दूसरे अध्यायका कथासार – इस दूसरे अध्यायमें श्रीचैतन्य महाप्रभुका श्रीकृष्णके साथ एकत्व प्रकाशित करते हुए ब्रह्मको उनकी अङ्गज्योति और परमात्माको उनका अंश प्रमाणित किया है। श्रीकृष्णको पुरुषावतारोंका और समस्त जीवोंका परम आश्रय प्रमाणित करके उनका मूल नारायण होना स्थापित करते हुए श्रीकृष्णके स्वरूप और उनकी तीन प्रकारकी शक्तियोंके ज्ञानको जाननेकी आवश्यकतापर बल दिया गया है। श्रीकृष्णके स्वरूपके प्राभव- वैभव भेदसे दो प्रकारके प्रकाश, अंश- शक्त्यावेश भेदसे दो प्रकारके अवतार और बाल्य- पौगण्ड अवस्था भेदसे दो प्रकारादि लीलाओंका वर्णनकर किशोरस्वरूप श्रीकृष्ण स्वयं अवतारी हैं, यह सिद्धान्त स्थापित किया गया है। चित्शक्तिका वैभव वैकुण्ठादि लोक, मायाशक्तिका वैभव अनन्त ब्रह्माण्ड और जीवशक्तिका वैभव अनन्त जीव हैं, यह भी दिखलाया गया है। श्रीकृष्णचैतन्य ही सर्वकारणोंके कारण, सभीके आदि (मूल) और स्वयं अनादि नित्य- सच्चिदानन्द विग्रह साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र हैं, यह स्थिर किया है। भक्तिमें दृढ़ता लानेके लिये सभी भक्तोंको श्रीकृष्णका स्वरूपज्ञान, उनकी तीन शक्तियोंका ज्ञान और विलासज्ञानरूप सम्बन्धज्ञान होना आवश्यक है, यह भी सिद्ध किया गया है। (अमृतप्रवाह भाष्य )

भक्तिसिद्धान्त- विचारसे श्रीगौरवन्दना :-
श्रीचैतन्यप्रभुं वन्दे बालोऽपि यदनुग्रहात् ।
तरेत्रानामतग्राहव्याप्तं सिद्धान्तसागरम् ॥ १॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – जिनकी कृपासे अज्ञ व्यक्ति भी नाना प्रकारके मतवादरूपी मगरमच्छादिसे परिपूर्ण सिद्धान्त – समुद्रको अनायास ही पार कर जाता है, उन श्रीचैतन्य महाप्रभुकी मैं वन्दना करता हूँ॥ १ ॥

अनुभाष्य-यदनुग्रहात् (यस्य कृपया ) बालोऽपि (अनभिज्ञोऽर्भकोऽपि ) नानामत्तग्राहण्याप्तं (औलूक्यजिन-बुद्ध- जैमिनि पतञ्जलि – गौतम कणाद कपिल शङ्कर दत्तात्रेय कथित मिथो विवदमान नक्रमकर प्रतिम-जड़स्वार्थ- सङ्कुल – मतवादपूर्ण) सिद्धान्तसागर ( विचारसमुद्र) तरेत् (तेषां सङ्कीर्णमतवादानि तृणीकृत्य अमलं कृष्णचरणं जानाति ) [ ] श्रीचैतन्यप्रभुं [अहं] वन्दे ।

श्लोक – भावानुवाद – जिनकी कृपासे अनभिज्ञ बालक भी ( औलूक्य और जैन दर्शन एवं बुद्ध – जैमिनि – पतञ्जलि – गौतम – कणाद – कपिल – शङ्कराचार्य – दत्तात्रेयके द्वारा प्रचारित परस्पर विरोधी, जड़स्वार्थसे व्याप्त मतरूपी) मगरमच्छोंसे परिपूर्ण विचारसमुद्रसे तर जाता है अर्थात् उनके विभिन्न मतको तुच्छ मानकर अमल श्रीकृष्णके चरणोंको जीवनका लक्ष्य जान जाता है, उन श्रीचैतन्यप्रभुकी मैं वन्दना करता हूँ॥ १ ॥

श्रीकृष्णकीर्तनके लिये श्रीचैतन्यकी दया भिक्षा :-
कृष्णोत्कीर्त्तन – गान – नर्त्तनकला- पाथोजनि भ्राजिता
सद्भक्तावलि – हंस-चक्र- मधुपश्रेणी विहारास्पदम् ।
कर्णानन्दि-कलध्वनिर्वहतु मे जिह्वा मरुप्राङ्गणे
श्रीचैतन्यदयानिधे तव लसल्लीलासुधास्वर्धुनी ॥ २ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ २ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य हे दयाके समुद्र श्रीचैतन्यदेव! श्रीकृष्ण विषयक उच्च स्वरसे कीर्तन गीत-नृत्यादि कमलोंसे सुशोभित और हंस- चक्रवाक भ्रमररूपी सभी साधुभक्तका विहार स्थान एवं सभीके कानको आनन्द प्रदान करनेवाले जलस्रोतकी भाँति मधुर कलकल ध्वनिरूप आपकी देदीप्यमान् लीलामृत-भागीरथी मेरी मरुस्थलरूपी जिह्वापर निरन्तर बहती रहे ॥ २ ॥

अनुभाष्य हे दयानिधे श्रीचैतन्य! कृष्णोत्कीर्त्तनगाननर्त्तन-कलापाथोजनि आणिता (कृष्णस्य नामरूपगुण- लीलादीनां उत्कीर्त्तनम् उच्चैर्भाषणं गानं नर्त्तनञ्च तद्रूपाः कलाः ता एवं पाचोजनीनि पद्मानि तैजिता शोभिता ) सद्भक्तावलि – हंसचक्र- मधुपश्रेणीविहारास्पदं ( हंसचक्रवाक-भ्रमरश्रेणीभेदप्रतिमानां भाव-भेदावस्थितानां सद्भक्तावलीनां शुद्धभक्तवृन्दानां विहारास्पदं विलासक्षेत्रं यस्यां लीलायां शुद्धभक्तवृन्दानां परमामोदो भवतीति भावः) कर्णानन्दिकलध्वनिः (कर्णानन्दी भक्तानां कर्णरसायनः कलध्वनिः हंसचक्रवाक – भ्रमरोपम-हरिजनैः गीत – हरिलीला प्रवाहाणामस्फुटमधुरनिनादः) [एवम्भूता] तव लसल्लीलासुधास्वर्धुनी (लसती दीव्यती गौरलीलारूपामृतमयी स्वर्धुनी स्वर्गङ्गा मन्दाकिनी) मे (मम) जिह्वामरु- प्राङ्गणे (गौरलीलारसास्वादवचिते रसवर्जिते जिह्वारूपे नीवृत्ति) वहतु ।

श्लोक – भावानुवाद हे दयाके भण्डार श्रीचैतन्य! श्रीकृष्णका उच्च स्वरसे नाम-रूप-गुण- लीलादिका कीर्तन -गान नर्तन कलारूपी कमलोंसे सुशोभित, हंस- चक्रवाक – भ्रमरादि विविध प्राणियोंके समान भिन्न-भिन्न भाववाले शुद्धभक्तका विलासक्षेत्र अर्थात् आपकी जिस लीलामें शुद्धभक्तोंको परमानन्द प्राप्त होता है अथवा हंस चक्रवाक भ्रमर सदृश हरिजनोंके द्वारा गान की गयी हरिलीला जलप्रवाहकी मधुर कलकल ध्वनिके समान भक्तोंके लिये कर्णरसायन अर्थात् उनके कानोंको आनन्द प्रदान करनेवाली है, इस प्रकारकी उपरोक्त तीन विशेषणसे शोभित गौरलीलारूप अमृतमयी मन्दाकिनी मेरी (गौरलीलाके रसास्वादनसे वञ्चित) मरुभूमि सदृश जिह्यरूपी राज्यमें बहती रहे॥ २ ॥

जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द ।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द ॥ ३ ॥
अनुवाद – महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव की जय हो। श्रीनित्यानन्द प्रभुकी जय हो । श्री अद्वैतचन्द्रकी जय हो । श्रीगौर भक्तवृन्दकी जय हो ॥ ३ ॥

प्रथम चौदह श्लोकोंमेंसे तीसरे श्लोककी व्याख्या वस्तु निर्देश :-
तृतीय श्लोकेर अर्थ करि विवरण ।
वस्तु – निर्देशरूप मङ्गलाचरण ॥ ४ ॥
अनुवाद – अब मैं तृतीय श्लोककी व्याख्या कर रहा हूँ जिसके द्वारा वस्तु-निर्देश (ग्रन्थके प्रतिपाद्य विषय) के रूपमें मङ्गलाचरण किया गया है ॥ ४ ॥

यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनुभा
य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांशविभवः ।
षड्रैश्वर्यैः पूर्णो य इह भगवान् स स्वयमयं
न चैतन्यात् कृष्णाज्जगति परतत्त्वं परमिह ॥ ५ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५॥
अमृतप्रवाह भाष्य-उपनिषदोंमें जिनको अद्वैत ब्रह्म कहा जाता है, वे मेरे प्रभुकी अङ्गकान्ति हैं। जिनको योगशास्त्रोंमें अन्तर्यामी पुरुष या परमात्मा कहते हैं, वे मेरे प्रभुके अंशस्वरूप हैं। जिनको ब्रह्म और परमात्माका आश्रय एवं अशिस्वरूप षड़ैश्वर्यपूर्ण भगवान् कहा जाता है, मेरे प्रभु वे स्वयं भगवान् हैं। इसलिये श्रीकृष्णचैतन्यकी अपेक्षा जगत्में और कोई परतत्त्व नहीं है ॥५॥

अनुभाष्य – उपनिषदि (ब्रह्मविद्याभिधान – सर्वोत वेदशाखाविशेषे, उप-नि पूर्वकस्य विशरणगत्यावसादनार्थस्य षद्लधातोः क्विप् प्रत्ययान्तस्येदं तत्र, उप उपगम्य गुरूपदेशाल्लब्धेति यावत् । उपस्थितत्वाद्द्ब्रह्मविद्यां निश्चयेन तष्ठितया ये दृष्टानुविक विषय वितृष्णाः सन्तः तेषां संसारबीजस्य सद् विशरणकत्री शिथिलयित्री अवसादयित्री विनाशयित्री ब्रह्मगमयित्रीति तत्र ) यद् अद्वैतं (द्वितीयरहितं) ब्रह्म [ अभिधीयते] तदपि अस्य (गौरकृष्णस्य ) तनुभा ( अप्राकृतदेहस्य कान्तिः) ; यः आत्मा (परमात्मा सर्वजीवादि नियन्ता ) अन्तर्यामी पुरुषः सोऽस्य अंशविभवः (ऐश्वर्यस्यान्यत्तमः विभुत्वविशेषः); इह ( अस्मिन् तत्त्वविचारे) यः षट्टैश्वर्यैः (षभिः समग्रैश्वर्यवीर्ययशः श्रीज्ञानवैराग्यैः ऐश्वर्यः प्रभुत्वैः) पूर्णः (अपेक्षाशून्यः परिपूर्ण) सः अयं श्रीकृष्णचैतन्यः स्वयं भगवान् इह (जगति तत्त्वविचारे कलौ या) चैतन्यात् कृष्णात् (कृष्ण चैतन्यात्) परं (अन्यत्) परतत्त्वं ( श्रेष्ठाश्रयः) न ( नास्तीत्यर्थः) । [ज्ञानशास्त्रप्रयोजनं ब्रह्मवस्तु तथा योगशास्त्रलक्ष्यः परमात्मा भगवता सह तत्त्वसाम्येऽपि अधिकारोचित दृष्टिभेदेन भगवद्विग्रहस्य चित्-प्रभांशरूपपुटद्वयमात्रम्, न तु सम्पूर्ण सविशेष- शक्तिमत् स्वयं वस्तु यथा भगवान् ] |

श्लोक – भावानुवाद-उपनिषद् (ब्रह्मविद्या नामक सर्वोत्तम विद्या विशेष ) – इसकी व्युत्पत्ति उप और नि उपसर्गपूर्वक विशरण (शिथिल), गति, अवसाद (विनाश) अर्थपरक षल धातुके अन्तमें क्विप् प्रत्यय लगानेसे हुई है। इस व्युत्पत्तिमें ‘उप’ शब्दका अर्थ है – गुरुके निकट जाकर उनसे उपदेश प्राप्त करना । गुरुके निकट उपस्थित होनेसे ब्रह्मविद्याको निश्चयपूर्वक अर्थात् निष्ठापूर्वक जाना जाता है। दृष्टानुश्रविक – दृष्ट अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा गोचर तथा अनुश्राविक अर्थात् अनुभव करनेवाले जो इन दोनों प्रकारकी विषयतृष्णासे विराग्य प्राप्त करना चाहते हैं, उपनिषद् उनके संसार बीजका सद्विशरण अर्थात् उसे शिथिल करनेवाली अवसाद अर्थात् विनाश करनेवाली गति अर्थात् ब्रह्मको प्राप्त करवाने वाली ब्रह्मविद्या है। जिसे अद्वैत ब्रह्म कहते हैं, वह भी श्रीगौरकृष्णकी अप्राकृत देहकी कान्ति है, जो सब जीवोंके नियन्ता परमात्मा हैं, वे उनके ऐश्वर्यके एक अंश सर्वव्यापकता गुणसे युक्त अंश विशेष हैं; इस तत्त्वविचारमें छह प्रकारके ऐश्वयों अर्थात् समस्त वैभव, बल, यश, सौन्दर्य, ज्ञान और वैराग्यसे स्वयं परिपूर्ण (किसी अन्यकी अपेक्षा ना रखते हुए) वे यही श्रीकृष्णचैतन्य स्वयं भगवान् हैं अर्थात् इस जगत् तत्त्व विचारसे अथवा कलिकालमें श्रीकृष्णचैतन्यसे श्रेष्ठ अन्य कोई आश्रय नहीं है (यह अर्थ है) [ज्ञानशास्त्रों का प्रयोजन ब्रह्म है, योगशास्त्रोंका प्रयोजन परमात्मा है। तत्त्वकी दृष्टिसे यद्यपि ब्रह्म और परमात्माका भगवान्से साम्य है, तथापि अधिकारकी दृष्टिसे वे क्रमशः भगवत्-विग्रहकी अङ्गकान्ति और अंशरूप दो प्रकाशमात्र हैं। वे सम्पूर्ण सविशेष- शक्तिमान् स्वयं वस्तु अर्थात् भगवान् नहीं हैं ।

इस श्लोक के साथ श्रील जीवगोस्वामीकृत तत्त्वसन्दर्भमें संख्या आठमें प्रदत्त श्लोक विचारणीय है-

“यस्य ब्रह्मेति संज्ञां क्वचिदपि निगमे याति चिन्मात्रसत्ताप्यंशो यस्यांशकैः स्वैर्विभवति वशयत्रेव मायां पुमांश्च । एकं यस्यैव रूपं विलसति परमव्योम्नि नारायणाख्यं स श्रीकृष्णो विधत्ते स्वयमिह भगवान् प्रेम तत्पाद भाजाम् ॥’

अर्थात् “जिनकी चिन्मात्र सत्ताको वेद किसी-किसी स्थानपर ‘ब्रह्म’ नामसे वर्णन करते हैं, जिनके एक अंश माया नियन्ता ‘पुरुष’ अपने अंश (लीलावतार और गुणावतार) रूपोंमें वैभव प्रकाश करते हैं और जिनके एक रूप ‘श्रीनारायण’ नामसे परव्योममें विलास करते हैं, वे स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलोंका भजन करनेवाले भक्तोंको प्रेम प्रदान करें।”

सच्चिदानन्द भगवान् के सर्वदा आनन्दप्रद दर्शनसे वञ्चित रहकर जो उन चिन्मयलीलायुक्त तत्त्ववस्तुकी केवल सम्वित्वृत्तिका अवलम्बन करते हैं, उन्हें ब्रह्मका ही दर्शन होता है और जो केवल उनकी सत् चित्वृत्तिका अवलम्बन करते हैं, वे परमात्माका ही दर्शन करते हैं। इसलिये सच्चिदानन्द लीलाविग्रह भगवान्‌की चिन्मय अङ्गकी ज्योति ही चित्-विलासहीन – निराकार – मायारहित ब्रह्म और उनके ऐश्वर्यकी अंश विभूति ही परमात्मा हैं ॥ ५ ॥

अमृतानुकणिका – परम सम्बन्ध निर्णयमें अखिल – रसामृतमूर्ति श्रीकृष्ण और उनकी ही औदार्य – मूर्ति श्रीचैतन्य निर्णीत हुए हैं। श्रीकृष्णके अतिरिक्त ब्रह्म, परमात्मा और किम्वा भगवान् के अन्य किसी भी अवतारमें समस्त रसोंका एकत्र युगपत् समावेश नहीं देखा जाता । श्रीचैतन्यदेव और श्रीकृष्ण एक ही अभिन्न वस्तु हैं और वे ही परतत्त्व हैं। इस जगत्में आरोह अथवा अधिरोह पथसे क्रमसे श्रेष्ठताके विचारसे ब्रह्म परमात्मा और भगवान्‌की अनुभूतिका पार्थक्य लक्षित होता है। बहिरङ्गा शक्तिके रहित- विचारसे अर्थात् नेति नेति विचारसे ‘ब्रह्म’, तटस्थाशक्तिके सहित-विचारसे अर्थात् जीवोंके अन्तर्यामी विचारसे ‘परमात्मा’ और अन्तरङ्गा अथवा स्वरूपशक्तिके सहित विचारसे वैकुण्ठविग्रह अधोक्षज ‘भगवान्’का ज्ञान होता है।

‘ब्रह्म’– ब्रह्ममें परब्रह्मका क्लीवत्व और निर्विशेष भाव मात्र प्रकाशित है। केवल क्लीव अथवा स्त्री (शक्ति) की उपासनासे मानवताका चरम विकास और आकाङ्क्षा परितृप्त नहीं होती । जहाँ अप्राकृत पुरुष और अप्राकृत प्रकृति एक साथ अर्थात् जहाँ चित्-लीला – युगलकी सेवा है, वहीं मानवका धर्म पूर्ण है। क्लीवत्व (ब्रह्म) सायुज्य लाभको ‘मानवका परम धर्म ना कहकर उसे चेतनताकी बन्धन- योग्य वृत्ति अथवा चेतनताकी आत्महत्याका आराध्य धर्म कहा जा सकता है। ब्रह्म और जीवमें चेतनताके गुणका साम्य है, इसलिये श्रुतिमें ” अहं ब्रह्मास्मि” मन्त्रका तात्पर्य यह है कि समजातीय ना होनेपर उपासना सुष्ठु रूपसे नहीं हो सकती। इसलिये स्मृति – शास्त्रमें देखा जाता है- “नादेवो देवमर्चयेत्” अर्थात् जो देवता नहीं हैं अर्थात् जिनमें देवताओंके समान गुण नहीं हैं, वे देवताओंकी अर्चना नहीं कर पाते। इसलिये मानवके परमधर्ममें भी परम मानव ही उपास्य हैं। वे ‘गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम्’ । वे ही ‘भगवान् गूढ़ः कपटमानुषः’। वे ही अन्य श्रुति मन्त्रके ‘रसो वै सः’ अर्थात् रसस्वरूप हैं। क्लीवत्वमें कभी भी रस नहीं है। पुरुषोत्तममें ही रस है और वह प्राकृत रस नहीं है, अप्राकृत रस- परम रस है। जिसके विषयमें गीता (२/५९) में कहा गया है-

“रसवर्ज रसोऽपस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्तते ॥ ”
“परम रस प्राप्त करके क्षुद्र प्राकृत रससमूह विलुप्त हो जाते हैं।”
‘परमात्मा’ – वे परम रसस्वरूप भगवत् – वस्तुका आंशिक प्रकाश हैं, वे जीवान्तर्यामी तत्त्व मात्र हैं। व्यष्टि अथवा समष्टि अन्तर्यामीके मध्य मानवताके चरम विकासकी सभी आकाङ्क्षाएँ तृप्त नहीं हो सकती।

‘भगवान्’ – चतुर्भुज नारायणके चार हाथ हैं, परन्तु वे तुरीय वस्तुका सन्धान देनेपर भी मानवके परम धर्मकी समस्त विश्रम्भ सेवाकी चमत्कारिता प्रकाश नहीं कर सकते। अर्द्ध-मानव और अर्द्ध-सिंह जो नित्य वैकुण्ठ- अवतीर्ण नृसिंह मूर्ति प्रकाश करते हैं, उनकी लीलाके द्वारा वैकुण्ठ वस्तुका अचिन्त्य शक्तित्व प्रकाशित होनेपर भी उनके द्वारा भी मानव धर्मके पूर्णतम विकासकी बात नहीं देखी जाती। तत्पश्चात् जब क्षुद्र (बौने) मानवरूपमें वामनदेवने आत्मप्रकाश करके तीन पग भूमिकी भिक्षा माँगी, तब बलिने अतिमर्त्य लीलापुरुषोत्तमको अनुग्रह प्रार्थी क्षुद्र मानव ही समझा। परन्तु वामनदेवने अपना त्रिविक्रमरूप प्रकाशकर उसका समस्त राज्य मापकर अपनी त्रिपाद विभूतिका प्रकाश मात्र किया। तथाकथित सभ्यताके अभिमानमें क्षत्रिय धर्मका अपव्यवहार करके सनातन ब्रह्मण्य-धर्म विष्णुभक्तिको विनाश करनेकी चेष्टा उदित होनेपर असभ्य मानवरूपी श्रीपरशुरामादि भगवत् – आवेशावतार प्रकाशित होते हैं। इसके द्वारा सनातन धर्मकी कथञ्चित् प्रतिष्ठा होनेपर भी मानवके परम धर्मकी आकाङ्क्षा पूर्ण नहीं होती है। असभ्य नरावस्थाके बाद आदर्श सभ्य मानव और आदर्श क्षत्रिय-राजरूपी भगवान् श्रीरामचन्द्रने अवतीर्ण होकर मानवके नैतिक धर्मकी अकाङ्गाकी तृप्ति की। परन्तु मानव के परम नैतिक धर्मका अर्थात् स्वराट् लीलापुरुषोत्तमका अथवा निरङ्कुश स्वेच्छाचारिताका सुसमन्वय जिस आदर्शमें पूर्णतमरूपमें अभिव्यक्त होता है, वह उस समय प्रकाशित नहीं हुआ। मानव चरित्रकी समग्रता जिन मानवरूपी स्वराट् लीलापुरुषोत्तमके चरित्रमें सम्यक् रूपसे प्रकाशित होती है, वे अप्राकृतिक परमतत्त्व अखिलरसामृतमूर्ति मनुष्यलिङ्ग परब्रह्म व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही मानवके परमधर्मका विषय होकर नित्य विराजित हैं। परममुक्त आत्माकी सर्वाङ्गीण सेवावृत्तिका अभिसार दर्शन करके जो परमपुरुष आत्म- प्रकाश करते हैं, वे सर्वकारण कारण द्विभुज मुरलीधर, श्रीराधानाथ श्यामसुन्दर हैं। वे जिस प्रकार परम विषय हैं, उनकी परमा शक्ति भी उसी प्रकार ही परम आश्रय हैं।

“देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता ।
सर्वलक्ष्मीमयी सर्वकान्तिः सम्मोहिनी परा ॥
( बृहद्गौतमीयतन्त्र)
“परदेवता राधिका देवी ‘साक्षात् कृष्णमयी’, ‘सर्वलक्ष्मीमयी’, ‘सर्वकान्ति’, ‘कृष्णसम्मोहिनी’ और ‘पराशक्ति’ कही गयी हैं। ”

वे परम विषय और परम आश्रय लीलास्वादनके लिये एक होकर भी दो रूप प्रकाश करते हैं और फिर दोनों मिलित होकर श्रीकृष्णचैतन्य रूप प्रकाश करते हैं ॥५॥

तत्त्ववस्तुका विचार :-
ब्रह्म, आत्मा, भगवान्- अनुवाद तिन ।
अंगप्रभा, अंश, स्वरूप- तिन विधेय-चिह्न ॥ ६ ॥
अनुवाद आगे, पाछे विधेय स्थापन।
सेइ अर्थ कहि, शुन शास्त्रविवरण ॥ ७ ॥

श्रीकृष्ण और श्रीचैतन्यतत्त्व :-
स्वयं भगवान् कृष्ण, विष्णु – परतत्त्व ।
पूर्णज्ञान पूर्णानन्द परम महत्त्व ॥ ८ ॥
‘नन्दसुत’ बलि’ याँरे भागवते गाइ ।
सेइ कृष्ण अवतीर्ण चैतन्यगोसानि ॥ ९ ॥
अनुवाद – ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् ये तीन ‘अनुवाद’ हैं। अङ्गकान्ति, अंश और स्वरूप- ये तीन ‘विधेय’ के चिह्न हैं। पहले ‘अनुवाद’ और बादमें ‘विधेय’ की स्थापना करते मैं उनके शास्त्र सम्मत अर्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। समस्त ज्ञानसे परिपूर्ण, अखिल आनन्दमूर्ति और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय-वस्तु स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही विष्णुतत्त्वमें परतत्त्व हैं। जिनको श्रीमद्भागवतमें ‘नन्दनन्दनं कहा गया है, वही श्रीकृष्ण श्रीचैतन्य महाप्रभुके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं॥ ६-९॥

अमृतप्रवाह भाष्य– अलङ्कार शास्त्र के अनुसार पहले ‘अनुवाद’ (ज्ञात विषय) कहनेके बाद ‘विधेय’ (अज्ञात विषय) कहा जाता है। वेदादि शास्त्रोंमें स्थान-स्थानपर ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् इन तीन विषयका उल्लेख रहनेके कारण वे भली-भाँति ज्ञात तत्त्व हैं; इसलिये इनको ‘अनुवाद’ के रूपमें जानना होगा। श्रीकृष्ण चैतन्यकी अङ्गकान्ति जो ब्रह्म अंश जो परमात्मा और स्वरूप जो स्वयं भगवान् हैं – यह विषय अभीतक ज्ञात नहीं है। इसलिये इन तीन अनुवादको सबसे पहले कहकर शास्त्रों के अर्थका विचार करते हुए विधेयका निर्णय करेंगे। शास्त्र – सिद्धान्त यह कि विष्णुतत्त्वमें परतत्त्व स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हैं। श्रीमद्भागवतमें नन्दसुत (नन्दनन्दन) कहकर जिनका गुणगान सुना जाता है, वे ही श्रीकृष्ण चैतन्य रूपमें अवतीर्ण हुए हैं। इसलिये श्रीकृष्ण और श्रीचैतन्य सम्पूर्ण रूपसे अभिन्न हैं, यह मैं विचारपूर्वक उल्लेख करूँगा । ब्रह्म परमात्मा और स्वयं भगवान् कहनेसे उसी परतत्त्व वस्तुके तीन प्रकाशको ही लक्षित किया जाता है, इसलिये मैं ऐसा कह सकता हूँ कि ये तीनों श्रीचैतन्यके प्रकाश – विशेष हैं॥ ६-९ ॥

अमृतानुकणिका – श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध भगवान् भी हैं और वे नन्दसुत भी हैं। श्रुतियाँ उन्हें रस स्वरूप कहती हैं- “रसो वै सः ” । रस शब्दके दो अर्थ होते हैं- आस्वाद्य ‘रस’ और रस-आस्वादक ‘रसिक’ । वे रस रूपमें आस्वाद्य हैं और रसिक रूपमें वे आस्वादक हैं। वे लीलारसका आस्वादन करते हैं, श्रुति भी उनको लीला पुरुषोत्तम कहती हैं- “कृष्णोवै परमं दैवतम्” (गोपालतापनी)। दिव् धातुका अर्थ क्री अथवा लीला है। अनादि कालसे वे लीला पुरुषोत्तम हैं। किन्तु लीला अथवा क्रीड़ा अकेले नहीं हो सकती, उसके लिये लीलाके संगियोंकी आवश्यकता है। श्रीकृष्ण अनादिकालसे ही लीलारसका आस्वादन कर रहे हैं, इसलिये यह सहजमें ही समझा जा सकता है कि उनके लीलासङ्गी और लीला परिकर अनादिकाल से ही उनके साथ हैं। श्रीकृष्ण पूर्ण, अन्य-निरपेक्ष और आत्माराम हैं, परन्तु उनके लीलाके परिकर श्रीकृष्णसे स्वतन्त्र नहीं हैं। वे उनके अंश अथवा शक्ति हैं। अनादिकालसे श्रीकृष्णने अंश अथवा शक्तिसे लीला – परिकर रूपमें स्वयंको प्रकट किया हुआ है। श्रीकृष्ण दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर इन चार भावके परिकरोंके साथ चार भावोंके रसका आस्वादन करते हैं। वात्सल्य रसके आस्वादनके लिये पिता-माताका प्रयोजन है, इसलिये श्रीकृष्णकी शक्ति ही अनादिकाल से पिता-माता (नन्द और यशोदा) के रूपमें एक-एक स्वरूपमें विराजित हैं। स्वरूपतः नन्द-यशोदासे श्रीकृष्णका जन्म नहीं हुआ है। तो भी प्रेमके प्रभावसे श्रीकृष्ण ये मानते हैं कि नन्द-यशोदा ही उनके पिता माता हैं और वे श्रीकृष्णका अपना पुत्र मानते हैं। इसलिये श्रीकृष्णको नन्दसुत अथवा यशोदासुत कहा जाता है ॥ ६-९ ॥

ब्रह्म, परमात्मा और भगवत् विचार :-
प्रकाशविशेषे तेंह धरे तिन नाम ।
ब्रह्म, परमात्मा आर स्वयं भगवान् ॥ १०॥
अनुवाद – (श्रीकृष्ण अथवा श्रीचैतन्य महाप्रभुके) ये प्रकाश-विशेष ब्रह्म, परमात्मा और स्वयं भगवान् इन तीन नामोंसे जाने जाते हैं॥ १० ॥

अनुभाष्य-श्रील जीवगोस्वामी श्रीभगवत्सन्दर्भ (संख्या ३) में लिखते हैं-

“तथा चैवं वैशिष्ट्ये प्राप्ते पूर्णाविर्भावत्येनाखण्ड – तत्त्वरूपोऽसौ भगवान् । ब्रह्म तु स्फुटमप्रकटित वैशिष्ट्याकारत्थेन तस्यैवासम्यगाविर्भावः । ‘संगति तथा भर्त्ता भकारोऽर्थद्रयान्वितः । नेता गमयिता स्रष्टा गकारार्थस्तथा मुने ॥ वसन्ति तत्र भूतानि भूतात्मन्यखिलात्मनि । स च भूतेष्वशेषेषु वकारार्थततोऽव्ययः ॥ ज्ञानशक्ति बलैश्वर्य वीर्यतेजांस्य- शेषतः । भगवच्छद्रवाच्यानि विना हेयैर्गुणादिभिः ॥ संभर्त्ता स्वभक्तानां पोषकः । भर्त्ता धारकः स्थापकः । नेता स्वभक्तिफलस्य प्रेमूणः प्रापकः । गमयिता स्वलोक-प्रापकः । स्रष्टा स्वभक्तेषु तत्तद्गुणस्योद्गमयिता ।” (संख्या- ४ ) में- “स्वयमहेतुः स्वरूपशक्त्यैकविलासमयत्वेन तत्रोदासीनमपि प्रकृतिजीव प्रवर्त्तकावस्थ- परमात्मापरपर्याय स्वांशलक्षण- पुरुषद्वारा यदस्य सर्गस्थित्यादिहेतुर्भवति तद्भगवद्रूपं विद्धि xxयेन हेतुकर्ता आत्मांशभूत जीव- प्रवेशनद्वारा सञ्जीवितानि सन्ति देहादीनि तदुपलक्षणानि प्रधानादि सर्वाण्येव तत्त्वानि येनैव प्रेरितयैव चरन्ति स्व-स्व कार्ये प्रवर्त्तन्ते तत्परमात्मरूपं विद्धि जीवस्य आत्मत्वं तदपेक्षया तस्य परमत्वं इत्यतः परमात्मशब्देन तत्सहयोगी स एव व्यज्यते । यदेव तत्तत्वं स्वप्नादौ अन्वयेन स्थितं यच्च तद्बहिः शुद्धायां जीवाख्यशक्तौ तथा स्थितं, चकारात् ततः परत्रापि व्यतिरेकेण स्थितं स्वयमवशिष्टं तद्ब्रह्मरूपं विद्धि ।”

अर्थात् “सभी शक्तियोंसे समन्वित पूर्ण आविर्भावके कारण भगवान् अखण्ड- तत्त्वरूप हैं। और ब्रह्ममें उस प्रकार विशेष आकार (रूप-गुण-लीला) प्रकाशित नहीं होनेके कारण ब्रह्म भगवान्‌का आशिक आविर्भाव मात्र हैं। हे मुनिवर ! भगवत्-शब्दके प्रथम अक्षर ‘भ’ के दो अर्थ हैं- संत और भर्त्ता ‘ग’ के अर्थ नेता, गमयिता और स्रष्टा हैं। प्राणीगण भूतात्मा (परमात्मा) में वास करते हैं और वे अविनाशीपुरुष (परमात्मा) भी सभी प्राणियोंके भीतर वास करते हैं – यह ‘व’ अक्षरका अर्थ है। हेय मायिक गुणोंसे रहित तथा सम्पूर्ण ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेजको धारण करनेवाले भगवान् कहलाते हैं। ‘भर्त्ता’ शब्दका अर्थ है – अपने भक्तोंके पालनकर्त्ता । ‘भत्त का अर्थ है धारक या स्थापक । ‘नेता’ शब्दका अर्थ है अपनी भक्तिके फल प्रेमको प्रदान करनेवाले। ‘गमयिता’ का अर्थ है अपना धाम प्रदान करनेवाले । ‘स्रष्टा’ शब्दका अर्थ- अपने भक्तोंमें उपरोक्त वर्णित गुणोंके सृष्टिकर्त्ता । जो स्वयं कारणरहित हैं, एकमात्र स्वरूपशक्तिके द्वारा लीलाविलासमें रत हैं, संसारसे सम्पूर्ण उदासीन होनेपर भी प्रकृति और जीवके प्रवर्तकरूपमें अपने स्वांश पुरुषके द्वारा संसारके जन्म, स्थिति आदिके मूल कारण हैं, उन्हीं तत्त्वको ही भगवत्-तत्त्व जानना होगा। जो जगत्के कारणरूप कर्ता हैं, जगत्में अपने अंश अर्थात् चित्कण जीवको प्रवेश करवाकर जगत्को सञ्जीवित करते हैं और देहादि उपलक्षण एवं प्रधानादि तत्त्व जिनके द्वारा प्रेरित होकर अपनी-अपनी स्थितिमें रहकर कार्यमें प्रवृत्त होते हैं, उन्हें परमात्मा जानना होगा। जीव भी स्वरूपतः आत्मा है, परन्तु जीवसे अधिक श्रेष्ठ होनेके कारण वे परम आत्मा कहलाते हैं। वे जीवके नित्य सहयोगीके रूपमें प्रकाशित होते हैं। जो तत्त्व स्वप्न, जाग्रत और सुषुप्ति (गाढ़निद्रा ) – इन तीनों अवस्थाओंमें अन्वयरूपमें स्थित रहता है और जो अपनेसे भिन्न स्वरूप शुद्ध जीव नामक शक्तिमें भी अन्वयरूपसे अवस्थान करता है और समाधि अवस्थामें जो विशेषणरहित – निर्विशेष अर्थात् चिन्मय- सत्तामात्रसे प्रकाशित होता है, उसको ही ब्रह्म जानना होगा ॥ १०॥

श्रीमद्भागवत ( १/२/११)-
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ॥ ११ ॥
अनुवाद – जो अद्वयज्ञान अर्थात् एक अद्वितीय वास्तव वस्तु है, उसीको तत्त्वज्ञानीजन परमार्थ कहते हैं। वही तत्त्ववस्तु ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् इन तीनों नामोंसे जानी जाती है ॥ ११ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य-तत्त्वको जाननेवाले विज्ञगण अद्वयज्ञानको तत्त्व कहते हैं। उसी अद्वयज्ञानकी प्रथम प्रतीति ब्रह्म, द्वितीय प्रतीति परमात्मा और तृतीय प्रतीति भगवान् हैं ॥ ११ ॥

अनुभाष्य – शौनकादि ऋषियोंने शुकदेवजीके शिष्य सूत गोस्वामीजीसे छह प्रश्न किये थे । ‘शास्त्रका सारतत्त्व क्या है?’ इस द्वितीय प्रश्नके उत्तरमें सूत गोस्वामीजीने यह श्लोक कहा-

तत्त्वविदः (तत्त्वज्ञाः) तत् [एव] तत्त्वम् अद्वयं ज्ञानं (चिदेकरूप) वदन्ति । यत् [अद्वयज्ञानं क्वचित्] ब्रह्म इति [क्वचित्] परमात्मा इति [ क्वचित्] भगवान् इति च शब्दयते ( अभिधीयते अयमर्थः – केवलज्ञानवृत्त्या अद्वयज्ञानरूपं ब्रह्म, सच्चिद्वृत्त्या अद्वयज्ञानरूपः परमात्मा, सच्चिदानन्दवृत्त्या तदद्वयज्ञानरूपी भगवान्) ।

श्लोक – भावानुवाद-तत्त्वको भली-भाँति जाननेवाले उस तत्त्वको अद्वयज्ञान (अद्वितीय चित्रूप) कहते हैं। ( उस अद्वय ज्ञानको शास्त्र कहीं) ब्रह्म (कहीं) परमात्मा (और कहीं) भगवान् नामसे कहते हैं। [इसका अर्थ है कि उस अद्वयज्ञानकी केवल ज्ञान – वृत्तिसे ब्रह्मरूपमें, सत्-चित्-वृत्तिसे परमात्मारूपमें और सच्चिदानन्द – वृत्तिसे भगवानुरूपमें प्रतीति होती है ।]

भगवद्भक्त ब्रजेन्द्रनन्दनको ही अद्वयज्ञानविग्रहके रूपमें जानते हैं। वे श्रीकृष्णके नाम, रूप, गुण और लीलाको श्रीकृष्णसे भिन्न नहीं मानते हैं, यही अद्वयज्ञानका तात्पर्य है । अद्वयज्ञानके अभावमें ही अभक्त लोग विष्णुविग्रहमें प्राकृत बुद्धि रखकर श्रीकृष्णको उनके अप्राकृत नाम, रूप, गुण और लीलासे पृथकू मानते हैं। श्रीकृष्णेतर अविष्णु-वस्तुमें अद्वयज्ञानका अभाव है।

इसलिये श्रीकृष्णेतर वस्तु [जीवात्मा] माया अथवा अज्ञानके द्वारा श्रीकृष्णसे अर्थात् अद्वयज्ञानसे स्वतन्त्र होकर मायाके वशीभूत होनेकी योग्यता प्राप्तकर मायाके वशीभूत अथवा द्वैतज्ञानके अधीन होती है। श्रीकृष्णके समस्त प्रकाश और विलास विग्रहोंमें द्वितीयज्ञान (उनके नाम-रूप-गुण-लीला और उनमें भेद नहीं है, इसलिये विष्णुतत्त्व होनेके कारण वे मायाधीश हैं। योगीलोग अद्वयज्ञान-विग्रह परमात्माके साथ शुद्धात्माके अविमिश्र ( आत्माकी परमात्मासे स्वतन्त्र सत्ता रखते हुए) केवलयोगको ही द्वितीयज्ञानरहित अवस्था जानते हैं। ज्ञानीलोग स्वगत-सजातीय-विजातीयभेदहीन निर्विशेष ज्ञानको ही अद्वयज्ञान ब्रह्म जानते हैं। (भाष्यकारकृत भागवतके इस श्लोकका गौड़ीय भाष्य द्रष्टव्य है । ) ॥ ११ ॥

अमृतानुकणिका – ‘ज्ञान’ – जो केवलमात्र चित्, जिसमें अचित् (जड़) किञ्चित् मात्र भी नहीं है, वही ज्ञान-वस्तु, सच्चिदानन्द वस्तु है। ‘अद्वय’ – द्वितीय – शून्य, भेद-शून्य । भेद तीन प्रकारके हैं- सजातीय भेद, विजातीय भेद और स्वगत भेद । एक जातिमें एकसे अधिक वस्तु रहनेपर सजातीय अर्थात् समान जातीय भेद सम्भव है। जैसे मनुष्य अनेक हैं, वे सभी मनुष्य जातिके हैं, परन्तु उनके नाम और रूपादि पृथक् होते हैं। इसलिये समान जाति होनेपर भी उनमें सजातीय भेद है। इसी प्रकार एकसे अधिक चित् वस्तु होनेपर सजातीय भेदकी सम्भावना है। किन्तु वस्तुतः एकसे अधिक चित् वस्तु रहनेपर भी यदि अन्यान्य सभी चित् वस्तुएँ एक मूल चित् वस्तुकी अंश हों, तो उनमें सजातीय भेद नहीं होगा, क्योंकि यदि एकसे अधिक स्वयंसिद्ध चित् वस्तुएँ होतीं, तभी ज्ञानका सजातीय भेद सम्भव था। सजातीयभेदशून्य ज्ञान वह वस्तु है, जिसके तुल्य स्वयंसिद्ध अन्य कोई भी चित् वस्तु नहीं है; अन्य चित् वस्तुएँ होनेपर भी उनमें से कोई भी स्वयं सिद्ध नहीं है, प्रत्येककी निज सत्ता उस अद्वयज्ञानकी अपेक्षा रखती है।

भिन्न जातीय वस्तु ही विजातीय भेद हैं- जैसे पशु और मनुष्यमें विजातीय भेद है। ज्ञान अथवा चित् वस्तु विजातीय वस्तु क्या है? ज्ञान चित्-जातीय वस्तु है और जो चित् नहीं है, प्राकृत अथवा जड़ है, वही ज्ञानके विपरीत वस्तु है। यह विजातीय वस्तु यदि स्वयंसिद्ध नहीं हो और अपनी सत्ताके लिये ज्ञानकी अपेक्षा रखे, तब इस विजातीय वस्तुका भी ज्ञानके साथ विजातीय भेद नहीं होगा, क्योंकि यह विजातीय वस्तु स्वयं सिद्ध नहीं हैं। यदि यह विजातीय वस्तु स्वयं सिद्ध हो और ज्ञानकी कोई अपेक्षा नहीं रखती हो, तब उसका ज्ञानसे विजातीय भेद होगा ।

ज्ञान वस्तुमें कभी भी स्वगतभेद नहीं होता है। स्वगत शब्दका अर्थ है- अपने मध्य । जिस वस्तु एकसे अधिक उपादान हैं, उपादान भेदसे उसमें ही स्वगतभेद होता है। जैसे दीवारमें ईंट, सीमेंट, रेत, बालू आदि होते हैं, ये सब उपादान परस्पर विभिन्न हैं, इसलिये दीवारमें स्वगत भेद है। परस्पर मिलानेपर उनके परिमाणके अनुसार दीवारके विभिन्न अंशों में शक्तिकी क्रिया भी विभिन्न रूपोंमें अभिव्यक्त होगी। शक्ति क्रियाकी इस प्रकारकी विभिन्न अभिव्यक्ति भी स्वगत भेद है अर्थात् विभिन्न परिमाणमें सीमेंट, रेत, बालूके मिश्रणसे शक्तिकी क्रिया अलग-अलग स्थानोंमें विभिन्न परिमाणसे दिखायी देगी। ज्ञान वस्तुमें इस प्रकार स्वगत भेद नहीं रहता है, क्योंकि ज्ञान चित् स्वरूप है और चित्के अतिरिक्त उसमें कोई मिश्रण नहीं है।

उपादान भेद नहीं रहनेपर जिस किसी भी अंशमें कोई भी शक्ति अभिव्यक्त हो सकती है। बद्धजीव की देह जड़ (अचित्) है, किन्तु जीव स्वरूपतः चित् वस्तु है। इसलिये बद्धजीव देह और देहीका स्वगत भेद है। किन्तु ज्ञान वस्तुमें इस प्रकार कोई भी देह-देहीका भेद नहीं होता। बद्धजीवकी जड़ देहमें भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – ये पाँच उपादान हैं। नेत्र, कर्ण आदि इन्द्रियोंमें इन पाँच वस्तुओंके तारतम्यके अनुसार इन इन्द्रियोंके योगसे प्रकाशित शक्तिका भी तारतम्य होता हैं। जैसे चक्षुके द्वारा केवल देखा जा सकता है, किन्तु सुना नहीं जा सकता। कानके द्वारा केवल सुना जा सकता है, किन्तु देखा नहीं जा सकता। यह सब भी स्वगत-भेदका फल है। चिदेकरूप ज्ञान वस्तुमें विभिन्न उपादान नहीं होनेपर यह जातीय पार्थक्य नहीं हो सकता। ज्ञान वस्तुका प्रत्येक अंश अन्य प्रत्येक अंशका कार्य कर सकता है, इसलिये ब्रह्मसंहितामें कहा गया है – ” अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति” अर्थात् “जिस श्रीविग्रहके सारे अङ्ग अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय अन्य समस्त इन्द्रियोंके कार्य कर सकती है”।

जिस ज्ञानमें इस प्रकार स्वयंसिद्ध सजातीय, स्वयंसिद्ध विजातीय और स्वगत भेद नहीं है, उसको ही अद्वयज्ञान कहा जाता है। तत्त्ववेत्ता पण्डित इसी अद्वयज्ञान वस्तुको तत्त्व अथवा परमार्थभूत वस्तु कहते हैं। श्रीकृष्ण ही यह अद्वयज्ञान वस्तु हैं- ” अद्वयज्ञान तत्त्ववस्तु कृष्णेर स्वरूप” (आदि २/६५) ॥ ११ ॥

(१) ब्रह्म-विचार :-
ताँहार अर शुद्ध किरण मण्डल ।
उपनिषद् कहे तौरे ब्रह्म सुनिर्मल ॥ १२ ॥
अनुवाद-उन अद्वयज्ञान तत्त्वके अंगोकी ज्योतिको उपनिषद् सुनिर्मल ब्रह्म कहते हैं॥ १२ ॥
अनुभाष्य-मुण्डकोपनिषद्के द्वितीयमुण्डक, द्वितीयखण्डके मन्त्र ९-११में कहा गया है- “हिरन्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् । तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः ॥ न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि । तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म पचाद् ब्रह्म दक्षिणतोक्षोत्तरेण अधश्चोद्धं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्।”

अर्थात् ‘आत्माके तत्त्वको जाननेवाले लोग जिन्हें परमब्रह्मके रूपमें जानते हैं, वे स्वर्ण-ज्योतिसे आलोकित आनन्दमय चिन्मयधाममें और जीवोंके हृदयोंमें वास करनेवाले हैं। वे निर्गुण, अखण्ड, सर्वथा दोषरहित और सभी ज्योर्तिमय वस्तुओंके भी ज्योतिस्वरूप हैं। उनको चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, विद्युतादि भी प्रकाशित नहीं कर सकते, तो अग्निका कहना ही क्या ? उनका अनुसरण करके ही सूर्य आदि सभी उनसे प्रकाशको प्राप्त करते हैं, उनके प्रकाशसे ही यह समस्त जगत् प्रकाशित होता है। सामने, पीछे दायें बायें ऊपर और नीचे यह जो विश्व विस्तृत हुआ है, वह समस्त ही उसी अमृतस्वरूप शाश्वत ब्रह्मात्मक हैं। अतएव ब्रह्म ही श्रेष्ठतम तत्त्व है । ” ॥ १२ ॥

चर्मचक्षे देखे यैछे सूर्य निर्विशेष ।
ज्ञानमार्गे लइते नारे ताँहार विशेष ॥ १३ ॥
अनुवाद – जिस प्रकार इन भौतिक चक्षुओंसे देखनेपर सूर्य एक विशिष्ट स्वरूपरहित प्रकाशमान वस्तु ही प्रतीत होता है, उसी प्रकार ज्ञानमार्गका आश्रय लेकर श्रीकृष्णके विशिष्ट स्वरूपको नहीं जाना जा सकता ॥ १३॥

अमृतप्रवाह भाष्य – जिस लक्षणके द्वारा किसी वस्तुका परिचय प्राप्त होता है, उसको विशेष कहा जाता है। उस लक्षणसे रहित होना ही निर्विशेष है ॥ १३ ॥
ब्रह्मसंहिता (५/४०)-

यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-
कोटीष्वशेषवसुधादिविभूतिभिन्नम्।
तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतम्
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥१४॥
अनुवाद – अनुभाष्य द्रष्टव्य है॥१४॥
अमृतप्रवाह भाष्य– कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंमें समस्त पृथ्वी आदि ऐश्वर्योंके द्वारा पृथक्कृत, निष्कल, अनन्त, असीम ब्रह्म जिनकी प्रभासे उत्पन्न हुए हैं, उन्हीं आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ॥ १४॥

अनुभाष्य – श्रीब्रह्माजीके द्वारा श्रीगोविन्दके तत्त्व और माहात्म्यका स्तवरूपमें गान ब्रह्मसंहिता नामक ग्रन्थके पञ्चम अध्यायमें लिखा है-

जगदण्डकोटि-कोटिषु (असंख्यब्रह्माण्डेषु) अशेष- वसुधादि – विभूतिभिन्नम् (अनन्तब्रह्माण्डादिभिराकाराभि- विभूतिभिर्भिन्नं लब्धपार्थक्यं) [ यत्] निष्कलं (निरंशम् अखण्डं परिपूर्ण) अनन्तं (खण्डज्ञानातीतं ) अशेषभूतं (सीमारहितं) तद्ब्रह्म प्रभवतः (प्रभाव – विशिष्टस्य) यस्य (गोविन्दस्य) प्रभा (अङ्गकान्तिः) तम् आदिपुरुषं गोविन्दं अहं भजामि ।

श्लोक – भावानुवाद – असंख्य ब्रह्माण्ड और उन अनन्त ब्रह्माण्डोंमें पृथ्वी आदि विभिन्नाकार विभूतियोंसे पृथक् अखण्ड – परिपूर्ण सीमारहित विशिष्ट प्रभाववाले ब्रह्म जिन श्रीगोविन्दकी अङ्गकान्तिमात्र हैं, उन आदिपुरुष श्रीगोविन्दका मैं भजन करता हूँ॥१४॥

कोटि कोटि ब्रह्माण्डे ये ब्रह्मेर विभूति ।
सेइ ब्रह्म गोविन्देर हय अङ्गकान्ति ॥ १५ ॥
सेइ गोविन्द भजि आमि, तें हो मोर पति ।
ताँहार प्रसादे मोर हय सृष्टिशक्ति ॥ १६॥
अनुवाद-करोड़ों-करोड़ों ब्रह्माण्ड जिन ब्रह्मकी विभूति ( ऐश्वर्य) हैं, वे ब्रह्म श्रीगोविन्दके अङ्गकी कान्ति हैं। मैं (ब्रह्मा) उन श्रीगोविन्दका भजन करता हूँ, वही मेरे स्वामी हैं और उन्हींसे मैं जगत् की सृष्टि करनेकी शक्ति ग्रहण करता हूँ ॥ १५-१६॥

श्रीमद्भागवत (११/६/४७)-
वातवसना य ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनः ।
ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ताः संन्यासिनोऽमला॥ १७॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १७॥

अमृतप्रवाह भाष्य – दिगम्बर (निर्वस्त्र), श्रमशील उर्द्धरेता मुनिगण, शान्त और निर्मल संन्यासी; ये सभी ब्रह्मधामको प्राप्त करते हैं ॥ १७ ॥

अनुभाष्य– यह जानकर कि श्रीकृष्ण अतिशीघ्र अन्तर्धान हो जायेंगे, उद्धवजी उनके श्रीचरणोंमें प्रार्थना करते हुए कहने लगे कि भक्तोंके लिये उनके चरणोंकी प्राप्ति अत्यन्त सहज है, परन्तु अनेक कष्ट उठाकर तपस्या करनेवाले संन्यासियोंको परिश्रमसे प्राप्त उस साधनके फलस्वरूप केवलमात्र ब्रह्मलोककी ही प्राप्ति होती है।

वातवसनाः (दिगम्बराः वसनहीनाः) श्रमणाः (शरीरकर्षणकारिणः भिक्षवः) उर्द्धमन्थिनः (उद्धरेतसः) शान्ताः (ब्रह्मनिष्ठैकधियः) अमला ( विषयमलवर्जिताः संन्यासिनः ) ते ब्रह्माख्यं (निर्विशेषरूपं ) धाम यान्ति ( प्राप्नुवन्ति ) । श्लोक – भावानुवाद – दिगम्बर अर्थात् निर्वस्त्र रहने वाले शरीरको कष्ट देकर तपस्या करनेवाले भिक्षु, उर्द्धरेता ब्रह्ममें निष्ठ ऐकान्तिक बुद्धिवाले और विषयभोगरूपी मलरहित संन्यासी; वे सब निर्विशेष ब्रह्मधामको प्राप्त करते हैं ॥ १७ ॥

(२) परमात्म-विचार :-
आत्मान्तर्यामी यौरे योगशास्त्रे कय ।
सेह गोविन्दर अंश विभूति ये हय ॥ १८ ॥
अनुवाद – जिनको योगशास्त्रमें आत्मा अन्तर्यामी कहा गया है, वे श्रीगोविन्दकी अंश विभूति हैं॥ १८ ॥

अनुभाष्य– भगवान् चित्-विलासमय विग्रह हैं। वे तुरीय विग्रह (परब्रह्म ) होनेके कारण देवीधाम ( माया जगत्) के किसी भी कार्यमें स्वयं आसक्त ना होकर पुरुषावतारके द्वारा ‘प्रधान’ और जीवके नियन्ता हैं। तीन प्रकारके पुरुषावतारोंको तत्त्वसे जान लेनेपर जीव चौबीस मायिक तत्त्वों से बने स्थूल सूक्ष्म शरीरके बन्धनसे मुक्त होते हैं। प्रत्येक जीवके अन्तर्यामी रूपमें क्षीरोदकशायी महाविष्णु, ब्रह्माण्डके समष्टि जीवोंके अन्तर्यामी रूपमें गर्भोदकशायी महाविष्णु और समस्त ब्रह्माण्डोंके स्रष्टा कारणोदशायी अन्तर्यामी महाविष्णु, ये तीनों पुरुषावतार देवीधामके सृष्टिकर्त्तारूपमें आंशिक कार्योंके ही नियन्ता हैं। चौबीस मायिकतत्त्वोंका अतिक्रम करके परमात्मासे योगका विधान योगशास्त्रोंमें वर्णित है। इसलिये अन्तर्यामी पुरुष परमात्मा, श्रीगोविन्दकी अंश-विभूति मात्र हैं ॥ १८ ॥

अनन्त स्फटिके यैछे एक सूर्य भासे ।
तैछे जीवे गोविन्दर अंश प्रकाशे ॥ १९॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १९ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – जैसे अनन्त स्फटिक खण्डोंमें एक ही सूर्य प्रकाशवान् होकर पृथक् पृथक् रूपमें दिखायी देते हैं, उसी प्रकार असंख्य जीवोंमें श्रीगोविन्दके अंश परमात्मा प्रकाश पाते हैं ॥ १९॥

अनुभाष्य– एक ही सूर्य जिस प्रकार अपने स्थानमें अवस्थित होकर अनन्त स्फटिक खण्डोंमें अनन्तमूर्तिके रूपमें प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार एकमात्र श्रीगोविन्द गोलोक – वृन्दावनमें नित्य प्रकट रहकर अनन्त जीवोंके हृदयमें जीवोंके सेव्यपुरुष अन्तर्यामी परमात्माके रूपमें प्रकाशित होते हैं। “द्वा सुपर्णा सयुजा” आदि तीन मन्त्रोंमें एक वृक्षमें सेव्य सेवकके रूपमें अवस्थित जीवात्मा और परमात्मारूपी दो पक्षियों के विषयमें उल्लेख है। परमात्मा जीवात्माको कर्मफल भोग कराते हैं, किन्तु उसके समान फलके भोक्ता नहीं होते। जब जीव स्वयंको कर्मफलके भोक्ता माननेका अभिमान त्यागकर सेव्य – परमात्माकी महिमाको समझ पाता है, तब वह निर्दोष होकर परम समता वैकुण्ठधामको प्राप्त करता है ॥ १९ ॥

अमृतानुकणिका – श्रीगोविन्दके अंश परमात्मा एक वस्तु हैं, वे दो नहीं हैं, किन्तु जीव अनन्त हैं। एक ही सूर्य जैसे अनन्त स्फटिक खण्डोंमें प्रत्येकमें प्रतिबिम्बरूपमें प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार एक ही परमात्मा अनन्त कोटि जीवों में व्यष्टिजीव- अन्तर्यामी रूपमें प्रकाशित होते हैं । यहाँपर एक ही वस्तुका भिन्न-भिन्न स्थानोंमें प्रकाशत्वांश ही दृष्टान्तके द्वारा प्रयोज्य है; सम्पूर्ण रूपसे दृष्टान्तकी प्रयोजनीयता नहीं है। अनन्त स्फटिक खण्डोंमें सूर्यका प्रतिबिम्ब प्रकाशित होता है, प्रतिबिम्ब वास्तविक वस्तु नहीं है। किन्तु जीवके हृदयमें परमात्मा प्रतिबिम्ब रूपमें प्रकाशित नहीं होते- वास्तविक रूपमें ही प्रकाशित होते हैं। वे अपनी अचिन्त्य शक्तिके प्रभावसे एक होकर भी अनन्त कोटि जीवोंके प्रत्येकके हृदयमें भिन्न-भिन्न मूर्तिके रूपमें अवस्थान करते हैं। परमात्माका प्रतिबिम्ब सम्भवपर नहीं है, क्योंकि परमात्मा अपरिछिन्न विभु वस्तु हैं। परिछिन्न (ढकी अथवा सीमित) वस्तुका ही प्रतिबिम्ब सम्भव है, विभु वस्तुका प्रतिबिम्ब सम्भव नहीं हैं।

देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, कीटपतङ्ग आदि अनन्त प्रकारके अनन्त जीव हैं सृष्टि लीलाके अनुरोधसे एक ही परमात्मा इन समस्त जीवोंके प्रत्येकके भीतर अन्तर्यामीके रूपमें विराजमान हैं। इसे देखकर कोई-कोई आशङ्का कर सकते हैं कि विभिन्न जीवोंके अन्तर्यामी परमात्मा भी विभिन्न हैं। इसी आशङ्काको दूर करनेके लिये इस पयारमें कहा गया है- परमात्मा एक ही वस्तु हैं, अनेक नहीं। अपने कर्मफलोंसे जीव मायिक देहका आश्रय करता है, किन्तु जीवकी देहमें परमात्माकी अवस्थिति उनके कर्मफलके कारण नहीं, अपितु उनकी लीलामात्र ही है। परमात्माका कोई कर्म नहीं है, वे मायातीत हैं। जीवकी देहके साथ परमात्माका कोई सम्बन्ध भी नहीं है। वे निर्लिप्त भावसे जीवके अन्तर्यामीरूपमें जीवकी देहमें अवस्थित होते हैं॥ १९ ॥

श्रीमद्भगवद्गीता (१०/४२)-
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ २० ॥
अनुवाद – अथवा हे अर्जुन! इस पृथक् पृथक् उपदिष्ट ज्ञानसे तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तुम मात्र इतना ही जानो कि मैं अपने एकांशसे इस समस्त जगत्को धारणकर अवस्थित हूँ ॥ २० ॥

अमृतप्रवाह भाष्य हे अर्जुन! मैं अधिक क्या कहूँ? मैं अपने एक अंश परमात्मारूपसे सम्पूर्ण जगत्में प्रविष्ट होकर अवस्थित हूँ ॥ २० ॥

अनुभाष्य– भगवान् अर्जुनको विभिन्न प्रकारसे अपनी विभूतियोंके सम्बन्धमें बतलाकर अब संक्षेपमें उसका अर्थ प्रकाश कर रहे हैं-

अथवा हे अर्जुन, बहुना ( बाहुल्येन पृथक् पृथगुपदिश्यमानेन ) ज्ञातेन किं [ तव प्रयोजनम् – अलमित्यर्थः] । इदं (चिदचिदात्मकं ) कृत्स्नं (समझे) जगत् एकांशेन ( प्रकृत्याद्यन्तर्यामिना पुरुषाख्येन अंशेन ) विष्टभ्य (अधिष्ठानत्वात् विधृत्य अधिष्ठातृत्वादधिष्ठाय नियन्तृत्वान्नियम्य व्यापकत्वात् व्याप्य) अहं (भगवान्) स्थितः ।

श्लोक– भावानुवाद – अथवा हे अर्जुन, पृथक-पृथक बहुत उपदेशोंसे ज्ञानका तुम्हारा क्या प्रयोजन है? चित् और अचित्रूप समस्त जगत् में प्रकृतिके अन्तर्यामी रूपमें पुरुष नामक एक अंशसे (अधिष्ठानको विशेष भावसे धारणकर, अधिष्ठाता होनेके कारण अधिष्ठित होकर, नियन्ताके रूपमें इसे अधीनकर व्यापकत्वके रूपमें व्याप्त होकर) मैं (भगवान्) स्थित हूँ ॥ २० ॥

श्रीमद्भागवत (१/९/४२)-
तमिममहमजं शरीरभाजां
हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम् ।
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं
समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः ॥ २१ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है॥ २१ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य– भीष्म बोले- “हे कृष्ण ! एक ही सूर्य जिस प्रकार प्रत्येक आँखसे देखनेसे पृथक्-पृथक् वस्तु जैसे जाना जाता है, उसी प्रकार आपके एक अंशरूप परमात्माका प्रत्येक जीवके हृदयमें स्थित होनेसे उनका पृथक-पृथक तत्त्वरूपमें अनुमान होता है। किन्तु जब जीव स्वयंको आपका मानता है अर्थात् स्वयंको आपके दासके रूपमें जानता है, तब उसे वह भेदभ्रम नहीं रहता। मैंने भी परमात्माको आपका अंश जानकर उसी प्रकार भेदभ्रमसे मुक्त होकर आपके अजन्मा स्वरूपका ज्ञान प्राप्त किया है । ” ॥ २१ ॥

अनुभाष्य– युधिष्ठिर जब भीष्मसे धर्मके विषयमें प्रश्न करनेकी इच्छासे उनके निकट गये, तो श्रीकृष्णने भी अर्जुनके रथमें बैठकर उनका अनुगमन किया। अन्यान्य देवर्षि ब्रह्मर्षिगण भी भीष्मके दर्शनके लिये वहाँ उपस्थित थे। युधिष्ठिरके कुछ प्रश्नोंके उत्तर देनेके बाद भीष्मने अपना निर्माणकाल उपस्थित होनेपर सामने उपस्थित श्रीकृष्णकी अनेक श्लोकोंमें स्तव स्तुति की उन श्लोकोंमेंसे यह एक श्लोक है-

[नानादेशावस्थितानां प्राणिनां] प्रतिदृशं (अवलोकनं प्रति ) [ यथा ] एकं अकं इव नैकधा (अधिष्ठानभेदात् अनेकधा दृष्ट) [तथा] आत्मकल्पितानां (आत्मना स्वयमेव कल्पितानां ) शरीरभाजां हृदि हदि (प्रतिहृदयं ) धिष्ठितम् (अधिष्ठितं) तम् इमं अजं (श्रीकृष्ण) विधूतभेदमोह (विधूतो दूरीकृतो भेदरूपो मोहः भगवतः नामरूपगुणलीलाभेदरूपः भगवद्विग्रहस्य प्रकाशविलासमूर्तिभेदेन व्यापकत्व सम्भावनाजनित – नानात्वप्रतीतिलक्षणः मोहः यस्य तथाभूतः) अहं समधिगतः ( सम्यगधिगतः प्राप्तः अस्मि) ।

श्लोक – भावानुवाद – अलग-अलग स्थानोंमें स्थित प्राणियोंको जिस प्रकार एक ही सूर्य उनकी स्थिति के अनुसार अलग-अलग दिखलायी देता है, उसी प्रकार प्रत्येक देहधारीके हृदयमें स्थित आप वे परमात्मा पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं। परन्तु अजन्मा आप (भगवान् श्रीकृष्ण) के नाम-रूप-गुण-लीलामें भेदरूप अथवा आपके विग्रहका उनके प्रकाश और विलासमूर्तियोंसे भेदरूप अथवा आपके सर्वव्यापक होनेसे नाना प्रकारकी प्रतीतिरूप मोहको दूर करके, मैं पूर्णरूपसे आपके शरणागत हुआ हूँ॥ २१ ॥

(३) भगवद्विचार :-
सेइतं गोविन्द साक्षाच्चैतन्य गोसानि ।
जीव निस्तारिते ऐछे दयालु आर नाइ ॥ २२ ॥
अनुवाद – वे श्रीगोविन्द ही साक्षात् श्रीचैतन्य महाप्रभु हैं, जीवोंका उद्धारके लिये उनके समान दयालु और कोई नहीं है॥ २२ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – यहाँपर साक्षात् शब्दके प्रयोगके द्वारा ग्रन्थकार यह सिद्धान्त प्रकाश कर रहे हैं कि श्रीकृष्णचैतन्य स्वयं श्रीगोविन्द ही हैं अर्थात् श्रीगोविन्दके कोई प्रकाश अथवा विलास विग्रह नहीं हैं ॥ २२ ॥

अनुभाष्य— श्रीचैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीगोविन्द ही हैं, इस बातके शास्त्रोंसे कुछ प्रमाण यहाँ उद्धृत किये जा रहे हैं। चैतन्योपनिषद् में कहा है-

“गौरः सर्वात्मा महापुरुषो महात्मा महायोगी त्रिगुणातीतः सत्त्वरूपो भक्तिं लोके काश्यतीति । ”

अर्थात् “सर्वान्तर्यामी, महापुरुष महात्मा, महायोगी, त्रिगुणातीत, शुद्धसत्त्वस्वरूप श्रीगोविन्द गौर रूपमें अवतीर्ण होकर जीवोंमें भक्तिका प्रकाश करेंगे।” श्वेताश्वतर (६ / ७ ) –
“तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमश्च दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीड्यम्॥ ”

अर्थात् “भक्तजन कहते हैं कि हम उन समस्त ब्रह्माण्डोंके नायक देवको जानते हैं जो शङ्कर, ब्रह्मादि ईश्वरोंके महेश्वर अर्थात् नियन्ता हैं, देवताओंके भी परम पूज्य देवता हैं, प्रजापतियोंके भी प्रजापति हैं और प्रकृतिसे परे हैं।” और श्वेताश्वतर (३ / १२ ) –

“महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्त्वस्यैषाः प्रवर्त्तकः ।
सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरख्ययः ॥ “
अर्थात् “सर्वान्तर्यामी श्रीमन्महाप्रभुजी ही सुनिर्मल अपनी भक्तिरूपी मणिकी प्राप्तिके लिये अपनी अहैतुकी कृपासे प्राणी मात्रको प्रवृत्त करनेवाले हैं।” (मुण्डक ३/१/३)-

“यदा पश्यः पश्यते रुक्मवणं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् ।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ॥
अर्थात् “जिस समय जीव ईश्वरका दर्शन करता है, तब वह विद्वान् पुण्य और पापको छोड़कर प्रकृतिसे बने इस देह और प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित होकर परम समता (मित्रता) को प्राप्त होता है। उस परमात्माका वर्ण सुवर्णके समान मनोहर हैं, वे सर्वान्तर्यामी प्रभु जगत्के कर्ता और ब्रह्माजीके भी जनक हैं। ”

श्रीमद्भागवत (११/५/३३-३४)-
“ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् ।
भृत्त्याहिं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥
त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम्।
मायामृगं दयितयेप्सितमन्यधावत् वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥” इति ।
अर्थात् “हे शरणागतजनोंके पालक! हे परम पुरुषोत्तम महाप्रभो ! निरन्तर ध्यानयोग्य, श्रीकृष्णप्रेमप्रदाता, श्रीगौर-क्षेत्र – व्रजमण्डलादि तीर्थोंके आश्रयस्वरूप, शिवावतार श्री अद्वैताचार्य और ब्रह्मावतार श्रीहरिदास ठाकुरके द्वारा स्तुत्य, निजसेवक कुष्ठरोगी विप्रके आर्त्तिनाशक, सार्वभौम प्रतापरुद्रादिको मुक्तिकामी भुक्तिकामीरूप भवसागरसे उत्तीर्ण (पार) करनेवाले जलपोत स्वरूप, आपके श्रीचरणकमलोंकी मैं वन्दना करता हूँ। ब्राह्मणका वचन (शाप) था कि तुम्हारा गृहस्थ सुख सब नष्ट हो जाय। उस वचनकी रक्षाके लिये प्राणोंसे भी दुस्त्यज, देवताओंके द्वारा भी अभिलिषित राज्य और विष्णुप्रियारूप लक्ष्मीको भी त्यागकर जो ( श्रीचैतन्य महाप्रभु ) वनमें चले गये । वनमें कलत्र, पुत्र, धनादि रूप मायाको ढूँढनेवाले मृग अर्थात् संसारमें आसक्त लोगोंके पीछे (उनके कल्याणके लिये) दौड़ गये। अतिशय दयालु अपने आलिङ्गनके छलसे संसाररूपी समुद्रमें गिरे जनको प्रेमरूपी समुद्रमें निमज्जित करने में समर्थ महाप्रभुके चरणोंकी मैं वन्दना करता हूँ।” श्रीमद्भागवत (७/९/३८) प्रह्लाद वचन –

“इथं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्लोकान् विभावयसि हसि जगत्प्रतीपान् ।
धर्म महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छत्रः कलौ यदभव स्त्रियुगोऽथ स त्वम् ॥”

अर्थात् “हे पुरुषोत्तम ! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु, पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्यादि अवतार लेकर लोकोंका पालन और विश्व द्रोहियोंका संहार करते हैं। इन अवतारोंके द्वारा आप प्रत्येक युगमें युगानुरूप धर्मकी रक्षा करते हैं, परन्तु कलियुगमें तो आप छिपकर गुप्तरूपसे अवतार धारण करते हैं। अतः आपका एक नाम “त्रियुग’ भी है।” यहाँपर गुप्त अवतारसे श्रीकृष्णचैतन्य अवतारका बोध होता है। कृष्णयामलमें—

“ पुण्यक्षेत्रे नवद्वीपे भविष्यामि शचीसुतः “
अर्थात् “भविष्यमें मैं पुण्यक्षेत्र नवद्वीपमें शचीनन्दनके रूपमें आऊँगा।”

ब्रह्मयामलमें-
“अथवाहं धराधाम्नि भूत्वा मद्भक्तरूपधृक् ।
मायायां च भविष्यामि कलौ सङ्कीर्तनागमे ॥ ‘
अर्थात् “कलिकालमें सङ्कीर्तनके आरम्भके समय मैं भूतलपर अपने प्रिय भक्तोंका-सा वेष बनाकर श्रीमायापुरमें अवतीर्ण होऊँगा।”

वायुपुराणमें-
“कलौ संकीर्तनारम्भे भविष्यामि शचीसुतः ।
स्वर्णद्युतिं समास्थाय नवद्वीपे जनाश्रये ॥
अर्थात् “कलिकालमें सङ्कीर्तनको आरम्भ करनेके लिये नवद्वीप नामक पुरीमें सुवर्ण कान्ति ग्रहणकर शचीपुत्ररूपमें प्रकट होऊँगा।”

अनन्त सहितामें-
“य एव भगवान् कृष्णो राधिकाप्राणवल्लभः।
सृष्ट्यादौ स जगनाचो गौर आसीन्महेश्वरि ॥ “

अर्थात् श्रीशङ्करजी पार्वतीसे बोले – “हे महेश्वरी सृष्टिके आदिमें जिन प्रभुका नाम श्रीजगन्नाथ था और जो द्वापरमें श्रीराधिकाप्राणवल्लभ स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्ररूपमें अवतीर्ण हुए थे, वे ही पुराण पुरुषोत्तम प्रभु प्रेमलक्षणा भक्ति प्रदान करनेके लिये गौराङ्गरूपमें अवतरित होंगे।” आदि। यहाँपर इसी ग्रन्थ ( चैतन्यचरितामृत) में उद्धृत प्रमाणका समावेश करनेसे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा, इसलिये उन्हें यहाँ नहीं दिया जा रहा है॥ २२ ॥

परव्योमपति नारायण ही सभी शास्त्रोंमें वर्णित :-
परव्योमेते बैसे नारायण नाम।
पश्चर्यपूर्ण लक्ष्मीकान्त भगवान् ॥ २३ ॥
वेद, भागवत, उपनिषद् आगम ।
‘पूर्णतत्त्व’ यौरे कहे, नाहि यॉर सम ॥ २४ ॥

अनुवाद – जो श्रीनारायण नामसे परिचित हैं, वे छह ऐश्वयों से पूर्ण लक्ष्मीपति भगवान् परव्योम (वैकुण्ठ) में रहते हैं। वेद, भागवत, उपनिषद् आगम शास्त्रोंमें जिनको ‘पूर्णतत्त्व’ कहा जाता है, उनके समान कोई अन्य नहीं है॥ २३-२४॥

अनुभाष्य – ऋक्संहिता (१ / २२ / २० ) – तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम्” आदि । श्रीमद्भागवत (११/३/३४-३५) – नारायणाभिधानस्य ब्रह्मणः परमात्मनः । निष्ठामर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः ॥ स्थित्युद्भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य यत् स्वप्न जागर सुषुप्तिषु सद्बहिश्च । देहेन्द्रियासु हृदयानि चरन्ति येन, सञ्जीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र ॥” नारायणाचवशिर उपनिषद् – “नारायणादेव समुत्पद्यन्ते नारायणात् प्रवर्त्तन्ते नारायणे प्रलीयन्ते । अथ नित्यो नारायणः। नारायण एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् । शुद्धो देव एको नारायणो न द्वितीयोऽस्ति कचित्।” नारायणोपनिषद् – “यतः प्रसूता जगतः प्रसूता” हयशीर्षपञ्चरात्र – परमात्मा हरिर्देवः ।”

अर्थात् ऋक्संहितामें–“आकाशमें सूर्य उदित होनेसे आँख जिस प्रकार सर्वत्र देखनेकी योग्यता प्राप्त करती है, उसी प्रकार ज्ञानी लोग उन श्रीविष्णुके परमपदका सदा प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।” श्रीमद्भागवतमें महाराज निमिने नवयोगेन्द्रोंसे प्रश्न किया – “हे मुनिगण ! आप लोग ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं, इसलिये नारायण नामक वस्तु ब्रह्म और परमात्माके स्वरूपका वर्णन करनेमें समर्थ हैं।” ऋषि पिप्पलायनने कहा – “हे राजन! जो इस विश्वकी सृष्टि-स्थिति- प्रलयके कारण, किन्तु स्वयं कारणरहित हैं, वे नारायण हैं जो स्वप्न, जाग्रत, गहन निद्रा और समाधि अवस्थामें भी सर्वत्र सत् रूपमें नित्य वर्तमान रहते हैं, वे ब्रह्म हैं। शरीर इन्द्रियाँ प्राण और हृदय जिनके बलसे सज्जीवित होकर कार्योंमें प्रवृत्त होते हैं, वे परमात्मा रूपमें जाने जाते हैं। ” अथर्ववेदके अन्तर्गत श्रीनारायणोपनिषद् में कहा गया है- “श्रीनारायणसे ही सभीकी सृष्टि होती है, उनसे ही सब कुछ परिचालित होता है और सभी उनमें ही विलीन हो जाते हैं। इसलिये नारायण नित्य हैं। ये समस्त ब्रह्माण्ड जिनकी सृष्टि हुई है अथवा जिनकी सृष्टि होगी, वे सभी नारायणमय हैं। विशुद्धसत्त्वमय देवता नारायण एक ही हैं अर्थात् वे अद्वितीय हैं, उनके समान दूसरा कोई और नहीं है । ” ॥ २४ ॥

द्रष्टाभेदसे दर्शनभेद और उपायभेदसे उपेय प्रतीतिभेद-
भक्तियोगे भक्त पाय याँहार दर्शन ।
सूर्य येन सविग्रह देखे देवगण ॥ २५ ॥
अनुवाद – जैसे देवता लोग ही भक्तियोगके द्वारा नारायणके सूर्यको साक्षात् विग्रहके रूपमें देखते हैं, वैसे ही केवल भक्त चतुर्भुज रूपके दर्शन करते हैं ॥ २५ ॥

ज्ञानयोगमार्गे तौरे भजे येइ सब ।
ब्रह्म-आत्मरूपे तौरे करे अनुभव ॥ २६ ॥
अनुवाद – ज्ञान मार्गमें जो उनका भजन करते हैं, वे केवल उनके निर्विशेष ब्रह्मरूपका और योगमार्गमें जो उनका भजन करते हैं, वे केवल उनके रमात्मारूपका ही अनुभव करते हैं॥ २६ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – जड़ इन्द्रियों अथवा ज्ञानमार्गकी चेष्टाके द्वारा भगवान्‌के नित्यविग्रहका दर्शन सम्भव नहीं है। केवल भक्तियोग अर्थात् भक्तिकी वृत्तिके द्वारा भक्तगण ही उनका दर्शन करनेके योग्य होते हैं। उदाहरण स्वरूप- जैसे सूर्यदेवका भी एक विग्रह ( देह) है, किन्तु साधारण चर्मचक्षुओं या आसुरिक नेत्रोंके द्वारा उनके उस विग्रहका दर्शन नहीं होता। देवताओं के दिव्यनेत्र सूर्यके किरणरूपी जालको भेदकर उसका दर्शन करते हैं। जो मनुष्य ज्ञानमार्ग या योगमार्गमें भगवान्का अनुसन्धान करते हैं, वे उनके नित्यविग्रहके किरणजालरूप ब्रह्म और अंशरूपमें परमात्माका ही अनुसरण कर पाते हैं। किन्तु वे लोग भगवान्के चिन्मय नित्यविग्रहका दर्शन करनेके योग्य नहीं होते ॥ २५-२६ ॥

उपासना भेदे जानि ईश्वर – महिमा ।
अतएव सूर्य तौर दियेत उपमा ॥ २७ ॥
अनुवाद – उपासनाके भेदसे ईश्वरकी महिमाको जाना जाता है, इसे स्पष्ट करनेके लिये सूर्यका उदाहरण दिया गया है॥ २७ ॥

(क) श्रीकृष्ण और नारायणके अभेद होनेपर भी उनमें लीलागतभेद है :-
सेइ नारायण कृष्णेर स्वरूप अभेद ।
एकइ विग्रह, किन्तु आकार विभेद ॥ २८ ॥
इहाँ तं द्विभुज, तिहो धरे चारि हाथ ।
इहाँ वेणु धरे, तिहो चक्रादिक साथ ॥ २९ ॥
अनुवाद – वे नारायण और श्रीकृष्ण स्वरूपतः अभेद हैं अर्थात् अभिन्न हैं, दोनों एक ही विग्रह हैं, किन्तु उनका आकार अलग-अलग है। ये श्रीकृष्ण तो द्विभुज हैं और अपने हाथोंमें वंशी धारण करते हैं, किन्तु वे नारायण चतुर्भुज हैं और अपने हाथोंमें शंख चक्रादि धारण करते हैं॥ २८-२९॥

श्रीमद्भागवत (१०/१४/१४) –
नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिना-
मात्मास्यधीशाखिललोकसाक्षी ।
नारायणोऽङ्गं नरभू-जलायना-
तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥ ३० ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ३० ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – [ ब्रह्माजीने भगवान् श्रीकृष्णसे कहा ] – हे अधीश आप सभी लोकोंके साक्षी हैं। जब आप प्रत्येक जीवकी आत्मा अर्थात् अत्यन्त प्रिय वस्तु हैं, तब क्या आप मेरे पिता नारायण नहीं हैं? ‘नरजात जल’ अर्थात् नरसे जलकी सृष्टि हुई इसलिये उसे नार कहा जाता है और उसमें जो अयन अर्थात् शयन करते हैं, वे नारायण हैं। वे आपके अङ्ग अर्थात् अंश हैं। आपके अंश स्वरूप कारणाब्धिशायी, क्षीरोदशायी और गर्भोदशायी कोई भी मायाके अधीन नहीं हैं। वे सब मायाधीश और मायासे अतीत परमसत्य वस्तु हैं॥ ३० ॥ अनुभाष्य – ब्रह्माजीने बछड़ोंको हरण करनेके पश्चात् श्रीकृष्णके तत्त्वसे अवगत होकर जो स्तुति की, उनमेंसे यह एक श्लोक है-

हे अधीश (पुरुषावतारत्रयादधिकैश्वर्य सम्पन्न ) न हि [किं] एवं नारायणः (नारस्य अयनं प्रवृत्तिर्यस्मात् सः); सर्वदेहिनां (सर्वप्राणिनाम्) आत्मा एवं नारायणः (नारं जीवसमूहः अयनं आश्रयो यस्य सः तृतीय पुरुषावतारः क्षीरोदकस्वः) असि (भवसि ) अखिललोक – साक्षी (समष्ट्यन्तर्यामी) त्वं नारायणः (नारं अयसे जानासि द्वित्तीयपुरुणावत्तारः गर्भोदकस्थः) असि नरभूजलायनात् (नरात् परामत्मनः उद्भूताः ये अर्थाः चतुर्विंशतितत्त्वानि तथा नरात् जातं यत् जलं तदयनात् यः प्रसिद्धः आदिपुरुषावतारः कारणोदकस्वः) नारायणः सः अपि त अयं (अंशः) । तथ्य अपि सत्यम् [ एव], न तु माया (न मायिकवदनित्यम्) । [ अवतारेऽपि त्वयि तव चिन्मयकलेवरस्य स्पर्शने माया असमर्था । हे कृष्ण त्वं मूलनारायणः पुरुषाद्यवतारास्ते अंशा, स्वमेव अंशीति । तेऽवतारा अङ्गाः त्वमेवाङ्गीति मे मतिः ] ।

श्लोक– भावानुवाद हे अधीश ! तीनों पुरुषावतारों से अधिक ऐश्वर्य सम्पन्न क्या आप पुरुषावतारों के प्रवर्तक नारायण नहीं हो? आप सभी प्राणियोंके आत्मा अर्थात् जीवसमूहके आश्रय तृतीय पुरुषावतार क्षीरोदकशायी नारायण हो; आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके अन्तर्यामी अर्थात् समष्टि जीवोंके साक्षी द्वितीय पुरुषावतार गर्भोदकशायी नारायण हो; आप नर अर्थात् परमात्मा जिनसे प्राकृत जगत्के आधारस्वरूप जल – पृथ्वी आदि चौबीस तत्त्व प्रकट होते हैं और नरसे उत्पन्न जलमें शयन करनेवाले प्रसिद्ध प्रथम पुरुषावतार कारणोदकशायी हो; अथवा वे नारायण भी आपके अंश हैं। वे भी सत्य ही हैं, मायिक वस्तुकी भाँति अनित्य नहीं हैं। [आपके अवतारोंके चिन्मय कलेवर (विग्रह ) को भी माया स्पर्श करनेमें असमर्थ है। हे श्रीकृष्ण ! आप मूल नारायण हैं। पुरुषादि अवतार आपके अंश हैं और आप ही अंशी हैं। वे अवतार आपके अंगी हैं और आप ही उनके यह मेरा मत हैं] ॥ ३० ॥

श्लोककी व्याख्या :-
शिशु वत्स हरि ब्रह्मा करि अपराध ।
अपराध क्षमाइते मागेन प्रसाद ॥ ३१ ॥

अनुवाद – ब्रह्माजीने ग्वालबालों और बछड़ोंको हरण करके जो अपराध किया था, उस अपराधको क्षमा करनेके लिये वे श्रीकृष्णसे कृपा याचना कर रहे हैं॥ ३१ ॥

श्रीकृष्ण मूल नारायण होनेके कारण सभी पुरुषावतार उनके अन्तर्भुक्त :-
“तोमार नाभिपद्य हैते आमार जन्मोदय ।
तुमि पिता-माता, आमि तोमार तनय ॥ ३२ ॥
पिता-माता बालकेर ना लय अपराध ।
अपराध क्षम, मोरे करह प्रसाद ॥ ३३ ॥
अनुवाद – ब्रह्माजीने कहा – ” आपके नाभिकमलसे मेरा जन्म हुआ है, इस कारण से आप मेरे पिता-माता हैं और मैं आपका पुत्र हूँ। पिता-माता कभी भी बालक (पुत्र) का अपराध नहीं लेते हैं, अतः आप मेरे अपराधोंको क्षमा करके मुझपर कृपा करें ॥ “३२-३३॥

कृष्ण कहेन – “ब्रह्मा तोमार पिता नारायण ।
आमि गोप, तुमि कैछे आमार नन्दन ॥ ३४ ॥
अनुवाद – ब्रह्माजीकी बातोंको सुनकर श्रीकृष्ण बोले- “हे ब्रह्मा ! तुम्हारे पिता नारायण हैं, मैं तो गोप हूँ, तुम कैसे मेरे पुत्र हो सकते हो ? ” ॥ ३४ ॥

प्रथम प्रमाण :-
ब्रह्मा बलेन – ” तुमि किना हओ नारायण ।
तुमि नारायण – शुन ताहार कारण ॥ ३५ ॥
प्राकृताप्राकृत- सृष्ट्ये यत जीव रूप ।
ताहार ये आत्मा तुमि मूल स्वरूप ॥ ३६ ॥
पृथ्वी छे घटकुलेर कारण आश्रय ।
जीवेर निदान तुमि, तुमि सर्वाश्रय ॥ ३७ ॥
‘नार’ शब्दे कहे सर्वजीवेर निचय ।
‘अयन’ शब्देते कहे ताहार आश्रय ॥ ३८ ॥
अतएव तुमि हओ मूल नारायण ।
एइ एक हेतु, शुन द्वितीय कारण ॥ ३९ ॥
अनुवाद – पुनः ब्रह्माजी बोले- ” आप क्या नारायण नहीं हैं? आप नारायण ही हो, इसके कारण सुनिये। प्राकृत और अप्राकृत जगत्में जितनी भी जीवात्माएँ हैं, वास्तवमें वे सभी आपसे ही उत्पन्न हुई हैं, उन जीवोंके आप ही मूल स्वरूप हैं। जिस प्रकार पृथ्वी मिट्टीके घड़ोंका कारण और आश्रय है, उसी प्रकार आप भी सभी जीवोंका निदान (कारण) और आश्रय हैं। ‘नार’ शब्दका अर्थ है- सभी जीवोंका समूह और ‘अयन’ शब्दका अर्थ है उनका आश्रय । इसलिये आप मूल (नार+अयन) नारायण हैं और अब दूसरा कारण श्रवण कीजिये ॥ ३५ ३९॥

अमृतप्रवाह भाष्य – यह प्राकृत सृष्टि माया प्रकृतिके अन्तर्गत है । “भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ” इति – गीता ( ७ / ४) श्लोकके अनुसार मन, बुद्धि और अहङ्काररूप लिङ्गजगत् एवं भूमि आदि पञ्चमहाभूतरूप ये सभी मायिक अथवा प्राकृत हैं। शुद्धजीव और चित् जगत् अप्राकृत हैं। प्राकृत और अप्राकृत, इन दोनों जगत् में बद्ध और शुद्ध दो प्रकारके जीवोंकी आप आत्मा हैं, इसलिये आप सभीके मूलस्वरूप हैं। पृथ्वी जैसे मिट्टी के घड़ेका कारण (मिट्टी पृथ्वीका अंश है) और आश्रय ( रहनेका स्थान ) है, उसी प्रकार आप भी सभी जीवोंका एकमात्र निदान अर्थात् कारण और आश्रय हैं॥ ३६-३७॥

अनुभाष्य – जो भी प्रकृतिके गुणोंके द्वारा उत्पन्न विभिन्न प्रकारकी वस्तुएँ हैं, वे सभी प्राकृत हैं। परन्तु अप्राकृत जगत्में जहाँ नित्य चित्-विलास विचित्रता विद्यमान रहती है, वहाँ प्रकृतिके गुणका कोई भी प्रभाव नहीं होता। अप्राकृत जगत्में मुक्त जीव श्रीकृष्णसेवा परायण हैं। कालके अधीन तीन गुणोंके अन्तर्गत बद्धजीव प्राकृत सृष्टिमें स्थित हैं। अप्राकृत जगत्में मुक्तजीव निरन्तर श्रीकृष्णसेवाके आनन्दमें लीन हैं और प्राकृत जीव सदा सुख – दुःखरूपी भोगोंके अधीन हैं। सङ्कर्षण ही मुक्त और बद्ध जीवके मूलस्वरूप हैं अर्थात् उनकी तटस्था शक्तिसे प्रकटित विभिन्न जीव सेवोन्मुख और सेवाविमुख, इन दो अवस्थाओंमें विभिन्न रूपोंमें अवस्थित हैं। मुक्त होकर जीव अप्राकृत राज्यमें पाँच प्रकारके विभिन्न रसों (शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर ) का आश्रयकर भगवत्सेवामें तत्पर रहते हैं। अविद्याग्रस्त बद्धजीव भोगमय राज्यमें भोक्ताका अभिमान करके सभी वस्तुओंमें भोगबुद्धि रखते हैं। बद्ध और मुक्त – दोनों प्रकारके तटस्था शक्तिके प्रकाश जीव शक्तिमान् तत्त्व (नारायण) के आश्रित हैं। जिस प्रकार पृथ्वीपर व्यापक मिट्टी अनेकों घड़ोंका उपादान कारण है, उसी प्रकार अद्वयज्ञान भगवत् – वस्तुसे समस्त जीव नित्य प्रकटित हैं। सभी कारणोंके कारण भगवान् जीवोंके कारण रूपमें सर्वदा अधिष्ठित हैं। “नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानां – यह श्रुति वाक्य परतत्त्वको ही सभी वस्तुओंके आश्रयरूपमें निर्देश करता है।

विशिष्टाद्वैतवादी लोग वेदान्तकी प्रतिपाद्य वस्तुका निरूपण करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार सूक्ष्म और स्थूलशरीरके देही जीवका तीन प्रकारसे अवस्थान दिखायी देता है (सूक्ष्मशरीर स्थूलशरीर और स्वयं जीवात्मा), उसी प्रकार भगवत् स्वरूपसे स्वतन्त्र रूपमें चित् और अचित्, दोनों जगत् प्रकाशित होकर भगवान्‌का ही अद्वयवैशिष्ट्य स्थापित कर रहे हैं। मुक्तजीव भगवत्-पार्षदके रूपमें चित्जगत्में निवास करते हैं और अचित्जगत् भगवत्-विमुख बद्धजीवोंका भोग्य स्थान है। भगवान्‌की अन्तरङ्गाशक्ति उनके परिकरोंके वैशिष्ट्यका कारण है और भगवान्की बहिरङ्गाशक्ति प्राकृत गुणवाले जगत्की सृष्टि करती हैं। प्राकृत जगत् भगवान्का स्थूल बाह्य अङ्ग है और जीवजगत् भगवान् के सूक्ष्म अङ्ग हैं। भगवान् इन दोनों प्रकारके अङ्गोंके अङ्गी हैं। गौड़ीय दर्शनमें शक्तिमान् तत्त्वका उनकी चित् और अचित्शक्तिके परिणाम दोनों जगत्का युगपत् ( एक साथ) कारण और कार्यों में अचिन्त्यभेदाभेद स्थापित किया गया है ॥

द्वितीय प्रमाण :-
जीवेर ईश्वर-पुरुषादि अवतार ।
ताँहा सबा हैते तोमार ऐश्वर्य अपार ॥ ४० ॥
अतएव अधीश्वर तुमि सर्व पिता ।
तोमार शक्तिते ताँरा जगत्- रक्षिता ॥ ४१ ॥
नारेर अयन याते करह पालन ।
अतएव हओ तुमि मूल नारायण ॥ ४२ ॥
अनुवाद – पुरुषादि अवतार सभी जीवोंके ईश्वर हैं, किन्तु आपका ऐश्वर्य इन सबसे अधिक है। इसलिये आप अधीश्वर अर्थात् ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं और सभीके पिता हैं । आपकी शक्तिसे ही वे लोग जगत्की रक्षा करते हैं। आप पुरुषावतारों और सभी भगवदावतारोंको शक्ति प्रदान करते हैं जिसके द्वारा वे जगत्‌का पालन करते हैं, इसलिये आप मूल नारायण हैं ॥ ४०-४२ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – पुरुषादि अवतार अर्थात् कारणान्धिशायी, गर्भोदकशायी और क्षीरोदकशायी, ये तीन पुरुषावतार हैं । ॥ ४० ॥

तृतीय प्रमाण :-
तृतीय कारण शुन, श्रीभगवान् ।
अनन्त ब्रह्माण्ड बहु वैकुण्ठादि धाम ॥ ४३ ॥
इथे यत जीव, तार त्रिकालिक कर्म ।
ताहा देख, साक्षी तुमि जान सब मर्म ॥ ४४ ॥
तोमार दर्शने सर्व जगतेर स्थिति ।
तुमि ना देखिले कार नाहि स्थिति गति ॥ ४५ ॥
नारेर अयन याते कर दरशन ।
ताहातेओ हओ तुमि मूल नारायण ॥ ४६ ॥
अनुवाद – हे श्रीभगवान् ! अब आप तीसरा कारण सुनिये। इस जगतमें अनन्त ब्रह्माण्डों और चित्जगत् में अनेक वैकुण्ठ धामोंमें जितने भी जीव हैं, आप साक्षीके रूपमें उनके त्रैकालिक (भूत, वर्तमान और भविष्यत्) कमको देखते हैं और उन सबके अभिप्रायको भी जानते हैं। आपके दृष्टि डालनेसे ही समस्त जगत्की स्थिति रहती है, आपके नहीं देखनेसे किसीका भी अस्तित्व अथवा गति नहीं होगी। सभी जीवोंके त्रैकालिक कर्मोंके साक्षीरूप आप उनके प्रति दृष्टिपात करते हैं, इसलिये आप मूल नारायण हैं ॥ ४३-४६ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – ‘इथे’ – प्राकृत ब्रह्माण्डसमूहमें और अप्राकृत वैकुण्ठादि धाममें ‘साक्षी’-बद्ध और शुद्ध जीवोंके भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके सभी कर्मोंके आप एकमात्र द्रष्टा हैं॥४४॥

‘याते’ – जीवोंके द्रष्टा होनेके कारणसे आप नारके अयनरूप नारायण हैं। ब्रह्माजी तीन युक्तियोंके द्वारा श्रीकृष्णको मूलनारायण स्थिर कर रहे हैं- १) समस्त जीवोंके निदान (आदिकारण) और आश्रय श्रीकृष्ण ही मूल नारायण हैं । २) सभी जीवोंके ईश्वर कारणाब्धिशायी पुरुष, समस्त जीवोंके अर्थात् हिरण्यगर्भके आत्मा गर्भोदशायी पुरुष और प्रत्येक जीवके अन्तर्यामी आत्मा क्षीरोदशायी पुरुष – इन तीन पुरुषोंके और भगवदावतारादिके मूल शक्ति- प्रदातारूपमें नार ( पुरुष और उनके अवतारों) के अयन ( प्रर्वतक ) होनेसे श्रीकृष्ण ही मूल नारायण हैं । ३) अनन्त ब्रह्माण्ड और वैकुण्ठादिमें बद्ध और शुद्ध जीवोंके त्रिकालिक कमके साक्षीरूपमें नारके अयन (जीवों को जाननेवाले) होनेके कारण श्रीकृष्ण ही मूल नारायण है ॥ ४६ ॥

कृष्ण कहेन – “ब्रह्मा तोमार ना बुझि वचन ।
जीव-हृदि, जले बैसे सेइ नारायण ॥ ४७॥
अनुवाद – श्रीकृष्णने कहा – “हे ब्रह्मा ! मैं तुम्हारी बातोंको नहीं समझ पा रहा हूँ। जो जीवोंके हृदयमें रहते हैं और जलमें वास करते हैं, वे ही तो नारायण हैं॥ ४७ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – ‘जीव हृदि’ – प्रत्येक जीव और समस्त जीवोंके अन्तर (हृदय) में। ‘जलें’ – कारणाब्धिमें, गर्भोदकमें और क्षीरोदकमें ॥ ४७ ॥

तीन पुरुषावतारोंके लक्षण :-
ब्रह्मा कहे – “जले, जीवे येइ नारायण ।
से-सब तोमार अंश – ए सत्य वचन ॥ ४८ ॥
कारणाब्धि – गर्भोदक- क्षीरोदकशायी ।
मायाद्वारा सृष्टि करे, ताते सब मायी ॥ ४९ ॥
सेइ तिन जलशायी सर्व – अन्तर्यामी ।
ब्रह्माण्डवृन्देर आत्मा ये पुरुष – नामी ॥ ५० ॥
हिरण्यगर्भेर आत्मा गर्भोदकशायी ।
व्यष्टिजीव- अन्तर्यामी क्षीरोदकशायी ॥ ५१॥
ए सबार दर्शनेते आछे मायागन्ध ।
तुरीय कृष्णेर नाहि मायार सम्बन्ध ॥५२॥
अनुवाद – यह सुनकर ब्रह्माजी बोले- “जलमें और जीवोंके हृदयमें जो नारायण वास करते हैं, वे सभी आपके अंश हैं- यही सत्य वचन है। कारणाब्धिशायी, गर्भोदकशायी और क्षीरोदकशायी नारायण मायाके द्वारा सृष्टि करते हैं, इसलिये ये मायाके अधीश्वर हैं। ये तीनों जलशायी अर्थात् पुरुषावतार सभी जीवोंके अन्तर्यामी हैं। प्रथम पुरुष समस्त ब्रह्माण्डोंके अन्तर्यामी कारणाब्धिशायी नारायण हैं। द्वितीय पुरुष हिरण्यगर्भकी आत्मा गर्भोदकशायी नारायण हैं और प्रत्येक जीवके हृदयमें वास करनेवाले अन्तर्यामी क्षीरोदकशायी नारायण तृतीय पुरुष हैं। इन सभीको ( तटस्थ रूपसे) देखनेपर लगता है कि इनमें मायाकी गन्ध ( मायासे सम्बन्ध) है, किन्तु इनसे श्रेष्ठ तुरीय (चतुर्थ) वस्तु श्रीकृष्णका मायाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है ॥ ४८-५२ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – ‘ताते सब मायी- वे मायाके द्वारा सृष्टि करते हैं, इसलिये ये तीनों पुरुष माय अर्थात् माया-सम्बन्धी जगत्के अधीश्वर हैं। ये पुरुष नामी अर्थात् जिनका नाम ‘पुरुष’ है । हिरण्यगर्भ – समस्त जीवसमूह और उनके अन्तर्यामी गर्भोदकशायी हैं। ‘व्यष्टि’ – पृथक्-पृथक् जीवोंके अन्तर्यामी पुरुष क्षीरोदकशायी हैं। इन तीनों पुरुषोंसे अतीत जो (श्रेष्ठ) पुरुष तुरीय अर्थात् चतुर्थ पुरुष हैं, वे श्रीकृष्णचन्द्रकी विलासमूर्ति परव्योमनाथ नारायण हैं। वे सम्पूर्ण रूपसे मायागन्धशून्य हैं ॥ ४९-५२॥

श्रीमद्भागवत ११/१५/१६ श्लोककी भावार्थ दीपिका-
विराडूहिरण्यगर्भश्च कारणं चेत्युपाधयः ।
ईशस्य यत्त्रिभिर्हीनं तुरीयं तत् प्रचक्षते ॥ ५३॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ५३॥
अमृतप्रवाह भाष्य – विराट् हिरण्यगर्भ और कारण – ये सभी मायासम्बन्धी उपाधियाँ हैं। उपाधिशून्य तत्त्व (मायाकी गन्धसे रहित ) ही तुरीय (चतुर्थ) हैं ॥ ५३॥

अनुभाष्य – श्रधरस्वामीने अपनी टीकामें ‘तुरीय’ शब्दकी व्याख्या करनेके लिये इस श्लोककी रचना की है-

विराट् (स्थूल) हिरण्यगर्भः (सूक्ष्मं ) कारणं (अविद्या, प्रकृतिवां) इति [ ए ] ईशस्य (महत्स्रष्टुः पुरुषावतारस्य) उपाधयः ( प्रकाशविशेषाः) । यत् त्रिभिः (एतैः उपाधिभिः) हीनं (तत्सम्बन्धवर्जितं) तत् (पदं) तुरीयं (चतुर्थ, पुरुषत्रयातीतं वैकुण्ठ) प्रचक्षते ।

श्लोक – भावानुवाद-स्थूल सूक्ष्म अविद्या और प्रकृति, ये इन महत् तत्त्वकी सृष्टि करनेवाले पुरुषावतारकी उपाधियाँ (प्रकाशविशेष) हैं। इन उपाधियोंसे सम्बन्धहीनको तुरीय (तीनों पुरुषोंसे अतीत वैकुण्ठ स्थित चतुर्थ पुरुष ) कहते हैं ॥ ५३ ॥

यद्यपि तिनेर माया लइया व्यवहार ।
तथापि तत्स्पर्श नाइ, सबे माया पार ॥ ५४॥
अनुवाद – यद्यपि ये तीनों (पुरुष) मायाको लेकर सृष्टि कार्योंमें व्यवहार करते हैं, तथापि वे मायाको स्पर्श नहीं करते हैं और वे मायासे परे हैं ॥ ५४ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य- हिरण्यगर्भादि समष्टि (समस्त) और व्यष्टि (प्रत्येक ) जीव मायाके वशीभूत हैं। उक्त तीनों पुरुषोंके द्वारा मायाको लेकर (सृष्टि कार्यों में) व्यवहार करनेपर भी वे मायासे परे हैं। ये तीनों मायाधीश तत्त्व हैं। ये मायापर ईक्षण (दृष्टिपात) तो करते हैं, किन्तु मायाको संस्पर्श नहीं करते ॥ ५४ ॥

प्रपञ्चमें अवतीर्ण होकर प्रपश्यातीत रहना ही भगवत्ता :-
श्रीमद्भागवत (१/११/३८) –
एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्गुणैः ।
न युज्यते सदात्मस्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥ ५५ ॥
अनुवाद – जिस प्रकार परम भागवतजनोंकी भगवान् के प्रति शरणागत बुद्धि प्रकृतिमें स्थित होनेपर भी प्राकृत गुणोंसे लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार श्रीभगवान् प्रकृतिके अन्तर्गत प्रपञ्चमें अवस्थित होकर भी सुख दुःख आदि प्राकृत गुणोंसे कदापि लिप्त नहीं होते। परमेश्वर या उनकी वस्तुओंका यही ऐश्वर्य है ॥ ५५ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – प्रकृतिमें रहकर उसके गुणोंके द्वारा वशीभूत नहीं होना ही ईश्वरकी इशिता है। मायाबद्ध जीवोंकी बुद्धि जब ईश्वरका आश्रय लेती है, तब वे भी मायाके समीप रहकर मायाके गुणों से संयुक्त नहीं होते ॥ ५५ ॥

अनुभाष्य – श्रीकृष्ण मायाकी गन्धसे सर्वथा रहित हैं, ऐसा श्रीसूत गोस्वामीने श्रीकृष्णका द्वारका नगरीमें अपने महलमें लौटकर महिषियोंके साथ समय व्यतीत करनेके प्रसङ्गमें वर्णन किया है-

तदाश्रया (श्रीभगवदाश्रया) [परमभागवतानां] बुद्धिः यथा [ प्रकृतिस्था कथञ्चित्तत्र पतितापि] न युज्यते तथा, (यद्वा व्यतिरेकेण तदाश्रया (प्रकृत्याश्रया ) बुद्धिः (जीवज्ञान) यथा युज्यते तथा न प्रकृतिस्थोऽपि ( त्रिगुणमये प्रपञ्चे तिष्ठनपि) सदा आत्मस्यैः गुणैः न युज्यते ( प्राकृतगुणेष्वासक्तो न भवति) – एतत् [ एव] ईशस्य (समर्थस्य मायातीतस्य भगवतः ) ईशनं (ऐश्वर्यम्) ।

श्लोक – भावानुवाद-जब श्रीभगवान् ‌का आश्रय ग्रहण करनेवाले परमभागवतोंकी बुद्धि प्रकृतिमें स्थित होते हुए भी जैसे उससे युक्त नहीं होती है, [ अथवा व्यतिरेक रूपसें] प्रकृतिके आश्रित जीवकी बुद्धि जिस प्रकार युक्त होती है, उस प्रकार नहीं; तब भगवान् के विषयमें क्या कहा जाय । त्रिगुणमय प्रपञ्चमें स्थित होते हुए भी वे सदा आत्मस्वरूपमें स्थित रहकर प्राकृत गुणोंमें आसक्त नहीं होते, यही मायातीत भगवान्का ऐश्वर्य है ॥ ५५॥

सेइ तिनजनेर तुमि परम आश्रय ।
तुमि मूल नारायण इथे कि संशय ॥ ५६ ॥
अनुवाद – उन तीनों अवतारोंके आप परम आश्रय हैं, इसलिये आप मूल नारायण हैं, इसमें क्या संशय है? ॥ ५६ ॥

अनुभाष्य- आप उन तीनोंके अर्थात् क्षीरोदकशायी, गर्भोदकशायी और कारणाब्धिशायी महाविष्णु के परमाश्रय हैं। आपकी विलासमूर्ति चतुर्व्यूह – वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध, उन तीनोंकी मूल हैं । सङ्कर्षणके प्रकाश कारणजलमें प्रथम पुरुषवतार अखिल ब्रह्माण्डोंकी सृष्टि करनेवाले कारणाब्धिशायी हैं, प्रद्युम्नके प्रकाश द्वितीय पुरुषावतार गर्भोदकशायी और अनिरुद्ध प्रकाश तृतीय पुरुषावतार क्षीरोदकशायी हैं। इस प्रकार वे तीनों नारायणके ही आश्रित हैं ॥ ५६ ॥

सेइ तिनेर अंशी परव्योम नारायण ।
तेंह तोमार प्रकाश, तुमि मूल नारायण ॥ ५७ ॥
अनुवाद – कारणान्धिशायी, गर्भोदकशायी, क्षीरोदकशायी- इन तीनोंके अंशी परव्योमनाथ नारायण हैं। और वे नारायण आपकी विलासमूर्ति हैं, इसलिये आप ही मूल-नारायण हैं ॥ ५७॥

अमृतप्रवाह भाष्य – ‘अंशी’ – जिनके अंश हैं, वे अंशी हैं। ‘परमव्योम नारायण – वे पुरुषावतारों के अंशी हैं। वे आप श्रीकृष्णके विलासरूप गौणप्रकाश हैं ॥ ५७ ॥

अतएव ब्रह्मवाक्ये – परव्योम – नारायण ।
तें हो कृष्णेर प्रकाश – एइ तत्त्व – विवरण ॥ ५८॥
अनुवाद – इसलिये ब्रह्माजीके कथनानुसार यह तत्त्व स्थापित होता है कि परव्योमनाथ नारायण श्रीकृष्णका ही विलास हैं । ॥ ५८ ॥

एइ श्लोक तत्त्व – लक्षण भागवत – सार । परिभाषारूपे इहार सर्वत्राधिकार ॥ ५९ ॥

अनुवाद – इस श्लोकका तत्त्व लक्षण ही श्रीमद्भागवतका सार है और यह परिभाषारूपमें भागवतमें इसका सर्वत्र अधिकार है ॥ ५९ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – परिभाषा’ – सूत्र । ‘सर्वत्राधिकार – भागवतमें सर्वत्र यह लक्षण पाओगे ॥ ५९ ॥

अनुभाष्य – ‘एइ श्लोक’ का तात्पर्य पूर्वोक्त संख्या ३० में उद्धृत “नारायणस्त्वं” श्लोक है॥५९॥

अमृतानुकणा–’नारायणस्त्वं’ (भाः १०/१४/१४) – श्रीब्रह्माके मुखः निःसृत यह श्लोक श्रीमद्भागवतमें भगवत्-तत्त्व – प्रतिपादक सभी श्लोकोंके मध्य सार अर्थात् श्रेष्ठ है। इसलिये ‘परिभाषा’ रूपमें इसकी मर्यादा है। “परिभाषा ह्येकदेशस्था सकलं शास्त्रमभिप्रकाशयति यथा वेश्मप्रदीप इति” (भाः १०/८/४५ श्रील विश्वनाथ चक्रवर्तीकृत टीका) अर्थात् “जिस प्रकार दीपक कक्षमें एक स्थानपर रहकर सम्पूर्ण कक्षको आलोकित करता है, उसी प्रकार शास्त्रके एक स्थानमें अवस्थित होकर जो समस्त शास्त्रको प्रकाशित करती है, वह ‘परिभाषा’ कही जाती है।” तात्पर्य यह है कि ब्रह्माजीके द्वारा कहे गये इस श्लोकके अनुसार श्रीकृष्ण ही मूल नारायण हैं और परव्योमनाथ श्रीनारायण उनके अंश विशेष हैं, यह प्रमाणित हुआ है। कल्पके प्रारम्भमें श्रीकृष्णने स्वयं ही ब्रह्माजीको भगवत् – तत्त्वविज्ञान – मूलक वेदवाणीको कहा था, – “कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता । मयाऽऽदौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ।” (भाः ११/१४/३) । इसलिये ब्रह्माजीके वाक्यकी प्रमाणिकता सर्वोपरि है। इसी कारणसे यदि श्रीमद्भागवतमें किसी स्थानपर (१०/२/९, १०/४३ / २३ आदि) या अन्य किसी श्लोकमें श्रीकृष्ण श्रीनारायणके अंशरूपमें कभी भी आपात अर्थात् किसी प्रसङ्ग विशेषमें वर्णित हों, तो भी वह वाक्य प्रमाण – शिरोमणिरूप उक्त ब्रह्मवाक्यका अतिक्रम नहीं कर सकता । परिभाषा रूपमें इस ब्रह्म-वाक्यका ही सर्वत्र अधिकार है और जहाँ भी इसका विरोधाभास उपस्थित हो, वहाँ इसके अनुकूल अर्थके द्वारा उसका सामञ्जस्य करना होगा ॥ ५९॥

ब्रह्म, आत्मा, भगवान् – कृष्णेर विहार ।
ए अर्थ ना जानि मूर्ख अर्थ करे आर ॥६०॥

कृष्णको अंशी – नारायणके अंशरूपमें स्थापनका खण्डन :-

अवतारी नारायण, कृष्ण अवतार ।
तेंह चतुर्भुज, इँह मनुष्य – आकार ॥ ६१॥
एइमते नानारूप करे पूर्वपक्ष ।
ताहारे निर्जिते भागवत – पद्य दक्ष ॥ ६२॥
अनुवाद–ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् – ये सभी श्रीकृष्णके प्रकाश हैं, किन्तु इसका यह अर्थ ना जानकर मूर्ख लोग दूसरा – दूसरा अर्थ करते हैं। वे कहते हैं कि नारायण अवतारी हैं और श्रीकृष्ण अवतार हैं, क्योंकि नारायण चतुर्भुज हैं और श्रीकृष्ण मनुष्य रूपमें हैं। इस प्रकार वे नाना प्रकारसे तर्क करते हैं, परन्तु भागवतके श्लोक उनके मतोंका खण्डन करनेमें दक्ष हैं ॥ ६०-६२॥

अमृतप्रवाह भाष्य- ‘विहार’ – इसका तात्पर्य प्रकाशरूप विहारसे है। मूर्ख लोग इस प्रकार अर्थ ना समझकर अन्य अर्थ करते हैं, जैसे- “ अवतारी नारायण, कृष्ण अवतार।” पूर्वपक्षरूपमें खड़े इस प्रकारके सभी सिद्धान्तोंको भागवतके श्लोक पराजित करनेमें विशेष दक्ष हैं ॥ ६०-६२ ॥

कृष्ण और नारायणमें भेदविचारका खण्डन
श्रीमद्भागवत ( १/२/११)-

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ॥ ६३ ॥
अनुवाद – जो अद्वयज्ञान अर्थात् एक अद्वितीय वास्तव वस्तु है, उसीको तत्त्वज्ञानीजन परमार्थ कहते हैं। वही तत्त्ववस्तु ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् – इन तीनों नामोंसे जानी जाती है॥६३॥

अनुभाष्य – आदिलीला २/११ द्रष्टव्य है॥६३॥

शुन भाइ, ए श्लोकार्थ करह विचार ।
एक मुख्यतत्त्व, तिन ताहार प्रचार ॥ ६४ ॥
अद्वयज्ञान तत्त्ववस्तु कृष्णेर स्वरूप ।
ब्रह्म, आत्मा, भगवान् – तिन ताँर रूप ॥ ६५ ॥
एइ श्लोकेर अर्थे तुमि हैला निर्वचन ।
आर एक शुन भागवतेर वचन ॥ ६६ ॥
अनुवाद – (ग्रन्थकार श्रीकृष्णदास कविराज कह रहे हैं ) – मेरे प्रिय भाइयों ! इस श्लोकका अर्थ सुनो और विचार करो इस श्लोकमें एक मुख्यतत्त्व ( अद्वयज्ञान – तत्त्व) और उसकी तीन प्रतीतियोंका वर्णन है। अद्वयज्ञान तत्त्ववस्तु ही श्रीकृष्णका स्वरूप है। ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् उनके तीन रूप हैं। इस श्लोकके अर्थसे ही आपके सभी तर्क निरस्त हो गये हैं और आप कुछ अधिक कहनेमें असमर्थ हो गये हो। अब भागवतका और एक वचन सुनो ॥ ६४-६६ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – इस पद्यमें अद्वयज्ञान शब्दसे कृष्णस्वरूपरूपी मूल तत्त्ववस्तुको समझना चाहिये ॥ ६५ ॥

अमृतानुकणिका – परतत्त्वका श्रुतिविहित शृङ्खलाबद्ध विचार ब्रह्मसूत्र में ही देखा जाता है। ब्रह्मसूत्रके वाक्य ही स्वतः प्रमाण वेदोंके वाक्य हैं। ब्रह्मसूत्रके प्रमाणके साथ जिसका ऐक्य नहीं है, ऐसा कोई भी प्रमाण श्रद्धा करने योग्य नहीं है। श्रीमद्भागवत उसी ब्रह्मसूत्रका भाष्य है। (हः भविः १० / २८३ गरुड़ पुराणसे )

“अर्थोऽयं ब्रह्मसूत्राणां भारतार्थविनिर्णयः ।
गायत्री भाष्यरूपोऽसौ वेदार्थ परिबृंहितः ॥ ‘
अर्थात् “श्रीमद्भागवत ब्रह्मसूत्रका अर्थ, महाभारतका तात्पर्य- निर्णय, गायत्रीका भाष्य और समस्त वेदों के तात्पर्यका संवर्द्धन है।” जिन्होंने ब्रह्मसूत्रका सङ्कलन किया, उन्हीं श्रीव्यासदेवने स्वयं ही ब्रह्मसूत्र भाष्यरूपमें श्रीमद्भागवतको लिखा है। श्रीमद्भागवतमें ही ब्रह्मसूत्रका वास्तविक अर्थ और श्रीव्यासदेवके निज अभिप्रायको जाना जा सकता है, इसलिये श्रीमद्भागवत ही प्रमाण – शिरोमणि है । श्रीमद्भागवतके प्रमाणके साथ जिस युक्ति अथवा प्रमाणका ऐक्य नहीं है, वह प्रमाण अथवा युक्ति ग्राह्य नहीं हो सकती। कविराज गोस्वामीने श्रीमद्भागवतसे “वदन्ति ” आदि श्लोक उद्धृत करके प्रमाणित किया है कि श्रीकृष्ण ही अद्वय ज्ञान – तत्त्व – वस्तु हैं और परव्योमाधिपति नारायण उनके आविर्भाव विशेष (विलास रूप ) हैं, इसलिये नारायण श्रीकृष्णके अवतारी नहीं हो सकते। यही जब प्रमाण – शिरोमणि श्रीमद्भागवतका सिद्धान्त है, तब इसके प्रतिकूल किसी प्रकारकी युक्ति अथवा प्रमाण ग्राह्य नहीं हो सकता ॥ ६०-६६ ॥

श्रीकृष्णके अवतार अथवा अंश होनेका खण्डन :-
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृड्यन्ति युगे युगे ॥ ६७ ॥
श्रीमद्भागवत (१/३/२८)-

अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ६७ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – राम- म- नृसिंहादि पुरुषावतारके अंश या कला ( अंशके अंश) हैं, किन्तु श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं। दैत्योंके द्वारा पीड़ित लोगोंकी प्रत्येक युगमें ये (अवतार) रक्षा करते हैं ॥ ६७ ॥

अनुभाष्य- श्रीकृष्णके अवतारोंकी गणना करके अन्तमें श्रीसूत गोस्वामीने यह श्लोक कहा- एते ( पूर्वकथिताः अवतारादयः) पुंसः (पुरुषावतारस्य) अंशः, कलाक्ष (अंशस्य अंशाः) । कृष्णस्तु स्वयं भगवान्। [ते अंशावताराः] इन्द्रारिण्याकुलं (असुरोपद्रुत) लोकं (वि) युगे युगे ( प्रतियुगं यथाकाले ) मृड्यन्ति (सुखिनं कुर्वन्ति) ।

श्लोक – भावानुवाद – पहले वर्णन किये गये अवतार पुरुषावतारके अंश अथवा अंशके अंश हैं, परन्तु श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं। वे अंशावतार असुरोंके द्वारा पीड़ित भक्तोंको प्रति युगमें ( यथाकाल) सुखी करते हैं ॥ ६७ ॥

सब अवतारेर करि सामान्य लक्षण ।
तार मध्ये कृष्णचन्द्रेर करिल गणन ॥ ६८ ॥
तबे सूत गोसाजि मने पावा बड़ भय ।
यार ये लक्षण ताहा करिल निश्चय ॥ ६९ ॥
अवतार सब- पुरुषेर कला, अंश ।
स्वयं भगवान् कृष्ण सर्व अवतंस ॥ ७० ॥
अनुवाद – श्रीमद्भागवतमें श्रीसूत गोस्वामीने सभी अवतारोंके सामान्य लक्षण वर्णनकर श्रीकृष्णचन्द्रकी भी अवतारों में गणना की। तब उनके मनमें बड़ा भय हुआ कि कहीं लोग श्रीकृष्णको अवतार ना समझ लें, इसलिये उन्होंने सब अवतारोंके विशेष लक्षणका वर्णन किया। अन्य सभी अवतार पुरुषावतारके अंश अथवा कला हैं, किन्तु स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण सबके शिरोमणि हैं ॥ ६८-७० ॥

पूर्वपक्ष कहे – तोमार भाल तं व्याख्यान ।
परव्योमे नारायण स्वयं भगवान् ॥ ७१ ॥
तेंह आसि कृष्णरूपे करेन अवतार ।
एइ अर्थ श्लोके देखि – कि आर विचार ॥ ७२ ॥
अनुवाद – पूर्वपक्ष कहनेवाले यदि यह आक्षेप करें कि आपने श्लोककी अच्छी व्याख्या की है, परन्तु उसका अन्य अर्थ नहीं हो सकता, ऐसा सिद्ध नहीं होता है। इस श्लोकका यह भी अर्थ हो सकता है कि परव्योमनाथ नारायण स्वयं भगवान् हैं और वे ही कृष्णरूपमें अवतार ग्रहणकर लीला करते हैं। इस विषयमें आपका और क्या विचार है? ॥ ७१-७२ ॥

(ग) अलंकारिक – विचारमें श्रीकृष्णका नारायणके अंश होनेका खण्डन :-

तारे कहे, केने कर कुतर्कानुमान ।
शास्त्रविरुद्धार्थ कभु ना हय प्रमाण ॥ ७३ ॥
अनुवाद – ग्रन्थकार श्रीकृष्णदास कविराज उन्हें कहते हैं, तुम क्यों कुतर्क कर रहे हो और वास्तव वस्तुके विषयमें अनुमान लगा रहे हो? शास्त्रविरुद्ध अर्थ कभी भी प्रमाणके रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता ॥ ७३ ॥

एकादशीतत्त्वमें १३ अझमें धृत अलंकारिक न्याय :-
अनुवादमनुक्त्वा तु न विधेयमुदीरयेत् ।
न लब्धास्पदं किञ्चित् कुत्रचित् प्रतितिष्ठति ॥ ७४ ॥
अनुवाद – किसी वाक्यमें अनुवाद (ज्ञात वस्तु) को ना कहकर विधेय ( अज्ञात वस्तु) को पहले नहीं कहना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे उस वाक्यका कोई आधार नहीं होता है और उसकी कहीं भी अल्प प्रतिष्ठा भी नहीं होती ॥ ७४ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य-अलंकारिक विचारके अनुसार पूर्व अज्ञात विषयको ‘विधेय’ और पूर्व ज्ञात वस्तुको ‘अनुवाद’ कहा जाता है । उदाहरणके लिये- ‘ये विप्र पण्डित हैं, इस वाक्यमें ‘ये व्यक्ति विप्र (ब्राह्मण) हैं इस तथ्यको सभी जानते हैं, इसलिये यह अनुवाद है । किन्तु ‘विप्र पण्डित हैं’ यह सभी नहीं जानते हैं, इसलिये यह विधेय है । अनुवाद ना कह कर जो विधेय पहले कहते हैं, उनके वाक्यका कोई आश्रय ना रहनेके कारण उसकी प्रतिष्ठा नहीं होती॥७४॥
अनुभाष्य – अनुवादं (उद्देश्यं, ज्ञातं वस्तु) अनुक्त्वा ( न कथयित्वा ) विधेयं ( अज्ञातं वस्तु) न उदीरयेत् (न कथयेत्)। हि अलब्धास्पदं ( न लब्धं प्राप्तं आस्पदं स्थानं येन तथाभूतं) किञ्चित् कुत्रचित् [अपि] न प्रतितिष्ठति (प्रतिष्ठां न लभते ) ।

श्लोक-भावानुवाद – अनुवाद (ज्ञात वस्तु) ना कहकर पहले विधेय ( अज्ञात वस्तु) नहीं कहनी चाहिये। इस प्रकार उस वाक्यको यथायोग्य जो स्थान है, वह नहीं मिलता और उसे अल्प भी कहीं प्रतिष्ठा नहीं मिलती ॥ ७४ ॥

अनुवाद और विधेयके प्रयोगकी विधि
अनुवाद ना कहिया ना कहि विधेय ।
आगे अनुवाद कहि, पश्चाद् विधेय ॥ ७५ ॥
अनुवाद और विधेयकी संज्ञा :-
‘विधेय’ कहिये तारे, ये वस्तु अज्ञात ।
‘अनुवाद’ कहि तारे, येइ हय ज्ञात ॥ ७६ ॥
अनुवाद-अनुवाद कहनेसे पूर्व विधेय नहीं कहा जाता है। पहले अनुवाद कहकर बादमें विधेय कहा जाता है। जो वस्तु अज्ञात है, उसे ‘विधेय’ कहते हैं और जो वस्तु ज्ञात है, उसे ‘अनुवाद’ कहते हैं ॥ ७५-७६॥

दृष्टान्त :-
यैछे कहि, – एइ विप्र परम पण्डित |
विप्र – अनुवाद, इहार विधेय – पाण्डित्य ॥७७॥
विप्र बलि जानि, तार पाण्डित्य अज्ञात ।
अतएव विप्र आगे, पाण्डित्य पश्चात् ॥ ७८ ॥
अनुवाद – जैसे उदाहरण स्वरूप – ‘यह विप्र परम पण्डित हैं, इसमें विप्र ‘अनुवाद’ है और पाण्डित्य ‘विधेय’ है। यह व्यक्ति विप्र ( ब्राह्मण) हैं, यह तथ्य लोग पहलेसे जानते हैं, किन्तु इनके पाण्डित्यका उन्हें ज्ञान नहीं है । इसलिये पहले विप्र और बादमें पाण्डित्य कहना ही उचित है ॥७७-७८॥

अनुवाद और विधेय- विचारमें “एते चांशकलाः” श्लोक या कृष्णके अवतारी होनेकी व्याख्या :-
तैछे इह अवतार, सब ताँर ज्ञात ।
कार अवतार – एइ वस्तु अविज्ञात ॥७९॥
‘एते शब्दे अवतारेर आगे अनुवाद |
‘पुरुषेर अंश’ पाछे विधेय-संवाद ॥ ८० ॥
तै कृष्ण अवतार भितरे हैल ज्ञात ।
ताँहार विशेष ज्ञान सेइ अविज्ञात ॥ ८१ ॥
अतएव ‘कृष्ण’ – शब्द आगे अनुवाद |
‘स्वयं भगवत्ता’ पिछे विधेय-संवाद ॥ ८२ ॥
कृष्णर स्वयं भगवत्ता – इहा हैल साध्य ।
स्वयं भगवानेर कृष्णत्व हैल बाध्य ॥ ८३ ॥

सूत गोस्वामीके वाक्यकी विपरीत होनेकी सम्भावना :-
कृष्ण यदि अंश हैत, अंशी नारायण।
तबे विपरीत हैत सूतेर वचन ॥ ८४ ॥
नारायण अंशी येह स्वयं भगवान् ।
तेंह श्रीकृष्ण – ऐछे करि तां व्याख्यान ॥ ८५ ॥
अनुवाद – इसी प्रकार इस श्लोकमें वर्णित ये सब ‘अवतार’ हैं, यह बात सभी जानते हैं। किन्तु वे किनके अवतार हैं, यह अभी अज्ञात है। पहले ‘एते शब्दसे अवतारके विषयमें कहा जा रहा है, इसलिये यह अनुवाद है। ‘पुरुषके अंश’ बादमें कहा गया है, इसलिये वह विधेय है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण अवतारोंमें सम्मिलित हैं, यह सभी जानते हैं, किन्तु उनका विशेष ज्ञान अभी तक अज्ञात है। इसलिये ‘कृष्ण’ शब्द पहले कहनेसे उसे अनुवाद मानना होगा और ‘स्वयं भगवान् बादमें कहनेसे वह विधेय है। इस प्रकार श्रीकृष्णकी स्वयं भगवत्ता प्रमाणित हुई है और ‘स्वयं भगवान्‌का कृष्णत्व’ कहना अनुचित है। यदि श्रीकृष्ण अंश और नारायण अंशी होते, तो सूत गोस्वामीजीका वाक्य विपरीत होता । तब सूत गोस्वामीजी ऐसी व्याख्या करते कि नारायण अंशी हैं और स्वयं भगवान् हैं एवं वे ही श्रीकृष्णके रूपमें अवतरित हुए हैं॥ ७९-८५ ॥

चार प्रकारके दोषोंसे रहित मुक्तपुरुषके वाक्योंके लक्षण और विशेषता-
भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा करणापाटव।
आर्ष- विज्ञवाक्ये नाहि दोष एइसब ॥ ८६ ॥
अनुवाद-भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा और करणापाटव- ये चार दोष विद्वान ऋषियोंके वाक्योंमें नहीं होते हैं ॥ ८६ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – “एते चांशकलाः ” श्लोक में ‘एते’ शब्द से ‘अवतारगण’ उनका अनुवाद हुआ है। वे पुरुषावतारके अंश हैं, यह पहले अज्ञात है, इसलिये इसे विधेयरूपमें बादमें कहा गया है। इस पदमें श्रीकृष्णको अवतारोंमें मध्य जाना गया, किन्तु श्रीकृष्णके विषयमें विशेष ज्ञान नहीं जाननेके कारण विधेयका वर्णन हुआ है। इसलिये ‘कृष्ण’ शब्द पहले ‘अनुवाद’ कहकर, श्रीकृष्ण ‘स्वयं भगवान्’ हैं, यह उसका ‘विधेय’ है। ‘श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवान् हैं – यहाँ विचारके द्वारा यह सिद्ध होगा। इसलिये ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयं’ इस वाक्यमें ‘श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवान् हैं’ यही अर्थ होगा अर्थात् इस अर्थके अतिरिक्त दूसरा कोई अर्थ हो नहीं सकता। यदि नारायण अंशी और कृष्ण उनके अंश होते, तो सूत गोस्वामीका वाक्य विपरीत होता । अर्थात् “स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं” इस प्रकार विपरीत अर्थ होता; किन्तु आर्ष अर्थात् ऋषिके द्वारा कहे गये विज्ञवाक्योंमें भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा और करणापाटव, ये चार प्रकारके दोष नहीं रहनेके कारण उन्होंने ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयं ही कहा है। भ्रम- मिथ्याज्ञान; प्रमाद – अनवधानता (असावधानता); विप्रलिप्सा – चित्तका अन्यत्र विक्षेप करणापाटव- इन्द्रियोंकी अपटुता ॥ ८०-८६ ॥

अनुभाष्य- ‘भ्रम’ अर्थात् जो वस्तु जैसी नहीं है, उसके विषयमें मिथ्या ज्ञान करना; जैसे – रस्सीमें सौंपका भ्रम होना अथवा सीपमें रजतका भ्रम होना । ‘प्रमाद’ अर्थात् असावधानी, एक बातकी किसी दूसरे प्रकारसे उपलब्धि करना, श्रवण करना या कहना । विप्रलिप्सा अर्थात् धोखा देनेकी इच्छा। करणापाटव अर्थात् इन्द्रियोंकी असम्पूर्णता; जैसे आँखोंसे दूरकी वस्तु अथवा बहुत छोटी वस्तुको ना देख पाना, पीलिया आदि रोग होनेपर किसी वस्तुके रंग या रूपमें उलट-फेर देखना और कार्नोसे बहुत दूरसे आ रही ध्वनिको नहीं सुन पाना ॥ ८६ ॥

विरुद्धार्थ कह तुमि कहिते कर रोष ।
तोमार अर्थे अविमृष्टविधेयांश – दोष ॥ ८७ ॥
अनुवाद – ( ग्रन्थकार श्रीकृष्णदास अन्यथा तर्क करनेवालोंसे कह रहे हैं ) – तुम श्लोकका विपरीत अर्थ कह रहे हो और ऐसा कहकरने पर तुम क्रोध भी कर रहे हो, जबकि तुम्हारे अर्थमें ‘अविमृष्टविधेयांश’ दोष है ॥ ८७ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – अनुवाद ना कहकर विधेय पहले कहनेसे जो दोष होता है, उसे ‘अविमृष्ट-विधेयांशदोष’ कहते हैं। अविमृष्टका अर्थ है- अविचारित अर्थात् बिना विचार किये ॥ ८७ ॥

अनुभाष्य- ‘अविमृष्ट-विधेयांश – विधेयांश अर्थात् अज्ञात वस्तु जहाँपर मुख्यरूपमें निर्दिष्ट नहीं हो, वहाँ अविमृष्ट-विधेयांश दोष होता है। इसे ‘विधेयाविमर्श’ भी कहते हैं ।॥ ८७ ॥

‘स्वयं भगवान्’ शब्दका अर्थ और संज्ञा :-
यार भगवत्ता हैते अन्येर भगवत्ता ।
‘स्वयं भगवान्’ – शब्दर ताहातेइ सत्ता ॥ ८८ ॥
अनुवाद – जिनकी भगवत्तासे दूसरोंकी भगवत्ता साधित होती है, वे ही ‘स्वयं भगवान्’ नामसे कहलाने योग्य हैं ॥ ८८ ॥

अवतारी और अवतारका दृष्टान्त :-
दीप हैते येछे बहु दीपेर ज्वलन ।
मूल एक दीप ताहा करिये गणन ॥ ८९ ॥
तैछे सब अवतारेर कृष्ण से कारण।
आर एक श्लोक शुन, कुव्याख्या – खण्डन ॥ ९० ॥
अनुवाद – जिस प्रकार एक दीपकसे बहुत सारे दीपको प्रज्वलित किया जाय, किन्तु उस
एक ही दीपककी मूल दीपकके रूपमें गणना की जाती है। उसी प्रकार सभी अवतारोंका मूल कारण श्रीकृष्ण हैं। इसकी विपरीत व्याख्याका खण्डन करनेके लिये एक और श्लोक श्रवण करो ॥ ८९-९०॥

अनुभाष्य – ब्रह्मसंहिता पाँचवाँ अध्याय श्लोक संख्या ४६- “दीपारेिव हि दशान्तरमभ्युपेत्य दीपायते विवृत्तहेतुसमानधर्मा ।
यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभाति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥’

विष्णुतत्त्व सर्वत्र ही दीपककी भाँति आलोकमय और मूल नारायणके समानधर्मा हैं। वैसा होनेपर भी वे सब मूल दीपकसे ही प्रकाशमान हैं। विष्णुतत्त्व जिस प्रकार श्रीगोविन्दके साथ ज्योतिरूप (प्रकाशमान) अंशमें समान हैं, ब्रह्मा और शम्भुतत्त्व गुणावतार होनेपर उस प्रकार नहीं हैं। श्रील श्रीजीवगोस्वामी कहते हैं,
“ शम्भोस्तु तमोऽधिष्ठानात् कज्जलमयसूक्ष्मदीप शिखास्थानीयस्य न तथा साम्यम्।”

अर्थात् “श्रीशम्भु तमोगुणका अधिष्ठान होनेके कारण वे विष्णुरूप दीपककी काजलमय सूक्ष्म शिखाके समान हैं, उक्त दीपकसे उनका साम्य नहीं हैं। ” ॥ ८९ ॥

(घ) पुराण – लक्षण विचारसे भी नारायणके बदले श्रीकृष्णका मूलाश्रयत्व :- श्रीमद्भागवत (२/१०/१-२)-
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥ ९१ ॥
दशमस्य विशुद्धयर्थं नवानामिह लक्षणम् ।
वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाअसा ॥ ९२ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ ९१-९२॥
अमृतप्रवाह भाष्य – इस श्रीमद्भागवत शास्त्रमें सर्ग, विसर्ग, स्थान, ऊति, पोषण, मन्वन्तर, ईशकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय इन दस विषयोंका वर्णन हुआ है। दशमतत्त्व जो आश्रयतत्त्व है, उसकी विशुद्ध आलोचनाके लिये पूर्व नौ लक्षणों को महात्माओंने किसी-किसी स्थानमें स्तुति और आख्यानके (युक्तिपूर्ण कहानीके) छलसे एवं किसी स्थानमें साक्षात् विचारके द्वारा वर्णन किया है ॥ ९१-९२॥

अनुभाष्य – विराट् पुरुषसे किस प्रकार राजस – सृष्टिसमूह उदित हुए, परीक्षित महाराजके इस प्रश्न के उत्तरमें शुकदेवजीने चतुःश्लोकीकी व्याख्याके प्रारम्भमें यह श्लोक कहा-

अत्र (श्रीमद्भागवते) सर्गः (भूतमात्रेन्द्रियधियां जन्म), विसर्ग: (ब्रह्मणो गुणवैषम्यं), स्थानं ( भगवतः विजयः सृष्टानां तत्तन्मर्यादापालनेन उत्कर्षः स्थितिः) पोषणं ( स्वभक्तेषु तस्य अनुग्रहः), ऊत्तयः (कर्मवासनाः), मन्वन्तरेशानुकथाः (मन्वन्तराणि सात्विकधर्माणि ईशानुकथाः हरे अवतारकथाः), निरोधः (अस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः) मुक्तिः (शुद्धावस्थितिः) आश्रयः (जन्मस्थितिलयकारणं परब्रह्म परमात्मा ) [ इति दश अर्थाः ] |

श्लोक- भावानुवाद-श्रीमद्भागवतमें सर्ग (पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा, एकादश इन्द्रियाँ, बुद्धि आदिकी उत्पत्ति), विसर्ग (ब्रह्माके द्वारा गुणकी विषमता) स्थान ( भगवान् की सृष्टि संहार आदि कार्यरूप मर्यादा पालन करनेवाले ब्रह्मा – शिवादि देवताओंपर विजय अर्थात् उनसे ऊँची स्थिति), पोषण (निजभक्तोंपर कृपा), ऊति (कर्मवासना), मन्वन्तर (सात्त्विक जीवोंके द्वारा आचरणीय धर्म), ईशानुकथा ( भगवान् श्रीहरिके अवतारोंकी कथा) निरोध (अपनी शक्तियों के साथ श्रीहरिकी योगनिद्रा), मुक्ति (मायाके संसर्गसे परे जीवकी अपने स्वरूपमें स्थिति), आश्रय ( सृष्टिके जन्म, पालन और संहारके मूल कारण परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण); ये दस लक्षण हैं।

क. सर्ग – पञ्चमहाभूत, पञ्च तन्मात्रा, दस इन्द्रियाँ, मन, महत्तत्त्व और अहङ्कार, इन सबकी विराट् रूपसे एवं स्वरूपसे जो उत्पत्ति |
ख. विसर्ग- ब्रह्माके द्वारा चर-अचर सृष्टि ।
ग. स्थिति – भगवान्की विजय अर्थात् सृष्टिकर्त्ता ब्रह्माजी और संहारकारी शिवजीसे उत्कर्ष । घ. पोषण – अपने भक्तोंके प्रति भगवान्‌का अनुग्रह ।
ङ. ऊति – कर्मवासना ।
च. मन्वन्तर – सात्त्विक जीवोंके द्वारा आचरणीय धर्म ।
छ. ईशकथा – श्रीहरिके अवतारोंकी कथा और भागवतों (भक्तों) की कथा ।
ज. निरोध – श्रीहरिकी योगनिद्रा समयमें उनका अपनी उपाधियों और शक्तियोंके साथ शयन ।
झ. मुक्ति-स्थूल और सूक्ष्म देह त्यागकर जीवकी शुद्धस्वरूपमें अथवा पार्षदरूपमें अवस्थिति ।

ब. आश्रय – जिनसे सृष्टि होती है और जिनमें ही लय होती है तथा जिनसे विश्व प्रकाशित होता है, वही प्रसिद्ध परब्रह्म और परमात्मा ॥ ९१ ॥

महात्मनः (विदुरादयः) इह (श्रीमद्भागवते पुराणे) दशमस्य (आश्रयस्य) विशुद्धयाचं (तत्त्वज्ञानार्थ) नवानां लक्षणं (स्वरूपं श्रुतेन (तद्वाचक शब्देन ) अञ्जसा (साक्षात् ) अर्थेन (तात्पर्येण वर्णयन्ति ।

श्लोक – भावानुवाद – विदुरादि महात्माओंने इस श्रीमद्भागवत पुराणमें दशम लक्षण अर्थात् आश्रयके तत्त्वज्ञानके लिये अन्य नौ लक्षणोंका (कहीं) श्रुतियोंके वर्णनानुसार व्यतिरेक भावसे और (कहीं) साक्षात् अर्थके द्वारा वर्णन किया है ॥ ९२ ॥

आश्रय जानिते कहि ए नव पदार्थ ।
ए नवेर उत्पत्ति हेतु सेइ आश्रयार्थ ॥ ९३ ॥
कृष्ण एक सर्वाश्रय, कृष्ण सर्वधाम ।
कृष्णेर शरीरे सर्व विश्वेर विश्राम ॥ ९४ ॥
अनुवाद – आश्रय तत्त्वको जाननेके लिये इन नौ पदार्थोंका वर्णन किया गया है और इन नौ पदार्थोंकी उत्पत्तिका कारण होनेसे उसे आश्रय कहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ही सभीके एकमात्र आश्रय तथा आधार स्वरूप हैं। श्रीकृष्णका शरीर ही सम्पूर्ण विश्वका विश्राम स्थल है॥ ९३-९४ ॥

श्रीमद्भागवत १०/१/१ श्लोककी भावार्थ दीपिका-
दशमे दशमं लक्ष्यमाश्रिताश्रयविग्रहम् ।
श्रीकृष्णाख्यं परं धाम जगद्धाम नमामि तत् ॥ ९५ ॥
अनुवाद – श्रीकृष्ण नामक दशम पदार्थ ही भागवतके दशम स्कन्धका लक्ष्य हैं, वे आश्रितोंके आश्रयविग्रह स्वरूप हैं, परमधाम और जगत् के आधार स्वरूप हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ॥ ९५ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – दशमस्कन्धमें आश्रितजनोंके आश्रय-विग्रहस्वरूप श्रीकृष्णको लक्षित किया गया है। उन्हीं श्रीकृष्ण नामक परमधाम और जगद्धामको मैं नमस्कार करता हूँ। तात्पर्य यह है कि जगत्में आश्रय और आश्रित नामक दो प्रकारके तत्त्व हैं। जिसको आश्रय करके समस्त आश्रिततत्त्व विद्यमान हैं, वही मूलतत्त्व ही आश्रय है । उसी तत्त्वका आश्रय करके जो सभी तत्त्व हैं, वे सभी आश्रित तत्त्व हैं। सर्गसे मुक्ति तक (प्रथम नौ पदार्थ) समस्त आश्रित-तत्त्व हैं, इसलिये पुरुषावतार और उनके अनुगत सभी अवतार, समस्त शक्तियाँ और उनके अनुगत जीव और जड़ जगत्, सभी उन्हीं श्रीकृष्णरूप आश्रयके आश्रित हैं। भागवतमें स्तव और उपाख्यानके छलसे कुछ गौणरूपमें और साक्षात् उपदेशके रूपमें स्पष्टरूपसे आश्रयतत्त्वका ही विचार किया गया है। इसलिये श्रीकृष्णके स्वरूपका और उनकी तीनों शक्तियोंका ज्ञान नितान्त आवश्यक है ॥ ९५ ॥

अनुभाष्य – दशमे (श्रीमद्भागवत – दशमस्कन्धे) आश्रिताश्रयविग्रहं (आश्रितानां प्रपन्नानां आश्रयविग्रहं ) दशमम् (आश्रयतत्त्वं) लक्ष्यम्। तत् परं धाम ( श्रेष्ठाश्रयं जगद्धाम (सर्वाश्रय) श्रीकृष्णाख्यं नमामि ।

श्लोक- भावानुवाद – श्रीमद्भागवतके दशमस्कन्धमें शरणागतके आश्रयविग्रह आश्रयतत्त्वको लक्ष्य किया गया है। उस श्रेष्ठ आश्रय और जगद्धाम (सभीके आश्रय) श्रीकृष्णको प्रणाम करता हूँ॥ ९५ ॥

कृष्णज्ञानकी मूलकथा :-
कृष्णेर स्वरूप, आर शक्तित्रय ज्ञान ।
यार हय तौर नाहि कृष्णेते अज्ञान ॥ ९६ ॥
अनुवाद – श्रीकृष्णके स्वरूप और उनकी तीनों शक्तियोंका ज्ञान जिनको हो जाता है, उनको श्रीकृष्णके विषयमें अज्ञान नहीं रहता है ॥ ९६ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – ‘शक्तित्रय’ – चित्शक्ति, जीवशक्ति और मायाशक्ति, ये तीन शक्तियाँ हैं॥ ९६ ॥

अनुभाष्य- श्रीजीवप्रभुकृत भगवत्सन्दर्भ अन्तर्गत संख्या १६ में-
“एकमेव तत् परमतत्त्वं स्वाभाविकाचिन्त्यशक्तया सदैव स्वरूप – तद्रूप – वैभव- जीव- प्रधानरूपेण चतुर्द्धावतिष्ठते- सूर्यान्तमण्डलस्थतेज इव मण्डल – तद्वहिर्गतरश्मि-तत्प्रतिच्छविरूपेण । दुर्घटघटकत्वं ह्यचिन्त्यत्वम् । शक्तिश्च सा त्रिधा – अन्तरङ्गा, तटस्था बहिरङ्गा च तत्रान्तरङ्गया स्वरूपशक्तयाख्यया सूर्यतन्मण्डलस्थानीय पूर्णेनैव स्वरूपेण वैकुण्ठादिस्वरूपवैभवरूपेण च तदवतिष्ठते, तटस्थया रश्मिस्थानीय चिदेकात्मशुद्ध जीवरूपेण, बहिरङ्गया मायाख्यया प्रतिच्छविगत – वर्णशावल्यस्थानीय तदीयबहिरङ्गवैभवजात्म-प्रधान रूपेण चेति चतुर्द्धात्वम् । अतएव तदात्मकत्वेन जीवस्यैव तटस्थशक्तित्वं प्रधानस्य च मायान्तर्भूतत्वमभिप्रेत्य शक्तित्रयं विष्णुपुराणे गणितम् । अविद्या कर्म कार्य यस्याः सा तत्संज्ञा मायेत्यर्थः । यद्यपीयं बहिरङ्गा, तथाप्यस्यास्तटस्थशक्तिमयमपि जीवमावरितुं सामर्थ्यमस्तीति । तारतम्येन तत्कृतावरणस्य ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु देहेषु लघुगुरुभावेन वर्त्तते । ययैव अचिन्त्यमायया चिद्रूपतानिर्विकारतादि-गुणरहितस्य प्रधानस्य जड़त्वं विकारित्वञ्चेति ज्ञेयम् । अत्रान्तरङ्गत्व- तटस्थत्व – बहिरङ्गत्वादिनां तेषामेकात्मकानां तत्तत्साम्यं न तु सर्वात्मनेति तत्तत्स्थानियत्वमेवोक्तं न तु तत्तद्रूपत्वम्। ततस्तत्तदोषा अपि नावकाशं लभन्ते ।”

अर्थात् “वही एकमात्र परमतत्त्व अपनी स्वाभाविक, मनुष्यकी बुद्धिसे परे अचिन्त्य – शक्तिबल स्वरूप, तद्रूपवैभव, जीव और प्रधान, इन चार रूपोंमें सर्वदा अवस्थान करते हैं। उदाहरणके लिये उस परमतत्त्वकी सूर्यसे समानता दिखलायी है। जैसे सूर्यदेव (व्यक्ति), अन्तर्मण्डलमें स्थित तेजके समान सूर्यमण्डल, मण्डलसे निकलती किरणें और दूर स्थानपर सूर्यकी प्रतिच्छवि, इन चार रूपोंमें सूर्यकी प्रतीति होती है, वैसी ही उस परमतत्त्वकी ऊपरोक्त चार रूपोंमें प्रतीति होती है। असम्भवको सम्भव बनाना ही अचिन्त्य शक्तिका प्रभाव है। परमतत्त्वकी शक्तियाँ तीन प्रकारकी हैं— अन्तरङ्गा, तटस्था और बहिरङ्गा । इनमेंसे अन्तरङ्गा स्वरूप शक्तिके प्रभावसे पूर्णस्वरूप – विग्रह और वैकुण्ठ- गोलोकादि स्वरूप – वैभव (सूर्यके उदाहरणमें जैसे सूर्यदेव और सूर्यमण्डल); तटस्थाशक्तिके प्रभावसे वे किरणरूप चिन्मयशुद्ध- जीव विग्रह और बहिरङ्गा मायाशक्तिके प्रभावसे वैकुण्ठकी प्रतिछविरूपमें जड़प्रधान बहिरङ्गवैभव (असंख्य ब्रह्माण्डों) को प्रकाश करते हैं। इस प्रकार वे परमतत्त्व अपनी तीन शक्तियोंके द्वारा स्वयंको इन चार रूपोंमें प्रकाशित करते हैं। इसलिये परमतत्त्वकी स्वयंकी शक्ति होनेपर भी जीवको तटस्था – शक्तिका प्रकाश और प्रधानको मायाके अन्तर्भुक्त गणना करके विष्णु पुराणमें तीन प्रकारकी शक्तियोंका वर्णन है। जो अविद्याका विस्तार करती है, उसीका नाम ही माया है। यद्यपि यह शक्ति बहिरङ्गा है, तो भी तटस्थ – शक्तिमय जीवको आवरण करनेकी क्षमता उसमें निहित की गयी है । मायाके द्वारा आवृत होकर जीव पत्थर वृक्षादि (अचल वस्तुएँ जिनमें चेतनता लगभग पूर्णरूपसे ढकी होती हैं) से लेकर ब्रह्मा (जिनमें चेतनताका परम विकास है) तक सभी देहोंमें विद्यमान हैं। चिद्रूपत्व और विकार रहितादि गुणरहित प्रधानका जड़त्व और विकार – विशिष्टता उस अचिन्त्य – मायाके द्वारा ही घटित होती है, ऐसा जानना होगा। एक ही परमतत्त्वकी शक्ति होनेके कारण अन्तरङ्गा, तटस्था और बहिरङ्गा शक्तियोंमें समानता रहनेपर भी वे सम्पूर्णरूपमें परस्पर समान नहीं हैं, अर्थात् उनकी क्रियाएँ भिन्न-भिन्न हैं। इसलिये तटस्था शक्तिसे प्रकटित जीवमें और बहिरङ्गा शक्तिसे प्रकटित जड़ जगत्में जो दोष हैं, उनका अन्तरङ्गा शक्तिसे प्रकाशित चिन्मय जगतमें होनेकी सम्भावना नहीं है। इसी प्रकार बहिरङ्गाके दोष तटस्थामें तथा तटस्थाके दोष बहिरङ्गामें नहीं हो सकते॥ ९६ ॥

श्रीकृष्णके छह प्रकारके विलास
(१) दो प्रकारके प्रकाश :-
कृष्णर स्वरूपेर हय षडूविध विलास ।
प्राभव- वैभव-रूपे द्विविध प्रकाश ॥ ९७ ॥

(२) दो प्रकारके अवतार, (३) दो प्रकारके वयस धर्म :-
अंश – शक्त्यवेशरूपे द्विविधावतार |
बाल्य – पौगण्ड – धर्म दुइ त प्रकार ॥ ९८ ॥
किशोरस्वरूप कृष्ण स्वयं अवतारी ।
क्रीड़ा करे एइ छय रूपे विश्व भरि ॥ ९९॥

विलासमें लीलाभेद होनेपर भी तत्त्वतः अभेद :-
एइ छय रूपे हय अनन्त विभेद ।
अनन्तरूपे एकरूप, नाहि किछु भेद ॥ १००॥

अनुवाद – स्वयंरूपके अतिरिक्त श्रीकृष्ण अन्यान्य छह प्रकारके रूपोंमें विलास करते हैं। दो प्रकारके प्रकाश – प्राभव और वैभव रूपसे दो प्रकारके अवतार – अंशावतार और शक्त्यावेशावतार रूपसे और बाल्य – धर्मयुक्त एवं पौगण्ड – धर्मयुक्त विग्रहसे इन छह रूपोंमें वे विश्वभरमें लीलाएँ करते हैं। किशोरस्वरूप श्रीकृष्ण ही स्वयं अवतारी हैं। इन छह रूपोंके अन्तर्गत अनन्त विभेद हैं, किन्तु इन अनन्तरूपोंमें लीला करते हुए श्रीकृष्ण एक ही रूप हैं। श्रीकृष्णसे इनका कुछ भी भेद नहीं है ॥ ९७-१००॥

अमृतप्रवाह भाष्य-जिनकी हरिके समान ही सच्चिदानन्दमयमूर्ति है, परन्तु स्थिति परावस्था किञ्चित्मात्र कम है, उनको प्राभव और वैभव प्रकाश कहा जाता है। शक्तिके तारतम्यके अनुसार जिनमें प्रभुताकी प्रधानता है, उनको ‘प्राभव’ और जिनमें विभुताकी प्रधानता है, उनको ‘वैभव’ कहा जाता है। प्राभव प्रकाश दो प्रकारके हैं- एक जो चिरस्थायी नहीं हैं, जैसे मोहिनी- हंस- शुक्लादि अचिरस्थायी अवतार हैं, जो युगके अनुसार अवतरित होते हैं। दूसरे प्रकारके प्राभव प्रकाशकी कीर्तिका अधिक विस्तार नहीं होता है, जैसे धन्वन्तरी, ऋषभ, व्यास, दत्तात्रेय, कपिलादि । कूर्म, मत्स्य, नर नारायण, वराह, हयग्रीव, पृश्निगर्भ, बलदेव और चौदह मन्वन्तरावतार (यज्ञ, विभु, सत्यसेन, हरि, वैकुण्ठ, अजित, वामन, सार्वभौम, ऋषभ, विष्वक्सेन, धर्मसेतु, सुधामा, योगेश्वर और बृहद्भानु) ये वैभवावतार हैं। अंशावेश और शक्त्यावेश – अवतारोंकी व्याख्या दूसरे स्थानपर हुई है। इनकी भी प्राभव – वैभवके मध्य गिनती होती है। साथ ही साथ गुणावतारोंकी भी ऐसी ही स्थिति है। नित्य किशोरस्वरूप श्रीकृष्णकी बाल्य और पौगण्ड अवस्थाकी दो प्रकारकी लीलाएँ हैं। इसलिये किशोरस्वरूप श्रीकृष्ण ही स्वयं अवतारी हैं। किशोरस्वरूप श्रीकृष्ण इन छह प्रकारके स्वरूप विलाससे विश्वभरमें लीला करते हैं। इन छह रूपोंके अनन्त विभेद हैं, परन्तु अनन्त होकर भी श्रीकृष्ण एक ही अखण्ड तत्त्व हैं॥ ९७-१००॥

चित् शक्ति और उसका वैभव :-
चिच्छक्ति, स्वरूपशक्ति, अन्तरङ्गा नाम ।
ताहार वैभव अनन्त वैकुण्ठादि धाम ॥ १०१ ॥

मायाशक्ति और उसका वैभव :-
मायाशक्ति बहिरङ्गा जगत्कारण ।
ताहार वैभव अनन्त ब्रह्माण्डेर गण ॥ १०२ ॥

जीवशक्ति :-
जीवशक्ति तटस्थाख्य नाहि यार अन्त ।
मुख्य तिनशक्ति, तार विभेद अनन्त ॥ १०३ ॥
अनुवाद – चित्शक्तिको स्वरूपशक्ति और अन्तरङ्गा शक्ति भी कहा जाता है, अनन्त वैकुण्ठादि धाम उसके वैभव स्वरूप हैं। मायाशक्तिको बहिरङ्गा कहा जाता है और वह जगत्का कारण है तथा उसका वैभव ये अनन्त ब्रह्माण्ड हैं। जीवशक्तिका नाम तटस्थाशक्ति भी है, जिसका कोई अन्त नहीं है अर्थात् जीव अनन्त हैं। श्रीकृष्णकी ये तीन मुख्य शक्तियाँ हैं और इनके अनन्त विभेद हैं ॥ १०१-१०३ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – चिच्छक्ति’ – स्वरूपशक्तिका एक दूसरा नाम अन्तरङ्गा शक्ति भी है, उससे ही वैकुण्ठादि धाममें अनन्त वैभव प्रकाश होते हैं। तटस्थाशक्ति नामक जीवशक्तिसे बद्ध और मुक्त अनन्त जीव प्रकाशित होते हैं। बहिरङ्गा अर्थात् मायाशक्तिसे प्राकृत ब्रह्माण्डका अनन्त वैभव है ॥ १०१-१०३॥

अनुभाष्य – श्वेताश्वतर उपनिषद् के अन्तर्गत छठे अध्यायका अष्टम मन्त्र-
“न तस्य कार्य करणच विद्यते न तत् समश्चाभ्याधिकश्च दृश्यते । परास्यशक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च ।”

अर्थात् “उन परमेश्वरकी प्राकृत इन्द्रियाँ आदि नहीं हैं, इसलिये उनके इन्द्रियादि साध्य कार्य भी नहीं हैं। उनके समान अथवा उनसे बड़ी कोई वस्तु नहीं है। उनकी पराशक्ति स्वाभाविकी है और उसके ज्ञान (चित्), बल (सत्) एवं क्रिया (आनन्द) – तीन भेद हैं ॥ १०३॥

अमृतानुकणिका – श्रीकृष्णकी एक परा (स्वरूप) शक्ति है, वह अनन्त रूपोंमें प्रकाशित है। उनमें से तीन शक्तियाँ प्रधान हैं-चित्-शक्ति, जीव-शक्ति और माया- शक्ति । उनको क्रमशः अन्तरङ्गा, तटस्था और बहिरङ्गा शक्ति भी कहते हैं। स्वरूपशक्ति एक होनेपर भी उक्त तीन रूपोंमें कार्य करती है। स्वरूपशक्तिके जो सब नित्य लक्षण हैं, वे चित्- शक्तिमें पूर्ण रूपमें, जीव- शक्तिमें अणु रूपमें तथा माया – शक्तिमें विकृत रूपमें प्रकाशित हैं।

‘चित्-शक्ति’ – चित्-शक्तिका वैभव अनन्त वैकुण्ठ लोक हैं। स्वरूपशक्तिकी तीन प्रकारकी वृत्तियाँ हैं – सन्धिनी, सम्वित् और हादिनी । सत्- अंशकी अधिष्ठात्री शक्तिका नाम सन्धिनी है; सन्धिनी शक्तिके द्वारा भगवान् अपनी सत्ताकी रक्षा करते हैं। सन्धिनी-शक्तिके सारांशका नाम शुद्धसत्त्व है। समस्त भगवद्धाम, उसमें स्थित भगवान्‌का श्रीमन्दिर, शय्या, आसनादि और पिता-माता आदि परिकरवर्ग – ये समस्त ही सन्धिनी प्रधान शुद्धसत्त्वकी परिणति हैं। चित्- अंशकी अधिष्ठात्री शक्तिका नाम सम्वित् है, सम्वित्-शक्तिके द्वारा भगवान् स्वयंको जानते हैं और अन्योंको जनाते हैं। आनन्द – अंशकी अधिष्ठात्री शक्तिका नाम हादिनी है; दिनी – शक्तिके द्वारा भगवान् स्वयं आनन्दका अनुभव करते हैं और भक्तोंको आनन्दका अनुभव कराते हैं। वैकुण्ठके सर्वोपरि लोक निर्मल वृन्दावन धाममें स्वेच्छामय व्रजरस विलासी श्रीकृष्ण नित्य- रससमुद्रमें निमग्न रहते हैं। सम्वित्-वृत्तिके द्वारा प्रकटित भिन्न-भिन्न भावोंसे युक्त होकर प्रणय- रसका आस्वादन करते हैं। वंशी बजाकर उससे गोपियोंको आकर्षण, गोचारण और रास आदि लीलाएँ – ये सब क्रियाएँ श्रीकृष्ण अपनी पराशक्तिकी सम्वित्-वृत्तिके द्वारा सम्पादित करते हैं। श्रीकृष्ण हादिनीके प्रणय विकारमें सदा अनुरक्त रहते हैं ।

‘बहिरङ्गा मायाशक्ति’ – कारण समुद्रके एक ओर चिन्मय भगवद्धाम है और दूसरी ओर जड़मायाका स्थान है। माया सदा ही भगवद्धाम और भगवान् से बाहर अवस्थान करती है, इसलिये यह बहिरङ्गा शक्ति है। भगवान्की स्वरूपानुबन्धिनी लीलामें भी मायाका कोई स्थान नहीं है। यहाँ तक कि भगवान् जब प्रपञ्चमें अवतीर्ण होते हैं, तो भी मायाके साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता । भगवान्‌की स्वरूपशक्तिके अचिन्त्य प्रभावसे माया उनकी शक्ति होनेपर भी भगवान्का स्पर्श भी नहीं कर सकती । मायाकी दो प्रकारकी वृत्तियाँ हैं- प्रधान (गुणमाया) और प्रकृति (जीवमाया)।

सत्त्व, रज और तमः – इन तीन गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृतिको गुणमाया कहते हैं; गुणोंकी साम्यावस्थामें सृष्टि आदि कोई कार्य नहीं होता है। जड़प्रकृतिमें स्वयं कोई क्रिया करनेकी शक्ति नहीं है। ईश्वरशक्तिका उसमें सञ्चार होनेपर ही वह जगत्का सृजन करती है। कारणोदशायी विष्णु जब सृष्टि करनेकी इच्छासे गुणमायापर दृष्टिपातकर उसमें शक्ति सञ्चारित करते हैं, तब गुणोंमें क्षोभ होनेसे गुणमाया महत्तत्त्वादि चौबीस तत्त्वोंके द्वारा अनन्त ब्रह्माण्डोंको प्रकट करती है। अन्यथा भगवत् – शक्तिके अभावमें वह सृष्टि कार्यका सम्पादन नहीं कर सकती। प्राकृत जगत्का मुख्य निमित्त कारण और मुख्य उपादान कारण ईश्वर होनेपर भी माया ही गौण निमित्त – कारण और गौण उपादान – कारण है।

जीवमायाकी दो प्रकारकी शक्तियाँ हैं- आवरणात्मिका और विक्षेपात्मिका । जिस शक्तिके द्वारा जीवमाया बहिर्मुख जीवके (नित्य कृष्णदास) स्वरूपको आवृत करती है, उसे आवरणात्मिका शक्ति कहते हैं। और जिस शक्तिके द्वारा जीवमाया मायिक वस्तुमें बहिर्मुख जीवके अभिनिवेशको उत्पन्न करती है, उसे विक्षेपात्मिका शक्ति कहते हैं।

अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड बहिरङ्गा मायाशक्तिका वैभव हैं; बहिरङ्गा मायाशक्ति शक्तिमान् श्रीकृष्णके ही आश्रित है, इसलिये मायाशक्तिके वैभवरूप ब्रह्माण्ड समूह भी श्रीकृष्णके आश्रित और श्रीकृष्ण उनका आश्रय हैं- पयार संख्या १०२ में यही व्यज्जित हुआ है।

मायाशक्तिमें हादिनी – वृत्ति जानन्दके रूपमें, सम्वित्-वृत्ति भौतिक – ज्ञानके रूपमें तथा सन्धिनीशक्ति सम्पूर्ण जड़ ब्रह्माण्डों तथा जीवोंके जड़ शरीरोंके रूपमें प्रकाशित हैं।

‘जीव – शक्ति’ – अनन्त कोटि जीव भगवान्‌की जिस शक्तिका वैभव हैं, उसे जीव-शक्ति कहते हैं। गीता (७/५ ) –
“अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धिमें पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
अर्थात् “किन्तु आठ भेदोंवाली यह जड़ा प्रकृति निकृष्टा है। इससे उत्कृष्ट जीवस्वरूपा मेरी एक और प्रकृति जानो, जिसके द्वारा यह जगत् अपने कर्मके द्वारा भोगनेके लिये गृहीत होता है।”

गीताके इस वाक्यके अनुसार जीव ईश्वरकी प्रकृति विशेष है अर्थात् जीव ईश्वरकी शक्ति है। जलती हुई अग्निसे जैसे अनेकों क्षुद्र चिङ्गारियाँ उड़ती हैं, ठीक उसी प्रकार चित् – सूर्यस्वरूप श्रीहरिके किरण-कण स्थानीय चित्-परमाणु-स्वरूप अनन्त जीव हैं। श्रीहरिसे अभिन्न होते हुए भी ये जीव उनसे नित्य भिन्न हैं। ईश्वर और जीवमें नित्य भेद यह है कि ईश्वर मायाशक्ति अर्थात् प्रकृतिके अधीश्वर हैं और जीव मुक्त अवस्थामें भी अपने स्वभावके अनुसार माया प्रकृतिके अधीन होने योग्य होता है।

जीवशक्ति जड़शक्तिसे श्रेष्ठ चेतनामयी है, इसलिये यह बहिरङ्गा मायाशक्ति भी नहीं है और मायाशक्तिके अन्तर्भुक्त भी नहीं है। सूर्यकी किरण जिस प्रकार सूर्यके भीतर नहीं रहती, उसी प्रकार भगवान्की किरणकण – स्थानीय जीवशक्ति भी स्वरूपशक्तिके समान भगवान्में अवस्थान नहीं करती है। इसलिये जीवशक्ति स्वरूपशक्ति नहीं है और स्वरूपशक्तिके अन्तर्भुक्त भी नहीं है। जीवशक्तिको इस कारणसे तटस्था – शक्ति भी कहा गया है।

स्थानको ‘तट’ कहा जाता है। परन्तु जलसे लगा हुआ स्थान ही भूमि है। फिर ‘तट’ कहाँ रहा? ‘तट’ – जल और भूमिके बीच दोनोंको विभक्त करनेवाली रेखा विशेष है। यह तट रेखा स्थूल नेत्रोंसे दिखायी नहीं पड़ती । चित् जगत्को जल और मायिक जगत्को भूमि मान लेनेपर दोनोंको विभक्त करनेवाली सूक्ष्म रेखा ही ‘तट’ है। सन्धि स्थानपर जीवशक्तिकी स्थिति है।

अनन्त कोटि ब्रह्माण्डोंमें अनन्त कोटि जीव और अप्राकृत भगवद्धाममें साधन – सिद्ध और नित्यसिद्ध जीव- सभी भगवान्की जीव-नामक तटस्था शक्तिका वैभव हैं, और जीवशक्ति शक्तिमान् श्रीकृष्णके आश्रित है, यह इस आधे पयार (संख्या १०३) में व्यज्जित हुआ है ॥ १०१-१०३॥

स्वरूप एवं शक्तिवगका अवस्थान :-
एइ त स्वरूपगण, आर तिन शक्ति ।
सवार आश्रय कृष्ण, कृष्णे सबार स्थिति ॥ १०४ ॥
यद्यपि ब्रह्माण्डगणेर पुरुष आश्रय ।
सेइ पुरुषादि – सवार कृष्ण मूलाश्रय ॥ १०५ ॥
अनुवाद – श्रीकृष्ण इन सभी स्वरूपों अर्थात् पूर्वोक्त छह प्रकारके विलास और इन तीनों शक्तियोंके आश्रय हैं तथा श्रीकृष्णमें ही सभीकी स्थिति है। यद्यपि तीन पुरुषावतार सभी ब्रह्माण्डोंके आश्रय हैं, किन्तु उनके भी मूल आश्रय श्रीकृष्ण ही हैं॥ १०४-१०५॥

श्रीकृष्णका परिचय :-
स्वयं भगवान् कृष्ण, कृष्ण सर्वाश्रय ।
परम ईश्वर कृष्ण सर्वशास्त्रे कय ॥ १०६ ॥
अनुवाद – श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवान् और सभीके आश्रय हैं तथा सभी ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं, यह बात सभी शास्त्रोंमें कही गयी है ॥ १०६ ॥

ब्रह्मसंहिता (५/१) –
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिगविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥ १०७ ॥
अनुवाद – अमृतप्रवाह भाष्य द्रष्टव्य है ॥ १०७ ॥
अमृतप्रवाह भाष्य – सच्चिदानन्द-विग्रह श्रीकृष्ण ही परमेश्वर हैं; वे स्वयं अनादि और सभीके आदि एवं समस्त कारणोंके कारण हैं ॥ १०७ ॥

अनुभाष्य- कृष्णः (ब्रजेन्द्रनन्दनः) परमः ईश्वर (बलदेव नारायण वासुदेव सङ्कर्षण- प्रद्युम्नानिरुद्ध- कारणगर्भक्षीरार्णवत्रयशायि – परमात्म-पुरुषावतार मत्स्यकूर्मवराह – रामनृसिंहादि नैमित्तिकावतार – ब्रह्मा- शिवादि गुणावतार – निर्विशेष ब्रह्म- महेन्द्रादि विभूत्यवताराणां सर्वेषां पतिः) सच्चिदानन्द-विग्रह: (सन्धिनी-सम्वित्-हादिनी शक्तित्रय समन्वितः ) अनादिः (आदिरहितः – अहमेवासमेवाग्रे इति पदवाच्यः) आदिः (सर्वेषां मूलरूपः ) सर्वकारणकारणं (सर्वकारणानां कारणं मूल) गोविन्दः ।

श्लोक – भावानुवाद – (ब्रजेन्द्रनन्दन ) श्रीकृष्ण (बलदेव, नारायण वासुदेव सङ्कर्षण- प्रद्युम्न – अनिरुद्ध, कारणोदकशायी-गर्भोदकशायी-क्षीरोदकशायी – तीनों पुरुषावतार, मत्स्य- कूर्म-वराह-राम-नृसिंहादि नैमित्तिकावतार, ब्रह्मा – शिवादि गुणावतार, निर्विशेष ब्रह्म, महेन्द्रादि – विभूति अवतार आदि) सभीके ईश्वर हैं। वे सच्चिदानन्द-विग्रह ( सन्धिनी, सम्वित् और हादिनी इन शक्तियोंसे युक्त), अनादि (जैसे ‘अहमेवासमेवाग्रे श्लोकमें कहा गया है), आदि (सभीके मूलरूप) तथा सभी कारणोंके मूल कारण श्रीगोविन्द हैं ॥ १०७॥

ए सब सिद्धान्त तुमि जान भालमते ।
तबु पूर्वपक्ष कर आमा चालाइते ॥ १०८॥
अनुवाद – ये सब सिद्धान्त तुम अच्छी तरह जानते हो, तो भी मुझे वृथा उद्वेग देनेके लिये व्यर्थ तर्क कर रहे हो ॥ १०८ ॥

अमृतप्रवाह भाष्य – ‘चालाइते – वृथा उद्वेग देनेके लिये ॥ १०८॥

श्रीचैतन्य ही स्वयं अवतारी श्रीकृष्ण :-
सेइ कृष्ण अवतारी व्रजेन्द्रकुमार ।
आपने चैतन्यरूपे कैल अवतार ॥ १०९॥

अनुवाद – वे ही अवतारी व्रजेन्द्रकुमार श्रीकृष्णचन्द्र ही स्वयं चैतन्य महाप्रभुके रूपमें अवतरित हुए हैं ॥ १०९॥

अवतारी श्रीचैतन्य में सभी अवतार अन्तर्भुक्त
अतएव चैतन्य गोसानि परतत्त्व – सीमा ।
ताँरे क्षीरोदशायी कहि, कि ताँर महिमा ॥ ११० ॥
अनुवाद – इसलिये चैतन्य महाप्रभु परतत्त्वकी चरम सीमा हैं । तब उनको क्षीरोदशायी विष्णु कहनेसे क्या उनकी वास्तविक महिमा प्रकाशित होती है ? ॥११०॥

अनुभाष्य – श्रीचैतन्यभागवत मध्य ६ / ९५ – ( महाप्रभुने कहा ) –
“शुतिया आछिनु मुइ क्षीरोदसागरे ।
निद्राभङ्ग हइल मोर नाड़ार हुङ्कारे ॥
अर्थात् “मैं क्षीरोदसागरमें सो रहा था और इस ‘नाड़ा’ की हुंकारने मेरी निद्रा भंग कर दी ॥ ११० ॥

उनको जिस किसी विष्णुनामसे सम्बोधित करना दोषयुक्त नहीं है :-
सेइ त भक्तेर वाक्य नहे व्यभिचारी ।
सकल सम्भवे ताँते, याते अवतारी ॥ १११ ॥
अवतारीर देहे सब अवतारेर स्थिति ।
केहो कोनमत कहे, येमन यार मति ॥ ११२ ॥
कृष्णके कहये केह – नरनारायण ।
केहो कहे, कृष्ण हय साक्षात् वामन ॥ ११३॥
केहो कहे, कृष्ण क्षीरोदशायी अवतार ।
असम्भव नहे, सत्य वचन सबार ॥ ११४॥
केहो कहे, परव्योमे नारायण हरि ।
सकल सम्भवे कृष्णे, याते अवतारी ॥ ११५ ॥
अनुवाद – जो इस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभुको क्षीरोदशायी विष्णु कहते हैं, वे भी भक्त हैं, उनका इस प्रकारका वाक्य भी मिथ्या नहीं है। श्रीचैतन्य महाप्रभुके लिये सब कुछ सम्भव है, क्योंकि वे स्वयं अवतारी हैं। सभी अवतार अवतारीके शरीरमें स्थित हैं, इसलिये जिसकी जैसी भावनाएँ हैं, वह वैसे ही कहता है। श्रीकृष्णको कोई नर नारायण कहता है, तो कोई साक्षात् वामन कहता है। कोई यह भी कहता है कि श्रीकृष्ण क्षीरोदशायी विष्णु के अवतार हैं। यह सब असम्भव नहीं है और सभीके वचन सत्य हैं। कोई उनको वैकुण्ठके हरि या नारायण कहते हैं। वे अवतारी हैं, इसलिये उनके लिये सब कुछ सम्भव है ॥ १११-११५॥

अमृतप्रवाह भाष्य – किसी-किसी ग्रन्थमें श्रीचैतन्यमहाप्रभुका क्षीरोदशायी वैकुण्ठनाथ कहकर उल्लेख किया गया है। इसके द्वारा उनकी महिमा सम्पूर्णरूपसे वर्णित नहीं हुई है, किन्तु उन सब भक्तोंके वाक्य मिथ्या नहीं है; क्योंकि श्रीकृष्णसे अभित्र श्रीकृष्णचैतन्य स्वयं अवतारी हैं, इसलिये सभी अवतार उनमें विद्यमान हैं ॥ ११०-११२ ॥

अनुभाष्य – श्रीलघुभागवतामृतमें श्रीकृष्णके अवतारी रूपमें वर्णनके प्रसंग में-
“ अतएव पुराणादौ केचित्ररसखात्मताम्। महेन्द्रानुजतां केचित् केचित् क्षीराब्धिशायिताम् ॥ सहस्रशीर्षतां केचित् केचित् वैकुण्ठनाचताम् । ब्रुयुः कृष्णस्य मुनयस्तत्तद्वृत्त्यनुगामिनः।”

अर्थात् “इसलिये पुराणादिमें श्रीकृष्णको मुनियोंने अपने-अपने अधिकारके अनुसार किसीने नरसखा नारायण, तो किसीने उपेन्द्र, किसीने क्षीरोदशायी, किसीने सहस्रशीर्षा पुरुष अथवा किसीने वैकुण्ठनाथ कहकर कीर्तन किया है॥ ११४॥

अमृतानुकणिका – अवतारी श्रीगौरसुन्दरमें सभी अवतार ही अन्तर्भुक्त हैं, इसलिये श्रीगौरसुन्दरको जिस किसी भी विष्णुके नामसे अभिहित करना दोषपूर्ण नहीं है। किन्तु यह कहकर जो वस्तुको (भगवान्को) अवस्तु या माया कहते हैं, उन समस्त अभक्त – सम्प्रदायके वाक्योंको मिथ्या ही मानना चाहिये। जैसे- श्रीगौरसुन्दर साधारण मनुष्य हैं, किम्वा धर्मसंस्कारक जीव हैं अथवा पण्डित हैं, किम्वा बहिरङ्गा मायाकी विभिन्न कल्पित मूर्तियों या जड़ीय नामोंके साथ श्रीगौराङ्गकी श्रीमूर्ति अथवा श्रीनाम समान है अर्थात् गौराङ्ग-मूर्ति या महामायाकी मूर्ति, गौराङ्गका नाम और मानवके द्वारा कल्पित काली दुर्गा आदि नाम – सभी समान हैं, जो गौराङ्ग हैं, जड़जगत्में पूजिता काली दुर्गा भी वही हैं, जो कोई भी एक मानवकी रुचिके अनुसार कर लें – ये सब विचार जिनके भीतर हैं (अर्थात् उनके मोहन पर्देके भीतर निर्विशेषवादके अग्निकुण्ड छिपे हैं), उनके वचनोंको मिथ्या ही जानना होगा। इस प्रकार विचार तत्त्ववस्तु श्रीगौरसुन्दरके अन्वयभावसे समन्वित नहीं होता है ॥ १११-११५॥

वैध एवं रागानुग, सभी भक्तोंको ही भक्तिसिद्धान्त जानना नितान्त आवश्यक है सब श्रोतागणेर करि चरण वन्दन ।
ए सब सिद्धान्त शुन, करि एक मन ॥ ११६ ॥
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस ।
हा हैते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ॥ ११७ ॥
अनुवाद – मैं सभी श्रोताओंके चरणोंकी वन्दना करता हूँ और उनसे यह निवेदन करता हूँ कि वे इन सब सिद्धान्तोंको ध्यानपूर्वक श्रवण करें। सिद्धान्त कहकर उसे सुनने और समझने में चित्तमें आलस्य मत लाओ, इन सब सिद्धान्तोंको जाननेसे ही श्रीकृष्णमें मन दृढ़तापूर्वक लगता है॥ ११६ – ११७॥

अमृतप्रवाह भाष्य—कोई-कोई भक्तिपिपासु व्यक्ति इन सब सिद्धान्तोंको भक्तिका अङ्ग ना कहकर इनमें प्रवेश करनेमें आलस्य दिखलाते हैं, किन्तु यह मङ्गलका विषय नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्णसे सम्बन्धज्ञान जाननेपर उनके चरणकमलोंमें चित्त दृढरूपसे संलग्न होता है। इसलिये इस प्रकारके सत्-सिद्धान्त शुद्धभक्तिके मूल हैं॥ ११७ ॥

इति अमृतप्रवाह भाष्ये द्वितीय परिच्छेद ।
दूसरे अध्यायका अमृतप्रवाह भाष्य पूर्ण हुआ।
अनुभाष्य- जातरुचि भक्तोंके आदर्शको देखकर अनेक लोग सोचते हैं कि हमें इनके समान सिद्धान्तके विषयमें प्रवेश करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकारके आलस्यसे अनेक लोग भजनके विषयमें अभावग्रस्त होकर श्रीकृष्ण- विमुखता संग्रह करते हैं और भक्ति-विरोधी जड़ीय भावको ही भक्ति समझकर अनर्थग्रस्त हो जाते हैं। जिनकी अभी भक्तिमें रुचि जाग्रत नहीं हुई है, ऐसे भक्तोंके लिये विचारप्रधान मार्ग यद्यपि उपयोगी है, तथापि रुचि जाग्रत करनेके लिये उन लोगोंके लिये नवधा भक्तिका प्रथम अङ्ग ‘श्रवण’ विशेष आवश्यक है। श्रीकृष्णविषयक सिद्धान्त श्रवण नहीं करनेसे रुचिमें वृद्धि नहीं होती है। नवधा भक्तिके प्रारम्भमें ही कीर्तनके पूर्व ही ‘श्रवण’ की व्यवस्था है। श्रवण कीर्तनरूपी जलसे सींचनेसे भक्तिलता सुष्ठु (सुन्दर) रूपसे बढ़ती है। ब्रह्माजीने श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए जिस श्लोक (भाः १० /१४/३) में ज्ञानके प्रयासको त्याग करनेवाले भक्तोंकी अवस्थाका वर्णन किया है, उसी श्लोकमें ही ‘सन्मुखरितां भवदीयवात्तां श्रुतिगतां अर्थात् सत् पुरुषोंके मुखसे श्रीकृष्णकथाको श्रवण करनेकी महिमा कही है। परमहंसोंके अमल- ज्ञानको प्रदान करनेवाले श्रीमद्भागवतके विचारोंके अनुसार पठन-श्रवणादि करनेसे ही जीवको महाभागवत बननेका अधिकार प्राप्त होता है । श्रीमन्महाप्रभुकी सनातन – शिक्षामें हम लोग सुनते हैं- “शास्त्रयुक्त्ये सुनिपुण दृढ श्रद्धा याँर उत्तम अधिकारी हि तारये संसार ॥” अर्थात् “भक्तिशास्त्रोंमें निपुण और भक्तिके इतर मार्गको त्याग करनेवालेको उत्तम अधिकारी कहते हैं तथा वह संसारका उद्धार करनेमें सक्षम है।” श्रीरूपगोस्वामीपादने भी कहा है- ” उत्साहान्निश्चयार्द्धयत् तत्तत्कर्मप्रवर्त्तनात् । सङ्गत्यागात् सतोवृत्तेः षभिर्भक्तिः प्रसिद्ध्यति ॥” अर्थात् ” आलस्य त्याग करके भक्तिवर्द्धक नियमोंमें उत्साह रखना, शास्त्र एवं शास्त्रानुकूल श्रीगुरुदेवके वचनोंमें दृढ़ विश्वास रखना; अनेक विघ्न-बाधा आनेपर भी अथवा अभीष्ट – सिद्धिमें विलम्ब होनेपर भी भक्तिके साधनोंमें धैर्य रखना; श्रवण, कीर्त्तन आदि भक्तिके अङ्गका पालन तथा श्रीकृष्ण प्रीतिके लिये अपने भोग-विलासका वर्जन करना; भक्तिविरोधी अवैध स्त्रीसङ्ग, स्त्री-सङ्गीका सङ्ग मायावादी, निरीश्वरवादी और धर्मध्वजी लोगोंका सङ्ग छोड़ देना; भक्तजनोंका-सा सदाचार और उनकी जैसी वृत्ति ग्रहण करना – इन छः प्रकारके साधनोंसे भक्तिकी सिद्धि होती है।” स्वयंमें भक्त होनेका अभिमान रखनेवाले सिद्धान्तहीन लोग मूर्खतावशत: अनेक बार कृत्रिमरूपसे सात्त्विक विकारोंका अभ्यासकर लोगोंकी दृष्टिमें वैष्णव- पदवीको हीन बनाते हैं। उनके इस प्रकार असत् अभ्यासकी निन्दास्वरूप उन्हें पाषाण हृदयकी संज्ञा देते हुए श्रीमद्भागवत ( २/३/२४) में ” तदश्मसार” श्लोक कहा गया है। इस श्लोककी टीकामें श्रीपाद चक्रवर्त्ती ठाकुरने कहा है, – “बहिरश्रुपुलकयोः सतोरपि यद्धृदयं न विक्रियेत, तदश्मसारमिति कनिष्ठाधिकारिणामेव अश्रुपुलकादिमत्त्वेऽपि अश्मसारहृदयतया निन्दैषा ।” अर्थात् “यदि किसी व्यक्तिमें बाहरसे अश्रु- पुलक आदि विकार दिखायी दें, परन्तु हृदय विगलित नहीं हो, तो उसे पाषाण हृदय ही समझना चाहिये। तथा कनिष्ठ अधिकारीके बाहरसे अश्रु- पुलकादि सात्त्विक विकारोंका प्रदर्शन करनेपर शास्त्र उन्हें पाषाण हृदय कहकर निन्दा करते हैं। ”

सिद्धान्तका अनादर करनेपर जो कृत्रिम भक्ति देखी जाती है, उसका चित्रण श्रीरूप गोस्वामीप्रभुने भक्तिरसामृतसिन्धुर्मे इस प्रकार किया है – “निसर्गपिच्छिलस्वान्ते तदभ्यासपरेऽपि च । सत्त्वाभासं विनापि स्युः क्वाप्यश्रुपुलकादयः ॥ ” अर्थात् “जिनका हृदय बाहरसे कोमल, परन्तु भीतरसे कठोर है और जो अश्रु- कम्पादिके अभ्यास परायण भी हैं, सत्त्वाभासके बिना भी उनमें कभी अश्रु- पुलकादि दिखायी देते हैं, ऐसे भाव निःसत्त्व सात्त्विकाभास’ कहे जाते हैं।” कृत्रिमभक्त सिद्धान्तके अभावमें किस प्रकार मायिक विकारको अप्राकृत सोचते हैं, यह इसका ज्वलन्त उदाहरण है। अनेक लोग भक्तिविरोधी अद्वैतवादियोंके ग्रन्थोंकी आलोचनाके समान ही श्रीरामानुज – मध्वाचार्य – निम्बार्क – विष्णुस्वामी आदि वैष्णवाचायोंके द्वारा लिखित सिद्धान्त-ग्रन्थोंके पठनकी निन्दा करते हैं। श्रीजीव गोस्वामिपादने इन वैष्णवाचायोंके सुसिद्धान्तोंको वैष्णवों के मङ्गलके लिये षट्सन्दर्भमें उद्धृत किया है। निर्विशेषवादी लोग जिस प्रकार भक्तिके अङ्गको भ्रमवशतः कर्मका अङ्ग समझते हैं, उसी प्रकार सिद्धान्तहीन वैष्णव नामधारी लोग भक्तिके अनुकूल – सिद्धान्तोंको भी प्रतिकूल मानकर श्रीकृष्णभक्तिसे विच्युत हो जाते हैं॥ ११७ ॥

अमृतानुकणिका – जगत्में हम दो प्रकारके लोगोंको देखते हैं- सारग्राही और भारवाही । जो लोग किसी भी विषयमें भली-भाँति विचार ना करके केवल असार भागको ही ग्रहण करते हैं, उन्हें भारवाही कहते हैं। और जो किसी भी विषयमें सूक्ष्मरूपसे विचार करके सारभागको ही ग्रहण करते हैं, उन्हें सारग्राही कहा जाता है। सारग्राही व्यक्ति ही अपना परम कल्याण लाभ करके अन्तमें श्रीहरिके चरणकमलोंको प्राप्त करते हैं। किन्तु शास्त्रोंके सिद्धान्तोंको शास्त्रानुगत विचारोंके द्वारा हृदयमें दृढ़तासे धारण ना होनेसे विपरीत प्राकृत बुद्धि आकर हमें वास्तव तत्त्व वस्तुसे विच्युत कर देती है। इसलिये इस पयारमें श्रील कविराज गोस्वामीने सिद्धान्तको ठीकसे समझने के लिये बल दिया है जिसके द्वारा भजनमें दृढ़ता आती है। इसी प्रकारसे श्रीगीता, श्रीमद्भागवत, वेदान्त, उपनिषद् आदि शब्द प्रमाणको यदि कोई सारग्राही होकर विचार करे, तो वह देखेगा कि भगवद्भक्तिको उक्त सभी शास्त्रों में चरम सिद्धान्तके रूपमें कहा गया है। जो शब्द-प्रमाणके इस प्रकार सुसिद्धान्तको भी मतवाद मानते हैं, वे देवीमायासे मोहित होकर स्वयं ही मतवादी हो जाते हैं। वैदिक मीमांसा शास्त्र दो भागों में विभक्त है। एक ही मीमांसा शास्त्रमें जैमिनीने पूर्व मीमांसा नाम देकर “अथातो धर्मजिज्ञासा” सूत्रकी अवतारणा करके जिसके अभ्युदयको ही धर्मसिद्धान्त स्थापित किया है, उत्तर मीमांसा वेदव्यासने उसीको पूर्वपक्ष करके ” अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” सूत्रकी अवतारणाके द्वारा परमेश्वर भजनरूप कल्याणको ही सिद्धान्त कहकर स्थापित किया है। और सबसे अन्तमें ” अनावृत्ति शब्दात् ” सूत्रके द्वारा कल्याण- प्राप्त व्यक्तिकी पुनरावृत्ति नहीं होती, ऐसा शब्द प्रमाणके द्वारा दिखलाया है। इसीके साथ ही सभी मतवादका भी खण्डन हो गया है। इसलिये सनातन धर्म सत्-सिद्धान्त अथवा सत्य- विचारमें सुप्रतिष्ठित है और तभी श्रील कविराज गोस्वामी यहाँ सिद्धान्त जाननेकी आवश्यकता पर बल दे रहे हैं। इसलिये जो अन्धविश्वासका ही अधिक सम्मान करते हैं, वे प्राकृत सहजिया अथवा वेषोपजीवीके दलमें सम्मिलित होकर अपने लिये नरकमें जानेका मार्ग ही प्रशस्त करते हैं। और कोई-कोई मनोधर्मके वशीभूत होकर जड़समन्वयवादी अथवा भारवाही साम्प्रदायिक होकर वास्तव सत्यसे बहुत दूर हो जाते हैं। भार्गवीय मनुसंहिताके अन्तमें भृगु ऋषियोंको कहा है-

“आर्ष धर्मोपदेशञ्च वेदशास्त्राविरोधिना ।
यन्तर्केणानुसन्धेत सधमं वेद नेतरः ॥ *
अर्थात् “जो वेद और वेदमूलक स्मृति आदि धर्मोपदेशका वेदशास्त्र- अविरोधी तर्कके द्वारा अनुसन्धान करते हैं, वे ही धर्मको जानते हैं।”

श्री नरोत्तमदास ठाकुर महाशय कहते हैं-
” मध्यस्थ श्रीभागवत पुराण।
साधु शास्त्र गुरुवाक्य हृदये करिया ऐक्य,
आर ना करिह मने आशा ॥ ११७ ॥
चैतन्य – महिमा जानि ए सब सिद्धान्ते ।
चित्त दृढ़ हजा लागे महिमा – ज्ञान हैते ॥ ११८ ॥
अनुवाद–इन सब सिद्धान्तोंको जाननेसे ही श्रीचैतन्य महाप्रभुकी महिमाका ज्ञान होता है। उनकी महिमाका ज्ञान होनेसे चित्त उनके चरणकमलों में दृढ़तासे लगता है ॥ ११८ ॥
अनुभाष्य – पञ्चरात्रमें-
“माहात्म्यज्ञानयुक्तस्तु सुदृढं सर्वतोऽधिकः ।
स्नेहो भक्तिरिति प्रोतस्तया साध्यादिर्नान्यथा ॥ ”
“महिमज्ञानयुक्तः स्याद्विधिमार्गानुसारिणाम्।
रागानुगाश्रितानास्तु प्रायशः केवलो भवेत् ।”
अर्थात् “जो भगवत्-महिमाके ज्ञानसे युक्त हैं, उनका स्नेह सभी प्रकारसे अधिक और सुदृढ़ है – इसीको भक्ति कहते हैं, जिसके द्वारा साटि आदि चार प्रकारकी मुक्ति प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं। विधिमार्गमें भजन करनेवालोंका स्नेह भगवत्-महिमाके ज्ञानसे युक्त होता हैं, किन्तु रागानुग- आश्रित भक्तोंका स्नेह प्रायः केवल अर्थात् भगवत् – महिमाके ज्ञानपर निर्भर ना रहकर स्वाभाविक होता है ॥ ११८ ॥

इति अनुभाष्ये द्वितीय परिच्छेद । दूसरे अध्यायका अनुभाष्य पूर्ण हुआ।

श्रीचैतन्यमें निष्ठा उत्पन्न करानेके लिये ही श्रीकृष्णतत्त्वका वर्णन :-
चैतन्यप्रभुर महिमा कहिबार तरे ।
कृष्णेर महिमा कहि करिया विस्तारे ॥ ११९॥

जो श्रीकृष्ण, वे ही श्रीचैतन्य :-
चैतन्य – गोसाजिर एइ तत्त्व निरूपण ।
स्वयं भगवान् कृष्ण व्रजेन्द्रनन्दन ॥ १२०॥
अनुवाद – श्रीचैतन्य महाप्रभुकी महिमाको प्रकाश करनेके लिये ही मैंने श्रीकृष्णकी महिमाका विस्तारसे वर्णन किया । श्रीचैतन्य महाप्रभुका तत्त्व-निरूपण यही है कि वे स्वयं भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं ॥ ११९ – १२०॥

श्रीरूप- – रघुनाथ- पदे यार आश ।
चैतन्यचरितामृत कहे कृष्णदास ॥ १२१ ॥
इति श्रीचैतन्यचरितामृते आदिखण्डे वस्तुनिर्देशमङ्गलाचरणे श्रीकृष्णचैतन्यतत्त्वनिरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।

अनुवाद – श्रीरूप – रघुनाथ गोस्वामीके चरणकमलोंकी कृपाभिलाषा करते हुए कृष्णदास इस श्रीचैतन्यचरितामृतका वर्णन कर रहा है ॥ १२१ ॥

श्रीचैतन्यचरितामृतके आदिखण्डके मङ्गलाचरणमें वस्तुनिर्देशके अन्तर्गत श्रीकृष्णचैतन्यके तत्त्व-निरूपण नामक दूसरे अध्यायका अनुवाद समाप्त ।

तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन वा ।
विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सलः॥