एक दिन एक व्यक्ति मेरे पास आए और मुझसे कहने लगे, “स्वामी जी! मठ में आने की और सत्संग करने की हमारी बहुत इच्छा होती है पर क्या करें, हम लोग बहुत व्यस्त रहते हैं। आपने तो संसार (घर-परिवार) छोड़ दिया है, मठ में आ गए हैं, अभी आपको और कोई काम नहीं है, इसलिए आप हर समय ‘हरि-हरि’ कर सकते हैं, किन्तु हमें तो घर-परिवार चलाना है, हमें तो बहुत सारा काम करना पड़ता है। हम यदि ‘हरि-हरि’ करते रहें तो हमारा घर-परिवार कैसे चलेगा?”

इस सम्बन्ध में हमारे गुरु महाराज (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) एक उदाहरण दिया करते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हिटलर जर्मनी का तानाशाह (डिक्टेटर) था तथा जनरल गोबल उसका दाहिना हाथ (मुख्य सहायक) थे। जनरल गोबल को एक बार पूछा गया कि वे फौज (आर्मी) में व्यक्तियों की भर्ती कैसे करते हैं?

उनका उत्तर इस प्रकार था: “फौज में भर्ती के लिए आए हुए व्यक्तियों को मैं चार श्रेणियों में विभाजित करता हूँ:

1. ‘चतुर और कर्मठ’
2. ‘चतुर और सुस्त (आलसी)’
3. ‘मूर्ख और सुस्त’
4. ‘मूर्ख और कर्मठ’

मैं साधारणतः ‘चतुर और कर्मठ’ श्रेणी के व्यक्तियों को पसंद करता हूँ, किन्तु प्रधान-कर्ता (कमांडर-इन-चीफ) के पद के लिए उन्हें नियुक्त नहीं करता। उस पद के लिए मैं ‘चतुर और सुस्त’ व्यक्तियों को नियुक्त करता हूँ।”

कोई यह प्रश्न कर सकता है कि ‘चतुर और कर्मठ’ व्यक्ति ‘चतुर और सुस्त’ व्यक्तियों से अधिक योग्य है, फिर भी उन्हें प्रधान पद क्यों नहीं देते? उत्तर में जनरल गोबल ने कहा, “हर समय युद्ध करना हमारे देश के लिए ठीक नहीं है। यदि ‘चतुर और कर्मठ’ व्यक्ति को प्रधान बनाया जाए तो वह किसी भी समय युद्ध आरम्भ करवा सकता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति हर समय व्यस्त रहना चाहता है। यह देश की शांति के लिए ठीक नहीं है। ‘चतुर और सुस्त’ व्यक्ति तभी युद्ध करेगा जब कोई अन्य उपाय नहीं होगा।

“जो ‘मूर्ख और सुस्त’ हैं उन्हें में भर्ती कर लेता हूँ क्योंकि रोज़गार की समस्या है, किन्तु ‘मूर्ख और कर्मठ’ व्यक्तियों से मैं हज़ारों मील दूर रहता हूँ।”

यदि पूछा जाता कि ऐसा क्यों? तो उत्तर में वे कहते, “मैं, ‘मूर्ख और सुस्त’ व्यक्ति को इसलिए नियुक्त कर लेता हूँ क्योंकि सुस्त होने के कारण वह अधिक गड़बड़ नहीं करेगा और जो थोड़ी गड़बड़ करेगा उसे हम सुधार लेंगे। किन्तु ‘मूर्ख और कर्मठ’ व्यक्ति बहुत गड़बड़ करता रहेगा जिसे ठीक करने के लिए हमें बहुत समय देना पड़ेगा। इसलिए ऐसे व्यक्ति से मैं हमेशा दूर रहता हूँ।”

हमें यह विचार करना चाहिए कि हम किस श्रेणी में आते हैं। हम कहते हैं, “हम संसार में इतने व्यस्त हैं कि भगवान् का भजन करने के लिए हमारे पास समय नहीं है।” हम लोग भी ‘मूर्ख और कर्मठ’ की श्रेणी में आते हैं। हर समय हम संसार की अनित्य वस्तुओं के लिए व्यस्त रहते हैं यह सोचते हुए कि वे हमें सुख देंगी, किन्तु वास्तव में वे हमारे दुःखों का ही कारण हैं। हम अपने आपको शरीर समझते हैं तथा शरीर की आवश्यकताओं को ही अपनी आवश्यकता समझकर उन्हीं को प्रधानता देते हैं। एक व्यक्ति अपने कार्यों में कितना भी व्यस्त क्यों न हो वह अपना सुबह का, दोपहर का और रात का भोजन नहीं भूलता क्योंकि वह जानता है कि खाना उसके शरीर की ज़रूरत है। इस अनित्य शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हम दिन-रात परिश्रम करते रहते हैं। किन्तु भगवान् का भजन जोकि नित्य और वास्तव है उसके लिए हमारे पास समय नहीं है। जो व्यक्ति भगवान् के भजन की आवश्यकता को समझ गया है वही अपने समय को भजन में नियोजित करेगा। वही व्यक्ति चतुर है। अन्यथा वह मूर्ख और कर्मठ है।

अम्बरीष महाराज पूरे सप्तद्वीप के सम्राट थे। इतना ऐश्वर्य होते हुए भी उन्हें उसमें थोड़ी सी भी आसक्ति नहीं थी। वे जानते थे कि धन-संपत्ति वास्तविक सुख नहीं दे सकती। उन्होंने अपने समस्त ऐश्वर्य को स्वप्न के समान अनित्य ही देखा और अपनी सभी इन्द्रियों को सब समय भगवान् की सेवा में नियोजित किया। इतना बड़ा दायित्व होने पर भी, अम्बरीष महाराज, भगवान् की सारी सेवा स्वयं ही करते थे। इसलिए भजन करने के लिए समय नहीं मिल पाना एक बहाना मात्र है।