श्रील रूप गोस्वामी जी ने लिखा है—

बन्धुसंगे यदि तव रंग परिहास, थाके अभिलाष ।
तबे मोर कथा राख, जेयो नाको जेयो नाको,
वृन्दावने केशीतीर्थे-घाटेर सकाश ।।
गोविन्दविग्रह धरि’, तथाय आछेन हरि,
नयने बंकिम दृष्टि, मुखे मन्दहास ।

यदि तुम अभी भी अपने सखाओं के साथ हास-परिहास करना चाहते हो तो तुम्हें वृन्दावन नहीं जाना चाहिए। और अगर तुम वृन्दावन चले जाते हो तो तुम्हें विशेषकर केशी घाट पर नहीं जाना चाहिए। वहाँ जाने में एक खतरा है। क्या खतरा है? वह है श्रीहरी, स्वयं श्रीकृष्ण, जिन्होंने गोविन्द का रूप धारण किया है—’गोविन्द विग्रह धरि’ । खतरा यह है कि यदि तुम वहाँ जाते हो और उन्हें देख लेते हो, अगर गोविन्द की एक झलक भी देख लेते हो तो तुम पुनः अपने सामान्य ग्रहस्थ जीवन के पारम्परिक मनोरंजन में नहीं लौट पाओगे।”

उनके नयनों की दृष्टि, उनका कटाक्ष बहुत खतरनाक है— नयने बंकिम दृष्टि, मुखे मन्दहास। वे सीधे खड़े नहीं रहते बल्कि त्रिभंग स्थिति में हैं। यदि ये श्रीकृष्ण तुम्हारे भीतर प्रवेश कर गये तो बाहर नहीं निकलेंगे। यदि नारायण प्रवेश करते हैं तो वे बाहर निकल सकते हैं क्योंकि नारायण सीधे हैं। पर श्रीकृष्ण टेढ़े हैं और ये बहुत खतरनाक है।

उनकी अंग-कान्ति वर्षा के मेघों के समान श्यामल है— वर्ण समुज्ज्वल श्याम तुम देखोगे कि बसंत ऋतु वृक्ष की पत्तियाँ बहुत ताज़ा होती हैं। उसी प्रकार श्रीकृष्ण वृद्ध नहीं हैं बल्कि वे युवा किशोर हैं। उनके मुखमंडल के होंठ बहुत खतरनाक हैं तथा यदि तुम उनके मस्तक पर मयूर पंख देख लेते हो तो तुम अपने ग्रहस्थ जीवन में वापस नहीं आ पाओगे। अतः यदि तुम अपने मित्रों के साथ हास-परिहास चाहते हो तो तुम्हें वृंदावन नहीं जाना चाहिए तथा तुम्हें श्रीकृष्ण को नहीं देखना चाहिए।

दुर्भाग्यवश हम वृंदावन जाते हैं और पुनः लौट आते हैं। हमारे अन्दर ऐसी भक्ति नहीं है। यदि किसी में गोविन्द के प्रति वास्तविक लोभ होगा तो वह अपने सांसारिक जीवन में पुनः लौट नहीं पायगा। उसके सांसारिक सम्बन्ध नष्ट हो जायेंगे। भगवान् के शुद्ध भक्तों का संग करने से ही भक्ति के लिए अधिक से अधिक लोभ उत्पन्न होता है। उनकी कृपा से ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य, भगवान् का अप्राकृत प्रेम-कृष्ण-प्रेम प्राप्त करना सम्भव है।