यह प्रसंग ब्रह्म वैवर्त पुराण में वर्णित है। एक समय नारद ऋषि, श्रीकृष्ण के साथ वार्तालाप कर रहे थे। नारद ऋषि ने श्रीकृष्ण से कहा, “मैंने सुना है कि संसार के सभी जीव आपकी माया के कारण अपार कष्ट का अनुभव करते हैं। मैं आपकी उस माया को देखना चाहता हूँ और जानना चाहता हूँ कि वह कष्ट किस प्रकार का है।”

कृष्ण ने आश्चर्य से कहा, “मुनिवर, आप मेरी माया को देखना चाहते हैं? माया को देखने से तो व्यक्ति मोहित हो जाता है। आप तो निरंतर मेरी महिमा गान करते रहते हैं, मेरा नाम जपते हैं एवं पतित जीवों का उद्धार करते हैं। मेरी माया को देखकर आपको क्या लाभ होगा?”

नारद ऋषि ने हठ करते हुए कहा, “यदि आपको लगता है कि मुझमें आपके प्रति थोड़ी सी भी भक्ति है, तो कृपया मेरी इच्छा पूर्ण करें। ”

नारद मुनि की इच्छा को पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण उन्हें लेकर पृथ्वीलोक में आ गए। जिस स्थान पर वे दोनों प्रकट हुए वहाँ एक बहुत ही सुंदर सरोवर था। सरोवर से कमल के पुष्पों की सुगंध आ रही थी और उसके पानी में विविध प्रकार की मछलियाँ तैर रही थीं। पानी में अनेक हंस विहार कर रहे थे और अन्य कई पक्षी सरोवर के ऊपर उड़ रहे थे। सरोवर के स्वच्छ और निर्मल पानी को देख नारद मुनि ने श्रीकृष्ण से कहा, “प्रभु, इतनी लम्बी यात्रा के बाद सरोवर के निर्मल जल में स्नान हमें शीतलता प्रदान करेगा। क्यों न हम इस सरोवर में स्नान करें। ”

श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “मुनिवर, आप स्नान करके आइए, मैं यहीं आपकी प्रतीक्षा करता हूँ।” श्रीकृष्ण की बात सुनकर नारद मुनि ने सरोवर में प्रवेश किया। जैसे ही उन्होंने स्नान करने के लिए जल में डुबकी लगाई, श्रीकृष्ण वहाँ से अदृश्य हो गए और वह सरोवर एक समुद्र में परिवर्तित हो गया। नारद मुनि का शरीर एक सुंदर स्त्री के शरीर में परिवर्तित हो गया। वे लकड़ी के एक टुकड़े के सहारे पानी में तैरते हुए स्वयं को बचाने का प्रयास करने लगे। सभी दिशाओं में पानी ही पानी देख वे यह सोचकर विलाप करने लगे कि उन्हें कौन बचाएगा। नारद मुनि अब श्रीकृष्ण को भूल चुके थे और श्रीकृष्ण की माया का कार्य आरम्भ हो चुका था।

जब तक नारद मुनि, कृष्ण के साथ थे तब तक कोई समस्या नहीं थी। किन्तु अब वे रो रहे थे, “मुझे कौन बचाएगा.. मुझे कौन बचाएगा?”

उसी समय, कृष्ण की इच्छा से, तालध्वज नामक एक राजा अपनी नाव के साथ वहाँ आए। नारद मुनि स्त्री शरीर में, संकेत देते हुए राजा को अपने बचाव के लिए अपनी ओर बुलाने लगे। एक सुन्दर स्त्री को डूबते हुए देख राजा ने सोचा, “क्या हुआ होगा? संभवतः उसकी नाव पानी में उलट गई होगी और वह अपने सभी साथियों से अलग हो गई होगी। ” वे अपनी नाव से उसके पास गए और उसे किनारे पर ले आए।

राजा ने उस स्त्री से पूछा, “आप कौन हैं? मैंने आपके जैसी सुंदर स्त्री आज तक नहीं देखी। मैं आपको आपके घर पर पहुँचा सकता हूँ। कहाँ रहती हैं आप ?”

“मुझे नहीं पता कि मैं कौन हूँ और कहाँ रहती हूँ,” स्त्री ने उत्तर दिया।

“अपने माता-पिता के विषय में तो कुछ पता होगा,” राजा ने पूछा।

“मुझे कुछ भी नहीं पता, कृपया मुझे आश्रय दें,” स्त्री ने कहा ।

राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा, “संभवतः इसके परिवार के सभी लोग डूबकर मर गए होंगे और उस दुर्घटना के आघात के कारण यह सब भूल गई समुद्र: में होगी। इस स्थिति में इसे अपने महल में ले जाना ही ठीक होगा।”

राजा उसे अपने महल में ले आए। बहुत दिन बीत जाने पर भी जब वह स्त्री अपनी कोई पहचान नहीं बता सकी तब उसके सुंदर रूप से आकर्षित होकर राजा ने उससे विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। स्त्री ने प्रस्ताव स्वीकार किया और अब वह एक ऐसे बड़े साम्राज्य की रानी बन गई, जो अनेक महलों, हाथी-घोड़ों, नौकर-नौकरानियों और धन-धान्य से परिपूर्ण था। रानी अब ऐश्वर्य-भोग और अपने पति की सेवा में व्यस्त हो गई। राज्य के धार्मिक व्यक्ति रानी को अनेकों बार राज्य के श्रीकृष्ण-मंदिर में आने के लिए निमंत्रित करते थे।

किन्तु वह कहती, “मेरे पास समय नहीं है, मैं व्यस्त हूँ। आप मेरी ओर से भगवान् के चरणों में पुष्प अर्पित कर देना।”

स्त्री-रूप में, नारद मुनि के पास अब श्रीकृष्ण के मंदिर में जाने का भी समय नहीं था। पारिवारिक कार्यों में व्यस्त रहते-रहते बहुत वर्ष बीत गए, इन वर्षों में रानी ने पचास सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया। रानी की आसक्ति पहले केवल अपने पति में थी किन्तु वह अब पुत्रों में भी हो गई। पुत्र जब युवा हुए तो रानी ने राजा से अनुरोध किया कि वे पुत्रों को राज्य की संपत्ति के विस्तार कार्य में नियोजित करें।

राजा ने कहा, “मेरे पुत्रों को काम करने की क्या आवश्यकता है? मैं अपने राज्य को पचास भागों में विभाजित करूँगा और प्रत्येक पुत्र को एक-एक भाग का राजा बनाऊँगा।”

पहले सभी पुत्र अपने माता-पिता के साथ रहते थे, किन्तु अब कुछ पुत्र उनके पास, जबकि कुछ उनसे दूर रहने लगे। माँ की इच्छा थी कि अब पुत्र विवाह कर लें। राजा-रानी ने बहुत धूमधाम से अपने पुत्रों के विवाह करवाए। परिवार अब बड़ा हो गया। किन्तु पचास रानियों के आने के बाद पुत्रों के बीच कलह शुरू हो गई। हर रानी अपने पति से कहती, “तुम्हारे बड़े भाई को तुमसे अधिक संपत्ति मिली है। अपने पिता के पास जाओ और कहो कि तुम्हें और अधिक संपत्ति दें।”
पुत्र पहले तो कहते, “चुप रहो। तुम्हें इस प्रकार की बातें नहीं कहनी चाहिए। हमारे पिता ने जो भी दिया है, हमें उससे संतुष्ट रहना चाहिए।” किन्तु प्रत्येक दिन अपनी पत्नी से इस प्रकार की बातें सुनते रहने के कारण पचासों भाइयों ने भी सोचना शुरू कर दिया, “मेरी पत्नी की बात में कुछ तो सच्चाई लगती है।” एक पुत्र तो अपने पिता के पास चला गया और कहने लगा, “आपने मेरे बड़े भाई को मुझसे अधिक संपत्ति क्यों दी है?”

राजा ने कहा, “तुम देख सकते हो कि एक समय पर जो मेरा था, अब वह तुम सभी का है। झगड़ क्यों रहे हो? इस राज्य की भूमि को समान भागों में विभाजित करना असंभव है। ”

कलह बढ़ने लगी। अंततः सभी भाइयों में आपस में युद्ध छिड़ गया और एक-एक करके रानी के पचासों पुत्र मारे गए।

रानी अब शोक से पागल हो गई। उसे अपने पुत्रों से बहुत आसक्ति थी। एक के बाद एक, उसने अपने सभी पुत्रों को मरते देखा। रानी के दुःख की कोई सीमा न रही। उसने अपने दुःख के लिए कृष्ण को दोषी ठहराना शुरू कर दिया, “कृष्ण निर्दयी हैं! क्रूर हैं! जीवों को दुःख देकर उन्हें संतुष्टि मिलती है। वे किसी का कल्याण नहीं करते हैं!”

वह बोलती रही, “उन्हें ज्ञान नहीं हैं! हम पति-पत्नी बूढ़े हैं, पुत्रों की जगह हमारा ही जीवन ले लिया होता! हमारी संतति को अब कौन आगे बढ़ाएगा? भगवान् में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है! वह नासमझ है!”

पुत्र-वियोग के दुःख में वह अविरत रोती रही।

उस समय कृष्ण, एक ब्राह्मण के रूप में उसके घर आए और उससे पूछने लगे, “क्या आप सभी कुशल तो हैं?”

“नहीं,” रानी ने रोते हुए उत्तर दिया, “मैंने पचास पुत्रों को खो दिया है। मैं बहुत दुःखी हूँ।”

कृष्ण ने उससे पूछा, “आपने पचास पुत्र कहाँ से प्राप्त किए थे? प्रत्येक जीव भगवान् से आता है। भगवान् की इच्छा से वह शरीर को प्राप्त करता है, कुछ समय के लिए उस शरीर में रहता है और भगवान् की ही इच्छा से उस शरीर को छोड़कर अन्य स्थान पर चला जाता है। आपके पुत्र भी आपके नहीं थे। यदि उनमें से एक भी पुत्र आपका होता, तो आप उसे अपने पास रख सकती थीं।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

आप क्यों विलाप कर रही हैं? जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और जो निश्चित है उसके लिए शोक करने की क्या आवश्यकता है?”

ब्राह्मण के वचन सुनकर रानी कुछ समय के लिए शांत हुई और उसने रोना बंद कर दिया। किन्तु जैसे ही उसने अपने किसी पुत्र के वस्त्र और उससे संबंधित किसी वस्तु को देखा, वह पुनः रोने लगी।

कृष्ण ने तब उससे कहा, “देखिए, आप अपने पुत्रों को तो वापस नहीं ला सकतीं। कृपया उस सरोवर में स्नान कर आइए। तब तक मैं आपके पुत्रों की आत्मा की शांति के लिए व्यवस्था करता हूँ।”

रानी विलाप करती हुई कहने लगी, “आप एक ब्राह्मण हैं, इसलिए मैं आपके आदेश का पालन करूँगी। किन्तु मैं अब जीवित रहना नहीं चाहती। मेरा आपसे अनुरोध है कि आप मुझे ऐसा आशीर्वाद करें जिससे मेरी मृत्यु हो जाए। ”

रानी के रूप में, नारद मुनि, ब्राह्मण रूपी कृष्ण के निर्देश अनुसार सरोवर में स्नान करने के लिए गए। जैसे ही उन्होंने सरोवर में डुबकी लगाकर सिर ऊपर उठाया, उनकी दृष्टि सरोवर के बाहर प्रतीक्षा कर रहे श्रीकृष्ण पर पड़ी।

“आप यहाँ क्या कर रहे हैं?” नारद मुनि ने कृष्ण से पूछा।

“पहले आप मुझे बताइए कि आपने अभी क्या देखा,” कृष्ण ने पूछा।

“मैंने जो देखा?” नारद मुनि ने कहा, “वह तो बहुत लज्जाजनक था।” मेरा शरीर बदल गया था। एक स्त्री-शरीर में एक राजा से मेरा विवाह हुआ था और मैं एक बहुत बड़े ऐश्वर्यशाली साम्राज्य की रानी बन गया था। कुछ समय बाद, मेरे पचास पुत्र हुए। मैं उन्हीं की देखभाल में पूर्ण रूप से व्यस्त था। बाद में उनका विवाह हुआ। जब उनकी पत्नियाँ उनके साथ रहने लगीं, तो सभी पुत्र आपस में झगड़ने लगे। फिर, उन्होंने एक-दूसरे से लड़ाई की और सभी के सभी मारे गए। पुत्र वियोग के दुःख के कारण मैंने आप पर क्रोध प्रदर्शन करते हुए कहा, “आप क्रूर हैं। आपको मुझ पर कोई दया नहीं है। आप अज्ञानी हैं। आप मूर्ख हैं। कृपया, मुझे बताइए, यह मैंने क्या देखा?”

“यही तो मेरी माया है। क्या तुम और देखना चाहोगे?” कृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा।

“नहीं! नहीं!” कहते हुए नारद मुनि रो पड़े।

नारद मुनि यहाँ माया के प्रभाव के कारण स्वयं को एक राजा की पत्नी और पचास पुत्रों की माता समझने लगे थे और उनसे बिछड़ने पर विलाप कर रहे थे। किन्तु जैसे ही उन्होंने कृष्ण को देखा वे समझ गए कि न वे किसी की पत्नी हैं और न ही किसी की माता। उनका नित्य सम्बन्ध भगवान् के साथ है।

इसी प्रकार हमारा भी नित्य सम्बन्ध भगवान् के साथ है। उस सम्बन्ध को भूल जाने के कारण ही माया हमें इस जगत् के अनित्य संबंधो में आसक्त करके कभी रुलाती है, कभी हँसाती है तो कभी कोई अन्य कार्य करवाती है।

यदि हमें माया के बंधन से बचना है तो, “मैं भगवान् का हूँ, भगवान् ही मेरे रक्षक और पालक हैं,” इस बात का स्मरण रखना होगा और उनके चरण कमलों का आश्रय ग्रहण करना होगा।