हमारे पूज्यपाद श्रील संत गोस्वामी महाराज एक बार कश्मीर गए थे। वहाँ वे हरिसिंह नामक एक धनी व्यक्ति के घर पर अतिथि बने। हरिसिंह का अपना चाय का बागान था। उनके घर पर श्रील संत गोस्वामी महाराज की हरिकथा का आयोजन किया गया। हरिकथा सुनने के लिए अनेक धनी व्यक्ति वहाँ आए। उनमें से कई व्यक्ति चाय बागानों के मालिक थे।
महाराज ने धर्म विषयक शिक्षा देते हुए गंभीरता से कहा, “प्रत्येक व्यक्ति के लिए धर्म-शास्त्रों की शिक्षा का पालन करना अति आवश्यक है। धर्म-शास्त्रों की शिक्षा के अनुसार व्यक्ति को चार वस्तुओं का त्याग करना होगा। ये चार वस्तुएँ हैं—द्यूतं पानं स्त्रियः सूना । यहाँ ‘द्यूतं’ का अर्थ है— जुआ सट्टा जैसे खेल-कर्म, ‘पानं’ का अर्थ है नशीले पदार्थों का सेवन, ‘स्त्रियः’ का अर्थ है – विवाहित जीवन के बाहर (अवैध) स्त्री- संग और ‘सूना’ का अर्थ है— पशु-पक्षियों के माँस का भक्षण। इन चार वस्तुओं में कलि का वास है।”
श्रील महाराज ने ‘पानं’ के अर्थ को समझाते हुए कहा, “मद, गांजा, भांग, बीड़ी, सिगरेट, यहाँ तक कि चाय भी नशीले पदार्थों के अंतर्गत है। धर्म के मार्ग पर चलने के व्यक्तियों इच्छुक को इन सब का सेवन छोड़ना होगा।”
क्योंकि वहाँ बैठे बहुत से लोगों के चाय के बागान थे, वे सोचने लगे, “अरे! ये तो सर्वनाश हो गया। ये किस महात्मा को यहाँ ले आए? हम तो चाय की अधिक बिक्री हो इसलिए विज्ञापन देते हैं किन्तु ये तो हमारा व्यवसाय ही बंद करवा देंगे!”
श्रील महाराज ने अपने प्रवचन में आगे कहा, “चाय कलि का स्थान है। चाय कभी नहीं पीना। चाय हमारे देश की पेय वस्तु नहीं है। ब्रिटिश लोग चाय को हमारे देश में ले आए। पहले वे लोग चाय को बिना किसी मूल्य के देते थे किन्तु बाद में उसकी बिक्री करने लगे।”
श्रील महाराज का प्रवचन सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों का मन दुःखी हो गया। प्रवचन के बाद चाय बागानों के एक मालिक ने श्रील महाराज से कहा, “स्वामी जी, मैंने तो सुना है कि चाय पीने से बहुत सारे लाभ होते हैं। यहाँ तक कि श्रीमद् भगवद् गीता में भी चाय का वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण ने स्वयं चाय के विषय में बतलाया है।”
श्रील महाराज ने आश्चर्य से पूछा, “मैंने बहुत बार श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन किया है। उसमें चाय के विषय में तो मैंने कुछ पढ़ा नहीं! चाय के विषय में श्रीमद् भगवद् गीता में कहाँ बताया गया है?”
उस व्यक्ति ने प्रमाण के रूप में श्रीमद् भगवद् गीता का एक श्लोक कहा—
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।
(श्रीमद् भगवद् गीता १५/१५)
उसने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार से बताया, “श्रीकृष्ण कहते हैं—मैं सभी जीवों के हृदय में चाय के रूप में वास करता हूँ! चाय सभी प्रकार के दुःख दूर करती है और स्मृति और ज्ञान रूप सुख प्रदान करती है!”
उसने महाराज से यह भी कहा, “मैं आपके लिए उत्तम गुणोंवाली चाय लेकर आऊँगा, जिसे पीकर आप संतुष्ट हो जाएँगे। चाय पीने से उससे होनेवाले लाभ के विषय में आप स्वयं ही जान जाएँगे।”
महाराज श्री ने कहा, “उसकी कोई आवश्यकता नहीं है।”
क्या श्रीमद् भगवद् गीता के श्लोक का वास्तविक अर्थ उस व्यक्ति ने जो समझा, वह है? यहाँ ‘चाहं’ शब्द का संधि विच्छेद है ‘च + अहम्’। ‘च’ का अर्थ है ‘और’। श्रीकृष्ण कहते हैं, “मैं सभी जीवों के हृदय में वास करता हूँ और उनकी स्मृति, ज्ञान और विस्मृति का कारण भी मैं ही हूँ।” क्या यहाँ चाय के विषय में कुछ बतलाया गया है?
लोग अपने उल्टे उद्देश्य और रुचि के अनुसार शास्त्र की शिक्षाओं का गलत अर्थ निकालते हैं। श्रीमद् भगवद् गीता पूरे विश्व में प्रसिद्ध है और बहुत से विद्वानों ने इसका अनेक प्रकार का अनुवाद किया है। किन्तु उनमें से अधिकांश लोगों का उद्देश्य उनकी अपनी स्वार्थ-सिद्धि ही है। शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को समझना सरल नहीं है। वह केवल शरणागत व्यक्ति के हृदय में ही प्रकाशित होता है।