पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण की शरण में जाने को ‘शरणागति’ कहते हैं। महाभारत में वर्णन है कि जब राज सभा में सभी राजाजों और अन्य महानुभावों जैसे द्रोण एवं भीष्म के सामने दुःशासन द्रौपदी का वस्त्र-हरण करना चाहता था, तब द्रौपदी ने अपनी रक्षा के लिए श्रीकृष्ण का नाम लेकर उन्हें पुकारा था। श्रीकृष्ण ने उसे (द्रौपदी को बचाया था, पर तुरन्त नहीं। क्योंकि वे उसे बचाने थोड़ी देर से पहुँचे थे, तो द्रौपदी ने इस बात की शिकायत की। उसने कहा, “मेरी लाज बचाने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, पर आप निश्चय ही थोड़ा पहले भी आ सकते थे। आपने इतनी देर तक प्रतीक्षा क्यों की? आपके इस विलम्ब का कारण क्या है?

श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, “तुमने मेरा नाम पुकारा था, मैं मानता हूँ, पर वे शब्द ही काफी नहीं थे। तुमने मेरी शरण ग्रहण नहीं की थी। सबसे पहले तुम भीम और अर्जुन की शरण में गई, यह सोचकर कि वे आएँगे और दुःशासन का वध करके तुम्हें बचा लेंगे। मैं क्यों तुम्हारे पास आता जब तुम यह सोच रही थी कि भीम और अर्जुन तुम्हारी रक्षा कर सकते हैं? तुमने मेरा नाम तो पुकारा था पर मेरी शरण ग्रहण नहीं की थी। तुम भीम और अर्जुन की शरण में गई।” हम भगवान् को धोखा नहीं दे सकते। यह सम्भव नहीं है। वे हमारे अन्दर ही बैठे हैं और सब कुछ देख रहे हैं। श्रीकृष्ण – “क्या यह सच नहीं कि तुम भीम और अर्जुन की शरण में गई थी?”

द्रौपदी”हाँ” ।

श्रीकृष्ण – “तब मुझे क्यों आना चाहिए था?”

द्रौपदी- “ठीक है, पर इसके बाद तो आपको आना चाहिए था?”

श्रीकृष्ण – “इसके बाद तुम कौरवों व पाण्डवों के द्रोण की शरण में गई । यदि द्रोण ने हस्तक्षेप किया होता तो किसी की भी उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं थी। इसलिए जब द्रोण आकर तुम्हें बचा सकते थे तो भला मेरे आने की क्या ज़रूरत थी? क्या मैं ठीक नहीं हूँ?”

द्रौपदी—“हाँ, आप ठीक हैं।”

श्रीकृष्ण – इसके पश्चात तुम प्रबल योद्धा एवं दरबार के सबसे सम्मानित सदस्य पितामह भीष्म की शरण में गई। यदि उन्होंने हस्तक्षेप किया होता, तो कोई कुछ नहीं कर सकता था… तुम उनकी शरण में गई। जब भीष्म तुम्हारी रक्षा कर सकते थे तो भला मैं क्यों आता? तुमने मेरी शरण नहीं ग्रहण की। तुम ‘कृष्ण, कृष्ण’ पुकार तो रही थी, पर वास्तव में मेरी शरण नहीं ग्रहण की थी। बल्कि तुम उनकी शरण में गई जो तुम्हें सामने दिखाई पड़ रहे थे, तब मैं क्यों आता? मैंने सोचा, “उन्हें तुम्हारी रक्षा करने दो।”

इसके बाद तुम धृतराष्ट्र की शरण में गई और तत्पश्चात् अन्य राजाओं की शरण में। इन सभी प्रयासों के बाद तुमने स्वयं अपने वस्त्र को बलपूर्वक पकड़कर रखा और अपने आप को बचाने का प्रयास किया; एक हाथ ऊपर करके और दूसरे हाथ से अपने वस्त्र को पकड़कर तुमने अपने आप को बचाने का प्रयास किया। पर जहाँ शरणागति केवल आंशिक हो, मैं वहाँ प्रकट नहीं होता। ऐसी परिस्थितियों में अवतरित नहीं होता। जब तुमने अपने दोनों हाथ उठाकर मुझे पुकारा और पूर्ण रूप से मेरी शरण ग्रहण की, मैं उसी क्षण आ गया।”

जब तक हम पूर्ण शरणागत नहीं होंगे, हमें अपने कष्टों से किसी प्रकार की राहत नहीं मिल सकती। जब तक हम निष्कपट भाव से और सम्पूर्ण रूप में भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण नहीं करते तब तक हमें इस संसार के कष्टों को भोगना पड़ेगा। हम धन कमाने और अपने सांसारिक रिश्तों को कायम रखने की कोशिश करते हैं, कि शायद उनसे हमें सुख प्राप्त हो जाय। तब भी हम अनित्य वस्तुओं के साथ आसक्ति का परिणाम देख सकते हैं, जोकि भयंकर दुःखों के रूप में प्रकट होता है। इसके बावजूद अपनी अज्ञानता के कारण व स्वयं की भ्रान्त धारणा (स्वरूप भ्रान्ति) की वजह से हम क्षणिक सुखों को पाने का प्रयास करते रहते हैं। हमने अपना धन खो दिया है, अपने प्रियजनों को खो दिया है, किन्तु हम उन्हें पुनः प्राप्त करने का प्रयास करते रहते हैं। यदि कोई मनुष्य नहीं मिलता तो हम एक कुत्ता, बिल्ली, तोता या अन्य कुछ भी पाल लेते हैं और उनमें आसक्त हो जाते हैं। पुनः पुनः हम नाशवान वस्तुओं को पाने का प्रयास करते हैं क्योंकि हमारे दुःखों का मूल कारण नष्ट नहीं हुआ है। इसका मूल कारण स्वयं के प्रति हमारी भ्रान्त धारणा तथा यह अज्ञानमय विचार है कि भौतिक सुविधाओं की प्राप्ति करके हम सच में सुखी हो जायेंगे। जब तक हम भगवान् की शरण में नहीं जाते, तब तक हम जीवन के चरम लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकते। कठोपनिषद् (2/23) में वर्णित है :

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ।।

“प्रवचन के द्वारा अथवा ज्ञान से या बहुत बुद्धिमत्ता के द्वारा भगवान् को प्राप्त और अनुभव नहीं किया जा सकता।

केवल एक पूर्ण शरणागत जीव को ही भगवान् अपना नित्य स्वरूप प्रकाशित करते हैं।”

और श्रीमद्भगवद्गीता (18/65-66) के अंत में सभी बद्ध-जीवों के नित्य मंगल के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना चरम उपदेश प्रदान किया है-

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।

“अपने चित्त को मुझे समर्पण करो। यदि तुम्हें अपना चित्त मुझमें नियुक्त करने में कठिनाई होती है तो मेरी सेवा करो। अपनी इन्द्रियों को मेरी सेवा में लगाओ। यदि यह भी सम्भव नहीं है तो मेरी पूजा करो। इसके बाद यदि यह भी सम्भव नहीं है तो मेरे पूर्ण शरणागत हो जाओ। मैं तुमसे यह सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम मुझे अवश्य प्राप्त करोगे।”

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

“धर्म (वेदों में वर्णित वर्ण, आश्रम आदि समस्त शारीरिक और मानसिक धार्मिक कर्त्तव्य) के बारे में मेरे समस्त पूर्ववर्ती निर्देशों का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण ग्रहण करो।”

श्रीमद्भगवद्गीता की समाप्ति शरणागति से होती है। और वहीं से श्रीमद्भागवत प्रारम्भ होती है। बिना शरणागति के हम पारमार्थिक राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। अतः पहले हमें श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करनी होगी। जब कोई व्यक्ति श्रीकृष्ण का हो जाता है तथा केवल श्रीकृष्ण के प्रीति- विधान के लिए ही कार्य करता है, तब उसे ‘भक्ति’ कहते हैं। उनके नाम, रूप, गुण एवं लीला के बारे में श्रवण करना पूर्णतः अप्राकृत है। किन्तु सर्वप्रथम हमें श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करनी होगी। हमें यह जानना पड़ेगा कि “मैं श्रीकृष्ण का हूँ।” यह ज्ञान हमें एक आत्म-अनुभूति प्राप्त जीव अर्थात् शुद्ध-भक्त या सद् गुरु प्रदान करेंगे। इसके लिए हमें एक ऐसे आत्म-अनुभूति प्राप्त जीव के पास जाना होगा जो आत्मा के नित्य स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्हें पता है कि वे श्रीकृष्ण के हैं, इसलिए सदा श्रीकृष्ण की सेवा में ही रत रहते हैं। यदि हम ऐसे आत्म-अनुभूति प्राप्त जीव के पास जाकर स्वयं को समर्पित करें (प्रणिपात), उनसे विनम्रतापूर्वक प्रश्न करें (परिप्रश्न) एवं उनकी सेवा करें तब वे हमारे नित्य शाश्वत स्वरूप को जाग्रत कर देंगे, इसीलिए ‘शरणागति आवश्यक है। तथा स्वयं को एक शरणागत-भक्त के प्रति समर्पित करके हम वास्तविक शरणागति प्राप्त कर सकते हैं। शरणागति छः प्रकार की होती है, इनका वर्णन निम्नलिखित है—

आनुकूलस्य संकल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्।
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा।
आत्म-निक्षेप-कार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः।।

“जो कुछ श्रीकृष्ण की सेवा के अनुकूल है, हमें उसे स्वीकार करना चाहिए तथा जो प्रतिकूल है, उसका परित्याग कर देना चाहिए। वे ही एकमात्र रक्षक हैं तथा अन्य कोई भी हमारी रक्षा नहीं कर सकता। केवल वे ही हमारा पालन-पोषण करने वाले हैं। हमें एकमात्र उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिए। हमें दीन-हीन होकर अपने जड़-अभिमान का परित्याग करना चाहिए। ये शरणागति के छः विभाग हैं।

श्रीश्रील सच्चिदानन्द भक्तिविनोद ठाकुर जी शरणागति के विषय में अपने गीत को इन शब्दों के साथ समाप्त करते हैं, “रूप सनातन पदे दन्ते तृण करि । भक्तिविनोद पड़े दुहु पद धरि ।।” “अपने दाँतों के बीच तिनका रखकर मैं श्रीश्री रूप गोस्वामी जी एवं श्री श्री सनातन गोस्वामी जी के चरणों में दण्डायमान होता हूँ।” मूल बात यह है कि हमें एक शुद्ध-भक्त, एक आत्म-अनुभूति प्राप्त जीव के पास जाना है। वे हमें शरणागति की शिक्षा प्रदान करेंगे। यदि हम स्वयं को उनके प्रति समर्पित नहीं करेंगे, तो समर्पण की प्रक्रिया हमारे अन्दर कभी प्रकाशित नहीं होगी।

तब हमें श्रीकृष्ण से क्या प्रार्थना करनी चाहिए? हमें श्रीकृष्ण से उनके श्रीचरणकमल एवं उनके भक्तों की सेवा की प्रार्थना करनी चाहिए। यही सर्वोच्च सम्भावना है। “कृपया मुझे आशीर्वाद कीजिए ताकि मैं आपके शुद्ध-भक्तों का संग प्राप्त कर सकूँ । यदि मुझे आपके शुद्ध-भक्त का संग प्राप्त होगा, तो मुझे आपकी प्राप्ति हो जायगी। कृपया मुझे ऐसा आशीर्वाद कीजिए। जब तक मुझे एक शुद्ध-भक्त के श्रीचरण कमल की रज नहीं मिलती, मुझे कभी कृष्णप्रेम की प्राप्ति नहीं होगी।” यही हमारी प्रार्थना होनी चाहिए।
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