशस्वरूप मायाके स्वामी, आदि पुरुषावतार, ब्रह्माण्डोंके आश्रयरूप कारणोदशायी विष्णु हैं, उन श्रीनित्यानन्द – बलरामको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ९ ॥
(३) ब्रह्माण्डान्तर्यामी समष्टि विष्णु, पद्मयोनिके पिता, गर्भोदशायी द्वितीय पुरुष :-
यस्यांशांशः श्रील गर्भोदशायी यन्त्राभ्यब्जं लोकसंघातनालम् ।
लोकस्रष्टुः सूतिकाधामधातुस्तं श्रीनित्यानन्दरामं प्रपद्ये ॥ १० ॥
अनुवाद – जिनके नाभिकमलकी नाल लोकखष्टा ब्रह्माजीका सूतिकागृह (जन्मस्थान) और समस्त लोकोंका विश्रामस्थल है, वे गर्भोदशायी विष्णु जिनके अंशके अंश हैं, उन्हीं श्रीनित्यानन्द- बलरामको में प्रणाम करता हूँ ॥ १० ॥
(४) विश्व – पालनकर्त्ता क्षीरोदशायी तृतीय पुरुष (५) पृथ्वीधारी शेष :-
यस्यांशांशांशः परात्माखिलानां
पोष्टा विष्णुभति दुग्धाब्धिशायी ।
क्षौणीभर्त्ता यत्कला सोऽप्यनन्त-
स्तं श्रीनित्यानन्दरामं प्रपद्ये ॥ ११ ॥
अनुवाद – जिनके अंशांशके अंश सब जीवोंके परमात्मा और पालनकर्त्ता क्षीरोदशायी विष्णु हैं तथा जिन क्षीरोदशायीकी कला पृथ्वीको धारण करनेवाले ‘अनन्त’ हैं, उन श्रीनित्यानन्द – बलरामको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ११ ॥
अमृतानुकणिका – ब्रह्माके द्वारा व्यष्टि जीवोंकी सृष्टिके बाद गर्भोदशायी विष्णु अपने एक अंशसे एक-एक रूपमें प्रत्येक जीवके अन्तःकरणमें प्रवेश करते हैं। प्रति जीवके हृदयमें स्थित यह स्वरूप ही प्रत्येक जीवके अन्तर्यामी परमात्मा हैं। गर्भोदशायीकी नाभिसे उत्पन्न नालमें स्थित चौदह भुवनोंमें जो पृथ्वी हैं, उसमें एक क्षीरसमुद्र है और उसमें ये एक स्वरूपसे शयन करते हैं, इसलिये इन्हें क्षीरोदशायी कहा जाता है। ये गर्भोदशायीके अंश होनेसे श्रीनित्यानन्द प्रभुके अंशके अंशके अंशके अंश हैं। क्षीरोदशायी विष्णुका चतुर्भुज रूप है, ये सत्त्व- गुणावतार हैं। धर्मकी स्थापना और अधर्मके नाशके लिये ये ही युगावतार – मन्वन्तरावतारके रूपमें अवतीर्ण होकर जगत्की रक्षा करते हैं, इसलिये इन्हें ‘पोष्टा’ कहा गया है। इनको तृतीय पुरुष भी कहते हैं ॥ ११ ॥
श्री अद्वैततत्त्व और उनको प्रणाम :-
महाविष्णुर्जगत्कर्त्ता माया यः सृजत्यदः ।
तस्यावतार एवायमद्वैताचार्य ईश्वरः ॥ १२ ॥
अद्वैतं हरिणाद्वैतादाचार्य भक्तिशंसनात्।
भक्तावतारमीशं तमद्वैताचार्यमाश्रये ॥ १३ ॥
अनुवाद – जो जगत्कर्त्ता महाविष्णु मायाके द्वारा इस जगत्की सृष्टि करते हैं, श्री अद्वैताचार्य ईश्वर उनके ही अवतार हैं। जो हरिसे अभिन्न तत्त्व होनेके कारण ‘अद्वैत’ और भक्तिके प्रचारक होनेके कारण ‘आचार्य’ कहलाते हैं, उन भक्तावतार श्री अद्वैताचार्य ईश्वरका में आश्रय ग्रहण करता हूँ ॥ १२-१३ ॥
पञ्चतत्त्वका स्वरूप और उनको प्रणाम :-
पञ्चतत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तरूपस्वरूपकम् ।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकम् ॥ १४ ॥
अनुवाद – श्रीकृष्णके भक्तरूप, भक्तस्वरूप, भक्तावतार, भक्त और भक्तशक्ति, इन पञ्चतत्त्वात्मक श्रीकृष्णको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १४ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – श्रीचैतन्य महाप्रभु श्रीनित्यानन्द प्रभु प्रेमके मूल श्री अद्वैताचार्य, श्रीहरिदास ठाकुर, श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी, श्रीराय रामानन्द श्रीवंशीवदनानन्द, श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य, श्रीरूप-सनातन गोस्वामी भ्राताद्वय श्रीरघुनाथदास गोस्वामी, श्रीजीव गोस्वामी, श्रीगोपालभट्ट गोस्वामी, श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्रीशिवानन्द सेन, श्रीकविकर्णपूर, श्रीकृष्णदास कविराज, श्रीनरोत्तमदास ठाकुर, श्रीश्रीनिवासाचार्य श्रीरामचन्द्र कविराज, श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती, श्रीबलदेव विद्याभूषणादि ईश्वर और ईश्वरके भक्तोंको यत्नपूर्वक प्रणाम करते हुए मैं, भक्तिविनोद ठाकुर, श्रीचैतन्यचरितामृतके सार ‘अमृतप्रवाह भाष्य’ का वर्णन कर रहा हूँ; भक्तगण इसपर विचार करें। गौरकथारूपी समुद्रमें बहते हुए श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी उस अमृतसिन्धुकी एक धार लाये हैं। इस काव्यामृतका पान करनेसे वैष्णवोंके प्राण शीतल होते हैं और इसको बार-बार पान करनेकी उत्कण्ठा जाग्रत हो जाती है। इसका भाष्य लिखनेके लिये इस दीन- अकिञ्चन ( भक्तिविनोद) को सभी लोगोंने आदेश दिया, इसलिये साधु लोगोंके आदेशको शीशपर धारण करते हुए इस भाष्यको यत्नके साथ लिखकर साधुओंके हाथोंमें मैंने अर्पित किया है ॥ १४ ॥
अनुभाष्य-श्रीराधाकृष्णसे अभिन्न श्रीचैतन्य महाप्रभु रूपानुग जनोंके जीवन हैं। उन महाप्रभु विश्वम्भरके प्रिय श्रीस्वरूपदामोदर हैं। श्रीस्वरूपदामोदरके मित्र श्रीरूप सनातन (गोस्वामी) हैं। श्रीरूपके प्रिय श्रीरघुनाथ ( दास गोस्वामी) हैं और श्रीरघुनाथके प्रिय कवि श्रीकृष्णदास हैं। श्रीकृष्णदास (कविराज गोस्वामी) के प्रिय श्रीनरोत्तम (दास ठाकुर) हैं। श्रीविश्वनाथ (चक्रवर्ती ठाकुर) श्रीनरोत्तमके चरणोंकी आशा करते हैं। भक्तराज श्रीविश्वनाथके प्रति श्रीजगन्नाथ (दास बाबाजी महाराज) श्रद्धावान् हैं। श्रीजगन्नाथके प्रिय श्रीभक्तिविनोद (ठाकुर) हैं। श्रीभक्तिविनोदके प्रिय महाभागवतवर श्रीगौर किशोर ( दास बाबाजी महाराज) हैं, जो सदैव हरिभजनमें ही आनन्दित रहते हैं। ये सब हरिजन गौराङ्ग महाप्रभुके निजजन हैं। उनके उच्छिष्टकी मैं अर्थात् श्रीवार्षभानवीदयितदास (श्रीवृषभानु महाराजकी पुत्री श्रीराधाजीके प्रिय श्रीकृष्णका दास, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद ) कामना करता हूँ। हरिभक्तजनोंकी सेवाकी आशा और भक्तिवृद्धिकी अभिलाषासे मैं अमृतप्रवाह भाष्यके अनुगत होकर, गौरजनोंके शास्त्रोंको देखकर उनके अनुसार रूपानुगमत ‘अनुभाष्य’ लिख रहा हूँ। ग्रन्थके मङ्गलाचरणके उद्देश्यसे ग्रन्थकारने प्रारम्भमें चौदह श्लोक लिखे हैं, उनमें ग्रन्थकी प्रतिपाद्य वस्तुका निर्देश, श्रोताओंको आशीर्वाद और इष्टदेवको नमस्कार किया है। आदिलीलाके पहले सात अध्यायोंमें क्रमशः इनकी विस्तृत व्याख्या की गयी है ॥ १४ ॥
अपने अभीष्ट सम्बन्ध-अधिष्ठाता देवको प्रणाम :-
जयतां सुरतौ पंगोर्मम मन्दमतेर्गती ।
मत्सर्वस्वपदाम्भोजौ राधामदनमोहनी ॥ १५ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १५ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य- मैं पशु और मन्दमति हूँ; जो मेरी एकमात्र गति हैं और जिनके चरणकमल ही मेरा समस्त धन हैं, वे परम कृपालु श्रीश्रीराधा-मदनमोहन जययुक्त हों ॥ १५ ॥
अनुभाष्य – यह ग्रन्थकारके द्वारा स्वरचित श्लोक है-
पंगों (स्वपद्धयां निजवलेन स्थानान्तरगमनेऽसमर्थस्य) मन्दमतेः (विषयाविष्टस्याल्पधियः अन्याभिलाष-कर्मज्ञानादि साधनोद्यमरहितस्यैकान्तिनः ) मम गती (गम्यते इति गतिः आश्रयः तथाभूतौ) मत्सर्वस्वपदाम्भोजौ (मम सर्वस्वरूपे पदाम्भोजे ययोस्ती), सुरतौ ( दयालू मिथोऽत्यन्तनुरक्तौ वा) राधामदनमोहनौ (तत्तदभिधदेवौ) जयतां (सर्वोत्कर्षेण वर्त्तेताम् )।
श्लोक – भावानुवाद – जो मुझ अपने पैरोंसे निजबलपर चलकर जानेमें असमर्थ, श्रीकृष्णसेवासे इतर अभिलाष और कर्म – ज्ञानादि साधनोंके उद्यमसे रहित ऐकान्तिक भक्तिको त्यागकर विषयोंमें आविष्ट अल्पबुद्धिवालेके आश्रय हैं और जिनके चरणकमल मेरे सर्वस्व हैं, वे परम दयालु और परस्पर अत्यन्त अनुरक्त श्रीराधा-मदनमोहन सर्वोत्कृष्ट रूपसे विराजमान हों॥१५॥
अपने अभीष्ट अभिधेय अधिष्ठाता देवको प्रणाम :-
दीव्यद्वृन्दारण्यकल्पद्रुमाधः श्रीमद्रत्नागारसिंहासनस्थौ ।
श्री श्रीराधा – श्रीलगोविन्ददेवौ प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ स्मरामि ॥ १६ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १६ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – ज्योतिर्मय – शोभायुक्त वृन्दावनके कल्पवृक्षके नीचे रत्नमन्दिरमें स्थित सिंहासनके ऊपर विराजमान श्रीश्रीराधागोविन्दकी प्रियसखियाँ उनकी सेवा कर रही हैं। मैं उनका स्मरण करता हूँ ॥ १६ ॥
अनुभाष्य — दीव्यद्वृन्दारण्य – कल्पद्रुमाधः ( दीव्यति परमोत्कृष्टे मनोहरे वृन्दाविपिने कल्पवृक्षस्य अधोमूले) श्रीमद्रत्नागारसिंहासनस्थौ (परमशोभमयरत्नालयाभ्यन्तरे रत्नसिंहासनावस्थितौ ) प्रेष्ठालीभिः (सेवापराभिः श्रीरूपमअर्यादि-परिवृत-श्रीललितादिप्रियनर्मसखीभिः) सेव्यमानौ श्रीश्रीराधा – श्रीलगोविन्ददेवौ [ अहं] स्मरामि । श्लोक-भावानुवाद- परमोत्कृष्ट मनोहर वृन्दावनमें कल्पवृक्षके तले, परम शोभामय रत्नालयके भीतर रत्नसिंहासनपर विराजमान (सेवापरायण श्रीरूपादि मञ्जरियों और श्रीललितादि प्रियनर्मसखियों) से परिवेष्टित सेव्यमान् श्रीश्रीराधा – श्रीलगोविन्ददेवका मैं स्मरण करता हूँ ॥ १६ ॥
अपने अभीष्ट प्रयोजन अधिष्ठाता देवको प्रणाम :-
श्रीमान् सरारम्भी वंशीवटतटस्थितः ।
कर्षन् वेणुस्वनैगोपीगोपीनाथः श्रियेऽस्तु नः ॥ १७ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १७ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य-रासरसके प्रवर्तक वंशीवटके तटपर स्थित होकर श्रीमद्गोपीनाथ वेणुध्वनिके द्वारा गोपियोंको आकर्षित कर रहे हैं। वे हमारे मङ्गलका विधान करें ॥ १७ ॥
अनुभाष्य- वेणुस्वनैः (वंशीध्वनिभिः) गोपी (व्रजगोपवधूः) कर्षन् (कृष्णेतरवासनाः शिथिलीकुर्वन् गृहात् वंशीनिनादरूप प्रेमरज्जुबलेन आनयन्) श्रीमान् (परमशोभामयविग्रहः) रासरसारम्भी (रासरसप्रवर्त्तकः) वंशीवटतटस्थितः (वंशीवटतरोर्मूले अवस्थितः सन् स्वच्छन्दं विहरति सः ) गोपीनाथः नः (अस्माक ) श्रिये (प्रेमसम्पत्त्यै) अस्तु (भवतू)।
श्लोक – भावानुवाद – अपनी वंशीध्वनिके द्वारा गोपियोंकी कृष्णेतरवासनाको शिथिल करते हुए अर्थात् वंशीनादरूपी प्रेमरज्जुके बलसे घरसे उन्हें अपने निकट लाते हुए परमशोभामय विग्रह, रासरसको आरम्भ (आस्वादन) करनेवाले, वंशीवटवृक्षके मूलदेशमें अवस्थित स्वच्छन्द विचरण करनेवाले वे श्रीगोपीनाथ हमारी प्रेमसम्पत्ति हों ॥ १७ ॥
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द ।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द ॥ १८ ॥
अनुवाद – महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव की जय हो। श्रीनित्यानन्द प्रभुकी जय हो। श्रीअद्वैतचन्द्रकी जय हो । श्रीगौर भक्तवृन्दकी जय हो ॥ १८ ॥
अनुभाष्य- कुछ अन्य संस्करणोंमें यह पच नहीं पाया जाता ॥ १८ ॥
गौड़ीय वैष्णवोंके अभीष्ट आराध्य तीन विग्रह :-
एइ तिन ठाकुर गौड़ीयाके करियाछेन आत्मसात् ।
ए तिनेर चरण वन्दों, तिने मोर नाथ ॥ १९ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १९ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य–श्रीमदनमोहन, श्रीगोविन्ददेव और श्रीगोपीनाथ – ये तीन ठाकुर वृन्दावनके अधिदेवता हैं। इन तीनोंने गौड़ीय भक्तोंको अपनी-अपनी सेवामें अधिकार प्रदानकर अपने निजजनके रूपमें अङ्गीकार किया है। (मैं इन तीनोंके चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, क्योंकि वे ही मेरे नाथ हैं ) ॥ १९ ॥
अनुभाष्य-गौड़ीय वैष्णवोंके सेव्य अष्टादशाक्षर मन्त्र (गोपाल – मन्त्र) में निर्दिष्ट श्रीकृष्ण ही श्रीमदनमोहन, गोविन्द ही श्रीगोविन्ददेव और गोपीजनवल्लभ ही श्रीगोपीनाथ हैं। श्रीमदनमोहन- कृष्णका अनुभव ही ‘सम्बन्ध’ है, श्रीगोविन्ददेवकी सेवा ही ‘अभिधेय’ है और श्रीगोपीजनवल्लभके द्वारा आकृष्ट होना ही ‘प्रयोजन है। श्रीमन्महाप्रभुके उपदेशानुसार तीन तत्त्व सम्बन्ध-अभिधेयप्रयोजनतत्त्वके आश्रय भगवत्विग्रह स्वरूप ये तीन ठाकुर श्रीवृन्दावनके अधिदेवता हैं।
‘गौड़ीय’ शब्दका अर्थ है गौड़ – देशसे सम्बन्धित । हिमालयके दक्षिण और विन्ध्याचलके उत्तरमें स्थित भारतवर्षका भाग ‘आर्यावत्तं कहलाता है। यह पाँच गौड़ देशोंमें विभाजित है – सारस्वत, कान्यकुब्ज ( लक्ष्मणावती – उत्तरप्रदेश स्थित लखनऊ), मध्यगौड़, मैथिल और उत्कलप्रदेश (उड़ीसा)। बङ्गालको भी कई लोग गौड़देश कहते हैं, विशेषतः पूर्वकालमें बङ्गालकी राजधानीका नाम ‘गौड़’ था। वही पहले गौड़पुर और बादमें श्रीमायापुरके नामसे प्रसिद्ध हुई।
जिस प्रकार उत्कलदेशके (उड़ीसा) भक्तोंको उड़ीया भक्त और द्राविड़देश (दक्षिण भारतके) भक्तोंको द्राविड़ी भक्त कहा जाता है, उसी प्रकार बङ्गालके भक्तोंको भी गौड़ीयभक्तके नामसे जाना जाता है।
आर्यावर्त्तके समान दक्षिण भारत भी पाँच द्रविड़ोंमें विभाजित है। कलियुगमें चारों वैष्णव सम्प्रदायोंके प्रथम आचार्यांने द्रविड़देशमें ही जन्म ग्रहण किया था। श्रीरामानुजाचार्य दक्षिण- आन्ध्रप्रदेशके महाभूतपुरीमें (वर्तमानमें चेन्नईके निकट पेरुम्बूदूर), श्रीमध्वाचार्य मैंगलोर जिलेके विमानगिरिके निकट (वर्तमानमें कर्णाटक राज्यमें उडुप्पी) ‘पाजकम्’ क्षेत्रमें निम्बादित्याचार्य दक्षिणापथके मूरपत्तन ग्राममें और श्रीविष्णुस्वामी पाण्ड्यदेशमें आविर्भूत हुए थे।
यद्यपि श्रीमन्महाप्रभुने श्रीमध्व सम्प्रदायको स्वीकार किया है, तथापि श्रीमध्वाचार्य-मतके ‘तत्त्ववाद की शाखाका अवलम्बन करनेवाले वैष्णवाचार्य द्राविडी हैं। इसलिये श्रीगौरहरिके चरणाश्रित सम्प्रदायको गौड़ीय कहा जाता है। विशेषतः ‘श्री आनन्दतीर्थ पूर्णप्रज्ञ मध्वाचार्य का एक अन्य नाम श्रीगौड़पूर्णानन्द भी था, इसलिये भी श्रीगौर – भक्तोंको माधव – गौड़ीय – नामसे जाना जा सकता है ॥ १९ ॥
प्रथम चौदह श्लोकोंमेंसे स्वकृत मङ्गलाचरणकी व्याख्या :-
ग्रन्थेर आरम्भे करि ‘मंगलाचरण’ ।
गुरु, वैष्णव, भगवान्, – तिनेर स्मरण ॥२०॥
तीनों आराध्योंके स्मरणसे अभीष्ट सिद्धि :-
तिनेर स्मरणे हय विघ्नविनाशन ।
अनायासे हय निज वाञ्छितपूरण ॥ २१ ॥
से मङ्गलाचरण हय त्रिविध प्रकार ।
वस्तुनिर्देश, आशीर्वाद, नमस्कार ॥ २२ ॥
अनुवाद – इस ग्रन्थके प्रारम्भमें श्रीगुरु वैष्णवों और श्रीभगवान् – इन तीनोंको स्मरणकर ‘मङ्गलाचरण’ कर रहा हूँ। इन तीनोंका स्मरण समस्त विघ्नोंका विनाश करनेवाला और अनायास ही समस्त इच्छाओंकी पूर्ति करनेवाला है। इस मङ्गलाचरणमें ग्रन्थके प्रतिपाद्य विषयका निर्धारण, आशीर्वाद प्रदान और नमस्कार, ये तीन क्रियाएँ अन्तर्हित हैं ॥ २०-२२॥
चौदह श्लोकोंमें ग्रन्थकारके द्वारा मङ्गलाचरण :-
प्रथम दुइ श्लोके इष्टदेव नमस्कार ।
सामान्य- विशेष रूपे दुइ त प्रकार ॥ २३ ॥
तृतीय श्लोकेते करि वस्तुर निर्देश ।
याहा हैते हय परतत्त्वेर उद्देश ॥ २४ ॥
चतुर्थ श्लोकेते करि जगते आशीर्वाद ।
सर्वत्र मागिये कृष्णचैतन्य-प्रसाद ॥ २५ ॥
सेइ श्लोके कहि बाह्यावतार – कारण ।
पञ्च षष्ठ श्लोके कहि मूल-प्रयोजन ॥ २६॥
एइ छय श्लोके कृष्णचैतन्येर तत्त्व ।
आर पञ्च श्लोके नित्यानन्देर महत्त्व ॥ २७ ॥
आर दुइ श्लोके अद्वैत- तत्त्वाख्यान ।
आर एक श्लोके पश्चतत्त्वेर व्याख्यान ॥ २८ ॥
एइ चौद्द श्लोके करि मंगलाचरण ।
तँहि मध्ये कहि सब वस्तुनिरूपण ॥ २९॥
सब श्रोता – वैष्णवेरे करि नमस्कार ।
एइ सब श्लोकेर करि अर्थ-विचार ॥ ३० ॥
सकल वैष्णव, शुन करि’ एकमन ।
चैतन्य – कृष्णेर शास्त्रे येमत – निरूपण ॥ ३१॥
अनुवाद – मैंने प्रथम दो श्लोकोंके द्वारा सामान्य और विशेष – दो प्रकारसे इष्टदेव ( श्रीकृष्णचैतन्य) को नमस्कार किया है। तृतीय श्लोकमें प्रतिपाद्य विषय-वस्तुको निर्देश किया है, जिसका उद्देश्य परमतत्त्वका निरूपण है। चतुर्थ श्लोकमें श्रीकृष्ण चैतन्यके चरणोंमें कृपाभिक्षा करते हुए समस्त जगत्को आशीर्वाद प्रदान करनेकी प्रार्थना कर रहा हूँ। इसी श्लोकमें उनके अवतारके बाह्य-कारणको भी बतलाया है। पाँचवें और छठे श्लोकमें उनके अवतारके मुख्य कारण (आन्तरिक प्रयोजन) का उल्लेख किया है। इस प्रकार इन छह श्लोकोंके द्वारा मैंने श्रीचैतन्य महाप्रभुके तत्त्वका निरूपण किया है और अगले पाँच श्लोकोंमें श्रीनित्यानन्द प्रभुकी महिमाका वर्णन किया है। अन्य दो श्लोकोंमें श्री अद्वैततत्त्व और अगले एक श्लोकमें श्रीपञ्चतत्त्वकी व्याख्या प्रस्तुत की है। इस प्रकार मङ्गलाचरणरूपी चौदह श्लोकोंमें सम्पूर्ण परमवस्तुका निरूपण किया है । समस्त वैष्णव श्रोताओंको प्रणामकर इन सब श्लोकोंके गूढ़ार्थके विचारमें प्रवृत्त हो रहा हूँ। सभी वैष्णवजनोंके चरणोंमें यह प्रार्थना है कि वे एकाग्रचित्तसे श्रीकृष्णचैतन्यका शास्त्रोचित निरूपण श्रवण करें ॥ २३-३१॥
अमृतप्रवाह भाष्य – चैतन्यस्वरूप श्रीकृष्णके सम्बन्धमें शास्त्रोंमें जिस प्रकार निरूपण किया गया है॥३१॥
पूर्वोक्त चौदह श्लोकोंकी व्याख्या आरम्भ;
प्रथम श्लोककी व्याख्या :-
कृष्ण, गुरुद्वय, भक्त, अवतार, प्रकाश ।
शक्ति – एइ छयरूपे करेन विलास ॥ ३२ ॥
एइ छय तत्त्वेर करि चरण वन्दन ।
प्रथमे सामान्ये करि मङ्गलाचरण ॥ ३३॥
अनुवाद – श्रीकृष्ण (स्वयं), दो प्रकारके (दीक्षा – शिक्षा) गुरु भक्त, अवतार, अपने प्रकाश और निजशक्ति, इन छह रूपोंमें विलास करते हैं। इन छह तत्त्वोंके श्रीचरणोंकी वन्दनाकर मैं सर्वप्रथम सामान्य रूपसे मङ्गलाचरण कर रहा हूँ ॥ ३२-३३॥
अनुभाष्य- ‘गुरुद्वय’ शब्दसे दीक्षागुरु और शिक्षागुरुको समझना चाहिये। दोनों ही अभिन्न गुरुतत्त्व हैं। दीक्षा और शिक्षागुरुमें लीलावशतः भेद (दृष्ट) होनेपर भी शिष्यके लिये वे दोनों ही समान तत्त्व हैं और एक ही समान पूजनीय हैं ॥ ३२ ॥
वन्दे गुरुनीशभक्तानीशमीशावतारकान् ।
तत्प्रकाशांश्च तच्छक्तीः कृष्णचैतन्यसंज्ञकम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद – आदिलीला १/१ द्रष्टव्य है ॥ ३४ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य- मैं दीक्षा और शिक्षा भेदसे दोनों गुरुओंकी श्रीवासादि भगवद्भक्तोंकी, श्री अद्वैताचार्य प्रभु आदि भगवान्के अवतारोंकी, श्रीनित्यानन्द प्रभु आदि उनके प्रकाशस्वरूपकी, श्रीगदाधरादि भगवत्-शक्तियोंकी और स्वयं भगवत्-स्वरूप महाप्रभु श्रीकृष्णचैतन्य नामक परमतत्त्वकी वन्दना करता हूँ ॥ ३४ ॥
अनुभाष्य – यह ग्रन्थकार (श्रीकृष्णदास) के द्वारा स्वरचित श्लोक है-
[ग्रन्थकारः कृष्णदासोऽहं] गुरुन् ( वर्त्मप्रदर्शक मन्त्रदातृ-शिक्षादातृन् गुरुगणान् श्रीनित्यानन्द- रघुनाथरूपादीन् ) ईशभक्तान् (गौरकृष्णसेवकान् श्रीवासादीन् ) कृष्णचैतन्य-संज्ञकम् ईशं (स्वयं भगवन्तम् ) ईशावतारकान् (श्री अद्वैताचार्यादीन् ) तत्प्रकाशान् (तस्य चैतन्यकृष्णस्य प्रकाशान् श्रीनित्यानन्दादीन् निजगुरुन्) तच्छक्ती: (तस्य गौरकृष्णस्य शक्तीः– श्रीगदाधर दामोदर जगदानन्दादीन् ) [ अभिप्रावरणात्मक तत्त्वषट्कान् अहं] वन्दे ।
श्लोक-भावानुवाद-ग्रन्थकार मैं कृष्णदास, अपने गुरु (पथप्रदर्शकगुरु, मन्त्रप्रदातागुरु और शिक्षागुरु श्रीनित्यानन्द – श्रीरूप – रघुनाथादि), भगवद्भक्त अर्थात् श्रीगौरकृष्णके सेवक ( श्रीवासादि), श्रीकृष्णचैतन्य नामक स्वयं भगवान् श्री अद्वैताचार्य आदि भगवतावतारों, श्रीचैतन्यकृष्णके प्रकाश श्रीनित्यानन्दादि (स्वयंगुरु) तथा श्रीगौरकृष्णकी शक्तियाँ (श्रीगदाधर – श्रीस्वरूप दामोदर – श्रीजगदानन्दादि), इन अभिन्नावरणात्मक छह तत्त्वोंकी वन्दना करता हूँ ॥ ३४ ॥
अमृतानुकणिका – श्रीकृष्णचैतन्यदेवकी लीला वर्णनके विचारसे सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि यह कथा श्रीकृष्णचैतन्य नामक किसी एक नश्वर व्यक्तिके सम्बन्धर्मे नहीं है, अपितु यह व्यापकता-धर्मसे युक्त भगवान्के सम्बन्धमें है।
इस श्लोक – ‘गुरून्’– गुरुवर्गको (बहुवचनमें प्रयुक्त); ‘ईश-भक्तान्’ – भागवत परमहंस अथवा वैष्णवको; ‘ईशम्’ – ईश्वरको (एकवचनमें ); ईशावतारकान्ं – ईश्वरके अवतारोंको, ‘तत्प्रकाशान्ं- उनके प्रकाशादिको; और ‘तच्छक्ति’ – उनकी शक्तियको – यद्यपि ये सभी श्रीकृष्णचैतन्य संज्ञाके अन्तर्भुक्त हैं, किन्तु प्रत्येकका ही वैशिष्ट्य है।”
उनके परस्पर इस पार्थक्यकी आलोचना आवश्यक है।
श्रीकृष्णस्मृतिके अभावमें मायाबद्ध जीवोंका अहङ्कार- धर्म प्रबल होकर ‘मैं कर्त्ता’ हूँ, ऐसी बुद्धि प्रबल हो जाती है। इसलिये श्रीकृष्ण अपनी श्रीकृष्णचैतन्यदेव मूर्तिमें गुरुका वेश स्वयं ही नित्यकाल धारण करते हैं सभी प्रकारके गुरु होकर जीवोंकी चेतनको जाग्रत करते हैं और उनका वास्तविक मङ्गल विधान करते हैं।
‘गुरु’ – गुरुको लघुजातीय मानकर श्रीकृष्णचैतन्यसे पृथक् मानना उचित नहीं है। गुरु तीन प्रकारके हैं – (१) दीक्षागुरु-जो दिव्य ज्ञान अर्थात् पूर्ण वस्तुका ज्ञान कराते हैं, (२) शिक्षागुरु- किस उपाय या रीतिका अवलम्बन करके दिव्यज्ञानके विचारको प्राप्त किया जाय, जो उसकी व्यवस्था करते हैं, और (३) चैत्यगुरु रूपमें हृदयमें विराजमान होकर अद्वयज्ञानदाता दीक्षागुरु और शिक्षागुरुके उपदेशोंको धारण करनेकी सुविधा एवं शक्ति देते हैं। चैत्त्यगुरुकी कृपाके बिना महान्त ( शिक्षागुरु या दीक्षागुरु) गुरुकी बातको समझा नहीं जा सकता। उनकी कृपा नहीं होनेसे ना तो चित्तकी मलिनता दूर हो सकती है और ना ही शिक्षा दृढ़ हो सकती है। चैत्यगुरु ही कृपा करके दीक्षा और शिक्षा गुरुकी कृपा ग्रहण करनेकी योग्यता प्रदान करते हैं। श्रीचैतन्यदेव स्वयं ही दीक्षागुरु रूपमें दिव्यज्ञान अर्थात् अव्यभिचारिणी (ऐकान्तिक) भक्ति प्रदान करते हैं और अपनेसे अभिन्न शिक्षागुरुओंको भेजकर उस भक्तिकी रक्षा करते हैं तथा स्वयं ही चैत्यगुरु होकर सेवान्मुख मुक्तजीवके हृदयमें उस दीक्षा और शिक्षाको ग्रहण करनेकी शक्ति देते हैं। आश्रयजातीय सेवकरूपमें श्रीचैतन्यदेवने गुरु (श्रीईश्वरपुरी) के अधीन स्वयंको लघु दिखलाकर गुरुके आनुगत्यके आदर्शकी शिक्षा प्रदान की। किन्तु वास्तवमें वे लघु नहीं, गुरुके भी गुरु हैं। जो उनमें गुरु स्थानीय ज्ञान नहीं रखते, वे भ्रमित होते हैं। चैत्त्यगुरुकी कृपाके बिना ये सब विचार उपलब्धिका विषय नहीं होते ।
‘ईशभक्तान्ं–जो सब समय ईश्वरकी सेवामें नियुक्त हैं, वे ही श्रीचैतन्यदेवके सेवक विग्रह हैं। ईश्वरके भक्त पृथक् तत्त्व नहीं हैं। श्रीचैतन्यदेव स्वयं उनके उपास्य हैं। वे अन्य किसीको भी नहीं जानते हैं। चेतनधर्मविशिष्ट, भक्तियुक्त व्यक्ति ही श्रीचैतन्यदेवकी उपासना करते हैं। जहाँ चेतनकी क्रिया लक्षित नहीं होती, वह अचेतनधर्मके अतिरिक्त कुछ नहीं है । ईश्वरके भक्त अन्याभिलाषी, भोग-परायण कर्मी या भोगरहित अभक्त नहीं हैं, वे जड़की सेवा नहीं करते हैं; अभक्त ही जड़की सेवा करके प्रभु होनेकी वासना करते हैं। भक्ति ही भक्तकी सम्पत्ति है । भक्तलोग ब्रह्माण्डके अन्तर्भुक्त किसी स्थानपर भी किसी इन्द्रिय-भोग्य वस्तुकी सेवा नहीं करते हैं। अव्यभिचारिणी केवला अहैतुकी भक्ति अर्थात् नित्यकालीन आत्माकी वृत्ति स्वरूपभक्तिके द्वारा वे सब समय श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवामें ही नियुक्त रहते हैं।
‘ईशावतारकान्ं’–मत्स्य, कूर्म, वराहादि, अर्चा, अन्तर्यामी, वैभव, व्यूह और पर- ये सभी ईश्वरके अवतार हैं। अवतारी परतत्त्व स्वतन्त्र हैं।
‘तत्प्रकाशान्’– उनके प्रकाश समूह; विभिन्न प्रकाश-जैसे अर्चा- प्रकाश, अन्तर्यामी, वैभव, व्यूह और पर – प्रकाश । ये भिन्न-भिन्न प्रकाश हैं।
‘तच्छक्ती:’ – उनकी शक्तियाँ जो शक्तिमान्की पूजा करती हैं, वे शक्तिजातीय हैं। ‘श्रीकृष्णचैतन्य संज्ञक’ – इन छह तत्त्वोंमें किसी एक तत्त्वकी उपासनामें भी च्युति हो गयी, तो परतत्त्वकी उपासना अपूर्ण रह जायेगी ॥ ३४ ॥
लीला भेदसे दो प्रकारके गुरु :-
मन्त्र गुरु आर यत शिक्षागुरुगण ।
तौहार चरण आगे करिये वन्दन ॥ ३५ ॥
अनुवाद – मैं सर्वप्रथम अपने दीक्षा गुरु और समस्त शिक्षागुरुजनोंके श्रीचरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ॥ ३५ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – गुरु दो प्रकारके होनेपर भी वे एकतत्त्व हैं, इस विचारके कारण यहाँ एकवचन शब्द ‘ताँहार’ का व्यवहार किया गया है। कुछ अन्य संस्करणोंमें ‘ताँ सबार’ (बहुवचन शब्द) भी देखा जाता है ॥ ३५ ॥
अनुभाष्य – श्रीजीवप्रभु – (भक्तिसन्दर्भ संख्या २०२ में ) –
“यद्यपि अकिञ्चना भक्तिरभिधेयेति तत्कारणत्वेन मद्भक्तसङ्ग एवाभिधेये सति भक्तोऽपि स एव लक्षितव्यः । तत्र प्रथमं तावत् तत्तत्सङ्गाज्जातेन तत्तच्छ्र तत्तद्भजनीये भगवदाविर्भावविशेषे तद्धजनमार्गविशेषे च रुचिजायते। ततश्च विशेषवुभुत्सायां सत्यां तेष्वेकतो ऽनेकतो या श्रीगुरुत्वेनाश्रितात् श्रवणं क्रियते । xxx प्रीतिलक्षणभक्तीच्छूनां तु रुचिप्रधान एव मार्गः श्रेयान् नाजातरुचीनामिव विचारप्रधानाः । तदेतदुभयस्मिन्त्रपि तत्तद्भजनविधिशिक्षागुरुः प्राक्तनः श्रवणगुरुरेव भवति । मन्त्रगुरुस्त्वेक एव निषेत्स्यमानत्वाद्वहूनाम्।” (संख्या २०६ में ) – ” श्रवणगुरुभजनशिक्षागुर्योः प्रायिकमेकत्वमिति । शिक्षागुरोर्बहुत्वमपि ज्ञेयम्।” (संख्या २०८ में) तत्र श्रवणगुरुसंसर्गेणैव शास्त्रीयज्ञानोत्पत्तिः स्यात्।” (संख्या २०७ में)- “अनुग्रहो मन्त्रदीक्षारूपः।” (संख्या २०९ में ) – “ये गुरोश्चरणं समवहाय भगवदन्तर्मुखीकर्तुं प्रयतन्ते ते तेषु तेषु उपायेषु खिद्यन्ते, अतो व्यसनशतान्विता भवन्ति, अतएव इह संसारे तिष्ठन्त्येव, अकृतकर्णधरा जलधौ यथा तद्वत् । गुरुभक्त्या स मिलति स्मरणात् सेव्यते बुधैः । मिलितोऽपि न लभ्यते जीवैरहमिकापरैः ॥” (संख्या २१० में) – परमार्थगुर्वाश्रयो व्यवहारिक गुर्वादिपरित्यागेनापि कर्त्तव्यः ।”
अकिञ्चना भक्ति अभिधेय है और यह श्रीकृष्णभक्त सङ्गको ही लक्षित करता है। सबसे पहले श्रीकृष्ण-भक्तसङ्गके फलसे श्रद्धा उत्पन्न होनेपर जीव श्रीकृष्णोन्मुख होता है। उस सङ्गके फलसे सेव्य – भगवान्के विशेष आविर्भावमें और विशेष भजनमार्गमें रुचि उत्पन्न होती है। श्रीकृष्णके विषयमें अधिक जाननेकी इच्छा होनेसे सुकृतिवान् जीव एक या एकसे अधिक शिक्षा – गुरुओंका आश्रय ग्रहणकर उनसे हरिकथा श्रवण करता है। प्रीति- लक्षणयुक्त-भक्तिके इच्छुक व्यक्तियोंके लिये रुचिप्रधान पथ ही श्रेयस्कर है; रागानुगभक्तोंके लिये अजातरुचि (जिनमें रुचि अभी जाग्रत नहीं हुई है) व्यक्तियोंकी भाँति विचारप्रधान पथ उचित नहीं है। इन दोनोंके पुरातन श्रवणगुरु ही उस उस भजनविधिके शिक्षागुरु होते हैं। मन्त्रगुरु एक ही होते हैं, क्योंकि अनेक दीक्षागुरु ग्रहण करना (शास्त्रों में) निषिद्ध है । श्रवणगुरु और भजनशिक्षागुरु प्रायः एक ही होते हैं, किन्तु शिक्षागुरु एकसे अधिक हो सकते हैं, इनमेंसे श्रवणगुरुके सङ्गसे ही शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त होता है। गुरु मन्त्र – दीक्षारूप अनुग्रह (कृपा) करते हैं। जो लोग श्रीगुरुदेवकी अवज्ञा करके सीधे भगवान्का सान्निध्य प्राप्त करनेके लिये चेष्टा करते हैं, उनकी सभी चेष्टाएँ विफल होती हैं। इसलिये सैंकड़ों बुरी आदतें आकर ऐसे गुरुभक्ति-रहित जीवको कृत्रिम भक्तरूपमें सजाकर केवल संसारमें ही निवास कराती हैं। मैं अधिक जानता हूँ और कोई गुरु आकर मुझे क्या अधिक उपदेश देंगे?’ – इस प्रकार अहङ्कारी व्यक्तियोंको इस अपराधके कारण श्रीकृष्णभक्ति प्राप्त नहीं होती। समुद्रमें बिना नाविककी नौकाकी भाँति संसारसे उनका उद्धार नहीं हो पाता। गुरुसेवाके द्वारा ही श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है। भक्तलोग स्मरणादिके द्वारा श्रीकृष्णकी सेवा करते हैं। व्यवहारिक, लौकिक, कौलिक (वंशपारम्परिक) अयोग्य गुरुको त्यागकर पारमार्थिक गुरुका ही आश्रय ग्रहण करना चाहिये ॥ ३५ ॥
छह गोस्वामी -ये ही ग्रन्थकारके शिक्षा – गुरु :-
श्रीरूप, सनातन, भट्ट – रघुनाथ ।
श्रीजीव, गोपालभट्ट, दास – रघुनाथ ॥ ३६॥
एइ छय गुरु – शिक्षागुरु ये आमार ।
ताँ सबार पादपद्मे कोटि नमस्कार ॥ ३७॥
ईशभक्त :-
भगवानेर भक्त यत श्रीवास प्रधान ।
ताँहार चरणपद्मे सहस्र प्रणाम ॥ ३८॥
ईशावतार :-
अद्वैत आचार्य – प्रभुर अंश – अवतार ।
ताँर पादपद्मे कोटि प्रणति आमार ॥ ३९ ॥
ईशप्रकाश :-
नित्यानन्दराय – प्रभुर स्वरूपप्रकाश ।
ताँर पादपद्म वन्दो यार मुञि दास ॥ ४०॥
ईशशक्ति :-
गदाधर- पण्डितादि – प्रभुर निजशक्ति ।
ताँ सबार चरणे मोर सहस्र प्रणति ॥ ४१ ॥
स्वयं ईश्वर :-
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु स्वयं भगवान् ।
ताँहार पदारविन्दे अनन्त प्रणाम ॥ ४२॥
अनुवाद — श्रीरूप, श्रीसनातन, श्रीरघुनाथभट्ट, श्रीजीव, श्रीगोपालभट्ट और श्रीरघुनाथदास गोस्वामी-ये छह गोस्वामी मेरे शिक्षागुरु- स्वरूप हैं। मैं इनके श्रीचरणकमलोंमें कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ । भगवान् के सभी भक्तोंमें श्रीवास पण्डित प्रधान (श्रेष्ठ) हैं। मैं उनके श्रीचरणकमलोंमें हजारों बार प्रणाम करता हूँ। श्री अद्वैताचार्य भगवान्के अंशावतार हैं, मैं उनके श्रीचरणकमलोंमें कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ । श्रीमन् नित्यानन्दप्रभु भगवान् के प्रकाशस्वरूप हैं, मैं उनका दास उनके श्रीचरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ। मैं श्रीगदाधर पण्डितादि प्रभुकी निजशक्तियोंके चरणोंमें हजारों प्रणति ज्ञापन करता हूँ। स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभुके श्रीचरणकमलोंमें मैं अनन्त प्रणाम ज्ञापन करता हूँ ॥ ३८-४२॥
अनुभाष्य – श्रीरूप, श्रीसनातन और श्रीजीव गोस्वामीके विषयमें (आदि १०/८५) द्रष्टव्य है। श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामीके विषयमें (आदि १०/१५३ – १५८) द्रष्टव्य है। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामीके विषयमें (आदि १०/९१) द्रष्टव्य है । श्रीगोपालभट्ट गोस्वामीके विषयमें (आदि १०/८) द्रष्टव्य है। श्रीवास पण्डितके विषयमें आदिलीला १०/८ द्रष्टव्य है। श्री अद्वैताचार्यके विषयमें आदिलीला छठा अध्याय द्रष्टव्य है। श्रीनित्यानन्दके विषयमें आदिलीला पाँचवाँ अध्याय द्रष्टव्य है।
श्रीगौरसुन्दरको अनन्त प्रणाम, श्री अद्वैताचार्य और श्रीशिक्षागुरुको कोटि प्रणाम, शक्ति और भक्ततत्त्वको हजारों प्रणाममें संख्यानुसार भेद दिखनेपर भी इनके प्रति ग्रन्थकारकी मायिक भेदबुद्धि उद्दिष्ट नहीं हुई है ॥ ३६-४२ ॥
सावरणे प्रभुरे करिया नमस्कार ।
एइ छय तें हों यैछे— करिये विचार ॥ ४३ ॥
अनुवाद – निज- पार्षदरूपी आवरणसहित भगवान्को प्रणामकर उनमें ही अन्तर्हित पूर्वोक्त छह तत्त्वोंकी में विशेषरूपसे विवेचना कर रहा हूँ॥ ४३ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य- भगवान्के चारों ओर विराजमान भक्त उनके आवरण हैं। आवरण सहित उन भगवान्को मैंने नमस्कार किया है। ये छह तत्त्व – गुरु, ईशभक्त, ईशावतार, ईशप्रकाश, ईशशक्ति और ईशस्वरूप श्रीकृष्णचैतन्य इनका जैसा स्वरूप है, अब उसका विचार करता हूँ॥४३॥
गुरुतत्त्व : (१) दीक्षागुरु-
यद्यपि आमार गुरु- चैतन्येर दास ।
तथापि जानिये आमि ताँहार प्रकाश ॥ ४४ ॥
अनुवाद – यद्यपि मेरे गुरुदेव श्रीचैतन्य महाप्रभुके दास हैं, तथापि मैं उन्हें महाप्रभुका प्रकाश ही मानता हूँ ॥ ४४ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – यद्यपि सभी जीव ही श्रीकृष्णके दास हैं, इसलिये मेरे गुरु भी वास्तवमें श्रीकृष्णदास हैं, तथापि मैं अपने गुरुको श्रीकृष्णका प्रकाश मानता हूँ। शिष्यके लिये गुरुदेव श्रीकृष्णके प्रकाशस्वरूप होते हैं, किन्तु श्रीनित्यानन्द – श्रीबलदेव प्रभु ही वास्तवमें श्रीकृष्णके विलासस्वरूप प्रकाशतत्त्व हैं ॥ ४४ ॥
गुरु कृष्णरूप हन शास्त्रेर प्रमाणे ।
गुरुरूपे कृष्ण कृपा करेन भक्तगणे ॥ ४५ ॥
अनुवाद – शास्त्रोंमें यह प्रमाणित है कि श्रीगुरुदेव श्रीकृष्णका ही रूप (प्रकाश) होते हैं और गुरुके रूपमें ही श्रीकृष्ण भक्तोंपर कृपा करते हैं ॥ ४५ ॥
अनुभाष्य- दो प्रकारके गुरु भक्त, ईश्वर, ईश्वरावतार, ईश्वर-प्रकाश और शक्ति – इन छह तत्त्वोंके रूपमें ही श्रीकृष्णचैतन्यदेवका विलास है और अचिन्त्यभेदाभेद विचारसे अद्वयज्ञान तत्त्वको श्रीकृष्णचैतन्यके नामसे कहा जाता है।
सभी श्रीचैतन्य महाप्रभुके दास हैं, इसलिये श्रीगुरुदेवमें भी चैतन्यदासके अतिरिक्त अन्य कोई प्रकाश होनेकी सम्भावना नहीं है। वे आश्रय-विग्रह हैं, इसलिये सेवक हैं। सेवाप्रकाश-विग्रह अर्थात् भगवान्की सेवा – परिपाटीकी शिक्षा देनेवाले (प्रकाश करनेवाले) श्रीगुरुदेव सेव्य भगवान्के सेवकके अतिरिक्त किसी अन्य प्रकारसे प्रकाशित नहीं होते हैं। प्रकाश-विग्रह गुरुदेवमें विषय-विग्रहकी बुद्धिका अवकाश नहीं है अर्थात् गुरुको विषय-विग्रह श्रीकृष्ण नहीं समझना चाहिये। आश्रय-विग्रह होनेके कारण (दीक्षा) गुरुदेवको शास्त्रोंमें श्रीकृष्णरूप कहा गया है॥ ३७-४५ ॥
श्रीमद्भागवत (११/१७/२७)-
आचार्य मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।
न मत्त्र्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ ४६ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ४६ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य- भगवान् श्रीकृष्णने उद्धवसे कहा- “हे उद्धव ! गुरुदेवको मेरा स्वरूप जानो । गुरुमें सामान्य नरबुद्धि रखकर असूया अर्थात् उनका अनादर कभी नहीं करना चाहिये । गुरु सर्वदेवमय हैं ॥ ४६ ॥
अनुभाष्य- वर्णाश्रम धर्मका पालन करनेवाले और इनके अतिरिक्त अन्य लोगोंके श्रीकृष्णभक्ति – लक्षणरूप स्वधर्मके विषयमें श्रवण करनेके पश्चात् उद्धवजीने उस भक्तिके अनुष्ठानके विषयमें भगवान् श्रीकृष्णसे प्रश्न किया। तब भगवान् श्रीकृष्णने वर्णोंके स्वभाव वर्णन करते हुए ब्रह्मचारियोंके गुरुकुलवासके प्रसङ्गमें गुरुके प्रति व्यवहारके विषयमें कहा-
आचार्य (गुरु) मां (मदीयप्रेष्ठ) विजानीयात् । कर्हिचित् ( कदापि ) न अवमन्येत ( यत्र कुत्र कारणोदयेऽपि न गर्हयेत्)। [यतः] गुरुः सर्वदेवमयः [] मत्यबुद्ध्या (औपाधिक जड़ – देशकाल पात्रावच्छिन्नधिया) न असूयेत (निज प्राकृतजाड्येन मत्सरो भूत्वा आत्मसमं न भावयेत्) ।
श्लोक – भावानुवाद – गुरुको मेरा अति प्रिय मानो (अपनी प्राकृत इन्द्रियोंके द्वारा उनके बाह्य आचरणको देखकर) जब कभी कोई कारण भी उदय हो, कदापि उनकी निन्दा मत करना, क्योंकि गुरुमें सभी देवताओंका वास है। अपनी स्वाभाविक जड़बुद्धिसे ईर्ष्यालु होकर उन्हें अपने समान जड़ देश काल पात्रकी उपाधिके अधीन नहीं समझना चाहिये।
मनुसंहिता ( २ / १४०) –
“उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्विजः।
सकल्पं सरहस्यञ्च तमाचार्यं प्रचक्षते ॥”
अर्थात् “जो शिष्यका उपनयन (जनेऊ संस्कार ) कराकर दूसरा जन्म देता है और उसे वेदकी शिक्षा देता है, उस व्यवहारिक तथा गूढ़ रहस्यपरक शिक्षा प्रदाताको आचार्य कहा जाता
है।”
वायुपुराण-
“आचिनोति यः शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि ।
स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन कीर्त्तितः ॥ “
अर्थात् “जो शिष्यके व्यवहारमें शास्त्रोंके अर्थको स्थापित करता है और स्वयं भी उसका आचरण करता है, वह आचार्य है।”
श्रीभगवान् ही आचार्यरूपमें शिष्योंके निकट प्रकाशित होते हैं। आचार्यके आचरणमें हरिसेवाके अतिरिक्त दूसरा कोई कार्य नहीं है। वे साक्षात् आश्रय-विग्रह हैं। यदि कोई हरिसेवाविमुख होकर अपनेको आचार्य होनेका अभिमान करता है, तो उसके इस सुदुराचारको कोई भी सदाचारके रूपमें ग्रहण नहीं करता। आचार्यका अनन्य (ऐकान्तिक) भजन ही उनका भगवत् – प्रकाश होनेका परिचय है। भोगोंसे असन्तुष्ट होकर इन्द्रिय-सुखपरायण लोग आचार्यके सुष्ठु (दोषरहित) आचरणसे भी ईर्ष्या करते हैं। आचार्यदेव सेव्य – भगवान्के अभिन्न अङ्ग हैं, इसलिये उनके प्रति विद्वेष-भावका पोषण करनेवाले जीव भगवान् और उनके परिकरोंकी कृपासे वञ्चित होकर दुर्गतिको प्राप्त होते हैं।
वस्तुतः श्रीगुरुदेव श्रीकृष्णचैतन्यके दास होनेपर भी शिष्यको अपनी अप्राकृत दृष्टिसे उनको श्रीगौरसुन्दरका प्रकाशविशेष ही जानना चाहिये। परन्तु श्रीकृष्णके नित्य सेव्य सेवकभावसे रहित होकर गुरुदेव किसी अंशमें श्रीब्रजेन्द्रनन्दनके साथ लीलावैचित्र्यमें भिन्न नहीं हैं, ऐसा भी नहीं मानना है। निर्विशेषवादियोंके मतानुसार अप्राकृत अनुभूति (जगत्) में स्वगत सजातीय-विजातीय जैसी कोई विशेषता नहीं है। उनके इस विचारका अनुगमन करके कोई भी भक्तिमान् वैष्णवाचार्य ऐसा कदापि नहीं कहते हैं कि गुरु और श्रीकृष्णमें किसी भी प्रकारसे भेद नहीं है, अपितु वे सदा अचिन्त्यभेदाभेद – तत्त्वका ही उपदेश करते हैं। श्रीरघुनाथदास गोस्वामीने गुरुदेवके सम्बन्धमें कहा है- “मुकुन्दप्रेष्ठत्वे गुरुवरं स्मर” अर्थात् “गुरुवरको मुकुन्दप्रियके रूपमें स्मरण करो।” श्रीजीव गोस्वामीने भक्ति सन्दर्भ (संख्या २१६) में लिखा है- “शुद्धभक्ताः श्रीगुरोः श्रीशिवस्य च भगवता सह अभेददृष्टिं तत् प्रियतमत्वेनैव मन्यन्ते । ” अर्थात् “कोई-कोई शुद्धभक्त श्रीगुरु और श्रीशिवमें भगवान् से अभेददृष्टि रखते हुए, उन्हें भगवान्का प्रिय ही मानते हैं।” श्रीजीव गोस्वामीके अनुगत श्रीविश्वनाथ चक्रवर्त्ती ठाकुर श्रीगुरुदेव स्तोत्रमें कहते हैं- “साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रैरुक्तस्तथा भाव्यत एव सद्भिः । किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ ” अर्थात् “समस्त शास्त्रोंमें ही शिष्यकी दृष्टिमें गुरुदेवको साक्षात् ‘हरि’ के रूपमें वर्णन किया गया है और साधुलोग गुरुदेवको ऐसा ही मानते हैं, किन्तु जो सर्वदा प्रकाशस्वरूप होकर श्रीकृष्णचैतन्यदेवके प्रिय सेवक हैं, उन श्रीगुरुदेवके चरणकमलोंकी मैं, गुरुका नित्यदास, वन्दना करता हूँ।” गौड़ीय वैष्णवमात्र ही आश्रय-विग्रह श्रीगुरुदेवको ‘तदीय’ जानकर गुरुदेवका ध्यान करते हैं और समस्त प्राचीन उपासना पद्धतियों और शुद्धभजन गीतोंमें श्रीगुरुदेवको श्रीमती राधिकाकी प्रियसखी अथवा श्रीनित्यानन्दप्रभुका स्वरूप- प्रकाश कहकर निर्देश किया गया है ॥ ४६ ॥
(२) शिक्षागुरु तत्त्व उनके दो रूप (क) चैत्यगुरु, (ख) महान्तगुरु :-
शिक्षागुरुके तं जानि कृष्णेर स्वरूप ।
अन्तर्यामी, भक्तश्रेष्ठ – एइ दुइ रूप ॥ ४७ ॥
अनुवाद – शिक्षागुरुको श्रीकृष्णका स्वरूप ही समझना चाहिये। वे अन्तर्यामी परमात्मा (चैत्त्यगुरु) और भक्तोंमें श्रेष्ठ भक्त (महान्तगुरु ), इन दो रूपोंमें प्रकाशित होते हैं॥ ४७ ॥
अनुभाष्य – जो हरिभजनकी शिक्षा देते हैं, वे शिक्षा गुरु हैं। भजनहीन दुराचारी व्यक्ति कभी भी गुरु अथवा आचार्य नहीं हो सकते हैं। शिक्षा प्रदाता दो प्रकारके होते हैं, भजनानन्दी महान्तगुरु और भजन अनुकूल विवेक प्रदान करनेवाले चैत्यगुरु साध्य और साधनके भेदसे भजन – शिक्षामें भी भेद होता है। श्रीकृष्ण- प्रदाता श्रीगुरुदेव शिष्यका सम्बन्ध ज्ञान समृद्धकर उसके हृदयमें अपनी सेवा अनुभूतियोंको प्रकाशित करते हैं। शिष्य दीक्षागुरुका अनुग्रह (मन्त्रदीक्षा) प्राप्तकर शिक्षागुरुसे भली-भाँति विष्णुसेवाकी जो शिक्षा प्राप्त करते हैं, उसीको ‘अभिधेय’ कहते हैं। आश्रय-विग्रह – शिक्षागुरु अभिधेय – विग्रह हैं, इसलिये वे आश्रय-विग्रह सम्बन्ध – ज्ञानप्रदाता दीक्षागुरुसे पृथक् नहीं हैं। दोनों ही श्रीगुरुदेव हैं। उनके प्रति छोटे-बड़ेके भावको हृदयमें धारण करना अथवा प्रदर्शन करना अपराध है। श्रीकृष्णके ‘रूप’ और ‘स्वरूप’ में भाषागत वैषम्य नहीं है [अर्थात् रूप और स्वरूप भिन्न शब्द होनेपर भी श्रीकृष्णके रूप और स्वरूपमें असमानता नहीं है ] दीक्षागुरु श्रीसनातन गोस्वामी श्रीमदनमोहनके चरणकमलको देनेवाले हैं। व्रजमें प्रवेशके अनाधिकारी भगवान्को भूले हुए मायाबद्ध जीवोंको वे भगवत्-चरणकमलकी सर्वस्व अनुभूति प्रदान करते हैं। शिक्षागुरु श्रीरूप गोस्वामी श्रीगोविन्ददेव और उनके प्रियजनोंकी चरणसेवाका अधिकार प्रदान करते हैं ॥ ४७ ॥
श्रीमद्भागवत (११/२९/६)-
नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश
ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः ।
योऽन्तर्बहिस्तनुभृतामशुभं विधुन्व-
न्नाचार्य – चैत्त्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति ॥ ४८ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ४८ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य हे ईश (भगवान्) ! ब्रह्माके समान आयु प्राप्त कवि (विद्वान) भी आपकी स्मृतिजनित आनन्दके द्वारा आपके प्रति कृतज्ञता स्वीकार करनेमें समर्थ नहीं हो पाते, क्योंकि आप अपार कृपावशतः देहधारी जीवके समस्त अशुभोंके नाश और स्वगति प्रकाश करनेके लिये बाहरसे आचार्यरूपमें एवं भीतरसे अन्तर्यामीरूपमें अवस्थित हैं ॥ ४८ ॥
अनुभाष्य – योगशास्त्रको विस्तारपूर्वक श्रवण करनेके उपरान्त उद्धवजी योगके पथको बहुत प्रयासयुक्त जानकर संक्षेपमें भगवान्से भक्तियोगके विषयमें जाननेके लिये उनको कह रहे हैं-
हे ईश, तव कृतं ( त्वत्कृतमुपकार) स्मरन्तः (चिन्तयन्तः) ऋद्धमुदः (वर्धितपरमानन्दाः ) कवयः (विवेकिनः) ब्रह्मायुषापि ( ब्रह्मतुल्यमायुः प्राप्य भजन्तोऽपि ) अपचितिं (प्रत्युपकारं आनृण्यं) नैव उपयन्ति ( प्राप्नुवन्ति । [ यतः ] यः ( भवान् ) बहिः आचार्यवपुषा (मन्त्रगुरुरूपेण शिक्षागुरुरूपेण वा ) अन्तश्चैत्त्यवपुषा (अन्तर्यामिरूपेण) तनुभृतां (शरीरधारिणां जीवानां) अशुभं (कृष्णेतर विषयाभिनिवेश) विधुन्वन् (निरस्यान्) स्वगतिं (आत्मस्वरूपं पार्षदत्वलक्षणां गतिं) व्यनक्ति (प्रकाशयति ) ।
श्लोक – भावानुवाद – हे ईश, आपके द्वारा किये गये उपकारोंका स्मरण करके परमानन्दमें विभोर बुद्धिमान् लोग ब्रह्मातुल्य आयु प्राप्तकर भजन करते हुए भी आपके ऋणका शोधन नहीं कर सकते, क्योंकि आप बाहरसे मन्त्रगुरु (दीक्षागुरु) और शिक्षागुरुरूपमें एवं अन्तर्यामीरूपसे चैत्त्यगुरुरूपमें देहधारी जीवोंके श्रीकृष्णसेवाके अतिरिक्त अन्य विषयोंमें अभिनिवेशका नाश करके उनके भगवत्पार्षदरूप आत्मस्वरूपको प्रकाश करते हैं ॥ ४८ ॥
श्रीमद्भगवद्गीता (१०/१० ) –
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ ४९ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ४९ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य-नित्य भक्तियोगके द्वारा जो लोग प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, मैं उनको शुद्धज्ञानजनित विमल प्रेमयोग दान करता हूँ। वे लोग उस ज्ञानके द्वारा मेरे परमानन्द धामको प्राप्त करते हैं ॥ ४९ ॥
अनुभाष्य- भगवान से ही समस्त उत्पत्ति और प्रवृत्ति होती है, यह भली-भाँति जानते हुए जो निश्चल (अटल) भक्तियोगमें अवस्थित भजनशील पण्डितजन श्रीकृष्णमें अपने चित्त और प्राणको समर्पण करके परस्पर हृदयगत भावका आदान-प्रदान एवं श्रीहरिके विषयमें चर्चा करके श्रीकृष्णको प्रसन्नता एवं आनन्द प्रदान करते हैं और उन्हीं कथाओंमें रमण करते हैं, उनके सम्बन्धमें श्रीकृष्ण अर्जुनको यह श्लोक कह रहे हैं-
तेषां सततयुक्तानां (नित्यमेव मत्सेवायोगाकाङ्क्षिणां) प्रीतिपूर्वकं (आदरेण) भजतां ( त्यक्तान्याभिलाषकर्मज्ञानानां हरिसेवारतानां) तं बुद्धियोगं ददामि ( तेषां द्वृत्तिषु अहमेव उद्भावयामि) येन ते मां उपयान्ति ( लभन्ते)। (स बुद्धियोगः स्वतोऽन्यस्माच्च कुतश्चिदप्यधिगन्तुमशक्यः किन्तु मदेकदेयस्तदेकग्राह्य इति भावः) ।
श्लोक – भावानुवाद – अन्य अभिलाषाओं और कर्म एवं ज्ञानके मार्गका त्यागकर नित्य ही मेरी सेवाके द्वारा मुझसे युक्त होनेकी आकाङ्गावाले आदरसहित मेरे भजन (सेवा) में रत भक्तोंके हृदयमें मैं ही ऐसी वृत्तिको उत्पन्न करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझे प्राप्त करते हैं। ( वह बुद्धियोग अपने-आप अथवा अन्य किसीके द्वारा कभी भी नहीं प्राप्त होता है, किन्तु केवल मेरे द्वारा दिये जानेपर ही ग्रहण किया जा सकता है यह भाव है ) ॥ ४९ ॥
यथा भगवान् ब्रह्मणे स्वयमुपदिश्यानुभावितवान् ॥ ५० ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५० ॥
अमृतप्रवाह भाष्य- भगवान्ने स्वयं ब्रह्माको इस प्रकार उपदेशके द्वारा यह अनुभव करवाया था ॥ ५० ॥
ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञान-समन्वितम्।
सरहस्य तदङ्गच गृहाण गदितं मया ॥ ५१ ॥
श्रीमद्भागवत (२/९/३०)-
अनुवाद – श्रीभगवान्ने ब्रह्माजीसे कहा- “हे ब्रह्मन् ! मेरे स्वरूपकी उपलब्धिरूप विज्ञान और रहस्यमयी प्रेमाभक्तिके साथ शब्द-शास्त्रोंका प्रतिपाद्य मेरा अत्यन्त गोपनीय ज्ञान तथा उस प्रेमाभक्तिके अङ्ग – साधनभक्तिको मैं बतला रहा हूँ, तुम इसे ग्रहण करो ॥ ५१ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य-विज्ञानसे युक्त रहस्य और उसके अङ्गयुक्त मेरा अत्यन्त गोपनीय ज्ञान तुम्हें कृपा करके मैं कह रहा हूँ, उसे तुम ग्रहण करो ॥ ५१ ॥
अनुभाष्य-सृष्टि करनेके लिये इच्छा करके ब्रह्माजी अत्यधिक चिन्ता करने लगे। ‘तप’ इस दैववाणीका श्रवणकर निष्कपट तपस्यामें प्रवृत्त होकर ब्रह्माजीने भगवान् विष्णुको प्रसन्न करके वैकुण्ठके दर्शन किये। ब्रह्माजीके ( सृष्टिकर्त्ताकि ) अहङ्कारसे शून्य होकर तत्त्वजिज्ञासु होनेपर भगवान्ने ये छह श्लोक उनको सुनाये-
मे (मम भगवतः ) ज्ञानं परमगुह्यं (निर्विशेषब्रह्मज्ञानादेरपि श्रेष्ठतमं ) विज्ञान समन्वितं ( न केवलं मद्रूपस्य ज्ञानं एव तुभ्यं ददामि अपि तु काष्णकृष्णविज्ञानेनानुभवेन युक्त) सरहस्यं (तत्रापि रहस्यं यत् किमप्यस्ति तेनापि सहितं प्रेमभक्तिरूपं ) तदङ्गञ्च (तस्य रहस्यस्य अङ्गं श्रवणादिभक्तिरूपं साधनभक्तियोगं सम्बन्धज्ञानस्य सहायं) मया गदितं (त्वया अपृष्ठमपि एतत् त्र्यं कृपयैव मया न त्वन्येन कथितं सत्) गृहाण ।
श्लोक – भावानुवाद- मुझ भगवान्का, निर्विशेष ब्रह्मज्ञानसे भी श्रेष्ठतम, ना केवल अपने रूपका ही ज्ञान मैं दे रहा हूँ, अपितु सम्पूर्ण कृष्णविज्ञानके अनुभवसे युक्त जो कुछ भी वह रहस्य है, उससे युक्त प्रेमभक्तिरूप और उस रहस्यके अङ्ग श्रवणादिरूप साधनभक्तियोग सम्बन्धज्ञानके सहित, ये तीनों बातें तुम्हारे ना पूछनेपर भी मैं कृपापूर्वक कह रहा हूँ, जिन्हें मैंने किसी अन्यको नहीं कहा है, तुम इन्हें ग्रहण करो ॥ ५१ ॥
अमृतानुकणिका – भगवान्को जाननेके लिये ज्ञान, योगादि अनेक उपाय हैं, किन्तु इन उपायोंसे उन्हें सम्पूर्ण रूपसे नहीं जाना जा सकता। ज्ञानमार्गमें जो भगवान्के तत्त्वको जाननेका प्रयास करते हैं, वे उनके स्वरूपको सम्यक् रूपसे नहीं जान पाते, उन्हें केवल उनकी अङ्गकान्तिका सन्धानमात्र होता है। योगमार्गमें जो भगवान्का अनुसन्धान करते हैं, उनके द्वारा भगवान्के एक अंश – स्वरूपका ही सन्धानमात्र होता है। उनके स्वरूपको एकमात्र भक्तिके द्वारा ही जाना जा सकता है। बहुत कम लोग ही उनके स्वरूपको जान सकते हैं। इसलिये श्रीभगवान् ब्रह्माजीसे कह रहे हैं कि जो तत्त्व में प्रकाश करूँगा, वह परमगुह्य है। उस तत्त्वको तुम सुनकर स्मरण रख सकते हो, परन्तु स्वयं उसको अनुभव नहीं कर सकोगे। अन्तर्यामी रूपसे मेरे द्वारा चित्तमें अनुभव कराये बिना कोई भी मेरे तत्त्वको अनुभव नहीं कर सकता। मैं ही तुम्हारे चित्तमें अपने द्वारा कहे गये तत्त्व – ज्ञानको अनुभव करा रहा हूँ, तुम उसे ग्रहण करो । प्रेमभक्तिके बिना मेरे तत्त्व ज्ञानका अनुभव नहीं हो सकता, मेरे स्वरूपकी पूर्ण उपलब्धि नहीं होती, इसलिये प्रेमभक्ति ही मेरे तत्त्वज्ञानका रहस्य है। जिसमें प्रेमभक्ति है, मेरी कृपासे एकमात्र वही व्यक्ति ही मेरे स्वरूपको अनुभव कर सकता है। मेरे तत्त्वज्ञानकी उपलब्धिकी कारणभूत प्रेमभक्ति प्राप्त करनेके लिये जो सभी उपाय सहायक हैं, वे भी मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। श्रवण-कीर्तनादि साधन-भक्तिके अनुष्ठानके द्वारा ही प्रेमभक्ति प्राप्त होती है। इसलिये साधन-भक्तिको तत्त्वज्ञानकी रहस्यरूपी प्रेमभक्तिका अङ्ग कहा गया है ॥ ५१ ॥
श्रीमद्भागवत (२/९/३१)-
यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः ।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ५२ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५२ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – मेरा स्वरूप, मेरा लक्षण, मेरा रूप गुण और लीलाएँ जिस प्रकार हैं, उन सबका तत्त्वविज्ञान मेरी कृपासे तुम्हें प्राप्त हो ॥ ५२ ॥
अनुभाष्य- यावान् (यत् प्रमाणाकार, यादृशस्थौल्यकार्श्यदेष्यंतुङ्गता वृत्तताद्यौचित्यसंनिवेशविशिष्टावयवः स्वरूपतो यत्परिमाणक), अहं यथाभाव: ( सत्ता यस्येति यल्लक्षणः) अहं यद्रूपगुणकर्मकः ( यानि रूपानि श्यामत्व- चतुर्भुजत्व-द्विभुजत्व- गौरत्व- कृष्णत्व – रामत्व-नृसिंहत्वादीनि ये गुणाः भक्तवात्सल्याद्याः, यानि कर्माणि लक्ष्मीपरिग्रह-गोवर्द्धनोद्धरणादीनि यस्य सः) तथैव ( तेन सर्वेण प्रकारणैव) तत्त्वविज्ञानं (यथार्थ्यानुभवः) मदनुग्रहात् ते (तव) अस्तु । [ साधनभक्ति प्रेमभक्तत्र्योवृद्धितारतम्येनैव मद्रूप-गुण-लीला – माधुर्यानुभवतारतम्ये मत्स्वरूपादधिकतम माधुर्यं परम दुर्लभं कृष्णस्वरूपं मां व्रजभूमौ त्वं साक्षादनुभविष्यसि । एतेन चतुः श्लोक्यर्थस्य निर्विशेषपरत्वं स्वयमेव परास्तम् । ] ।
श्लोक-भावानुवाद – जिस परिमाणमें मेरा आकार ( स्वरूप ) है अर्थात् मैं जैसी स्थूलता, कृशता, दीर्घता, उच्चता, गोलाकारादिके यथोचित सन्निवेशके द्वारा जिन अङ्गोंसे युक्त हूँ, मेरे जो लक्षण हैं, जो श्याम- – चतुर्भुज – द्विभुज- गौर- कृष्ण-राम-नृसिंहादि मेरे रूप हैं, जो भक्तवात्सल्यादि गुण हैं, लक्ष्मीका पाणिग्रहण, गोवर्धनधारणादि जो लीलाएँ हैं, वे सभी प्रकारसे मेरी कृपासे तुम्हें यथार्थरूपमें अनुभव हो। [साधनभक्ति और प्रेमाभक्तिकी वृद्धिके तारतम्यसे मेरे इन रूप-गुण-लीलाके माधुर्यकी अनुभूतिमें तारतम्य उत्पन्न होता है। मेरे इस चतुर्भुजरूपसे भी अधिकतम – माधुर्यकी विशेषतासे युक्त परम दुर्लभ कृष्ण-स्वरूपका तुम ब्रजभूमिमें साक्षात् अनुभव करोगे। जो लोग चतुः श्लोकके द्वारा केवल निर्विशेष स्वरूपकी व्याख्या करते हैं, उनकी भक्तिहीन इतर व्याख्या स्वयं ही परास्त हुई है ] ॥ ५२ ॥
श्रीमद्भागवत (२/९/३२)-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत् सदसत्परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५३ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – इस जगत्की सृष्टिके पूर्व केवल मैं ही था। सत् असत् और अनिर्वचनीय निर्विशेष ब्रह्म तक कुछ भी मुझसे पृथक् रूपसे नहीं था। सृष्टि होनेके बाद इस सम्पूर्ण स्वरूपमें मैं ही हूँ और सृष्टिकी प्रलय होनेके बाद भी एकमात्र में ही अवशिष्ट रहूँगा ॥ ५३ ॥
अनुभाष्य- अहं (अहं शब्देन तद्वक्ता मूर्त्त एवोच्यते, न तु निर्विशेषं ब्रह्म तदविषयत्वात् आत्मज्ञानत्वात् पर्यकत्वे तु तत्त्वमसीतिवत् त्वमेवासीरित्येव वक्तु
मनोहर-श्रीविग्रहोऽहम् ) एवं अग्रे (सृष्टेः पूर्वं महाप्रलयकालेऽपि ) आसम् अन्यत् न ( न किञ्चित् आसीत्, “वासुदेवो वा ईदमग्र आसीन ब्रह्मा न च शङ्करः”, “एको नारायण आसीत्र ब्रह्मा नेशानः” इत्यादि श्रुतिभ्यः । वैकुण्ठतत्पार्षदादीनामपि तदुपाङ्गत्वादहंपदेनैव ग्रहणं – राजाऽसौ प्रयातीतिवत् ); सदसत्परं ( सत् कार्यं असत् कारणं तयोः पर) यत् (यद्ब्रह्म) तत् अन्यत् न (तन्न मत्तोऽन्यत् यद्वा तदानीं प्रपचे विशेषाभावात् निर्विशेषचिन्मात्राकारेण, वैकुण्ठे तु सविशेषभगवद्रूपेण); पश्चात् (सृष्टेरनन्तरमपि ) अहम् (एवास्मि वैकुण्ठे तु भगवदाद्याकारेण प्रपञ्चेषु अन्तर्याम्याकारेण); यदेतत् (विश्वं) तदप्यहमेवास्मि ( मदनन्यत्वान्मदात्मकमेव ) [ तथा प्रलये] योऽवशिष्येत सोऽहमेवास्मि । [ कालाव्यवच्छिन्न- नित्यलीलाविग्रहस्य श्रीकृष्णस्य सर्वकाले प्रकटतास्तीत्यर्थः ] । श्लोक – भावानुवाद – [‘अहं’ शब्दके द्वारा बतलाया जा रहा है कि श्लोकके वक्ता (श्रीभगवान्) मूर्त्तविग्रह हैं, निर्विशेष ब्रह्म नहीं हैं। इसका कारण यह है कि आत्मज्ञानके तात्पर्यके विषयमें ‘तत्त्वमसि’ इस वेदवाक्यमें जिस प्रकार ‘तुम ही हो’ अर्थात् तुम्हारी पृथक् मूर्त्तिमत्ता है – यह कहना उपयुक्त है, उसी प्रकार श्रीभगवान्का स्वतन्त्र विग्रहवान् होना निश्चित है।] (अब हे ब्रह्मन्!) इस समय तुम्हारे निकट मैं परम मनोहर श्रीविग्रहविशिष्ट रूपमें प्रादुर्भूत हुआ हूँ। यह रूप सृष्टिसे पहले अर्थात् महाप्रलयकालमें भी वर्तमान था तथा कोई और नहीं था। [जैसा कि श्रुतियोंमें भी वर्णन है – “इस विश्वसृष्टिके पूर्व श्रीवासुदेव ही थे, ब्रह्मा अथवा शङ्कर कोई नहीं थे”, “एकमात्र श्रीनारायण ही थे, ब्रह्मा अथवा ईशान कोई भी नहीं थे।” “यह राजा जा रहा है” ऐसा कहनेपर जिस प्रकार राजवेश पहनकर राजदण्ड, राजछत्र सेना, मन्त्रियों और सेवकोंके साथ ही राजाका गमन समझा जाता है, उसी प्रकार ‘अहं’ पदके द्वारा श्रीभगवान्के वैकुण्ठादि धाम और उनके पार्षदादिको भी भगवान्के उपाङ्गके रूपमें ग्रहण करना होगा तथा उनकी भी स्थिति भगवान् के समान नित्य ही समझनी होगी।] सत् अर्थात् कार्य, असत् अर्थात् कारण, इन दोनोंसे अतीत, जो ब्रह्म है, वह भी मुझसे पृथक् अन्य वस्तु नहीं है। प्रलयके समय विश्व-प्रपञ्चमें वैचित्र्य हीनताके कारण निर्विशेष अचित्- मिश्रातीत चिन्मात्र रूपमें तथा वैकुण्ठमें चित्-विलासमय सविशेष भगवत् रूपमें में ही विद्यमान था । सृष्टिके बाद भी मैं ही दोनों रूपोंमें रहूँगा, अर्थात् वैकुण्ठमें षड़ैश्वर्यपूर्ण सच्चिदानन्द-विग्रहके रूपमें और प्रापञ्चिक ब्रह्माण्डमें अन्तर्यामीके रूपमें मुझसे अतिरिक्त अन्य ( पृथक् सत्ताशील) वस्तु नहीं है। प्रलयके बाद भी जो अवशिष्ट रहता है, वह भी मैं ही हूँ। [कालसे अपरिवर्तनशील अनवरत श्रीकृष्णका नित्यलीलाविग्रह समस्तकालमें प्रकटित रहता है, यह अर्थ है ] ॥ ५३ ॥
श्रीमद्भागवत (२/९/३३)-
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ ५४ ॥
अनुवाद – वास्तव प्रयोजन तत्त्वके अतिरिक्त जो कुछ भी प्रतीत होता है अथवा सत्तायुक्त होनेपर भी मेरे अधिष्ठानमें जिसकी प्रतीति नहीं है, उसे ही मेरी माया समझो ॥ ५४ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – पिछले श्लोकमें परमतत्त्वके स्वरूप ज्ञानका निर्णय किया गया। किन्तु स्वरूपसे भिन्न तत्त्वका ज्ञान स्वरूपतत्त्वके ज्ञानको जब तक दृढ़ नहीं करता, तब तक वह विज्ञान नहीं होता। स्वरूपतत्त्वसे भिन्न तत्त्वका नाम ‘माया’ है उसी मायातत्त्वका ज्ञान इस श्लोकमें वर्णन किया गया है। स्वरूपतत्त्व ही ‘अर्थ’ अर्थात् यथार्थ तत्त्व है उस तत्त्वके बाहर जो प्रतीत होता है और उस स्वरूप तत्त्वमें जिसकी प्रतीति नहीं है, उसीको ही आत्मतत्त्वके मायावैभव रूपमें जानना होगा। इस तत्त्वको समझना सहज नहीं है, इसलिये यहाँ दो प्रादेशिक उदाहरण दिये जा रहे हैं। स्वरूपतत्त्वको सूर्यके समान मानो सूर्यसे भिन्न तत्त्व दो रूपोंमें प्रतीत होता है – एक रूप ‘आभास’ और दूसरा रूप ‘तमः’ । जब सूर्यकी प्रतिछवि जलसे किसी दूसरे स्थानमें पड़ती है, तो उसको ‘आभास’ कहा जाता है। सूर्यका प्रभाव जिस स्थानमें दिखलायी नहीं देता, उसको ‘तमः’ अथवा ‘अन्धकार’ कहा जाता है। चित् जगत् भगवत्स्वरूपकी किरणस्वरूप है। उसके समान ही दिखायी देनेवाला आभासरूप मायावैभव है; यही आभासका उदाहरण है। चित्-तत्त्वसे बहुत दूर अन्धकार जो मायावैभव है; वही दूसरा उदाहरण है। तात्पर्य यह है कि आत्मतत्त्व और मायातत्त्वका परस्पर दो प्रकारका सम्बन्ध है; पहला सम्बन्ध इस प्रकार है – आत्मस्वरूपके अतिरिक्त जो भी अन्य स्वरूप प्रकाशित होता है, वह ‘माया’ है और आत्मस्वरूपसे बहुत दूर अनात्म अज्ञान भी माया है ॥ ५४॥
अनुभाष्य – अर्थ (परमार्थभूतं मां ) ऋते (बिना) यत् प्रतीयेत ( मत्प्रतीतौ तत्प्रतीत्यभावात् मत्तो बहिरेव यस्य प्रतीतिरित्यर्थः), यच्चात्मनि न प्रतीयेत (यस्य च मदाश्रयत्वं बिना स्वतः प्रतीतिर्नास्तीत्यर्थः), तत् ( तचालक्षणं वस्तु) आत्मानो ( मम परमेश्वरस्य) यथाभासः (आभासो ज्योतिर्विम्बस्य स्वीय प्रकाशाद्व्यवहितप्रदेशे कथञ्चिदुच्छलितप्रतिच्छवि विशेषः, स यथा तस्माद्वहिरेव प्रतीयते न च तं बिना तस्य प्रतीतिस्तथा सा) यथा तमः (‘तमः शब्देन तमः प्रायं वर्णशाबल्यमुच्यते तद् यथा तन्मूलज्योतिष्यसदपि तदाश्रयत्वं बिना न सम्भवति तद्वदियं) मायां (जीवमाया गुणमायेति द्वयात्मिकां मायाख्यशक्ति) विद्यात् (जानीयात्) ।
श्लोक-भावानुवाद- मुझ परमार्थके बिना मेरी प्रतीतिमें जिस वस्तुकी प्रतीतिका अभाव है अर्थात् मेरे बाहरमें ही जिसकी प्रतीति है और मेरे आश्रयके बिना जिसकी स्वतः प्रतीति भी नहीं है, वैसे लक्षणवाली वस्तु मुझ परमेश्वरका ‘आभास’ है ‘आभास’ कहनेसे ज्योतिबिंम्बके अपने प्रकाशसे दूरवर्ती प्रदेशमें उच्छलित जो एक प्रकारकी प्रतिच्छवि है, उसका ही बोध होता है। वह आभास जिस प्रकार ज्योतिर्बिम्बके बाहर ही प्रतीत होता है और ज्योतिबिम्बके बिना उसकी प्रतीति नहीं है, जीवमाया भी उसी प्रकार है। यहाँ ‘तमः’ शब्दके द्वारा पूर्वकथित तमः प्राय वर्णशाबल्य (अर्थात् वर्ण वैचित्र्य) कथित हुआ है। जिस प्रकार मूल ज्योतिर्मय पदार्थमें अवस्थान ना करनेपर भी मूल ज्योतिर्वस्तुके आश्रयके बिना तमः की स्वतः सम्भावना नहीं है, उसी प्रकार परमार्थभूत भगवान्के अतिरिक्त तमोस्थानीय गुणमायाकी भी स्वतः प्रतीति नहीं है। जीवमाया और गुणमाया, इन दो प्रकारकी माया नामक शक्ति जानो ॥५४॥
श्रीमद्भागवत (२/९/३४)-
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५५ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – जिस प्रकार समस्त महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ) बृहद् और क्षुद्र (ब्रह्मासे एक चींटीतक) सभी जीवोंके भीतर प्रविष्ट (संलग्न) होकर भी अप्रविष्ट रूपमें (बाहर ) स्वतन्त्र विद्यमान होते हैं, उसी प्रकार मैं भूतमय (भौतिक) जगत्में सभी जीवोंमें सत्त्वाश्रयरूप परमात्माके रूपमें प्रविष्ट होनेपर भी पृथक् भगवत् स्वरूपमें नित्य विराजमान होता हूँ और भक्तोंका एकमात्र प्रेमास्पद ( प्रेमका विषय) हूँ। तात्पर्य यह है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, ये सभी महाभूत पाँच रूपोंमें होकर जैसे इस स्थूल जगत्को प्रकाश करते हुए उसके उपकरण रूपमें उसके भीतर रहनेपर भी महाभूत अवस्थामें स्वतन्त्र हैं, इसी प्रकार चिन्मय परमेश्वर अपनी जड़शक्ति और जीवशक्तिके द्वारा जगत् की सृष्टि करके एकांशमें जगत्में सर्वव्यापी होकर रहनेपर भी युगपत् अर्थात् एक ही समयमें अपने चिद्धाममें पूर्ण चिन्मय – विग्रहरूपमें भी नित्य विराजमान रहते हैं। और चित्-विग्रहके किरण- परमाणुस्वरूप जीव शुद्ध प्रेममार्गमें उनके विमल प्रेमका आस्वादन करते हैं – यही रहस्य है ॥ ५५ ॥
अनुभाष्य – यथा महान्ति भूतानि (आकाशादीनि) उच्चावचेषु भूतेषु (देवमनुष्यतिर्यगादिषु) अप्रविष्टानि (बहिःस्थितान्यपि) अनुप्रविष्टानि (अन्तः स्थितानि भान्ति) तथा [ लोकातीत- वैकुण्ठ स्थितत्वेन अप्रविष्टोऽपि] अहं तेषु (तत्तद्गुणविख्यातेषु) नतेषु (प्रणत- जनेषु) प्रविष्टो (हृदि स्थितः ) [ अहं भामि अन्तकरणेषु दर्शनं दातुम् तथा अप्रविष्टः बहिः स्थितश्च तेषां नयनेषु स्वसौन्दर्यमर्पयितुं नासासु स्वसौरभ्यं प्रवेशयितुं तैः सहोक्तिप्रत्युक्ती कुर्वन् तेषां कर्णेषु स्वसौस्वर्यामृतं पूरयितुं, स्पर्शनालिङ्गनादि दानैस्तेषामङ्गेषु स्वीयसौकुमार्य – माधुर्यादिकं चानुभावयितुमिति तेषु गुणातीत भक्तेषु अन्तर्बहिर्मया त्यक्तु
प्रेम-भक्तिर्नाम रहस्यमिति सूचितम् ] ।
श्लोक – भावानुवाद – जिस प्रकार पञ्चमहाभूतादि देवता – मनुष्य तिर्यगादिके बाहर स्थित होकर भी उनके भीतरमें अवस्थित होकर प्रकाशमान हैं, वैसे लोकातीत वैकुण्ठमें अवस्थित होनेके कारण अप्रविष्ट रहकर भी मैं (अपने-अपने गुणोंसे विख्यात) उन शरणागत भक्तोंके हृदयमें स्थित हूँ। [प्रणत भक्तोंके अन्तःकरणमें दर्शन प्रदान करनेके लिये ही मैं उनमें प्रविष्ट रहता हूँ। और उनके नेत्रोंको अपना सौन्दर्य दिखलानेके लिये उनकी नासिकामें अपने अङ्गोंकी सुगन्ध सुँघानेके लिये, उनके साथ वार्तालाप करते-करते उनके कानोंमें अपनी मधुर स्वररूपी अमृतकी लहरी उड़ेलनेके लिये स्पर्श और आलिङ्गनादिके दानके द्वारा उनके अङ्गोंमें अपनी सुकुमारता और माधुर्य आदिका अनुभव करानेके लिये मैं अप्रविष्ट अर्थात् बाहरमें अवस्थानकर क्रीड़ा करता हूँ। मैं उन गुणातीत भक्तोंका परित्याग करनेमें असमर्थ हूँ, इसलिये उन भक्तोंके भीतर और बाहरमें परमासक्ति सहित मेरा नित्य विलास होता है। उन भक्तोंके जिस प्रकारके भावोंके द्वारा मैं वशीभूत होता हूँ, वे प्रेमाभक्ति नामक भाव ही रहस्य हैं ] ॥ ५५ ॥
श्रीमद्भागवत (२/९/३५)-
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मनः ।
अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ५६ ॥
अनुवाद – आत्मतत्त्वके जिज्ञासु व्यक्ति मेरे स्वरूपतत्त्वका अन्वयव्यतिरेक क्रमसे अथवा विधि – निषेधके द्वारा विचार करके जो वस्तु सर्वत्र और सर्वदा नित्य है, उस विषयमें ही प्ररिप्रश्न करेंगे ॥ ५६ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – जो आत्मतत्त्व जिज्ञासु हैं, वे लोग अन्वयव्यतिरेकके द्वारा इस विषय में विचार करते हुए जो वस्तु सर्वत्र और सर्वदा नित्य है, उसीका ही अनुसन्धान करेंगे। तात्पर्य यह है कि प्रेम-रहस्य जिस उपायसे साधित होता है, उसका नाम साधन-भक्ति है। तत्त्वजिज्ञासु पुरुष सद्गुरु चरणाश्रय करके उनसे अन्वय-व्यतिरेक अर्थात् विधि – निषेधकी शिक्षा ग्रहण करते हुए तत्त्वानुशीलन करते-करते तत्त्वज्ञान प्राप्त करेंगे ॥ ५६ ॥
श्रीमद्भागवतमें महाप्रभु श्रीचैतन्यदेवका मत सम्पूर्णरूपमें है। भागवत ग्रन्थमें अठारह हजार श्लोक हैं, उन सभी श्लोकोंमें जो कुछ भी है, उसका मूल ये चार श्लोक हैं। ‘अहमेव श्लोक में भगवत् – तत्त्व, भगवत्-स्वरूप, उनके गुण और लीला संक्षेपमें वर्णित है। ‘ऋतेऽर्थं’ श्लोकमें भगवत्-स्वरूपतत्त्वसे पृथक् रूपमें प्रतीत होनेवाले मायातत्त्व और उस मायातत्त्वके सम्बन्धजनित मायाशक्तिके वशमें होने योग्य जीवतत्त्व और जीवके भोगके योग्य जड़तत्त्वका विचार है। इन दो श्लोकोंके द्वारा सम्बन्धज्ञानको सम्पूर्णरूपसे जाना जा सकता है। ‘यथा महान्तिं श्लोकमें जीव और जड़से भगवत् – तत्त्वका अचिन्त्यभेदाभेद होनेपर भी भगवान्का नित्यस्वरूपमें पृथक् अवस्थान और जीवका उनके चरणोंका आश्रय करके महाप्रेमसम्पत्ति-लाभरूप परम प्रयोजन कहा गया है। ‘एतावदेव’ श्लोकमें उस परम प्रयोजनको प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय साधनभक्तिको बतलाया गया है। साधनभक्तिके अन्तर्गत लक्ष्य प्राप्ति करानेवाली सभी विधियोंको अनुकूलभावमें ‘अन्वय’ कहा गया है। लक्ष्यप्राप्तिमें बाधकरूप प्रातिकूल्यजनक सभी क्रियायोंकी निषेधमें परिगणना करके ‘व्यतिरेक’ शब्दका प्रयोग किया गया है। साधनतत्त्वका नाम ‘अभिधेय’ है अर्थात् शास्त्रकी अभिधावृत्तिसे जो उपदेश प्राप्त होता है, उसे अभिधेय कहते हैं॥ ५३-५६॥
अनुभाष्य – आत्मनः (मम भगवतः ) तत्त्वजिज्ञासुना (स्वस्य श्रेयः साधने यथार्थ्यमनुभवितुमिच्छुना) एतावदेव जिज्ञास्यं (श्रीगुरुचरणेभ्यः शिक्षणीयम् ) [ किं तत् ] यत् (एकमेव वस्तु) अन्वयव्यतिरेकाभ्यां (विधि – निषेधाभ्यां ) सर्वदा सर्वत्र स्यात् (इति) । [ स्वर्गापवर्गप्रेमसु मध्ये आत्मनः श्रेयः किमिति प्रश्ने प्रेमा तु स्वस्यैवान्वयव्यतिरेकाभ्यां सिद्धयति, स्वर्गापवर्गों ताभ्यां तावत् न सिद्धतः । यथा – जिज्ञास्येषु मध्ये एतावदेव जिज्ञास्यं किं तत् ? अन्वयव्यतिरेकाभ्यां योगायोगाभ्यां सम्भोग – विप्रलम्भाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वब्रह्माण्डवर्त्तिनि श्रीवृन्दावनादौ दास – सखि – गुरु- प्रेयसीषु सर्वदा नित्यमेव महाप्रलय-समयेऽपीति दास्य सख्य वात्सल्य शृङ्गाररसानां आस्वादनं व्यञ्जितम्]।
श्लोक – भावानुवाद – अपने श्रेयके साधन हेतु मुझ भगवान्को यथार्थ अनुभव करनेके अभिलाषी व्यक्तियोंके लिये जो श्रीगुरुचरणोंमें शिक्षणीय है, वह क्या है? वह एक अद्वितीय वस्तु होकर जो विधि – निषेध क्रमसे सदा सर्वत्र विद्यमान है। [तत्त्वजिज्ञासु पुरुष स्वर्ग, अपवर्ग और भगवत्-प्रेम, इन श्रेयोंमें किसकी जिज्ञासा करेंगे? भगवत्-प्रेम तो स्वयं ही अन्वय और व्यतिरेक भावसे सिद्ध होता है, किन्तु इनमें स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) स्वयं कभी भी उस प्रकारसे सिद्ध नहीं हो सकते। जैसे जिज्ञासाओंमें यही जिज्ञासा करो कि वह क्या है ? अन्वय- व्यतिरेक रूपमें अर्थात् योग और अयोग क्रमसे अथवा सम्भोग और विप्रलम्भ भावसे जो ‘सर्वत्र’ है, अर्थात् समस्त ब्रह्माण्डोंके अन्तर्गत श्रीवृन्दावनादिमें दास, सखा, गुरु (माता-पिता) और प्रेयसियोंमें जो ‘सर्वदा’ अर्थात् नित्य ही तथा यहाँ तक कि महाप्रलयकालमें भी विद्यमान रहता है (इसके द्वारा दास्य, सख्य, वात्सल्य और शृङ्गाररसका आस्वादन सूचित होता है)] ॥ ५६ ॥
श्रीकृष्णकर्णामृत (१) —
चिन्तामणिर्जयति सोमगिरिगुरुमें-
शिक्षागुरुश्च भगवान् शिखिपिच्छमौलिः ।
यत्पादकल्पतरुपल्लवशेखरेषु
लीलास्वयम्वररसं लभते जयश्रीः ॥ ५७॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५७ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – चिन्तामणिस्वरूप सोमगिरि नामक जो मेरे गुरु हैं, वे जययुक्त हों। मेरे शिक्षागुरु मयूरपुच्छधारी भगवान् भी जययुक्त हों। उनके कल्पवृक्षरूप चरणकमलके पल्लवरूप नखोंके अग्रभागकी शोभासे आकृष्ट होकर जयश्री अर्थात् श्रीमती राधिका स्वयंवरसे उत्पन्न सुखका आस्वादन करती हैं ॥ ५७ ॥
अनुभाष्य-‘श्रीवल्लभ-दिग्विजय ग्रन्थमें द्राविड़ त्रिदण्डि संन्यासी श्रीबिल्वमङ्गल ठाकुरका आविर्भावकाल अष्टम शताब्दी शकमें बतलाया गया है। बिल्वमङ्गलजीका द्वारकाधीश – विग्रहके प्रतिष्ठाता राजविष्णुस्वामीके प्रधान शिष्यके रूपमें उल्लेख किया गया है। बिल्वमङ्गलजीके शिष्य देवमङ्गल आदि हैं। बिल्वमङ्गलजीने सात सौ वर्षतक वृन्दावनमें ब्रह्मकुण्डके तटपर भजन किया था । वल्लभभट्टके साथ भेंट होनेके बाद उनके श्रीविग्रहकी पूजाका भार हरि – ब्रह्मचारीके ऊपर दे दिया गया। शङ्कर सम्प्रदायकी द्वारका मठ तालिकामें भी चित्सुखाचार्य (कल्यब्द २७१५) बिल्वमङ्गलजीका नाम पाया जाता है। लीलाशुक श्रीबिल्वमङ्गल ठाकुरजीने अप्राकृत वृन्दावनकी लीलामें प्रवेशकी लालसासे श्रीकृष्णकर्णामृत गीतके प्रारम्भमें तीन प्रकारके गुरुवर्गकी जयका उल्लेख किया है।
मे (मम) गुरुः (वर्त्मप्रदर्शक – श्रवणगुरुः) चिन्तामणिः जयति । [ मन्त्रगुरुः ] सोमगिरिः जयति । [ चैत्यः] शिक्षागुरुः शिखिपिञ्छमौलिः (शिखिपिञ्छेरेव मौलिः शिरोभूषणं यस्य सः) भगवान् (वृन्दावनचन्द्रो ) जयति । यत्पादकल्पतरु-पल्लवशेखरेषु (यस्य भगवतः पादौ एव कल्पतरुपल्लवौ तयो शेखरेषु पदनखाग्रेषु) जयश्रीः (जया चासौ श्रियश्चेति महालक्ष्मीः वृन्दावनेश्वरीत्यर्थः) लीलास्वयम्वररसं ( लीलया गाढ़ानुरागेण यः स्वयम्वरस्तद्रसं सुख) लभते ।
श्लोक-भावानुवाद- मेरे पथप्रदर्शक और श्रवणगुरु चिन्तामणिकी जय हो। मेरे मन्त्रगुरु सोमगिरिकी जय हो मोरपंख जिनके सिरका भूषण है, मेरे शिक्षागुरु वे भगवान् वृन्दावनचन्द्र श्रीकृष्ण जययुक्त हों, जिनके कल्पवृक्षकी भाँति चरणकमलोंके पल्लवस्वरूप नखके अग्रभागसे श्री अर्थात् महालक्ष्मीको भी जय करनेवाली वृन्दावनेश्वरी श्रीमती राधिका गाढ़ अनुरागके कारण लीलारसका सुख लाभ करती हैं ॥ ५७ ॥
अमृतानुकणिका – श्रीकृष्णने ही कृपा करके बिल्वमङ्गलके चित्तमें इस प्रकार उपायोंकी स्फूर्ति करायी, जिनका अवलम्बन करके उन्होंने श्रीकृष्णके सौन्दर्य- माधुर्यादि अनुभव करनेकी योग्यता प्राप्त की। और पुनः श्रीकृष्णने ही कृपा करके उनके हृदयमें अपने सौन्दर्य- माधुर्यादिकी स्फूर्ति कराकर उसका अनुभव कराया। इस प्रकार श्रीकृष्ण ही अनुभव- विषयमें उनके शिक्षागुरु हुए ॥ ५७ ॥
शिक्षागुरुके रूपमें दया :-
जीवे साक्षात् नाहि ताते गुरु चैत्त्वरूपे ।
शिक्षागुरु हय कृष्ण महान्तस्वरूपे ॥ ५८ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५८ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – अन्तर्यामी गुरु चैत्त्यरूपमें अर्थात् चित्तमें अवस्थित होते हैं, इसलिये उनका सामने साक्षात्कार नहीं हो पाता। इसलिये श्रीकृष्ण महान्त अर्थात् श्रेष्ठ भक्तके रूपमें शिक्षागुरु होते हैं ॥ ५८ ॥
अनुभाष्य – बद्धजीवका श्रीकृष्णके साथ साक्षात्कार नहीं होता है। इसलिये श्रीकृष्ण जीवोंके चित्त श्रीकृष्णभक्तिका विवेक उदित कराकर चैत्त्यशिक्षागुरु और महान्तस्वरूप होकर शिक्षागुरु होते हैं ॥ ५८ ॥
अमृतानुकणिका – अब महान्तरूप शिक्षागुरुकी प्रयोजनीयताके विषयमें कह रहे हैं। मायाबद्ध जीवका मन नाना प्रकारकी दुर्वासनाओंसे परिपूर्ण है। भौतिक सुखभोगमें ही मत्त जीवकी श्रीकृष्णोन्मुखता स्वतः अथवा अपने समान ही लोगोंके सिखलानेसे जाग्रत नहीं होती, श्रीप्रहाद वचन (भाः ७/५/३० ) – “मतिनं कृष्णे परतः स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।” भक्ति प्रतिपादक शास्त्रोंके प्रमाणोंसे महान्त गुरु संसार सुखकी तुच्छता और भगवत् सेवाकी परम लोभनीयता दिखलाते हैं। और भी भगवत्-लीला – कथादि सुनाकर जीवको इतना आनन्दित करते हैं, जिससे उसके हृदयकी दुर्वासना क्रमशः क्षीण होती जाती है। जीव तब यह विचार करता है कि जिनकी लीला – कथा ही इतनी मधुर है, तब उनकी लीला कितनी मधुर होगी ? और उस लीलामें साक्षात् रूपसे जो श्रीभगवान्की सेवा करते हैं, उनके द्वारा अनुभूत आनन्द क्या अपूर्व होगा ? महापुरुषोंकी कृपाशक्तिसे और लीला कथाके माहात्म्यसे जीवकी बहिर्मुखता दूर हो जाती है तथा जीव क्रमशः भक्ति पथपर अग्रसर होता है ॥ ५८ ॥
साधुसंग की कर्त्तव्यताः साधु-गुरुका धर्म, लक्षण और स्वभाव :-
श्रीमद्भागवत (११/२६/२६)-
ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः ॥ ५९ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५९॥
अमृतप्रवाह भाष्य—इसलिये दुःसङ्गका परित्याग करके बुद्धिमान व्यक्ति सत्सङ्ग करेंगे। साधुजन साधु-उपदेशोंके द्वारा उनके समस्त भक्ति- प्रतिकूल वासनाबन्धनको काट देंगे ॥ ५९ ॥
अनुभाष्य- जब उर्वशी पुरूरवाका सङ्ग त्याग करके चली गयी, तब पुरूरवाने शोकमें अधीर होकर वर्षोंतक अनुताप किया। तत्पश्चात् जब उनका विवेक उदित हुआ, तब उन्होंने असत्सङ्गके परिणामको समझा। श्रीभगवान् उद्धवजीके निकट इस उपाख्यानको वर्णन कर रहे ततः दुःसङ्गं (योषित्सङ्गं योषित्सङ्गसंग च ) [दूरे] उत्सृज्य (विहाय ) बुद्धिमान् (सदसद्विवेकी) सत्सु (विरक्तेषु हरिजनेषु) सज्जेत (हरिजनसङ्गं सर्वात्मना कुर्यात्) । [ यतः ] सन्तः (साधवः) अस्य (विषयाभिनिविष्टस्य) मनोव्यासङ्गं (विरुद्धामासक्तिम् ) उक्तिभिः (सदुपदेशः) छिन्दन्ति (नाशं कुर्वन्ति ) ।
श्लोक- भावानुवाद-सत् असत्को जाननेवाले विवेकी जनको स्त्रीसङ्ग और स्त्रीसङ्गीके सङ्गका दूरसे ही त्यागकर संसारसे विरक्त भक्तजनोंका सभी प्रकारसे सदा सङ्ग करना चाहिये । वे साधु विषयोंमें अभिनिवेशवाले व्यक्तिकी भगवत् विरुद्धासक्तिका अपने सदुपदेशोंसे नाश करते हैं॥५९॥
अमृतानुकणिका – महाप्रभुने ‘दुःसंग’ का अर्थ इस प्रकार किया है (मध्य २४/९४ ) –
“दुःससंग कहिये- ‘कैतव आत्मवञ्चनां ।
कृष्ण, कृष्णभक्ति बिना अन्य कामना ॥
अर्थात् “छलयुक्त आत्मवञ्चक दुःसङ्ग’ है। श्रीकृष्ण-कामना और श्रीकृष्णभक्ति-कामनाके अतिरिक्त अन्य कोई भी कामनाका सङ्ग भी ‘दुःसङ्ग’ है।”
असत् लोगों अथवा असत् वस्तुओंका कुछ समयके लिये शरीरके द्वारा त्याग किया जा सकता है, परन्तु मनको उनसे दूर रखना अति कठिन है; मन पुनः उन असत् वस्तुओंकी ओर धावित होता है। असत् प्राकृत वस्तुओंके साथ अनादिकालसे सम्बन्धके कारण प्राकृत भोग्य वस्तुओंके साथ ही मनका घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया है। उर्वशीके द्वारा त्याग किये जानेपर पुरुरवा भोगकामनासे उसके वशीभूत होकर अत्यन्त दुःखी हो गये। विवेक जाग्रत होनेपर उस भोगधर्मको त्यागकर जैसे उनका मङ्गल हुआ था, उसी प्रकार सभी बुद्धिमान् व्यक्ति ही नित्य- मङ्गलप्रद उपदेश देनेवाले साधु व्यक्तियोंके सङ्गके प्रभावसे चिरकालके संस्कारोंके द्वारा पुष्ट मनोधर्मरूप भोगपिपासाको उन साधु वाक्योंके प्रभावसे काटनेमें समर्थ होते हैं। साधु उपदेशों और भगवत्-लीला – कथाके द्वारा तथा सर्वोपरि अपनी कृपाके द्वारा इन्द्रिय- भोगवासना दूर कर सकते हैं। इस श्लोककी टीकामें श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती लिखते हैं- ‘पुण्यकर्म, तीर्थसेवा, देवसेवा और यहाँ तक कि शास्त्रज्ञानादिमें भी इस प्रकार विषयासक्ति दूर करनेका सामर्थ्य नहीं है।’ इसलिये बाहरसे दुःसङ्ग त्यागकर साथ ही साथ भक्त सङ्ग एकान्त आवश्यक है, अन्यथा दुर्वासनारूप दुःसङ्ग हृदयमें ही रहेगा। इसलिये कहा गया है कि दुःसङ्ग त्यागकर सत्सङ्ग करो। जो दुःसङ्गका त्यागकर सत्सङ्ग करते हैं, वे ही बुद्धिमान् हैं और जो ऐसा नहीं करते हैं, वे बुद्धिहीन हैं। जो साधु पुरुष ऐसा हितोपदेश करते हैं, वे ही शिक्षागुरु हैं, इसे प्रमाणित करनेके लिये ही यह श्लोक उद्धृत हुआ है ॥५९॥
साधुसंग में हरिकथा श्रवणका फल, श्रद्धा भाव और प्रेमोदय :-
श्रीमद्भागवत (३ / २५/२५)-
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हत्कर्णरसायनाः कथाः ।
तज्जोषणादाश्चपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ ६० ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ६० ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – साधुसङ्गमें हृदय और कानोंको रसपूर्ण लगनेवाली मेरी बलवती कथाओंकी आलोचना होती है। उन उन कथाओंको श्रवण करते-करते अतिशीघ्र अपवर्ग पथस्वरूप मुझमें पहले श्रद्धा, तत्पश्चात् रति और अन्तमें प्रेमभक्ति उदित होती है ॥ ६० ॥
अनुभाष्य- देवहूतिने जब अपने पुत्र कपिलदेवसे अपने कल्याणकी जिज्ञासा की, तो उसके उत्तरमें श्रीकपिलदेवने कहा-
सतां (हरिजनानां ) प्रसङ्गात् (प्रकृष्टात् सङ्गात् ) मम वीर्यसंविदः (वीर्यस्य सम्यग्वेदनं यासु ताः) हृत्कर्णरसायनाः (हृत्कर्णयोः रसायनाः श्रोत्रमनोऽभिरामाः सुखदाः ) कथा भवन्ति तज्जोषणात् (तासां जोषणात् सेवनात्) अपवर्गवर्त्मनि (अपवर्गोऽविद्यानिवृत्तिः एव वर्त्म यस्मिन् तस्मिन् हरौ ) [ प्रथमं ] श्रद्धा [ततः] रतिः (भावः, ततः) भक्तिः (प्रेमा) आशु (शीघ्र ) अनुक्रमिष्यति (अनुक्रमेण भविष्यति ) । [प्रथमं श्रद्धा, ततः सत्सङ्गः, सङ्गात् तत्कथाश्रवणे तत्सेवनप्रवृत्तिः भजनक्रिया, ततः प्रकृष्टात् सङ्गात् अनर्थनिवर्त्तिकाः कथाः, ततस्ता एव कथा निष्ठा-मुत्पादयन्त्यो मन्माहात्म्यवेदनं यतस्तथाभूता भवन्ति ततो रुचि मुत्पादयन्त्यो हत्कर्णरसायना भवन्ति । तासां कथानां जोषणात् प्रीत्यास्वादनात् भगवति श्रद्धा आसक्तिर्भावः प्रेमा अनुक्रमिष्यति ] ।
श्लोक – भावानुवाद-हरिजनोंके प्रकृष्टरूपसे सत्सङ्गमें मेरे वीर्यका सम्पूर्ण ज्ञान करानेवाली, हृदय और कानोंको रसीली लगनेवाली अर्थात् श्रवणमें मनोहर और सुख देनेवाली कथाएँ होती हैं। उनके सेवनसे अविद्याकी निवृत्ति हो जाती है और श्रोता मेरी प्राप्तिके मार्गपर चल पड़ता है। पहले श्रद्धा, तब भाव और उसके बाद शीघ्र ही प्रेमका क्रमशः उदय होता है। [पहले श्रद्धा होनेपर सत्सङ्ग होता है। सत्सङ्गमें भगवत् कथा श्रवणकर भजनक्रिया प्रारम्भ होती है। निरन्तर साधुसङ्गसे अनर्थ निवृत्तिका क्रम आता है, तब उस कथासे निष्ठाका जन्म होता है, जिससे मेरे माहात्म्यका यथार्थ ज्ञान साधकको होता है। निष्ठापूर्वक मेरी कथाओंका सेवन करनेसे उनमें रुचि उत्पन्न हो जाती है, तब वे कथाएँ कानों और हृदयको रसपूर्ण लगने लगती हैं। इन कथाओंका प्रीतिपूर्वक आस्वादन करनेसे क्रमशः श्रद्धासे आसक्ति, आसक्तिसे भाव और भावसे प्रेमका आविर्भाव होता है ] ॥ ६० ॥
ईशभक्तका तत्व और प्रकार भेद :-
ईश्वरस्वरूप भक्त-तौर अधिष्ठान ।
भक्तेर हृदये कृष्णेर सतत विश्राम ॥ ६१ ॥
अनुवाद – जो भक्त निरन्तर कृष्णभजनमें निमज्जित रहते हैं, वे ईश्वरस्वरूप कहे जाते हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण सदा उनके हृदयमें विश्राम अर्थात् सुखपूर्वक वास करते हैं ॥ ६१ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – ईश्वरके सच्चिदानन्दस्वरूपमें जिनकी भक्ति है, उनमें ही अर्थात् उनका हृदय ही श्रीकृष्णका वास स्थान है ॥ ६१ ॥
अनुभाष्य – ईश्वर ही एकमात्र अद्वितीय वस्तु हैं वही ईश्वर सर्वशक्तिमान् हैं। भक्त उनके शक्तिजातीय स्वरूप हैं, शक्तिमान् जातीय वस्तु नहीं हैं। श्रीकृष्णसे सम्बन्धित सेवावृत्ति भजनशील- भक्तमें अवस्थित है, इसलिये भक्तरूपी आधारमें श्रीकृष्णकी स्थिति है ॥ ६१ ॥ अमृतानुकणिका – भक्तका हृदय श्रीकृष्णके विश्रामस्थलके तुल्य है। भक्तके प्रेमके वशीभूत होकर श्रीकृष्ण सदा केवल आनन्दके उपभोग और आनन्द प्रदान करनेके लिये भक्तके हृदयमें अवस्थान करते हैं। वे भक्तके प्रेम रसका आस्वादन करके आनन्द उपभोग करते हैं और अपने सौन्दर्य- माधुर्य आदिका आस्वादन कराके भक्तको आनन्द प्रदान करते हैं। किसी समय और किसी प्रकारके उद्वेगकी छाया भी उस स्थानको स्पर्श नहीं कर सकती, क्योंकि भक्त कभी भी अपने दुःख – दैन्यकी बात भगवान्को नहीं बतलाते ॥ ६१ ॥
साधवो हृदयं मह्यं
श्रीमद्भागवत (९/४/६८) – साधूनां हृदयं त्वहम्।
मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥ ६२ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ६२ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – साधुजन मेरा हृदय और मैं ही साधुजनोंका हृदय हूँ। वे लोग मेरे अतिरिक्त अन्य किसीको भी नहीं जानते हैं; मैं भी उनके अतिरिक्त किसी अन्यको अपना नहीं मानता हूँ ॥ ६२ ॥
अनुभाष्य – परम भागवत अम्बरीष महाराजके चरणोंमें दुर्वासा ऋषिके द्वारा अपराध किये जानेपर जब विष्णुचक्र दुर्वासा ऋषिके प्राण संहार करनेके लिये उद्यत हुए, तब वे सभी देवताओंसे सहायताके लिये प्रार्थना करने लगे । अन्तमें भगवान् श्रीविष्णुने दुर्वासा ऋषिको अम्बरीष महाराजके श्रीचरणोंमें क्षमा भिक्षा करनेके लिये उपदेश देते हुए वास्तवमें इस श्लोकके माध्यम से भागवत – साधुओंका परम महत्व दिखलाया-
साधवः मह्यं (मम) हृदयं ( प्राणतुल्याः), साधुनां तु अहं हृदयम् । ते ( साधवः) मदन्यत् ( मत्तः अन्यत्) न जानन्ति, अहम् (अपि) तेभ्यः ( सकाशात्) मनाक् (ईषत् ) अन्यत् न [जानामि भक्तानामहमेव सर्वात्मना सदा चिन्तनीयः ममापि मदनुशीलनैकपराः सर्वात्मनाश्रितपदा भक्ताः सदा ध्येयाः ] ।
श्लोक – भावानुवाद-साधु मेरे प्राणोंके समान हैं और साधुओंका हृदय मैं हूँ। मेरे अतिरिक्त वे किसी अन्यको नहीं जानते हैं, मैं भी निकटसे किञ्चित् अन्य किसीको नहीं जानता हूँ [अर्थात् भक्तोंके द्वारा मैं ही सम्पूर्णरूपसे सतत् चिन्तनीय हूँ और मैं भी अपने सभी प्रकार से मुझपर आश्रित ऐकान्तिक भजन करनेवाले भक्तोंका सदा ध्यान करता हूँ॥ ६२ ॥
श्रीमद्भागवत (१/१३/१०)-
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूताः स्वयं प्रभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥ ६३ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ६३॥
अमृतप्रवाह भाष्य – आपके जैसे भागवतजन स्वयं तीर्थस्वरूप हैं। आपलोग अपने अन्तःस्थित भगवान्की पवित्रताके बलसे पापियोंके पापोंसे मलिन सभी तीर्थोंको पवित्र करते हैं॥६३॥
अनुभाष्य – विदुरजीके विभिन्न तीर्थ-स्थानोंमें भ्रमण करनेके बाद हस्तिनापुर लौटनेपर युधिष्ठिर महाराजने इस श्लोकके द्वारा उनका अभिवादन किया था-
हे प्रभो ! भवादृशाः तीर्थभूताः भागवताः (सन्तः ) स्वान्तःस्थेन (स्वस्य अन्तः स्थितेन) गदाभृता (भगवता विष्णुना) तीर्थानि (मलिनजनसम्पर्केन अतीर्थानि सन्ति पुनः ) तीर्थीकुर्वन्ति ( महातीर्थीकुर्वन्ति ) [ भवताञ्च तीर्थाटनं तीर्थानामेव भाग्येन]।
श्लोक-भावानुवाद- आपके समान तीर्थस्वरूप सन्त अपने हृदयमें स्थित भगवान् विष्णुके प्रभावसे पापियोंके सम्पर्कसे क्षीण – प्रभाव तीर्थोंको पुनः महातीर्थ बना देते हैं । [ वस्तुतः आप लोगोंका तीर्थोंमें आगमन तीर्थोंका ही सौभाग्य है ] ॥ ६३ ॥
सेइ भक्तगण हय द्विविध प्रकार ।
पारिषदगण एक, साधकगण आर ॥ ६४॥
अनुवाद – भगवद्भक्त – पार्षद और साधक भेदसे दो प्रकारके होते हैं॥ ६४॥
अमृतप्रवाह भाष्य-भक्त दो प्रकारके होते हैं- भगवत्पार्षद और साधक । भगवत्पार्षदगण सिद्धसेवक मण्डलीके अन्तर्गत होते हैं । उनमेंसे कोई-कोई ऐश्वर्यपरायण होकर परव्योममें अवस्थान करते हैं, कोई-कोई माधुर्यपर होकर श्रीवृन्दावनमें श्रीकृष्णकी सेवामें अनुरक्त होते हैं। जो भक्त सेवासिद्धि प्राप्त करनेके लिये वैधी अथवा रागानुगा साधन-भक्तिका अवलम्बन करते हैं, उनको साधक कहा जाता है॥६४॥
ईशावतारके प्रकार :-
ईश्वरेर अवतार ए तिन प्रकार ।
अंश – अवतार, आर गुण-अवतार ॥ ६५ ॥
शक्त्यावेश-अवतार – तृतीय एमत ।
अंश – अवतार – पुरुष – मत्स्यादिक यत ॥६६॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव – तिन गुणावतारे गणि ।
शक्त्यावेशावतार पृथु, व्यासमुनि ॥ ६७॥
अनुवाद-भगवान्के अवतार तीन प्रकारके होते हैं – अंशावतार, गुणावतार और शक्त्यावेशावतार । पुरुषके रूपमें श्रीराम, वामनादि और अन्य रूपोंमें मत्स्यादि सब अंशावतार हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव- ये तीन गुणावतार हैं तथा पृथु, व्यासमुनि आदि शक्त्यावेश अवतार हैं ॥ ६५-६७॥
अमृतप्रवाह भाष्य—अंशावतार श्रीविष्णुके साक्षात् अवतार हैं अर्थात् ये अवतार मायाधीश हैं। सत्त्व, रजः और तमः, इन तीन गुणोंसे प्रतिभात भगवत् – अवतार गुणावतार हैं। जिन सभी श्रेष्ठ जीवोंमें श्रीकृष्णकी किसी विशेष शक्तिका आवेश होता है, उन्हें शक्त्यावेश अवतार कहा जाता है॥६५॥
अनुभाष्य- ‘ईश्वरेर’ अर्थात् स्वयंरूप भगवान् श्रीकृष्ण । विस्तृत विवरणके लिये लघुभागवतामृतके पूर्वखण्डमें उपास्य और अवतार प्रसंग तथा श्रीचैतन्यचरितामृत मध्यलीला बीसवाँ अध्याय द्रष्टव्य हैं॥६५-६७॥
भगवत् प्रकाशका लीलाभेद :-
दुरूपे हय भगवानेर प्रकाश ।
एके तं प्रकाश हय, आरे तं विलास ॥ ६८ ॥
अनुवाद – भगवान् स्वयंको दो रूपोंमें प्रकट करते हैं, एक प्रकाश और दूसरे विलासरूपमें ॥ ६८ ॥ अनुभाष्य- ‘भगवानेर’ अर्थात् स्वयंरूपका मध्यलीला बीसवाँ अध्याय द्रष्टव्य है ॥ ६८ ॥
अमृतानुकणिका – यहाँ पारिभाषिक अर्थमें ‘प्रकाश’ शब्दका व्यवहार नहीं हुआ है, क्योंकि ‘प्रकाश और विलास नामसे इसी प्रकाशके जो दो भेदोंका उल्लेख किया गया है, उनमें ‘विलास’ में पारिभाषिक प्रकाशका लक्षण नहीं है। भगवान् दो रूपोंमें स्वयंको प्रकट (प्रकाश) करते हैं; उनमें एक रूपका नाम प्रकाश और दूसरे रूपका नाम विलास है ॥ ६८ ॥
एकइ विग्रह यदि हय बहुरूप ईशप्रकाश :-
आकारे तं भेद नाहि, एकइ स्वरूप ॥ ६९ ॥
महिषी- विवाहे येछे, येछे कैल रास।
इहाके कहिये कृष्णेर ‘मुख्य प्रकाश’ ॥ ७० ॥
अनुवाद – एक ही विग्रह (भगवान् श्रीकृष्ण ) यदि अनेक रूप धारण करें, जिनमें आकार और स्वरूपमें कोई भेद नहीं हो, तो उन्हें श्रीकृष्णका ‘मुख्य प्रकाश’ कहा जाता है। जैसे द्वारकाकी महिषियोंके साथ विवाहमें और असंख्य गोपियोंके साथ रासमें श्रीकृष्णने अनेक रूप धारण किये ॥ ६९-७० ॥
अमृतप्रवाह भाष्य- भगवान्का प्रकाश दो प्रकारका होता है, जिन्हें ‘प्रकाश’ और ‘विलास’ कहा जाता है। द्वारकामें महिषियोंके साथ विवाहमें और श्रीवृन्दावनमें रासलीलामें श्रीकृष्णने एक साथ अनेक रूपोंका प्रकाश किया था, जिनमें कोई आकार भेद नहीं था। एक ही विग्रह अनेक रूप हुए थे। इसे ही श्रीकृष्णका ‘मुख्य प्रकाश कहते हैं॥ ६८-७० ॥
अनुभाष्य- “प्रकाशस्तु न भेदेषु गण्यते स हि नो पृथक्” अर्थात् ‘प्रकाश’ की किसी भी प्रकारसे भेदमें गणना नहीं होती, क्योंकि वह किसी प्रकार भी स्व-स्वरूपसे पृथक् नहीं है (लघुभागवतामृत पूर्वखण्ड) “एक वपु बहुरूप येछे हैल रासे ॥” अर्थात् रासलीलामें एक श्रीकृष्णने अनेक रूप धारण किये। “महिषी विवाहे हैल बहुविध मूर्त्ति। ‘प्राभवविलास एइ शास्त्र – परसिद्धि ॥ ” जब श्रीकृष्णने द्वारकामें सोलह हजार एक सौ आठ महिषियोंसे विवाह किया, तो उन्होंने उतने ही रूप बनाये; शास्त्रमें इन रूपोंको ‘प्राभवविलास कहते हैं (मध्यलीला, बीसवाँ अध्याय) ॥ ६९-७० ॥
अमृतानुकणिका – ‘मुख्य प्रकाश अर्थात् मुख्य आविर्भाव अथवा मुख्य अभिव्यक्ति । पयार संख्या ६८में जिस अर्थमें प्रकाश – शब्दका प्रयोग हुआ है, इस पयारमें भी वही अर्थ है। यह मुख्य प्रकाश अथवा मुख्य आविर्भाव ही पारिभाषिक ‘प्रकाश रूप है; स्वयंरूपसे इसका किसी प्रकार रूप पार्थक्य नहीं है, इसलिये इसको मुख्य प्रकाश (आविर्भाव ) कहा गया है ॥ ६९-७० ॥
श्रीमद्भागवत (१० / ३३/३-५)-
रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः ।
योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः ॥ ७१ ॥
प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः ।
यं मन्येरन्त्रभवत्तावद्विमानशतसङ्कुलम् ॥७२॥
दिवौकसां सदाराणामत्यौत्सुक्याभृतात्मनाम्।
ततो दुन्दुभयो नेदुर्निपेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ ७३ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ७१-७३ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – योगेश्वर श्रीकृष्ण अपनी अचिन्त्यशक्तिके बलसे दो-दो गोपियोंके बीच एक-एक मूर्ति प्रकाशितकर गोपीमण्डलमें शोभायमान होकर रासोत्सवमें प्रवृत्त हुए। उनके इस प्रकार गोपीमण्डलमें प्रविष्ट होनेसे प्रत्येक गोपीको ऐसा अनुभव हुआ कि श्रीकृष्ण अपनी भुजाओंको उसके गलेमें डालकर उसका ही आलिङ्गन कर रहे हैं। उसी समय रासके दर्शनकी उत्सुकतावश देवतागण अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ विमानोंमें सवार होकर आये और शत-शत विमान आकाशमार्गमें दिखने लगे। उसके बाद आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं और पुष्पवृष्टि होने लगी ॥ ७१-७३ ॥
अनुभाष्य – तासां (मण्डलरूपेण अवस्थितानां द्वयोर्द्वयोर्मध्ये (एकैकरूपेण) प्रविष्टेन यं (श्रीकृष्ण) स्वनिकटं (स्वनिकटस्थ ) ( मामेव आश्लिष्टवान् इति) मन्येरन्, [तेन] योगेश्वरेण कृष्णेन कण्ठे गृहीतानां (उभयतः आलिङ्गितानां) गोपीमण्डल मण्डितः (गोपीमण्डलैः शोभमानः ) रासोत्सवः संप्रवृत्त तावत् (तत्क्षणमेव ) अत्यौत्सुक्यभृतात्मनां (दर्शनौत्सुक्येन अतिव्याकुलमनसां सदाराणां (सस्त्रीकाणा) दिवौकसां (देवाना) विमानशतसङ्कुलं (विमानशतैः सङ्कुलं व्याप्त संङ्कीर्ण) [ नभः] अभवत् ( बभूव )। ततो दुन्दुभयः नेदुः पुष्पवृष्टयः निपेतुः ।
श्लोक – भावानुवाद – मण्डलाकारमें स्थित गोपियोंके मध्य श्रीकृष्ण एक-एक रूपसे प्रविष्ट हुए। श्रीकृष्णके निकट स्थित प्रत्येक गोपीने ऐसा सोचा कि श्रीकृष्ण मेरा ही आलिङ्गन कर रहे हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण गोपियोंको आलिङ्गनबद्ध करके गोपियोंके मध्य सुशोभित होकर रासोत्सवमें प्रवृत्त हुए। उसी क्षण ही दर्शनकी उत्सुकतासे अति व्याकुल मनवाले पत्नियों सहित देवताओंके आनेसे उनके सैंकड़ों विमानोंकी भीड़ आकाशमें हो गयी। तब आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं और पुष्पवृष्टि होने लगी ॥ ७१-७३ ॥
श्रीमद्भागवत (१०/६९/२) –
चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत् पृथक् ।
गृहेषु द्र्घष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥ ७४ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ७४ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – आश्चर्यका विषय यह है कि एक ही श्रीकृष्णने एक-एक स्वरूपमें प्रत्येक घरमें एक साथ सोलह हजार स्त्रियोंके साथ विवाह किया ॥ ७४॥
अनुभाष्य – बत (अहो ) एतत् चित्रम्। एकः (कृष्णः ) एकेन वपुषा युगपत् पृथग्गृहेषु द्व्यष्टसाहस्रं ( षोड़श – सहस्रं ) स्त्रियः (महिषीः) उदावहत् (उपयेमे ) ।
श्लोक-भावानुवाद—अहो ! यह आश्चर्य है। एक ही श्रीकृष्णने एक-एक रूपसे, एक साथ सोलह हजार महिषियोंके साथ विवाह किया ॥७४॥
लघुभागवतामृत, पूर्वखण्डमें आवेशकथनमें (१ / २१ )
अनेकत्र प्रकटता रूपस्यैकस्य यैकदा ।
सर्वथा तत्स्वरूपैव स प्रकाश इतीर्यते ॥ ७५ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ७५ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – एक ही रूपमें एक ही साथ अनेक अभिन्न प्रकाशोंको ‘प्रकाश’ कहते हैं ॥७५॥
अनुभाष्य – एकदा (एकस्मिन् काले ) एकस्य रूपस्य या अनेकत्र प्रकटता, सर्वथा तत्स्वरूपा (आकृत्या गुणैर्लीलाभिश्चैकस्वरूपा ) एव स प्रकाश इतीर्यते ।
श्लोक – भावानुवाद – एक ही समयमें एक रूप, जो अनेक स्थानोंमें प्रकट होते हैं और उनके रूप-गुण-लीला एक स्वरूप ही होते हैं, तो उन्हें ‘प्रकाश’ कहते हैं॥७५॥
ईशविलास :-
एकइ विग्रह यदि आकारे हय आन ।
अनेक प्रकाश हय, ‘विलास’ तार नाम ॥ ७६ ॥
अनुवाद – जब भगवान्के द्वारा प्रकाशित विग्रह उनसे भिन्न आकारवाले होते हैं, तो वे ‘विलास-विग्रह’ कहलाते हैं ॥ ७६ ॥
अमृतानुकणिका-प्रकाशके समान विलास भी एक ही विभुरूपके अविर्भाव विशेष हैं, तो भी उनमें यह पार्थक्य है कि प्रकाशमें अङ्ग – सन्निवेश, रूप, गुणादि मूल स्वरूपके तुल्य होता है, किन्तु विलासमें आकृति और रूपादि मूल स्वरूपसे भिन्न होता है तथा शक्ति आदि भी मूल स्वरूपसे कुछ कम होती है ॥ ७६ ॥
लघुभागवतामृतमें तदेकात्मरूपकथन ( १/१५)-
स्वरूपमन्याकारं यत्तस्य भाति विलासतः ।
प्रायेणात्मसमं शक्त्या स विलासो निगद्यते॥७७॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है॥७७॥
अमृतप्रवाह भाष्य – श्रीकृष्णकी अचिन्त्य शक्तिविलाससे जब उनका स्वरूप प्रायः अपने ही समान अन्य रूपमें प्रकाशित होता है, तो उसे ‘विलास’ कहा जाता है ॥ ७७ ॥
अनुभाष्य-तस्य (मूलरूपस्य) यत् स्वरूपं अन्याकारं (विलक्षणाङ्गसन्निवेशं), विलासतः (लीला – विशेषात्) प्रायेण (कैश्चिद्गुणैरूपाधिकं ) आत्मसमं (निजमूलरूपतुल्यं) शक्त्या भाति, स विलासः निगद्यते ।
श्लोक-भावानुवाद – जब मूलरूपके विलक्षण अङ्गोंके सन्निवेशवाला, अपने मूलरूपके समान शक्तिसम्पन्न और विशेष लीलामें कुछ गुणों एवं रूपमें अधिक भी हो, तो उसे विलास’ कहते हैं ॥ ७७ ॥
यैछे बलदेव, परव्योमे नारायण ।
यैछे वासुदेव प्रद्युम्नादि सङ्कर्षण ॥ ७८ ॥
अनुवाद-जैसे [वृन्दावन और द्वारकामें] श्रीबलदेव प्रभु, वैकुण्ठमें श्रीनारायण और चतुर्व्यूह [श्रीवासुदेव, श्रीसङ्कर्षण, श्रीप्रद्युम्न और श्रीअनिरुद्धादि ] भगवान् श्रीकृष्णकी विलासमूर्ति हैं ॥ ७८ ॥
अनुभाष्य- श्रीबलदेव श्रीकृष्णके स्वयं प्रकाश हैं और श्रीनारायण उनके प्राभवविलास हैं ॥ ७८ ॥
ईशशक्ति :-
ईश्वरेर शक्ति हय त्रिविध प्रकार ।
एक लक्ष्मीगण, पुरे महिषीगण आर ॥ ७९ ॥
व्रजे गोपीगण आर सबाते प्रधान
व्रजेन्द्रनन्दन याते स्वयं भगवान् ॥ ८० ॥
अनुवाद – ईश्वरकी शक्तियाँ तीन प्रकारकी हैं- वैकुण्ठमें लक्ष्मियाँ, द्वारकामें महिषियों और व्रजमें गोपियाँ । व्रजकी गोपियाँ ही इनमें सबसे श्रेष्ठ हैं, क्योंकि व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं ॥ ७९-८० ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – ‘यद्यपि आमार गुरु’ ( संख्या ४४ ) से लेकर ‘साधकगण आर (संख्या ६४) तक—गुरु और भक्त इन दो तत्त्वोंका विचार हुआ है। ‘ईश्वरेर अवतार (संख्या ६५ ) से लेकर ‘पृथु व्यासमुनि’ (संख्या ६७) तक – भगवान् और भगवत् – अवतारका विचार हुआ है। ‘दुईरूपे हय’ (संख्या ६८) से प्रद्युम्नादि – सङ्कर्षण (संख्या ७८) तक उनके ‘प्रकाश’ और ‘विलास’ का विचार हुआ है। उसके बाद ‘ईश्वरेर शक्ति हय’ (संख्या ७९ ) से ‘स्वयं भगवान्ं ( संख्या ८०) तक उनकी शक्तिका विचार किया गया ॥ ४४-८० ॥
स्वयंरूप कृष्णेर कायव्यूह -तौर सम
भक्त सहिते हय तौहार आवरण ॥ ८१ ॥
अनुवाद – स्वयंरूप श्रीकृष्णके कायव्यूह उनके ही समान हैं। वे भक्तोंसे सदा परिवेष्टित रहते हैं, इसलिये भक्त उनका आवरण हैं ॥ ८१ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – ‘स्वयंरूप’ ‘तदेकात्म’ आदि भागवतामृतके श्लोकोंके विचारसे द्विभुज श्रीकृष्ण ही स्वयंरूप हैं। उनके कायव्यूह उनके समान हैं। कायव्यूहका अर्थ होता है, अपनी कायाका विस्तार। उसी स्वरूपके निकट जो भक्त होते हैं, वे ही उनका आवरण हैं। आवरण और वेष्टित ( आवृत) – तत्त्वका एक साथ विचार करनेसे पूर्वोक्त छह तत्त्वोंका एकत्व ही निर्धारित होता है। इस प्रकारका निर्धारण केवल अचिन्त्य – भेदाभेदतत्त्व विचारसे ही सिद्ध होता है ॥ ८१ ॥
भक्त आदि क्रमे कैल सबार वन्दन ।
ए – सबार वन्दन सर्वशुभेर कारण ॥ ८२॥
अनुवाद – ( अब तक) मैंने भगवान्के भक्त, शक्ति, अवतार, प्रकाशादिकी क्रमानुसार वन्दना की है। इन सबकी वन्दना समस्त शुभोंका कारण है ॥ ८२ ॥
प्रथम श्लोके सामान्य मङ्गलाचरण ।
द्वितीय श्लोकेते करि विशेष वन्दन ॥ ८३ ॥
अनुवाद – प्रथम श्लोकमें सामान्य – मंगलाचरण किया है और द्वितीय श्लोकमें विशेष वन्दना की है॥८३॥
प्रथम चौदह श्लोकोंमेंसे द्वितीय श्लोककी व्याख्या :-
वन्दे श्रीकृष्णचैतन्य – नित्यानन्दौ सहोदितौ ।
गौड़ोदये पुष्पवन्तौ चित्रौ शन्दौ तमोनुदौ ॥ ८४ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ८४ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य-उदयाचलरूप गौड़देशमें युगपत् सूर्य-चन्द्र- स्वरूप आश्चर्यजनक रूपमें उदित, मङ्गलदाता, जीवोंके अन्धकारविनाशी श्रीकृष्णचैतन्य – नित्यानन्दकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ ८४ ॥
अनुभाष्य – गौड़ोदये (गौड़देशः एव उदयाचलः तस्मिन्) सहोदितौ (एककाले उदयं प्राप्तौ) पुष्पवन्तौ (युगपत् दिवाकरनिशाकरौ, अतः ) चित्रौ (आश्चर्यौ) शन्दौ ( कल्याणप्रदौ) तमोनुदौ ( अन्धकारविनाशकौ) श्रीकृष्णचैतन्य-नित्यानन्दौ [अहं] वन्दे।
श्लोक-भावानुवाद – गौड़देशके उदयाचलपर एक साथ सूर्य एवं चन्द्ररूपमें आश्चर्यजनक रूपसे जगत्का कल्याण तथा अन्धकारका विनाशके लिये उदित हुए श्रीकृष्णचैतन्य एवं श्रीनित्यानन्द प्रभुकी मैं वन्दना करता हूँ॥ ८४ ॥
सूर्य-चन्द्रके साथ दोनों भाइयोंकी उपमाकी सार्थकता :-
व्रजे ये विहरे पूर्वे कृष्ण-बलराम ।
कोटीसूर्यचन्द्र जिनि दों हार निजधाम ॥ ८५ ॥
‘गौड़ोदये पुष्पवन्तौ’ :-
सेइ दुइ जगतेरे हइये सदय ।
गौड़देशे पूर्व-शैले करिल उदय ॥ ८६ ॥
अनुवाद – जो श्रीकृष्ण-बलराम पहले व्रजमें विचरण करते थे और जिनकी अङ्गकान्ति करोड़ों सूर्य एवं चन्द्रमाओंको पराभूत करती है, वही दोनों जगत्के प्रति कृपालु होकर गौड़देशके उदयाचल (पूर्वी क्षितिज ) पर उदित हुए हैं ॥ ८५-८६॥
अमृतप्रवाह भाष्य – ‘निजधाम’ – ज्योति (प्रकाश), ‘पूर्वशैले’ – गौड़रूप उदयाचलमें गङ्गाके पूर्वतटपर ॥ ८५-८६ ॥
अमृतानुकणिका – दोनोंकी अङ्गकान्ति करोड़ों सूर्योकी ज्योतिसे भी उज्ज्वल और करोड़ों चन्द्रमाओंकी ज्योतिसे स्निग्ध है। करोड़ों सूर्योकी अपेक्षा उज्ज्वल होनेपर भी उसमें सूर्यके तेजके समान ज्वाला नहीं है, अपितु करोड़ों चन्द्रमाओंकी अपेक्षा भी स्निग्ध है, यही तात्पर्य है ॥ ८५-८६ ॥
श्रीकृष्णचैतन्य आर प्रभु नित्यानन्द ।
याँहार प्रकाशे सर्व जगत आनन्द ॥ ८७ ॥
अनुवाद-उन श्रीकृष्णचैतन्य और श्रीनित्यानन्द प्रभुके प्रकट होनेसे सारे विश्वमें आनन्द छा गया है॥८७॥
‘तमोनुदौ’ और ‘शन्दौ :-
सूर्यचन्द्र हरे यैछे सब अन्धकार ।
वस्तु प्रकाशिया करे धर्मेर प्रचार ॥ ८८ ॥
अहैतुकी दयाका निर्देश :-
एइ मत दुइ भाइ जीवेर अज्ञान ।
तमोनाश करि करे वस्तु तत्त्वज्ञान ॥ ८९ ॥
अनुवाद – जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र समस्त अन्धकारको दूर करके वस्तुओंको प्रकाशितकर उनके धर्म (रूप गुणादि) को प्रकट करते हैं, उसी प्रकार इन दोनों भाइयोंने भी जीवोंके अज्ञानरूपी अन्धकारका विनाशकर उन्हें परमतत्त्वका ज्ञान दिया है ॥ ८८-८९॥
कैतवका अर्थ :-
अज्ञान – तमेर नाम कहिये ‘कैतव’ ।
धर्म-अर्थ-काम-वाञ्छा आदि एइ सब ॥९०॥
अनुवाद – अज्ञानरूपी अन्धकारका ही दूसरा नाम ‘कैतव’ (कपट) है। (अपने भोगके लिये ) धर्म, अर्थ, कामादि ही अज्ञानरूपी अन्धकार है॥९०॥
अमृतानुकणिका – धर्मका तात्पर्य यहाँ वर्णाश्रम धर्म, माता- पिताकी सेवा, गुरुजनोंकी सेवा, सत्य बोलना, दानादि है । इस धर्मके पालनका फल अर्थकी प्राप्ति है; अर्थका तात्पर्य धन-सम्पत्ति और देहके सुखके लिये जो भी वस्तुएँ हैं। इस अर्थसे जितनी प्रकारकी सांसारिक कामनाएँ हैं, वे पूर्ण होंगी; इसे काम कहते हैं । तब काम पुनः धर्मके पालनमें प्रवृत्त करेगा, जिससे अर्थकी निरन्तर प्राप्ति होती रहे और कामनाओंकी पूर्ति अबाध रूपसे होती रहे। इस प्रकार इन तीनोंका चक्र चलता रहता है, जिसे ‘त्रिवर्ग’ कहते हैं। यह एक ऐसा चक्रव्यूह है, जिससे कोई निकल नहीं सकता। जिधरसे भी प्रयास करें, पुनः इसमें फंस जायेंगे; यह दलदलसे निकलनेकी चेष्टाके समान है। कोई सौभाग्यवान् जीव किसीके सङ्गसे निकल जाते हैं, किन्तु मुक्तिरूपी अर्थमें फंस जाते हैं । मुक्ति चार पुरुषार्थोंमें एक अर्थ है, परन्तु यह परमार्थका एक अंशमात्र है । यह अन्तिम लक्ष्य नहीं है, अपितु यहाँसे परमार्थका प्रारम्भ होता है । यथार्थ परमार्थ मार्ग तो श्रीकृष्णभक्ति है, जिसे पञ्चम पुरुषार्थ कहते हैं। धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूपी पुरुषार्थोंको ही जीवनका परम लक्ष्य मानना अज्ञानरूपी अन्धकार है और इसे ही कैतव कहा गया है। इस प्रकार चैतन्यचरितामृतके अनेक वाक्य उद्धृत करके दिखाया जा सकता है कि ज्ञानयोगियों अथवा राजयोगियोंके द्वारा प्राप्य मुक्ति श्रीचैतन्यचरितामृत और श्रीमन्महाप्रभुका मत नहीं है। श्रीमन्महाप्रभुका मत श्रीमद्भागवतमें लिपिबद्ध है। श्रीमन्महाप्रभुने उस भागवत – प्रतिपाद्य भक्तिका ही प्रचार किया। महाप्रभुका मत कहकर अन्य जो कोई भी मत प्रचारित हैं अथवा भविष्यमें होंगे, वे पाषण्ड कल्पित मतवाद मात्र ही जानने होंगे ॥ ९० ॥
श्रीमद्भागवत (१/१/२) –
धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम्।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृ किंवापरैरीश्वरः
सद्यो द्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥ ९१ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ९१ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य- यह श्रीमद्भागवत ग्रन्थ सर्वप्रथम महामुनि श्रीनारायणके द्वारा चतुःश्लोकी ( अर्थात् चार श्लोकों) के रूपमें निर्मित है। इसमें निर्मत्सर अर्थात् सब जीवोंके प्रति दयालु व्यक्तियोंके लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तक कैतवसे शून्य अर्थात् छलरहित परमधर्मकी व्याख्या हुई है। यह धर्म जीवके त्रितापका नाश करनेवाला, शिवद अर्थात् मङ्गल प्रदान करनेवाला और वास्तव वस्तुके तत्त्व – ज्ञानको प्रदान करनेवाला है। इसको श्रवण करनेके इच्छुक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार ईश्वरको अपने हृदयमें अवरुद्ध करनेमें समर्थ होते हैं। इसलिये श्रीमद्भागवतके अतिरिक्त अन्य किसी शास्त्रकी क्या आवश्यकता है? ॥ ९१ ॥
अनुभाष्य – महामुनिकृते ( श्रीनारायणमहामुनिरचिते) अत्र श्रीमद् भागवते ( श्रीमति शोभामये भागवते) प्रोज्झितकैतव (प्रकर्षेण उज्झितं निरस्तं कैतवं धर्मार्थकाममोक्षात्मकं फलाभिसन्धिलक्षणं कपटं यस्मिन् सः केवल भगवत्सेवालक्षणः) सतां (हरिजानानां ) निर्मत्सराणां (कामक्रोधलोभमोहमदमत्सरशून्यानां ) परमः (श्रेष्ठ, कर्मज्ञानशास्त्रनिरासपरत्वात्) धर्मः [वर्णितः] अत्र (श्रीमद्भागवते) तापत्रयोन्मूलनं (आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविक- पापविनाशक) शिवदं (मङ्गलप्रदं) वास्तवं ( शश्वत् पारमार्थिकम् अद्वयं) वस्तु वेद्यम् । अत्र (श्रीमद्भागवते ) शुश्रूषुभि (श्रोतुमिच्छद्भिः) कृतिभिः (सुकृतिवद्भिः) हृदि तत्क्षणात् सद्यः (कालव्यवधानरहितः ) ईश्वरः अवरुद्धयते ।
श्लोक- भावानुवाद – ( काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद- मात्सर्य आदिसे रहित) हरिजनोंके लिये श्रीनारायण महामुनिके द्वारा रचित सम्पूर्ण रूपसे कैतव (अर्थात् धर्म-अर्थ-काम-मोक्षादि फलरूपी कपट) से शून्य, (केवल भगवत्सेवारूपी, कर्म-ज्ञान – शास्त्रकी अपेक्षा नहीं रखनेवाले) श्रेष्ठ धर्मका वर्णन इस ( श्रीमती राधिकाकी महिमासे शोभित) श्रीमद्भागवतमें हुआ है। यह आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन तापों और इनके मूल पापका विनाशकर मङ्गलप्रदाता एवं शाश्वत् पारमार्थिक अद्वयज्ञान वस्तुके तत्त्वज्ञानको प्रदान करनेवाला है। इस श्रीमद्भागवतके श्रवणकी इच्छा करनेवाले सुकृतिवान् भक्तके हृदयमें तत्क्षणात् भगवान् बँध जाते हैं ॥ ९१ ॥
अमृतानुकणिका – भागवतका प्रतिपाद्य विषय ‘निरस्त – कुहक’ है। वही भागवतके प्रथम और द्वितीय श्लोकमें ग्रथित है। भागवतके निम्नलिखित श्लोकोंकी आलोचना करनेसे भी सारग्राही व्यक्तिको ज्ञानयोग और राजयोगकी तुच्छता उपलब्ध होगी। भागवत ( १ / ५ /१२ ) –
“नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं
न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे
न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम्॥”
अर्थात् “समस्त प्रकारकी कर्म-वासनाओंसे रहित होनेपर भी मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन-निर्मल ब्रह्मज्ञान यदि भगवान् श्रीहरिकी भक्तिसे रहित हो, तो वह भी शोभा नहीं देता । इसलिये जो साधन और सिद्धि दोनों ही अवस्थाओंमें सदा ही अमङ्गलस्वरूप तथा दुःखप्रद हैं, वे काम्य कर्म और यहाँ तक कि निष्काम कर्म भी यदि भगवान्को अर्पण नहीं किये गये हों, तो वे कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकते हैं? इसका कारण है कि वे भगवत्-सेवा और सत्त्व – शुद्धिके भावसे रहित होते हैं।” और भागवत ( १ / ६ / ३६)—
“यमादिभिर्योगपथैः कामलोभहतो मुहुः ।
मुकुन्दसेवया यद्वत् तथाद्धात्मा न शाम्यति ॥ ”
अर्थात् “निरन्तर काम – लोभादि रूप शत्रुओंके वशीभूत अशान्त मन भगवान् श्रीमुकुन्दकी सेवाके द्वारा जिस प्रकारसे प्रत्यक्ष शान्तिका अनुभव करता है, यम– नियमादिसे युक्त अष्टाङ्गयोग-मार्गका अवलम्बन करनेसे वह वैसा शान्त नहीं हो पाता।
तार मध्ये मोक्षवाञ्छा कैतवप्रधान ।
याहा हैते कृष्णभक्ति हय अन्तर्धान ॥ ९२ ॥
अनुवाद – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन सबमेंसे मोक्षकी कामना प्रधान कैतव है, क्योंकि इसके द्वारा श्रीकृष्णभक्ति लुप्त हो जाती है ॥ ९२ ॥
उक्त श्लोककी श्रीधरस्वामिकृत भावार्थदीपिकामें-
“प्र-शब्देन मोक्षाभिसन्धिरपि कैतवं निरस्तं” इति॥९३॥
अनुवाद – “प्र’ शब्दका अभिप्राय मोक्षकी इच्छारूपी कैतवके परित्यागसे है ॥ ९३ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – उनमेंसे मुक्तिवाञ्छा ही प्रधान कैतव है । इसलिये श्रीधरस्वामिपादके अनुसार भी प्र – शब्दका तात्पर्य मोक्षके अभिसन्धिरूप कैतवसे रहित होना है ॥ ९२-९३॥
कृष्णभक्तिर बाधक – यत शुभाशुभ कर्म ।
सेह एक जीवेर अज्ञानतमो धर्म ॥ ९४॥
अनुवाद–श्रीकृष्णभक्तिके पथमें बाधा उत्पन्न करनेवाले जितने भी शुभ अर्थात् सांसारिक सुख अथवा स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाले पुण्य कार्य अथवा अशुभ अर्थात् निकृष्ट योनि और नरक प्राप्त करानेवाले पाप कार्य हैं, वे जीवके अज्ञानरूपी अन्धकार ( तमोगुणी – धर्म) के कारण हैं॥९४॥
–
अमृतप्रवाह भाष्य – श्रीचैतन्य महाप्रभु और श्रीनित्यानन्द प्रभु ये दो भाई सूर्य और चन्द्रके समान हैं। वे दोनों उदित होकर जीवोंके हृदयके अन्धकारको दूर करते हैं । इन पद्योंका तात्पर्य यही है कि जीव चित्स्वरूप तत्त्व है। श्रीकृष्ण-भक्ति और श्रीकृष्ण – प्रेम ही जीवका स्वधर्म ( स्वरूपगत – धर्म) है। शुभकर्म (पुण्य), अशुभकर्म (पाप) और मोक्षकी कामना – ये मिलकर सभी जीवोंमें (विकृत) स्वधर्मके रूपमें प्रवेशकर उन्हें तमो – धर्ममय कर रहे हैं। कर्म और ज्ञानके प्रतिपादक समस्त उपदेश ही कैतव अर्थात् छल हैं, इसलिये वे तमोधर्मके अन्तर्गत हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु और श्रीनित्यानन्द प्रभुके प्रकट होनेसे पहले यह तमोधर्म जीवोंके हृदयको दूषित कर रहा था। दोनों भाइयोंने जगत् में अवतरित होकर जीवोंके अन्तःकरणसे उस तमोधर्मको दूर करके वास्तव वस्तु-तत्त्वका प्रकाश किया है॥ ९४॥
निताइ – गौरकी कृपाका फल :-
ताँहार प्रसादे एइ तमो हय नाश ।
तमो नाश करि करे तत्त्वेर प्रकाश ॥ ९५ ॥
अनुवाद – श्रीचैतन्य महाप्रभु और श्रीनित्यानन्द प्रभुकी कृपासे इस अन्धकारका विनाश होता है और उन्होंने अन्धकारका विनाश करके वास्तविक तत्त्वका प्रकाश किया है ॥९५॥
तत्त्ववस्तुका परिचय :-
तत्त्ववस्तु–कृष्ण, कृष्णभक्ति, प्रेमरूप।
नाम – सङ्कीर्त्तन – सर्व आनन्दस्वरूप ॥ ९६॥
अनुवाद – श्रीकृष्ण ही एकमात्र तत्त्ववस्तु हैं, उनकी भक्ति प्रेमस्वरूपा है और भगवान्के नामोंका सङ्कीर्तन उसे प्राप्त करानेवाला है, ये तीनों ही समस्त आनन्दस्वरूप हैं॥९६॥
सूर्य-चन्द्रकी अपेक्षा उनकी अधिक कल्याणकारिता :-
सूर्य चन्द्र बाहिरेर तमः से विनाशे ।
बहिर्वस्तु घट-पट – आदि से प्रकाशे ॥ ९७॥
दुइ भाइ हृदयेर क्षालि’ अन्धकार ।
दुइ भागवत-सङ्गे करान साक्षात्कार ॥ ९८ ॥
अनुवाद – सूर्य और चन्द्र तो केवलमात्र बाहरी अन्धकारको दूरकर बाहरी जागतिक वस्तुओं जैसे देह – वस्त्रादिको ही प्रकाशित करते हैं, परन्तु श्रीगौर – नित्यानन्द नामक ये दो भाई हृदयके आन्तरिक अन्धकारका विनाशकर दोनों भागवतोंका साक्षात्कार करा देते हैं॥९७-९८॥
एक भागवत बड़-भागवत शास्त्र ।
आर भागवत – भक्त भक्ति रस – पात्र ॥९९॥
दुइ भागवत द्वारा दिया भक्तिरस ।
ताँहार हृदये ताँर प्रेमे हय वश ॥ १००॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ९९-१००॥
अमृतप्रवाह भाष्य-भागवत – शास्त्र ( ग्रन्थ श्रीमद्भागवतम् ) रूपी एक भागवत हैं और दूसरे भागवत भक्त हैं, जो भक्तिरसके पात्र अर्थात् हृदयमें भक्तिरसको धारण करनेवाले हैं। श्रीगौर-नित्यानन्द जीवोंको इन दोनोंके साक्षात्कारके द्वारा भक्तिरस प्रदान करवाकर स्वयं उनके प्रेमके वशीभूत हो जाते हैं॥९९-१००॥
अमृतानुकणिका – ‘भक्त भक्ति – रस – पात्र – प्रेमाभक्तिको ही जो परम पुरुषार्थ मानते हैं, ऐसे भक्तिरस – रसिक भक्तोंको ही यहाँ भागवत कहा गया है। ऐसे भक्तोंके सङ्गके प्रभावसे ही हृदयमें भक्तिका बीज अङ्कुरित होता है। कर्मी और ज्ञानी आदि लोग भी आनुषङ्गिक भावसे भक्तिका अनुष्ठान करते हैं, किन्तु वे भक्तिको परम पुरुषार्थ नहीं मानते। भक्तिका आस्वादन उनके लिये लोभनीय नहीं हैं और भक्ति उनके हृदयमें रसरूपमें परिणत नहीं हो पाती, इसलिये वे भक्तिरसपात्र नहीं हैं। इसलिये इस पयारमें ‘भागवत’ शब्द कर्मी ज्ञानी आदि लोगोंके लिये अभिप्रेत नहीं है ॥ ९९-१००॥
एक अद्भुत समकाले दो हार प्रकाश ।
आर अद्भुत – चित्तगुहार तमः करे नाश ॥ १०१ ॥
अनुवाद – सूर्य और चन्द्ररूपी श्रीगौर और श्रीनित्यानन्द प्रभु, दोनों एक ही साथ प्रकट हुए हैं, यह एक आश्चर्य है और दूसरी अद्भुत बात यह है कि वे हृदयकी गहराइयोंमें छिपे अज्ञानरूपी अन्धकारका भी नाश करते हैं ॥ १०१ ॥
एइ चन्द्र सूर्य दुइ परम सदय ।
जगतेर भाग्ये गौड़े करिल उदय ॥ १०२ ॥
अनुवाद – ये दोनों चन्द्र और सूर्य अत्यन्त दयामय हैं और जगत्वासियोंके सौभाग्यवश गौड़देशमें उदित हुए हैं ॥ १०२ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – ‘जगतेर भाग्ये’ अर्थात् उन्हीं दो भाइयोंके द्वारा प्रचारित प्रेमधर्म क्रमशः इस जगत् सर्वत्र व्याप्त होगा, यही इस जगत्का भाग्य है।
‘गौड़े’ – मल्लदह जिलाके अन्तर्गत प्राचीन गौड़नगरसे सेनवंशीय राजा अपना राजसिंहासन श्रीनवद्वीपमण्डलमें ले आये थे, इसलिये श्रीनवद्वीपमण्डलको गौड़भूमि कहा जाता है। उसी गौड़में गङ्गाके पूर्वतटमें श्रीमन्महाप्रभुने जन्म ग्रहण किया था और श्रीनित्यानन्द प्रभु वहाँ आकर मिलित होकर उदित हुए थे ॥ १०२ ॥
सेइ दुइ प्रभुर करि चरण – वन्दन ।
याँहा हइते विघ्ननाश, अभीष्टपूरण ॥ १०३ ॥
अनुवाद – इन दोनों प्रभुओंके श्रीचरणोंकी मैं वन्दना करता हूँ, जो समस्त विघ्नोंका नाश और मनोभीष्टको पूर्ण करनेवाले हैं ॥ १०३ ॥
एइ दुइ श्लोके कैल मंगल-वन्दन ।
तृतीय श्लोकेर अर्थ शुन सर्वजन ॥ १०४ ॥
अनुवाद – इन दो श्लोकोंके द्वारा मैंने मङ्गलकारी वन्दना की । अब सब लोग कृपापूर्वक तृतीय श्लोकका अर्थ श्रवण करें ॥ १०४ ॥
वक्तव्य-बाहुल्य, ग्रन्थ-विस्तारेर डरे ।
विस्तारे ना वर्णि, सारार्थ कहि अल्पाक्षरे ॥ १०५ ॥
अनुवाद – वर्णन करने योग्य बहुत कुछ होनेपर भी ग्रन्थ-विस्तारके भयसे में विस्तृत वर्णन नहीं करके संक्षेपमें केवल सारार्थ ही प्रस्तुत कर रहा हूँ ॥ १०५ ॥
अनादिकालसे व्यवहारसिद्ध प्राचीन स्वशास्त्रकी उक्ति :-
“मितञ्च सारञ्च वचो हि वाग्मिता” इति ॥१०६॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १०६॥
अमृतप्रवाह भाष्य – अल्प शब्दोंमें सारवाक्यकी उक्तिको ‘वाग्मिता’ कहा जाता है ॥ १०६॥ अनुभाष्य – मितञ्च ( प्रजल्परहितं प्रयोजनमात्र) सारश्च (उद्देशकं ) वचः हि वाग्मिता (वाक्पटुता)। श्लोक-भावानुवाद – प्रजल्परहित केवल प्रयोजनको लक्ष्य करनेवाले सार वचनको ही वाक्पटुता कहते हैं ॥ १०६॥
शुनिले खण्डिबे चित्तेर अज्ञानादि दोष ।
कृष्णे गाढ़ प्रेम हबे, पाइबे सन्तोष ॥ १०७॥
अनुवाद – इसको (श्रद्धापूर्वक) श्रवण करनेसे हृदयकी अज्ञानता आदि समस्त दोष नष्ट हो जायेंगे और श्रीकृष्णमें गाढ़ प्रेम होगा तथा हृदयको शान्ति मिलेगी ॥ १०७॥
अमृतप्रवाह भाष्य — “कृष्णे गाढ़ प्रेम हबे” के स्थानपर किसी-किसी अन्य संस्करणमें “सर्वतत्त्व ज्ञान हइबे” पाया जाता है ॥ १०७॥
इति अमृतप्रवाह – भाष्ये प्रथम परिच्छेद ।
पहले अध्यायका अमृतप्रवाह भाष्य पूर्ण हुआ ।
अनुभाष्य – महाभारतके उद्योगपर्वमें ४३ / १६ श्लोकमें बारह प्रकारके दोषोंका और विष्णुपुराणमें अठारह प्रकारके दोषोंका उल्लेख किया गया। स्वरूपकी दुर्ज्ञेयताके कारण ये पाँच प्रकारके अज्ञान हैं- (१) अज्ञान – जड़शरीरमें ‘मैं’ की बुद्धि; (२) विपर्यास- जड़वस्तुओंके भोक्ताका अभिमान; (३) भेद- द्वितीयाभिनिवेश ( श्रीकृष्णसेवाको त्यागकर देह सम्बन्धी कार्योंमें अभिनिवेश); (४) भय और विरूप ग्रहण तथा (५) शोक ॥ १०७॥
इति अनुभाष्ये प्रथम परिच्छेद ।
पहले अध्यायका अनुभाष्य पूर्ण हुआ।
अमृतानुकणिका – विष्णुयामलमें अठारह दोषोंका वर्णन इस प्रकार है – (१) मोह, (२) तन्द्रा, (३) भ्रम, (४) रुक्षरसता अर्थात् प्रेम-सम्बन्धके बिना भी राग, (५) उत्कट – काम (दुःखप्रद लौकिक काम), (६) चञ्चलता, (७) मद, (८) मात्सर्य ( दूसरोंका उत्कर्ष सहन करनेमें अक्षमता), (९) हिंसा, (१०) खेद, (११) परिश्रम, (१२) असत्य बोलना, (१३) क्रोध, (१४) प्रबल आकाङ्क्षा, (१५) आशङ्का, (१६) विश्वविभ्रम अर्थात् विश्वपालनेच्छा – आवेश, (१७) विषमता और (१८) पराक्षेपा ॥ १०७॥
ग्रन्थमें वर्णनीय विषय :-
श्रीचैतन्य – नित्यानन्द – अद्वैत – महत्त्व |
तर भक्त-भक्ति-नाम-प्रेम- रसतत्त्व ॥ १०८ ॥
भिन्न भिन्न लिखियाछि करिया विचार ।
शुनिले जानिबे सब वस्तुतत्त्वसार ॥ १०९॥
अनुवाद – मैं श्रीचैतन्य महाप्रभु, श्रीनित्यानन्द प्रभु और श्री अद्वैताचार्यकी महिमा और उनके भक्तों, भगवद्भक्ति, भगवन्नाम, प्रेम एवं रसतत्त्वका पृथक्-पृथक् विचारपूर्वक वर्णन करूँगा, जिसे श्रवण करनेसे समस्त वस्तुतत्त्वके सारका ज्ञान हो जायेगा ॥ १०८-१०९॥
श्रीरूप – रघुनाथ- पदे यार आश ।
चैतन्यचरितामृत कहे कृष्णदास ॥ ११० ॥
इति श्रीचैतन्यचरितामृते आदिखण्डे गुर्वादि-वन्दन – मङ्गलाचरणं नाम प्रथमः परिच्छेदः ।
अनुवाद – श्रीरूप – रघुनाथ गोस्वामीके चरणकमलोंकी कृपाभिलाषा करते हुए कृष्णदास इस श्रीचैतन्यचरितामृतका वर्णन कर रहा है ॥ ११०॥
श्रीचैतन्यचरितामृत के आदिखण्ड में गुरु आदिका वन्दन – मंगलाचरण नामक पहले अध्यायका अनुवाद समाप्त।