वास्तविक सत्य के विषय में हमारी क्या धारणा है? भगवान् कौन हैं? इस भौतिक जगत की चेतन वस्तु अर्थात् जीव कौन है? भगवान्, जीव और इस संसार का एक-दूसरे के साथ क्या सम्बन्ध है? संस्कृत भाषा में, इस तत्त्व से सम्बन्धित ज्ञान को ही ‘सम्बन्ध’ कहते हैं। इन विषयों की जानकारी विस्तृत रूप से वेदों में उल्लिखित है। पूर्वकाल में सभी सन्तों ऋषि-मुनियों ने भी अपनी-अपनी बोध शक्ति के अनुसार इनका अभिप्राय प्रकाशित किया है।

श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने इन वेदों को आधार बनाकर ही अपने अप्राकृत प्रेम के सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार किया। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने इसे संक्षेप में समझाया है :

वेदशास्त्र कहे— ‘सम्बन्ध’, ‘अभिधेय’, ‘प्रयोजन’ ।
‘कृष्ण’ — प्राप्य सम्बन्ध, ‘भक्ति’ – प्राप्येर साधन ।।
(चै. च. मध्य 20/124-125)

वेदों के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य क्या है? लक्ष्य है—भगवान् श्रीकृष्ण के लिए अप्राकृत प्रेम । ‘कृष्ण’ शब्द का मूल अर्थ है- “वह जो सबको आकर्षित करके सुख प्रदान करता है। कृष्ण सर्व आकर्षक तत्त्व हैं। हमें आकर्षित करने वाले उनमें असंख्य गुण हैं और इसीलिए वे सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। वे सब प्रकार की सत्ता, ज्ञान एवं आनन्द के विग्रह स्वरूप हैं।

उनके समान या उनसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। एक से अधिक परमतत्त्व या अनन्त-वस्तु नहीं हो सकती। यदि अनन्त की व्याख्या के बाहर कुछ अवस्थित है तो अनन्तता का कोई अर्थ नहीं रह जाता और तब वह असीम, सीमित तत्त्व हो जाता है।

परमतत्त्व या अनन्त के बाहर धूल के एक कण की अवस्थिती भी कल्पित नहीं की जा सकती। परमतत्त्व का तात्पर्य है—वह जो स्वयं के भीतर, स्वयं के लिए और स्वयं के द्वारा अवस्थित है। सब कुछ श्रीकृष्ण के भीतर एवं उन्हीं की सेवा के लिए है।

अनन्त एक हैं और उनकी अपनी एक निजी पहचान है। भगवान् सर्व-चेतनमय वस्तु हैं। चेतनता के द्वारा तीन वस्तुएँ अभिहित होती हैं—ज्ञान, क्रिया और इच्छा। जब हम इस जगत के जीवित प्राणियों की ओर देखेंगे, तब हम यह जान पायेंगे कि इस शरीर को व्यक्ति या चेतन वस्तु की संज्ञा हम तभी तक देते हैं जब तक इसमें आत्मा विद्यमान रहती है। जिसमें ज्ञान, क्रिया व इच्छा रूपी चेतनता नहीं है वह वस्तु मात्र है और कोई भी मृत या अचेतन वस्तु को व्यक्ति नहीं कहता।

परमतत्त्व-चेतन वस्तु के सर्वश्रेष्ठ पहलू को भगवान् कहते हैं। उनमें चेतनता के तीनों गुण पूर्ण मात्रा में विद्यमान होते हैं। यदि हम यह स्वीकार कर सकते हैं कि एक जीवात्मा एक व्यक्ति है तब इस बात को मानने में क्या आपत्ति है कि पूर्ण चेतनता भी व्यक्तिगत है? वे असीम पुरुष हैं। उनका अपना एक अनोखा निजी स्वरूप होने के बावजूद, वे अनन्त हैं और असंख्स रूपों एवं लीलाओं को प्रदर्शित करते हैं।

जब कोई व्यक्ति राजा होकर राजगद्दी पर बैठता है तो उसकी एक विशेष वेष-भूषा होती है, परन्तु जब वही राजा अपने मनोरंजन के लिए खेल-कूद के मैदान में जाता है तो उसकी वेशभूषा भिन्न होती है। यही नहीं जब वह सोने के लिए अपने बिस्तर पर लेटता है तब उसकी पोषाक कोई और होती है। अब आप ध्यान दीजिए कि इन अलग-अलग पोषाकों के फेर-बदल में, केवल बाहरी वस्त्र बदलते हैं, व्यक्ति वही रहता है। यही बात भगवान् पर भी लागू होती है। वे केवल अपने प्रिय भक्तों को आनन्द प्रदान करने हेतु अलग-अलग रूप एवं लीला को धारण करते हैं।

एक पुरुष के स्वरूप में भी भगवान् असीम रहते हैं। उनके धाम असंख्य हैं और असंख्य जीव उनसे उद्भूत होते हैं। साधारण मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि और ससीम भौतिक इन्द्रियों के द्वारा भगवान् की सृष्टि का पार नहीं पा सकते। अपनी निज शक्ति के द्वारा उनको जानने की हमारी सभी चेष्टाओं से, वे परे हैं।