एक धनी व्यक्ति गौड़ीय मठ के एक महात्मा के पास आया और मठ के भक्तों की प्रशंसा करते बड़े त्यागी हैं; चाय नहीं पीते, लहसुन- “आप सभी कहने लगा, हुए बहुत प्याज़ नहीं खाते। किसी भी प्रकार का कोई नशा नहीं करते। एकादशी व्रत का पालन करते हैं, बहुत कुछ करते हैं। ”
महात्मा ने कहा, “हाँ, हम व्रत, नियम आदि का पालन अवश्य करते हैं, किन्तु मेरे मत अनुसार हमसे बड़े त्यागी आप हैं।”
उनकी बात सुनकर उस व्यक्ति ने अपने कान पकड़ लिए और कहने लगा, “आप मुझे नहीं जानते हैं, मैं बहुत गन्दा व्यक्ति हूँ। मैं शराब पीता हूँ। मछली, अंडा इत्यादि सब खाता हूँ। मुझे त्यागी बोलना ठीक नहीं है। त्यागी तो आप हैं।”
महात्मा: “आपकी सारी बातें सुनने के बाद भी मेरा मत यही है कि आप हमसे बड़े त्यागी हैं। ”
धनी व्यक्तिः “ आप बार-बार ऐसा क्यों कह रहे हैं?”
महात्मा: “हमने क्या त्याग किया? माँस, मछली, अंडा, प्याज़, लहसुन इत्यादि गंदी और तुच्छ चीज़ों का, किन्तु आपने तो सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण वस्तु भगवान् का ही त्याग कर दिया है। जो जितनी बड़ी और मूल्यवान वस्तु का त्याग करेगा, उसके त्याग का मूल्य उतना ही बड़ा होगा। इसलिए सबसे बड़ा त्यागी कौन हुआ? हम या आप?”
शास्त्र की शिक्षा के अनुसार संसार के भोग हमें नरक की ओर ले जाते हैं। उन भोगों के लिए भगवान् को एवं भगवान् के भजन को त्याग देना क्या बुद्धिमानी है?
क्योंकि प्रत्येक जीव भगवान् से आता है, भगवान् का भजन करना उसका कर्त्तव्य है। श्रीगुरु को इस शरीर रूपी नाव का कर्णधार बनाकर जीव भव-सागर को पार कर, श्रीकृष्ण के श्रीचरण प्राप्त कर सकता है। किन्तु भजन न करके जीव इस संसार-समुद्र में डूब मरने की ही व्यवस्था में लगा रहता है।