हमारे मठ से प्रत्येक तीन वर्ष में एक बार ब्रजमण्डल परिक्रमा का आयोजन किया जाता है। ऐसे ही एक वर्ष की परिक्रमा के समय नन्दघाट में एक ब्रह्मचारी को एक कुत्ते ने काट लिया। वृन्दावन में अच्छी चिकित्सा की व्यवस्था न होने के कारण उसे मथुरा ले जाना तय किया गया। परिक्रमा छोड़कर जाने के विचार से वह ब्रह्मचारी तथा जिन भक्तों को उसके साथ जाना था, उन सबका मन उदास हो गया। इसी बीच उन्हें किसी से पता चला कि मठ के श्रीश्रौती महाराज कुत्ते के काटने से फैलनेवाले विष को दूर करने का मन्त्र जानते हैं।

वह ब्रह्मचारी उनके पास जाकर प्रार्थना करने लगा, “कृपया आप मन्त्र के द्वारा कुत्ते के विष को बाहर निकाल दें अन्यथा उपचार के लिए मुझे और मेरे साथ कुछ अन्य भक्तों को परिक्रमा छोड़कर मथुरा जाना पड़ेगा। परिक्रमा छोड़कर जाने के विचार से हम सभी दुःखी हैं। कृपया आप हमारी सहायता कीजिए।”

श्रौती महाराज ने उत्तर दिया, “मैं इस विद्या का उपयोग मठ में आने से पहले किया करता था। किन्तु कृष्ण नाम लेने के पश्चात् इस प्रकार के मन्त्र का उपयोग करना उचित नहीं है। ”

ब्रह्मचारी: “महाराज, आप कृपापूर्वक यदि यह कार्य कर देंगे तो मेरे साथ-साथ दो और भक्तों को भी लाभ होगा।” बहुत बार इस प्रकार प्रार्थना करने पर श्रौती महाराज मंत्र के द्वारा विष दूर करने के लिए तैयार हुए।

सबसे पहले उन्होंने लकड़ी के कुछ फट्टे, मिट्टी का एक घड़ा, रेत, झाडू की सीखें आदि वस्तुएँ लाने के लिए कहा। फिर उस ब्रह्मचारी को लकड़ी के एक फट्टे पर लेटा दिया। महाराज ने उसके ऊपर कुछ धूल फेंकी और मंत्र जप करने लगे। मंत्र जप आरम्भ करते ही सामने रखा हुआ मिट्टी का घड़ा अपने आप घूमने लगा। वहाँ कोई मशीन नहीं थी जो उसे घुमा रही थी। हमने साक्षात् रूप से इस घटना को देखा। यह आज के विज्ञान की समझ से बाहर है। महाराज मंत्र पढ़ रहे थे और घड़ा गोल-गोल घूम रहा था। यह विधि डेढ़ से दो घंटे तक चली।

विधि समाप्त होने पर महाराज ने कहा, “अब विष निकल गया है, तुम ठीक हो गए हो और परिक्रमा में जा सकते हो।” वह ब्रह्मचारी वास्तव में ठीक हो गया था।

इस घटना को देखकर कुछ व्यक्ति श्रौती महाराज के पास आए और उनसे उस मंत्र को सीखने की इच्छा व्यक्त करने लगे। महाराज ने कहा, “भक्तों को इस विद्या की आवश्यकता नहीं है, यह विद्या केवल जागतिक लाभ की प्राप्ति के लिए है। इस प्रकार के मंत्र जप करने से नित्य फल की प्राप्ति नहीं होगी। यह शरीर व्याधियों का घर है। कभी कुत्ते ने काटा कभी किसी अन्य व्याधि से संक्रमित हो गए, यह तो चलता ही रहेगा। इसके लिए समय नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। यह मंत्र मैंने मठ में आने से पहले सीखा था। दूसरा, इस मंत्र को सीखने और प्रयोग में लाने के लिए भी गुरु परम्परा का आश्रय ग्रहण करना आवश्यक है। उसके लिए तपस्या करनी होगी। परम्परा के वर्तमान आचार्य का विश्वास जीतना होगा। तब वे मंत्र प्रदान करेंगे। शिष्य जब इस प्रकार प्राप्त मंत्र का प्रयोग करता है, तब यह मंत्र उसके गुरु, फिर आगे उनके गुरु, ऐसा करते-करते परम्परा के सिद्धि प्राप्त प्रथम व्यक्ति के पास जाता है और तब उसका फल प्राप्त होता है। केवल मेरे बोल देने मात्र से मंत्र की प्राप्ति नहीं होगी। मैंने इस मंत्र को प्राप्त करने के लिए तप एवं गुरु परम्परा का आनुगत्य किया था।”

एक सपेरा भी मंत्र के द्वारा ही सांप को वशीभूत करता है। उसके मंत्र उच्चारण में भूल होने पर भी मंत्र के फल की प्राप्ति होती है, क्यों? क्योंकि वह गुरु परम्परा का आनुगत्य करता है। इससे विपरीत यदि कोई पंडित व्यक्ति किसी शास्त्र से इस प्रकार के मंत्र की शिक्षा प्राप्त करके सांप को पकड़ने जाए तो क्या वह सफल हो पाएगा? गुरु परंपरा का आश्रय ग्रहण किए बिना, मंत्र का सही उच्चारण करने पर भी उसका फल नहीं मिलेगा।

इसी प्रकार ‘कृष्ण-मंत्र’ भी गुरु परम्परा से प्राप्त होता है। पद्म-पुराण में लिखा है कि सम्प्रदाय विहीन मंत्र निष्फल होते हैं।’

सम्प्रदाय विहीना ये मन्त्रास्ते विफला मताः ।
अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः ।
श्री ब्रह्म-रुद्र सनक वैष्णवाः क्षिति पावनाः।
चत्वारस्ते कलौभाव्या हयुत्कले पुरुषोत्तमात् ॥
(पद्म-पुराण)

साधारणतः लोग ‘सम्प्रदाय’ शब्द से संकीर्णता अर्थ निकालते हैं जैसे सांप्रदायिक दंगे, लड़ाई-झगड़ा इत्यादि । किन्तु ‘सम्प्रदाय’ का अर्थ संकीर्णता नहीं है। ‘सम्प्रदाय’ का वास्तविक अर्थ है—वह धारा जिसमें सम्यक् (पूर्ण) रूप से ज्ञान प्रदान किया जाता है; वह धारा जिसमें भगवान् से आया हुआ ज्ञान संरक्षित हुआ है। उस धारा को गुरु परम्परा कहा जाता है। सम्प्रदाय को संकीर्णता कहना भाषा का व्यभिचार (prostitution of language) है।

जल की जो धारा गंगा नदी से आती है, उसमें स्नान करने पर ही पाप नष्ट होते हैं, किसी अन्य नदी में स्नान करने पर नहीं, इसी प्रकार भगवत् ज्ञान प्राप्ति के लिए भी एक धारा है। उस शुद्ध-भक्ति की धारा में आनेवाले सद्-गुरु के चरणाश्रय के द्वारा ही भगवत् ज्ञान प्राप्त हो सकता है। इस बात की शिक्षा देने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने संदीपनी मुनि से, श्रीरामचन्द्र ने वशिष्ठ मुनि से और श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ईश्वर पुरीपाद से मंत्र ग्रहण किया और शास्त्र की शिक्षाओं का स्वयं पालन करने का लीला अभिनय किया।