इस संसार में प्रत्येक प्राणी का अंतिम लक्ष्य (प्रयोजन) क्या है? अंतिम लक्ष्य है श्रीकृष्ण के प्रति अप्राकृत प्रेम । हमें इस विषय पर केवल आधा घंटा नहीं बल्कि पूरा वर्ष चर्चा करनी चाहिए। हम जहाँ भी जायें वहीं इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए।

श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की विचारधारा के अंतर्गत महान संत, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी ने श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शिक्षाओं का सार एक संस्कृत श्लोक में दिया है—

आराध्यो भगवान् ब्रजेशतनयस्तद्धाम वृन्दावनं
रम्या काचिदुपासना ब्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद्भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्रीचैतन्यमहाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः ।।

भजन का सर्वोच्च लक्ष्य कौन हैं? वे हैं श्रीकृष्ण । यहाँ पर श्रीचैतन्य महाप्रभु जी व्रज के राजा नन्द महाराज के पुत्र व्रजेन्द्रनंदन श्रीकृष्ण के बारे में बता रहे हैं। व्रज का अर्थ है, “जहाँ गइया चरती हैं।” नन्द महाराज ग्वालों (गोप एवं गोपियों) के राजा (इन्द्र) हैं। “नन्द महाराज के पुत्र”, नन्दनंदन श्रीकृष्ण, भजन का सर्वोच्च लक्ष्य हैं। नन्दनंदन का अर्थ है “नन्द का पुत्र” । वृन्दावन नन्दनन्दन श्रीकृष्ण का अप्राकृत धाम है तथा वे वहाँ पर अनेक प्रकार की लीलाएँ करते हैं।

अब श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने हमें नंदनंदन श्रीकृष्ण का भजन करने का ही आदेश क्यों दिया? उन्होंने हमें देवताओं की पूजा करने का आदेश नहीं दिया। उन्होंने हमें योगिओं के आराध्य विषय- परमात्मा’ की आराधना करने का निर्देश नहीं दिया। और न ही उन्होंने हमें ज्ञानियों का लक्ष्य -ब्रह्म की आराधना करके उस पूर्ण-तत्त्व के निराकार स्वरूप में लीन हो जाने को कहा। उन्होंने तो हमें श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं में प्रदर्शित उनके अनेक रूपों जैसे राम, नरसिंह या वामन आदि की भी आराधना करने की शिक्षा नहीं दी। और श्रीकृष्ण, अपनी लीलाओं में मथुराधीश कृष्ण, कुरुक्षेत्र कृष्ण व द्वारकाधीश कृष्ण के रूप में अवतरित होते हैं। किन्तु श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने विशेष रूप से कहा है कि हमें नन्दनंदन श्रीकृष्ण का ही भजन करना चाहिए। क्यों?

इसका उत्तर है कि हम नन्दनंदन श्रीकृष्ण का भजन अपनी इच्छा के अनुरूप किसी भी सम्बन्ध के तहत कर सकते हैं। दूसरी ओर परमेश्वर के नारायण रूप के साथ हम सब प्रकार के संबंधो में सम्मिलित नहीं हो सकते । श्रीमन् नारायण. प्रभु के ऐश्वर्य रूप को प्रदर्शित करते हैं। इसलिए हमारा केवल दूर से ही उनके साथ मित्रता का सम्बन्ध हो सकता है। लोग नारायण के निकट जाने से डरते हैं क्योंकि वे एक ऐश्वर्यशाली नरेश की लीला कर रहे हैं। उनके भक्त उनके मित्र बन सकते हैं, परन्तु भय के कारण उनकी आत्मीयता में संकोच रहता है। वात्सल्य भाव व माधुर्य भाव अनुपस्थित होते हैं। अतः जो परमेश्वर की सेवा अपने घनिष्ठ मित्र के रूप में, अपना पुत्र समझकर अथवा माधुर्य भाव से करना चाहते हैं, उन्हें परमेश्वर के साथ इस प्रकार के सम्बन्ध उनके नारायण रूप में नहीं प्राप्त होते। अतः नारायण सभी भक्तों के सामुहिक केंद्र नहीं हो सकते।

किन्तु वृंदावन के ग्वाले, श्रीकृष्ण के साथ यह सब प्रकार के आंतरिक सम्बन्ध स्थापन करना संभव है और भजन के इन विभिन्न स्वरूपों में से गोपियों की माधुर्य भाव से श्रीकृष्ण-आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है। गोपियों ने अपनी समस्त इन्द्रियों को श्रीकृष्ण की सेवा में पूरी तरह से समर्पित किया हुआ है तथा गोपियों में से श्रीकृष्ण की नित्य-संगिनी श्रीमति राधारानी जी सर्वोत्तमा हैं। वे उनके अप्राकृत प्रेम की अंतरंग शक्ति का प्रकाश विग्रह हैं तथा श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति अतुलनीय है।