शास्त्रों में अनेक प्रकार के सेवकों के विषय में बतलाया गया है। उन्हें मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है।
1. प्रथम श्रेणी का सेवक (उत्तम सेवक): जो सेव्य (गुरु और वैष्णव) के आदेश से पहले ही सेवा को सम्पन्न कर देता है। उदाहरण के रूप में, यदि सेव्य को बिस्तर की आवश्यकता है तो आदेश के पूर्व ही सेवक उनका बिस्तर लगा देता है। यदि सेव्य को प्यास लगी है तो वह आदेश से पहले ही उन्हें जल दे देता है।
2. द्वितीय श्रेणी का सेवक (मध्यम सेवक): जो सेव्य के आदेशानुसार सेवा करता है। उदाहरण के लिए, बहुत गर्मी का मौसम है, पसीना आ रहा है तथा बिजली न होने के कारण पंखा बन्द है फिर भी जब तक सेव्य आदेश नहीं करते तब तक सेवक हाथ-पंखे के द्वारा उनकी सेवा नहीं करता। आदेश मिलने पर ही वह सेवा करता है। वह सेव्य को जल भी तभी देता है जब उससे माँगा जाता है। वह कोई भी सेवा आदेश मिलने से पहले नहीं करता।
3. तृतीय श्रेणी का सेवक: जो आदेश मिलने पर भी सेवा नहीं करता। वैसे तो उस व्यक्ति को सेवक कहा ही नहीं जाएगा किन्तु गुरु और वैष्णवों द्वारा सेवा का अवसर प्रदान किए जाने के कारण उसे भी सेवक के रूप में स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार के सेवक के साथ एक विशेषण का प्रयोग किया जाता है- ‘अधम’। वह ‘अधम सेवक’ कहलाता है।
हमारे षड़-गोस्वामियों ने छह प्रकार के अधम सेवकों का वर्णन किया है। प्रथम अधम सेवक को ‘अली’ कहा जाता है। ‘अली’ अर्थात् मधुमक्खी। इस प्रकार का सेवक किसी सेवा का आदेश प्राप्त होने पर मधुमक्खी की भांति भिनभिनाता है। वह मन में अनेक प्रकार के विचार करने लगता है। जैसे, “मठ में रहना कठिन है। सब समय सेवा करो, सेवा करो; क्या मैं केवल सेवा करने के लिए ही मठ में आया हूँ?”
दूसरे अधम सेवक को ‘बाण’ कहा जाता है। जिस प्रकार बाण को छोड़ने पर वह लौटकर नहीं आता, उसी प्रकार बाण-सेवक भी सेवा करने के लिए चला तो जाता है। किन्तु लौटकर नहीं आता। इस प्रकार के एक सेवक को मैंने देखा है। हमारे एक गुरुभाई का पुत्र बहुत चंचल स्वभाव का था। उन्होंने उसे सेवा करने के उद्देश्य से मेरे पास कोलकाता मठ में रहने के लिए भेजा। एक दिन मैंने उसे कहा, “मुझे कुछ लिखना है। तुम यह पैसे लो और सामने की दुकान से कागज़ खरीदकर ले आओ।” वह झट से पैसे लेकर चला गया। मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगा। एक घंटा हो गया, पाँच घंटे हो गए, एक दिन हो गया, दो दिन हो गए किन्तु वह पैसे लेकर बाण की तरह गया और कभी लौटकर नहीं आया।
तीसरे अधम सेवक को ‘किम् एकाकी’ (मैं अकेला ही क्यों) कहा जाता है। इस प्रकार के सेवक को सेवा का आदेश मिलने पर वह कहेगा, “मुझ अकेले से यह सेवा नहीं होगी।” अन्य सेवकों को सेवा करते हुए देखने पर भी वह स्वयं सेवा नहीं करेगा।
एक बार में सारभोग मठ में गया। मठ में पाँच भक्त रहते थे। बाहर के भक्त भी मठ में कम ही आते थे। मठ के एक भक्त अपनी एक समस्या लेकर मेरे पास आए। उन्होंने कहा, “क्योंकि यह छोटा मठ है, आप लोग इस मठ के सेवकों की स्थिति पर ध्यान नहीं देते। यहाँ सेवकों की कमी है। हम तो यहाँ सेवा करते-करते मर गए।”
मैंने उनसे पूछा, “क्या बात है?”
उन्होंने एक-दो सेवकों की ओर इंगित करते हुए कहा, “यह सेवक रसोई करते- करते मर गया। यह बर्तन धोते-धोते मर गया। मैं भिक्षा करते-करते मर गया। यहाँ की समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं देता। वेतन देकर किसी व्यक्ति को सहायता के लिए रखने की आवश्यकता होने पर भी छोटा मठ होने के कारण यहाँ की समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं देता।”
क्या पाँच व्यक्ति मिलकर एक मठ की सेवा नहीं कर सकते? क्या भिक्षा इकट्ठी करने के लिए वेतन देकर किसी व्यक्ति को रखना पड़ेगा? रसोई करने के लिए, बर्तन- सफाई करने के लिए, यहाँ तक कि विग्रह-पूजा के लिए भी वेतन देकर व्यक्ति रखने होंगे? यदि सेवा के लिए वेतन देकर व्यक्ति रखेंगे तो हम क्या करेंगे? दुम हिलाएँगे, खाएँगे और सोएँगे? इस प्रकार करने से हमारा पूरा जीवन व्यर्थ हो जाएगा।
यदि सेवा करने की इच्छा हो तो केवल एक सेवक ही मठ की सभी सेवाएँ कर सकता है। यहाँ तो पाँच सेवक होने पर भी कहते हैं, “सेवा करते-करते मर गया।” सेवा करने से कोई मरेगा नहीं, उल्टा जितनी सेवा करेगा उतना ही बच जाएगा।
कोई कह सकता है, “आप जानते नहीं हैं कि मैं कितने बड़े घर से आया हूँ। क्या मैं मठ में रसोई या बर्तन-सफ़ाई करने के लिए आया हूँ?”
सम्बन्ध ज्ञान के साथ भगवान् के लिए रसोई करना या बर्तन साफ़ करना भक्ति है। भगवान् के लिए रसोई करने की इच्छा नहीं होगी तो उनसे प्रीति कैसे होगी? जितना हम सेवा से दूर रहेंगे, हमारी भोग प्रवृत्ति उतनी ही बढ़ती रहेगी और उतना ही हम भगवान् के ऋणी होते रहेंगे। सेवा न करने का फल अच्छा नहीं है। सेवा प्रवृत्ति न होने से हम अधिक समय तक मठ में नहीं रह पाएँगे।
हमारे कोलकाता मठ में एक वरिष्ठ ब्रह्मचारी थे जो मृदंग बजाने की सेवा करते थे। वह दिन में आरती के समय मृदंग बजाते तथा कीर्तन करते थे। उसी मठ में आसाम का एक युवक ब्रह्मचारी रसोई बनाने की एवं बर्तन साफ़ करने की सेवा करता था। युवक ब्रह्मचारी निष्ठा से सेवा करता था। प्रतिदिन वह ठाकुर जी के भोग एवं ४० से ५० भक्तों के लिए रसोई बनाता था।
एक दिन मृदंग बजानेवाले ब्रह्मचारी ने युवक ब्रह्मचारी से कहा, “सभी मठवासी खा-पीकर सो जाते हैं। तुम किसलिए इतना परिश्रम करते हो; आराम से रहो। मैं भी दिन में थोड़ा मृदंग बजा लेता हूँ और बाकी समय सोता रहता हूँ।”
युवक ब्रह्मचारी को यह बात सुनकर आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा, “बड़े होने के कारण उनका कर्त्तव्य है मेरे सेवा करने के उत्साह को बढ़ाना, किन्तु ये तो विपरीत बात कह रहे हैं! ऐसा क्यों?” वह तुरंत मेरे पास आया और पूरी बात बताई। उसकी बात सुनकर मुझे लज्जा अनुभव हुई। मैंने उससे कहा, “तुम्हारा अहोभाग्य है कि तुम में सेवा करने की इच्छा है। हमने लाखों-लाखों जन्म इन्द्रिय तर्पण में बिता दिए। भगवान् की कृपा से अभी हमें मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है; गुरुदेव और वैष्णवों की सेवा का सुयोग प्राप्त हुआ है। जितनी अधिक सेवा करेंगे हमें उतना ही अधिक लाभ होगा और जितना भोग करेंगे उतना ही नुकसान।”
सेवा न करने का फल अच्छा नहीं होता है। सेवा न करने से व्यक्ति अधिक दिन तक मठ में नहीं रह पाएगा। जब भक्त और भगवान् की सेवा करने की वृत्ति नहीं होगी तो भोग करने की इच्छा प्रबल होगी। मृदंग बजानेवाले ब्रह्मचारी के साथ ऐसा ही हुआ। सेवा में रुचि न होने के कारण वे अधिक समय मठ में नहीं रह पाए। विवाह करके उन्हें संसार में प्रवेश करना पड़ा। घर चलाने के लिए अब उन्हें खेत में हल जोतना पड़ता था, अस्वस्थ पत्नी की सेवा करनी पड़ती थी, बच्चों की देख-भाल करनी पड़ती थी, यहाँ तक कि बच्चों के मल-मूत्र की भी सफ़ाई करनी पड़ती थी। पूरे दिन वे अपने परिवार की सेवा में व्यस्त रहने लगे। वे, भगवान् की सेवा नहीं करना चाहते थे किन्तु अब उन्हें हर समय पत्नी और बच्चों की सेवा करनी पड़ती थी।
जहाँ प्रीति है वहाँ सेवा करने में कष्ट का अनुभव नहीं होता। भगवान् के साथ प्रीति होने से तो उनकी सेवा करने की प्रवृत्ति आएगी। तब दिन-रात सेवा करने के बाद भी यही अनुभव होगा कि मैंने कुछ किया ही नहीं। इसके विपरीत, जहाँ प्रीति नहीं है, सम्बन्ध नहीं है वहाँ थोड़ी सी सेवा करने पर ही व्यक्ति अनुभव करेगा कि मैंने बहुत कुछ कर लिया। एक समय की रसोई करने से लगेगा बहुत कुछ कर दिया, और कितना करेंगे? सेवक कभी यह नहीं सोचता कि उसने भक्त या भगवान् की सेवा कर उन्हें कृतार्थ कर दिया। जो इस प्रकार सोचता है वह सेवक ही नहीं कहलाता।
चौथे अधम सेवक को ‘प्रेषित-प्रेषक’ कहा जाता है। उदाहरण के लिए गुरुजी ने श्यामसुन्दर को बोला, “मेरे गुरुभाई आए हैं, उनके लिए नारियल पानी ले आओ।” श्यामसुन्दर ने कृष्णदास को बोला, “गुरुजी ने अपने गुरुभाई के लिए नारियल पानी मँगवाया है, तुम ले आओ।”
यही बात कृष्णदास ने गोविन्ददास को कही। गुरुजी ने श्यामसुन्दर से पूछा, “नारियल का पेड़ तो मठ में ही है फिर नारियल पानी आने में इतना समय क्यों लग रहा है?”
श्यामसुन्दर ने कहा, “गुरुजी, मैंने कृष्णदास को बोला, किन्तु वह लेकर नहीं आया।”
गुरुजी ने सेवा करने का अवसर दिया, किन्तु श्यामसुन्दर उसका लाभ न उठाकर दूसरों को आदेश करता है। उसकी सेवा करने की रुचि नहीं है।
पाँचवें अधम सेवक को ‘ज्योतिषक’ कहा जाता है। इस प्रकार का सेवक, सेवा प्राप्त होने पर अनेक प्रकार की भविष्यवाणी करता रहता है। गुरुजी ने उसे आदेश दिया, “तुम तीन-चार अन्य सेवकों के साथ निकट के गाँव में भिक्षा करने के लिए जाओ। जहाँ भी जाओगे, वहाँ हरिकथा बोलना। हरिकथा बोलने से तुम्हें तो लाभ होगा ही, साथ में जो सुनेंगे उन्हें भी लाभ होगा।”
सेवक ने गुरुजी को तो ‘हाँ’ उत्तर दे दिया, किन्तु भिक्षा करने गया नहीं गुरुजी ने जब पूछा कि तुम गए क्यों नहीं तो उत्तर में उसने कहा, “गुरुजी, अभी मौसम ठीक नहीं है। मौसम ठीक न होने के कारण न तो वहाँ अनाज होगा, न हमें भिक्षा में कुछ मिलेगा। इसलिए मैंने विचार किया है कि हम अभी नहीं जाएँगे।”
गुरुदेव ने उसे सेवा के लिए नियुक्त किया। किन्तु वह भविष्यवाणी कर रहा है! भिक्षा की व्यवस्था करनेवाले तो भगवान् हैं; अनाज भी वही देंगे।
गुरुजी ने उसे कहा, “ठीक है, तुम गाँव में मत जाओ। आसपास के घरों से भिक्षा ले आओ।” इस बार भी वह गुरुजी के आदेश को न मानकर, खा-पीकर सो गया। गुरुजी के पूछने पर बोला, “अभी सुबह का समय है। सभी ऑफिस के लिए इधर-उधर दौड़ रहे होंगे। अभी जाने से क्या लाभ होगा? हम शाम को जाएँगे।”
वह शाम को भी नहीं गया। गुरुजी के पूछने पर अब वह कहता है, “अभी सभी थके हुए घर आएँगे, कोई भिक्षा नहीं देगा।” वह इस प्रकार भविष्यवाणी करता रहता है। भगवान् सब जानते हैं। ऐसा ज्योतिषी बनने की आवश्यकता नहीं है।
छठे अधम सेवक को ‘स्तब्धीभूत’ सेवक कहा जाता है। यह मात्र अधम ही नहीं, अधमाधम है। उदाहरण के लिए, मठ में महोत्सव होने पर वह इधर-उधर घूमेगा तथा यह सोचकर आनन्द मनाएगा कि आज तो और कचौड़ी खाने को मिलेंगे। गुरुजी अचानक उसे बुलाते हैं और कहते हैं, “आज पाँच हजार लोगों के लिए प्रसाद की व्यवस्था करनी है। उसके लिए तुम्हें रसोई की सेवा करनी होगी।”
यह सुनते ही वह धड़ाम करके गिर जाएगा और ऐसा स्तब्ध हो जाएगा जैसे उस पर बिजली गिर गई हो। उसकी स्थिति मरने जैसी हो जाएगी। वह सोचेगा कि सब लोग तो खा-पीकर आनन्द मनाकर चले जाएँगे, किन्तु रसोई बनाते-बनाते मेरी स्थिति कैसी हो जाएगी? जब कोई सेवा नहीं है, तब तो आनंद में घूमता रहता है, किन्तु जैसे ही सेवा का आदेश मिलता है, स्तब्ध हो जाता है!
ऊपर बताए गए छह प्रकारों में से किसी भी प्रकार का सेवक बनने से वास्तविक लाभ नहीं होगा। इस जगत् में भी यदि हम किसी व्यक्ति का कोई काम न करके उससे कुछ लाभ प्राप्त करते रहें, तो उसके ऋणी बन जाएँगे। उसी प्रकार यदि हम सेवा न करके अपना सारा समय भोग करने में बिताएँगे, तो भगवान् के ऋणी बन जाएँगे। इस जगत् का भोग हमें निम्न योनि में ले जाएगा। यदि हम किसी व्यक्ति या पशु का अपने सुख के लिए भोग करेंगे, तो किसी और जन्म में हम भी उसके द्वारा भोग किए जाएँगे।
क्योंकि हम भगवान् के नित्यदास हैं, उनकी सेवा करना हमारा कर्त्तव्य है। जितनी सेवा करेंगे उतना ही हम बच जाएँगे, लाभ होगा, मंगल होगा।