हमारे गुरुजी (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) जब कोलकाता मठ में विराजमान थे तब बिरलाजी के एक रिश्तेदार उनसे मिलने के लिए आए। वे गुरुजी के प्रति बहुत श्रद्धा रखते थे। उन्होंने गुरुजी से कहा, “स्वामी जी, मैं जब बीस-पच्चीस साल पहले वृन्दावन गया था, तब वृन्दावन बहुत अच्छा था। पर अभी कुछ दिन पहले जब मैं गया तो देखा कि वृन्दावन गन्दा हो गया है।”

गुरुजी ने आश्चर्य से कहा, “वृन्दावन गंदा हो गया? ऐसा तो कभी सुना नहीं!”

उन्होंने आगे बताया, “मैं आज से बीस-पच्चीस साल पहले जब वृन्दावन गया था तब वहाँ बहुत अच्छा दूध और दही मिलता था। मिठाई और रबड़ी भी बहुत अच्छी मिलती थी। वहाँ के लोग भी बहुत अच्छे थे। तब मेरा मन बहुत प्रसन्न हुआ था। पच्चीस साल बाद अभी मैं दोबारा वहाँ गया तो फिर मैंने रबड़ी खरीदकर खाई। किन्तु इस बार उससे मुझे रक्त पेचिश (blood dysentery) हो गया। रबड़ी बनानेवाले ने उसमें ब्लॉटिंग पेपर (Blotting paper) मिला दिया था। मेरी स्थिति बहुत नाजुक हो गई थी और लगने लगा था कि मेरी मृत्यु हो जाएगी। हॉस्पिटल में किसी प्रकार मेरे प्राण बचे। अभी वृन्दावन में बाहर का कोई भी खाद्य पदार्थ नहीं खा सकते। कोई भी ठग सकता है। वृन्दावन गंदा हो गया है।”

उनकी बातें सुनकर गुरुजी बोले, “वृन्दावन कभी गन्दा नहीं होता। हमें वृन्दावन इस शरीर या इन इंद्रियों के सुख के लिए नहीं जाना चाहिए। वृन्दावन साक्षात् भगवान् है। जैसे भगवान् इस जगत् में अवतीर्ण होते हैं, उसी प्रकार उनका धाम भी अवतीर्ण होता है। जिस प्रकार भगवान् किसी के अधीन नहीं हैं और किसी के भोग की वस्तु नहीं हैं, ठीक उसी प्रकार वृन्दावन भी किसी के अधीन नहीं है। आप वृन्दावन को भगवान् से अलग समझते हैं क्या? भगवान् का नाम, विग्रह (श्रीमूर्ति), स्वरूप और धाम, सब एक ही हैं।”

वृन्दावन धाम भारत या उत्तर प्रदेश का हिस्सा नहीं है। वह पंचमहाभूत—भूमि, जल, अग्नि, वायु या आकाश—से नहीं बना है। जब कोई व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि से धाम को समझने का प्रयास करता है तब वह धाम की तुलना इस जगत् के किसी सामान्य स्थान- जैसे दिल्ली, कोलकाता या मुंबई के साथ करता है और उन स्थानों को धाम से अच्छा समझता है। धाम का दर्शन करने के लिए दिव्य नेत्रों की आवश्यकता है। शरणागत व्यक्ति के हृदय में ही धाम की महिमा प्रकाशित होती है। क्योंकि अशरणागत व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि से भगवान् और उनके धाम को समझने का प्रयास करता है पर कभी भी उन्हें समझ नहीं पाता। ऐसा व्यक्ति पूर्ण रूप से वंचित रह जाता है और कभी भी धाम का स्पर्श भी नहीं कर पाता। वह धाम के बाह्य (बाहरी) रूप को ही देखता है। कोई भी व्यक्ति जड़-शरीर से धाम में प्रवेश नहीं कर सकता।

हमारे गुरुदेव ब्रजमण्डल परिक्रमा के समय कहते थे, “कोई भी व्यक्ति अपने दांतो को साफ करने के लिए धाम के वृक्ष के दातुन का उपयोग न करें। केवल ब्रजवासी ही इसका उपयोग कर सकते हैं। हमारे लिए इसका उपयोग करना अच्छा नहीं होगा। ”

धाम से सम्बन्धित सभी वस्तुएँ भगवान की सेवा के लिए होतीं हैं। हमें धाम में शरणागति के साथ निवास करना चाहिए। श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी तथा श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी अति धनाढ्य तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे साधारण व्यक्ति नहीं थे। फिर भी वे वृन्दावन में वृक्ष के नीचे वास किया करते थे। क्या उन्होंने वृन्दावन को एक गन्दे स्थान के रूप में देखा ? नहीं, उनके चक्षु दिव्य थे। उन्हीं दिव्य चक्षुओं द्वारा वे भगवान की दिव्य लीलाओं के दर्शन किया करते थे। यदि कोई व्यक्ति बिना शरणागति के धाम की चिन्मय वस्तुओं को जानने का प्रयास करता है, तो महामाया उसे अपने बन्धन में बाँध लेती है तथा वह व्यक्ति धाम में वास करने पर भी घृणित कृत्यों में लिप्त हो जाता है। भगवान के जितने भी नित्य निवास स्थान हैं जैसे कि मायापुर, वृन्दावन तथा पुरुषोत्तम धाम इत्यादि, सभी चिन्मय (अप्राकृतिक) स्थान हैं। यदि धाम में वास करके भी हमें स्वयं की इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने की इच्छा रहती है, तो धाम अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकाशित नहीं करते।

जो व्यक्ति, “मैं भगवान् का हूँ,” इस बात का अनुभव करते हुए भक्तों के संग में शरणागति के छह अंगों का पालन करता है, उसके हृदय में भगवान् और उनका धाम स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं।