विदेश में भारतीय संस्कृति के नाम पर जो प्रचार किया जा रहा है, वह आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार न होकर केवल नृत्य-गीत आदि का ही प्रचार है। किन्तु भारतीय संस्कृति कहने से आध्यात्मिक संस्कृति को ही समझना है। विद्या दो प्रकार की है—परा और अपरा। परा-विद्या ही श्रेष्ठ है, क्योंकि इसके द्वारा ब्रह्मवस्तु को जाना जाता है। अपरा विद्या निकृष्ट है, जिसे जड़-विद्या भी कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में तीन विभाग हैं—शरीर, मन और कारण-चित्तत्व अथवा आत्मा। गीता शास्त्र ने शरीर और मन को अपरा प्रकृति का वैभव कहा है तथा जीवात्मा को परा-प्रकृति से उत्पन्न बताया है,
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ७/४-५)
अपरा प्रकृति से सम्बन्धित विद्या अर्थात् जड़-विद्या के द्वारा केवल प्राकृत शरीर और मन की पुष्टि हो सकती है, किन्तु व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप की पुष्टि नहीं होती है। अपरा प्रकृति के द्वारा जो शरीर और मन की पुष्टि की बात कही गई है, उसमें समझने का विषय यह है कि अपरा प्रकृति तो जड़ है, इसलिए उसकी अपनी कोई क्रिया नहीं है, केवल परा प्रकृति के द्वारा अधिष्ठित होकर ही वह क्रियान्वित होती है। वैसे भी आत्मा ही आत्मा को पुष्ट कर सकती है, अनात्मा नहीं। श्रुति कहती है-
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।
(बृहदारण्यक उपनिषद् ४/५/६)
आत्मज्ञान के बिना जीव को परा-शान्ति नहीं मिल सकती। इस आत्मानुशीलन को ही ब्रह्म-विद्या कहते हैं। पराविद्या की चर्चा का अभाव होने के कारण ही जीवों में असन्तोष और अभाव का अनुभव होता है जिसके फलस्वरूप चंचलता और अस्थिरता उत्पन्न होती है, जिससे जीव अपना और दूसरों का अमंगल ही करते हैं। अभाव के द्वारा कभी भी अभाव दूर नहीं हो सकता, वरन् वह तो बढ़ता ही जाता है। किन्तु वर्तमान युग में अज्ञा- नरूपी अन्धकार से आवृत जीव: दुःखमय ‘संसार के हाथ से ही सुख प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। अतः उनकी सभी चेष्टाएँ व्यर्थ चली जाती हैं। तत्त्व को जानने वाले व्यक्ति कहते हैं कि स्वरूप- ज्ञान की उपलब्धि करके चिदानुशीलन करो अर्थात् वास्तव-वस्तु भगवान् का अनुशीलन करो, तब कहीं जाकर दुःखों का वास्तविक कारण दूर होगा।
ब्रह्म-विद्या का अनुशीलन ही वास्तव भारतीय संस्कृति है। ब्रह्मविद्या का अनुशीलन करने से जीव में स्वाभाविक रूप से इन्द्रियों को संयत करने की शक्ति आती है और इस शिक्षा का अभाव होने से ही उच्छृंखलता आती है जो व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन को असहनशील बना देती है। इसलिए वर्तमान युवा समाज यदि ब्रह्म-विद्या के अनुशीलन के लिये उत्साहित हो जाये तो वही ब्रह्म-विद्या वास्तव शुभ का सूत्रपात (प्रारंभिकरण) करेगी। काम में ईंधन देने से काम का दमन नहीं होता, अपितु वह और बढ़ता है। इसलिए भोग्य वस्तुओं को जुटाने से स्वेच्छाचारिता का दमन नहीं किया जा सकता। धर्म और नीति की शिक्षा द्वारा सुसंस्कृत या नियन्त्रित जीवन बिताने वाले व्यक्ति ही किसी देश की सभ्यता के मेरुदंड (रीढ़ की हड्डी) हैं। देश के नेता धर्म और नीति की शिक्षा के विषय में जब तक सचेत नहीं होंगे तब तक वे देश का वास्तविक कल्याण नहीं कर सकते।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज संस्थापक आचार्य,
श्री चैतन्य गौड़ीय मठ