अपनी दक्षिण भारत यात्रा के समय श्रीचैतन्य महाप्रभु जब रंगनाथ मंदिर गए थे तब मंदिर में उन्होंने एक ब्राह्मण को श्रीमद् भगवद् गीता का पाठ करते हुए देखा। क्योंकि उस ब्राह्मण को संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं था, वह श्लोकों का उच्चारण ठीक से नहीं कर पा रहा था। इस कारण से वहाँ के पंडित उस ब्राह्मण को पाठ करता हुए देख, उसका परिहास करते थे और उससे कहते थे, “तुम्हें संस्कृत पढ़नी नहीं आती तो पाठ क्यों करते हो? पहले संस्कृत सीखो और श्लोकों का उच्चारण ठीक करो। ”
ब्राह्मण उन पंडितों के इस प्रकार के परिहास पर ध्यान न देकर, प्रतिदिन भक्तिभाव से श्रीमद् भगवद् गीता के सभी श्लोकों का पाठ करता था। श्रीचैतन्य महाप्रभु, ब्राह्मण के श्रीमद् भगवद् गीता पाठ से आकर्षित होकर उसके पीछे खड़े होकर पाठ को सुनने लगे। सभी श्लोकों का उच्चारण हो जाने के बाद जब वह ब्राह्मण अपने स्थान से उठा तब उसने दीर्घाकृति, गौरकान्ति वाले महाप्रभु को देखा। महाप्रभु के तेज को देखकर वह थोड़ा डर गया। उसने को साष्टांग प्रणाम किया। महाप्रभु ने उसे कहा, “तुम्हारा गीता पाठ महाप्रभु सुनकर मुझे बहुत आनंद हुआ।”
यह सुनकर ब्राह्मण बोला, “मैं तो संस्कृत नहीं जानता हूँ, में श्लोकों का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाता हूँ। किन्तु मेरे गुरुदेव ने मुझे आदेश दिया है कि मैं गीता के सभी श्लोकों का पाठ करने के बाद ही प्रसाद ग्रहण करूँ। इसलिए अर्थ समझ न आने पर भी गुरुदेव की आज्ञा का पालन करने के लिए, मैं प्रतिदिन गीता के सारे श्लोकों का पाठ करता हूँ।”
महाप्रभुः “मैंने देखा पाठ करते समय तुम्हारी आँखों से अश्रु-धारा प्रवाहित हो रही थी । यदि तुम्हें श्लोकों का अर्थ समझ में नहीं आता है तो इस प्रकार के भाव उदित होने का कारण क्या है?”
ब्राह्मण: “मैंने यह बात आज तक किसी को नहीं बताई किन्तु आपके सामने में कुछ छिपा नहीं सकता। जब में पाठ करता हूँ तब सोचता हूँ कि अनंत ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान्, भक्त के प्रेम से वशीभूत होकर, भक्त के सारथी का काम कर रहे हैं! भगवान् को इस प्रकार भक्ति के अधीन देखकर और उनकी भक्त वात्सल्य मूर्ति को देखकर मेरी आँखों से अश्रु बहने लगते हैं।”
महाप्रभुः “तुम्हारा गीता अध्ययन सार्थक है।”
श्रीमद् भगवद् गीता व वेदादि शास्त्र भगवद्-वस्तु होने के कारण, उनका वास्तविक अर्थ केवल भक्ति के द्वारा ही जाना जा सकता है। स्वयं को बड़े पंडित समझनेवाले व्यक्ति भक्ति के अभाव के कारण अहंकार में मत्त रहते हैं।
शास्त्रार्थ व शब्दार्थ एक नहीं हैं। शास्त्र के शब्द कोई जागतिक शब्द नहीं हैं; शास्त्र शब्दब्रह्म हैं, भगवान का ही अवतार हैं। इसीलिए महाजन-गण ने कहा हैं, ‘भक्त्या भागवतम् ग्राह्यं न बुद्ध्या न च टीकया’ – अर्थात् अचिन्त्य व अतीन्द्रिय शास्त्र एकमात्र
भक्ति द्वारा ही अनुभवनीय विषय हैं।