अमेरिका यात्रा के समय में फीनिक्स नाम के एक स्थान पर गया था। वहाँ एक चर्च में सभा (हरिकथा) का आयोजन किया गया था। क्योंकि वहाँ के लोगों को ज़मीन पर बैठने का अभ्यास नहीं है, बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था की गई थी। मेरे लिए एक छोटा मंच बनाया गया था। अनेक स्थानीय व्यक्ति उस सभा में उपस्थित हुए थे। सभा के बाद प्रसाद की व्यवस्था भी की गई थी। सभा की समाप्ति के बाद जब हम वहाँ से निकलने लगे, एक व्यक्ति मेरे पास आए और मुझसे कहने लगे, “स्वामी जी, मुझे श्रीमद् भगवद् गीता पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। मैं सुबह सबसे पहले श्रीमद् भगवद् गीता की शिक्षा को पढ़ता हूँ और उसके बाद ही अपना कार्य शुरू करता हूँ।”
पाश्चात्य देश (Western Country) में रहते हुए भी श्रीमद् भगवद् गीता के प्रति उनका इतना आदर देख मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। भारत में भी श्रीमद् भगवद् गीता को प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पढ़नेवाले व्यक्ति मैंने बहुत कम ही देखे हैं। मैंने श्रीमद् भगवद् गीता के प्रति उनके आदर और सम्मान की प्रशंसा की। उसके बाद वे कहने लगे, “स्वामी जी, यद्यपि मैं श्रीमद् भगवद् गीता का सम्मान करता हूँ, प्रतिदिन श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन करता हूँ, किन्तु मैं कृष्ण को भगवान् के रूप में स्वीकार नहीं करता। कृष्ण कोई विशेष शक्तिवाले पुरुष, अतिमानव (Super Human Being) या एक बहुत बड़े कूटनीतिज्ञ (Diplomat) अथवा राजनीतिज्ञ (Politician) हो सकते हैं किन्तु में उन्हें भगवान् नहीं मानता।”
हम चलते-चलते बात कर रहे थे; अधिक बात करने का समय नहीं था। मैंने उनसे केवल इतना ही कहा, “आपने बताया कि आप श्रीमद् भगवद् गीता का आदर करते हैं और उसे प्रतिदिन पढ़ते हैं। मेरी आपसे एक विनती है, क्या आप श्रीमद् भगवद् गीता से श्रीकृष्ण के अतिमानव, कूटनीतिज्ञ या राजनीतिज्ञ होने का कोई एक भी प्रमाण दे सकते हैं”
जब वे कोई प्रमाण नहीं दे पाए तब मैंने उनसे कहा, “श्रीमद् भगवद् गीता में एक भी श्लोक ऐसा नहीं है जो श्रीकृष्ण के अतिमानव, कूटनीतिज्ञ या राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण देता हो। किन्तु इससे विपरीत, ऐसे अनेक श्लोक हैं जो श्रीकृष्ण के भगवान् होने का प्रमाण देते हैं। श्रीमद् भगवद् गीता में श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन से कहते हैं—
मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।
(श्रीमद् भगवद् गीता ७/७)
‘हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ और कोई भी नहीं है। धागे में जिस प्रकार मणियाँ गुंथी रहती हैं, उसी प्रकार यह सारा विश्व ओतप्रोत रूप से मेरे ही आश्रित है।’
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातध्यवन्ति ते।।
(श्रीमद् भगवद् गीता ९/२४)
‘मैं ही समस्त यज्ञों का भोक्ता और प्रभु हूँ। जो मेरे वास्तव तत्त्व को नहीं जानते वे बार-बार संसार में पतित होते हैं।’
यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।
(श्रीमद् भगवद् गीता १५/१८)
‘मैं क्षर (जीव) से अतीत हूँ और अक्षर (ब्रह्म और परमात्मा) से भी उत्तम हूँ। इसलिए सभी लोकों में तथा वेदों में मुझे पुरुषोत्तम कहते हैं।’
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।
(श्रीमद् भगवद् गीता १४/२७)
‘मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ अर्थात् ब्रह्म का मूल कारण हूँ। मैं ही नित्य-सुख का एकमात्र आश्रय हूँ।’
इन प्रमाणों को सुनने के बाद वह व्यक्ति बोले, “श्रीकृष्ण एक साधारण मनुष्य के जैसे जन्म ग्रहण करते हैं, उनके भी माता-पिता हैं, उन्हें हम भगवान् कैसे मानें?”
मैंने कहा, “श्रीमद् भगवद् गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।
(श्रीमद् भगवद् गीता ४ /९)
‘मेरे जन्म और कर्म दोनों दिव्य हैं। जो मेरे इस दिव्य जन्म और कर्म के तत्त्व को जानते हैं, वे देह त्याग करने के बाद पुनः जन्म ग्रहण नहीं करते।’
श्रीकृष्ण का जन्म और कर्म साधारण मनुष्यों के जैसे नहीं हैं। देवकी और वसुदेव को वात्सल्य रस की सेवा प्रदान करने के लिए और उनकी इच्छा पूर्ति के लिए, श्रीकृष्ण ने उन्हें माता-पिता के रूप में ग्रहण किया। श्रीमद् भागवतम् में लिखा है कि कंस के कारागार में श्रीकृष्ण शंख, चक्र, गदा और पद्म लेकर चतुर्भुज रूप से आविर्भूत हुए। देवकी और वसुदेव उनके इस रूप को देखकर सोचने लगे कि यदि भगवान् छोटे बालक के रूप में आते तो वे उन्हें कंस से छिपा सकते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से छोटे बालक के रूप में आने की विनती की। कृष्ण उनकी विनती सुनकर हँस दिए और बोले, “मैं एक साधारण बालक के रूप में ही आ सकता था, किन्तु उससे आपका भय दूर नहीं होता। आपको यह विश्वास नहीं होता कि मैं भगवान् हूँ और मैं कंस का वध करूँगा।”
श्रीकृष्ण ने उनकी विनती स्वीकार करते हुए एक साधारण बालक का रूप धारण किया। उसी समय कारगार के द्वार और श्रृंखलाएँ अपने आप ही खुल गई और वसुदेव यमुना पार करके श्रीकृष्ण को गोकुल ले गए। इस प्रकार श्रीकृष्ण के जन्म और कर्म दोनों दिव्य हैं। मूर्ख व्यक्ति उनके वास्तव स्वरूप को न जानकर उन्हें एक साधारण मनुष्य समझते हैं।
कोई शास्त्रों का बहुत बड़ा पंडित ही क्यों न हो किन्तु यदि गीता अध्ययन के बाद वह श्रीकृष्ण को भगवान् न मानकर एक अतिमानव, कूटनीतिज्ञ या राजनीतिज्ञ माने, तो इस प्रकार के गीता पाठ से क्या कोई लाभ होगा? गीता को मानने का अर्थ है गीता की शिक्षाओं को स्वीकार करना, उनका पालन करना। अपने निजी लाभ के लिए अपनी रुचि के अनुरूप गीता का अर्थ करना गीता को मानना नहीं है।