स्वतंत्रता सेनानी अरविंद घोष ने अपनी आत्म-कथा में अपने द्वारा अनुभव की हुई एक घटना का वर्णन किया है। उस समय भारत में ब्रिटिश शासन था। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कोलकाता की अलीपुर जेल के एक छोटे से कमरे में बंद कर दिया था। तब उन्हें अनुभव होने लगा, “इस बंद कमरे में में और जीवित नहीं रह सकता, इससे तो अच्छा होता वे मुझे मार ही देते।”
वे उदास रहने लगे। एक दिन उनका ध्यान कमरे में घूम रही कुछ चींटियों की ओर गया। बहुत दिनों के बाद किसी चेतन वस्तु को देखकर उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई। वे सोचने लगे कि चींटी के शरीर में आत्मा है, उसी प्रकार मेरे शरीर में भी आत्मा है। इस प्रकार का ध्यान करते-करते वे तन्मय हो गए। आत्म-तत्व के बारे में विचार करते-करते उन्हें सभी जगह व्याप्त चेतन-सत्ता के ज्ञान की अनुभूति हुई जिसने उनके हृदय में शांति की अनुभूति करवाई। वे अनुभव कर पाए कि सभी अणुचेतन जीवों का मूल कारण वह सर्वव्यापक चेतन-सत्ता है। और क्योंकि सभी जीव उस चेतन सत्ता से आते हैं, चेतन वस्तु ही जीव की आवश्यकता है और चेतन वस्तु ही जीव को सुख दे सकती है, अचेतन (जड़) वस्तु नहीं ।
यदि किसी व्यक्ति को बहुत सी ज़मीन दे दी जाए, खाने-पीने की नाना प्रकार की वस्तुऐं दे दी जाएँ, रहने के लिए बड़ी-बड़ी इमारतें दे दी जाएँ, किन्तु यदि वहाँ पर कोई चेतन वस्तु (मनुष्य, पक्षी, पशु या तो कोई भी जीव) का अस्तित्व न हो तो उस व्यक्ति को वहाँ घुटन होने लगेगी। ऐसी स्थिति में उसे सोने-चाँदी, हीरे, जवाहरात जैसी मूल्यवान वस्तुएँ मिल जाएँ तब भी वह दुःख का ही अनुभव करेगा। यहाँ तक कि ऐसी परिस्थिति में वह आत्महत्या भी कर सकता है। किन्तु यदि उसे वहाँ कोई एक भी जीव दिख जाए वह उसे देखकर आनंद का अनुभव करेगा क्योंकि प्रत्येक जीव में आनंद-सत्ता, चेतन सत्ता विराजित है। जब तक चेतन-सत्ता शरीर में है तब तक जीव अन्य जीवों को आनंद प्रदान कर सकता है। किन्तु उस चेतन-सत्ता के चले जाने के बाद एक मृत-जड़-शरीर किसी को आनंद नहीं दे सकता। आत्मा जड़ वस्तुओं से अलग है। आत्मा ही शरीर (जड़-वस्तु) को चेतनता प्रदान करती है। एक चींटी के शरीर में जो आत्मा है, वही एक हाथी के शरीर में, मनुष्य के शरीर में और बाकी जीवों के शरीर में है। आत्मा ही आत्मा की आवश्यकता है, अनात्मा (प्राण-विहीन वस्तु) नहीं। प्रत्येक आत्मा (जीव), विभु-आत्मा भगवान् से आती है इसलिए जीव की वास्तविक आवश्यकता है—भगवान्। भगवान् ही शांति स्वरूप पूर्ण वस्तु हैं। पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही बाकी रहता है। इसलिए एक व्यक्ति को वह पूर्ण वस्तु मिलने पर अन्य कोई व्यक्ति उस पूर्ण वस्तु से वंचित रह जाएगा, ऐसा नहीं है। अनंत जीव उस पूर्ण को प्राप्त कर सकते हैं। ब्रह्माजी भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं—
तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं ।
स्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदुःखदुःखम्।
त्वय्येव नित्यसुखबोधतनावनन्ते
मायात उद्यदपि यत्सदिवावभाति ॥
(श्रीमद् भागवतम् १०/१४/२२)
“यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड अनित्य है; एक स्वप्न जैसा है, क्षणभंगुर (अस्थायी), ज्ञान से रहित, निष्क्रिय और अत्यंत पीड़ा-दायक है। किन्तु आप नित्य, पूर्ण ज्ञानमय और पूर्ण आनंदमय हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड आपकी दिव्य शक्ति द्वारा निर्मित और नष्ट होता है। फिर भी यह नित्य प्रतीत होता है।”