कोई भी वस्तु शून्य से उत्पन्न नहीं हो सकती। हर वस्तु का कुछ न कुछ आधार तो होता ही है। सभी सृष्ट वस्तुओं का स्वयं को छोड़कर कोई न कोई कारण तो अवश्यमभावी होता है। हम सूर्य (वस्तु) की उन किरणों के कण के समान हैं जो सूर्य से उत्पन्न होती हैं। जिस प्रकार सूर्य चमकता है, उसी प्रकार उसके कण भी चमकते हैं। इसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ भगवान् सब प्रकार की शक्तियों के स्वामी हैं और जिस प्रकार सूर्य से किरणें निकलती हैं ठीक उसी प्रकार जीव भगवान् की असंख्य शक्तियों में से एक (तटस्था शक्ति) से उद्भूत होते हैं। अनु-आत्मा भगवान् में है, भगवान् से है, भगवान् के लिए है, भगवान् के द्वारा है। परन्तु जिस प्रकार सूर्य और सूर्य की किरणें एक समान नहीं हो सकती ठीक उसी प्रकार भगवान् और अनु-आत्मा (जीव) समान नहीं हैं। अनु-आत्मा कभी परमात्मा के बराबर नहीं हो सकती ।
श्रीमद्भगवद्गीता (7/7) में भगवान् विशेष रूप से कहते हैं —
मत्तः परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।
“अन्य कुछ भी मुझसे श्रेष्ठ नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि मुझसे उद्भूत है। मैं बद्ध-जीवों की बोध शक्ति से परे हूँ। मैं ज्ञानी और योगियों के द्वारा लक्षित वस्तु, निराकार ब्रह्म और अंतर्निवासी परमात्मा से भी बहुत श्रेष्ठ हूँ।”
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्तत्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।
— (गीता 4/9)
मेरे जन्म और लीलाएँ सब अप्राकृत हैं। साधारण मनुष्य का जन्म तो उसके पूर्व कर्मों द्वारा प्रभावित होता है परन्तु मेरा अवतरण मेरे शुद्ध-भक्तों को आनन्द प्रदान हेतु केवल एक लीला मात्र है। वात्सल्य रस की सेवा प्रदान करने के लिए मैं उन्हें माता-पिता के रूप में ग्रहण करता हूँ।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।
(गीता 4/6)
अजन्मा, अविनाशी एवं समस्त जीवों का ईश्वर होते हुए भी मैं अपनी योगमाया के द्वारा अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का अवलम्बन कर आर्विभूत होता हूँ।
“मेरा जन्म नहीं होता लेकिन मैं अपने वात्सल्य रस के भक्तों की इच्छा पूर्ती कर उन्हें केवल आनन्द प्रदान करने के लिए इन लालाओं को करता हूँ। मेरी त्रिगुणमयी माया शक्ति (सत्त्व, रज, तम) द्वारा आवृत बद्ध-जीव मुझे नश्वर शरीर धारण किये हुआ एक साधारण मनुष्य समझते हैं।”
यह सोचना कि भगवान् श्रीकृष्ण हमारी तरह जन्म ग्रहण करते हैं, एक बहुत बड़ी भूल है। भगवत् सम्बन्धी अन्य तत्त्वों की भाँति, भगवान् श्रीकृष्ण की जन्म-लीला में भी आकृतिक एवं दार्शनिक (रूपात्मक, सकारात्मक), दोनों पहलू विद्यमान हैं। अपनी प्राकृत इन्द्रियों व प्राकृत बुद्धि के द्वारा, हम, किसी वस्तु का केवल बाहरी या रूपात्मक (दृष्टिगोचर) पहलू तो जान सकते हैं परन्तु उसके तात्त्विक पहलू को जान पाना बहुत कठिन है।
आईये इस विषय को और विस्तार से समझें। जर्मन देशीय ईम्मानील कांत पाश्चात्य दर्शन जगत के एक बुद्धिमान दार्शनिक विचारक थे।
अपनी आलोचनात्मक दर्शन शैली में उन्होंने ऊपर बताए तत्त्वों को “यथा दर्शन वस्तु” और “स्वयं में अवस्थित वस्तु” या “जैसी है वैसी ही वस्तु” से सम्बोधित किया है। कांत के अनुसार, किसी वस्तु को हम उसी प्रकार समझ सकते हैं जिस प्रकार वह स्वयं प्रतीत होती है, किन्तु उसके तत्त्व को या फिर “वह जैसा है वैसा ही” पहलू को जानना हमारी योग्यता के बाहर है।
अपनी पुस्तक ‘क्रिटीक ऑफ पिओर रीसन में कांत अपनी धारणा को प्रमाणित करने के लिए बहुत सारे तर्क प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य, किसी वस्तु को उतना तक ही जान सकते हैं जितने तक वह वस्तु उनकी भौतिक इन्द्रियों और सीमित बुद्धि को प्रतीत होती है। मनुष्य, अपनी इन्द्रियों के द्वारा किसी वस्तु के रूप का बोध कर सकते हैं और अपनी बुद्धि के द्वारा उनको अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं। यह सूझ-बूझ एक विशेष योग्यता है। जिसे ‘प्रियोरी’ कहते हैं। किसी वस्तु को जैसी वह दिखती है। वैसे ही जानने की सूझ-बूझ मनुष्य की साधारण बोध शक्ति में ही अन्तर्हित होती है। परन्तु ‘स्वयं में अवस्थित वस्तु’ को जानने की शक्ति मनुष्य में नहीं है। यही कांत की दार्शनिक शैली का आधार है।
एक अन्य जर्मन दार्शनिक, हेगल ने कांत की मान्यता का खंडन करने की चेष्टा की थी। हेगल के अनुसार, हम किसी ‘स्वयं में अवस्थित वस्तु’ के तात्त्विक ज्ञान को मीमांसात्मक (कल्पित) तर्क के द्वारा जान सकते हैं। ब्रेडली, एक ब्रिटिश फिलॉसोफर (दर्शन शास्त्रि) ने भी इस समस्या का विस्तारपूर्वक विवेचन किया था। इनका कहना था कि हम केवल तर्क के द्वारा ‘स्वयं में अवस्थित वस्तु’ के सम्पर्क में नहीं आ सकते बल्कि हम उनके सम्बन्ध में ज्ञान तात्कालिक अनुभूति एवं भावना के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं, जिससे वह वस्तु हमारे समक्ष प्रतीत होती है। नहीं तो, केवल अपनी तर्क करने की योग्यता के आधार पर हम वस्तुओं का गूढ़ रहस्य नहीं जान सकते। अवश्मभावी है कि तर्क और तर्क के लक्ष्य, के मध्य एक फाँसला होगा, और यही हमें उस ‘स्वयं में अवस्थित वस्तु के संग से दूर रखता है।
अब इन दर्शन शास्त्रियों ने अपने जड़ अभिमान के द्वारा वास्तविक सत्य को जानने का प्रयास किया है। परन्तु, आप ज़रा विचार कीजिए कि फिलॉसोफी (दर्शन शास्त्र) का वास्तविक अर्थ क्या है? ‘फिलो-सोफिया’ अर्थात् ज्ञान से प्रेम । पर आखिर वे किस प्रकार के ज्ञान की खोज करते हैं? वे केवल अपनी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि द्वारा प्राप्य, अपने अनुभव में आने वाले ज्ञान की चाह करते हैं।
श्रीभगवद्गीता में मन और बुद्धि को भगवान् की परा शक्ति-माया की सम्पत्ति कहा गया है। गीता जी के अनुसार, अप्राकृत तत्त्व को भौतिक वस्तु, चाहे सूक्ष्म या स्थूल, द्वारा नहीं जाना जा सकता। परन्तु इस भौतिक जगत में हम सब समय उस वास्तविक सत्य को अपनी भौतिक इन्द्रियों की अनुभव शक्ति द्वारा जानने की चेष्टा करते रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे प्रमाणिक शास्त्रों में उल्लिखित भारतीय (फिलॉसोफी) दर्शन शास्त्र का ईश्वरवादी पहलू, मनुष्यों की भौतिक एवं सीमित प्रकृति पर अधिक महत्व देता है। हमारी बोध शक्ति सीमित है, हमारी बुद्धि भी सीमित है, और जो कुछ भी हमारे मन और बुद्धि के द्वारा जनित होगा, वह भी सीमित ही होगा। इसलिए हम अपने मूल कारण को नहीं जान सकते क्योंकि वह हमारी सीमित इन्द्रियों की शक्ति के परे है।
जो कुछ भी, अपनी भौतिक व ससीम सूझ-बूझ के द्वारा हम जानने की कोशिश करेंगे, वह मनगढ़ंत होगा। इसलिए हमें अपने दिमाग में वास्तव सत्य के बारे में कल्पनाएँ नहीं करनी चाहिए। चूँकि हम बद्ध-जीव हैं, इसलिए हमारी सीमाएँ हैं। उसी प्रकार अपनी योग्यता के द्वारा ज्ञान अर्जन करने की हमारी शक्ति भी सीमित है। उस अनन्त भगवान् को जानना, हमारी भौतिक बुद्धि की सीमाओं के बाहर है।
पूर्ण सत्य सदा विद्यमान है और हम उस सत्य को कैसे जान सकते हैं, इसकी ज्ञान प्राप्त करना हमारा कर्त्तव्य है। हम अपनी चेष्टा से परम सत्य तक नहीं पहुँच सकते। तो उस सत्य को कैसे जानेंगे? भगवान् सब कारणों के कारण हैं। उनकी कांति एवं प्रकाश स्वयं प्रकाशित है। इसलिए हमें भगवान् की सत्यता को उनकी कृपा के माध्यम से ही जानने का प्रयास करना चाहिए।
जब किसी का अज्ञान रूपी अंधकार ज्ञान रूपी प्रकाश से नष्ट हो जाता है तब समस्त वस्तुएँ अपने वास्तव स्वरूप में प्रकाशित होती हैं। दिन में सूर्य उदित होकर सब कुछ प्रकाशमय कर देता है। यदि आप सूर्य को रात को देखना चाहते हैं तो क्या यह सम्भव है? यदि आप सारे शहर की लाइटों को एक साथ जलाएँगे तब भी यह असम्भव है। सूर्य स्वयं-प्रकाशमय है। इसलिए सूर्य को रात को देखने की आपकी सभी चेष्टाएँ निष्फल होंगी क्योंकि आपकी निजी प्रकृति और सूर्य की प्रकृति में बहुत अंतर है। सूर्य को देखने के लिए आपको उसकी किरणों की प्रतीक्षा करनी होगी। आपकी सूर्य का दर्शन करने की योग्यता न तो अविष्करित लाईट के उपलब्ध होने से बढ़ेगी और न ही उसके अभाव में घटेगी। इस संसार में अविष्करित लाईट हमें सूर्य का दर्शन करने में कोई सहायता नहीं करेगी। सूर्य की निजी किरणें ही हमें यह शक्ति प्रदान कर सकती हैं। इसी प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान् स्वयं-कांतिमय एवं स्वयं-प्रकाशमय हैं और केवल मात्र उनकी कृपा से ही हम उनको जान सकते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् अपनी मुख्य दो प्रकार की शक्तियों का वर्णन करते हैं—परा और अपरा । परा-शक्ति, अपरा-शक्ति से श्रेष्ठ है। ‘परा’ आध्यात्मिक है और ‘अपरा’ भौतिक । इस भौतिक जगत में अपरा शक्ति के 8 तत्त्व पाए जाते हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार। हमारा स्थूल शरीर पाँच स्थूल तत्त्वों से निर्मित है। और सूक्ष्म शरीर मन, बुद्धि तथा अहंकार से, जोकि वास्तव अहं नहीं है। भगवान् के सन्दर्भ में जब हम अपने अहं की चिन्ता करेंगे तो हम जान पाएँगे की वे हमारे नित्य प्रभु हैं और हम उनके नित्य दास। पर जब हम भौतिक संसार पर अपना ध्यान केन्द्रित करके स्वयं को भोक्ता समझेंगे, तब वह हमारा अहंकार मिथ्या होगा ।
जब हम इन्द्रियजन्य सुखों को भोगने में लिप्त हो जाते हैं तब यह भूल जाते हैं कि वह कुछ क्षणों का है, स्थायी नहीं एवं इसका परिणाम केवल दुःख है और कुछ नहीं । अनियमित इन्द्रिय-सुखवादी (लंपट व्यक्ति) अवश्य ही रोग-बीमारियों की चपेट में फंस जाता है। मिथ्या अहंकारवश्तः किये गए सब कर्मों का अन्ततः परिणाम केवल दुःख ही होता है। तो यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या हमें निरन्तर अपने आप को दुःख भोग कराते हुए सदैव इसी संसार में निवास करते रहना चाहिए?
शरीर का एक उद्गम स्रोत है, यह कुछ देर के लिए रहता है और अन्त में इसका नाश हो जाता है। चाहे आपका शरीर हृष्ट-पुष्ट हो या फिर कमजोर, यह नित्य नहीं है। यदि आप हृष्ट-पुष्ट हैं और आपमें विषयों को भोगने का सामर्थ्य भी है तो अपनी भोग प्रवृत्ति के कारण आप अपने शरीर में इतने आसक्त हो जाएँगे कि मृत्यु के समय भी आप इसे छोड़ना नहीं चाहेंगे। परन्तु फिर भी आपको जाना पड़ेगा। आपको मृत्युदूत ( यमदूत) ज़बरदस्ती ले जाएँगे और अपने भौतिक सम्बन्धों के कारण आपको बहुत कष्ट उठाना पड़ेगा।
भगवान् की माया शक्ति में आबद्ध होने के कारण कुछ लोग यह समझ बैठे हैं कि यह संसार आनन्दमय, सुखदायक है और वे यहाँ वास्तविक सुख का अनुभव कर सकते हैं। भगवान् ही इस जगत के मूल कारण हैं। जब व्यक्ति, अपनी परस्पर स्वतन्त्रता का दुरुपयोग कर भगवान् से विमुख हो जाता है तब भगवान् की छाया शक्ति माया उसे घेर लेती है। वह छाया उसे सच्चिदानन्दमय, नित्य चेतनमय और आनन्ददायक प्रतीत होती है, पर वास्तव में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होता।
जो भी हम देखते हैं वह सब एक स्वप्न के समान है। नींद में स्वप्न देखते हुए हमें ऐसा लगता है कि हम सचमुच ही उस घटना को देख रहे हैं। परन्तु आँख खुलने पर हमें यह अहसास हो जाता है कि वह तो केवल एक स्वप्न था कोई सच्ची घटना नहीं। इसी प्रकार यह पूरा संसार एक सपना ही है। जब हम जागेंगे तब हम देख पाएँगे कि इसमें सबकुछ झूठ है या फिर माया है। माया का अर्थ है— ‘मा’ ‘या’, “नहीं वह”। यह संसार और वे आठ तत्त्व जिनसे यह संसार निर्मित है, नित्य नहीं हैं। फिर भी इस संसार के सम्बन्ध में हमारा वास्तविक निजी अस्तित्व या हमारी आत्मा बिल्कुल अलग ही एक वस्तु है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
— (गीता 7/5)
“वस्तु सामग्री से भिन्न एक और शक्ति है—परा-शक्ति या उच्च आध्यात्मिक शक्ति । हर एक जीवात्मा आध्यात्मिक शक्ति से उत्पन्न होती है। इसे भगवान् श्रीकृष्ण की तटस्था शक्ति भी कहते हैं।”
गीता में भगवान् कहते हैं कि जीव मेरा ही अंश है, परन्तु किस प्रकार का अंश? स्वयं वस्तु का अंश नहीं, परन्तु उनकी तटस्था शक्ति का अंश। इसी प्रकार सूर्य की किरण का एक कण स्वयं सूर्य का कण नहीं होता।
इस प्रकार से ही हमें भगवान् की असंख्य शक्तियों को समझना होगा। हम इन शक्तियों को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं—अंतरंगा, तटस्था एवं बहिरंगा परन्तु वास्तव में उनकी शक्तियाँ अनन्त हैं ।
तटस्था शक्ति (जीव शक्ति) के द्वारा ही सब जीव प्रकट होते हैं। जब हम श्रीकृष्ण से विमुख हो जाते हैं, तब उनकी बहिरंगा शक्ति (माया शक्ति या अपरा शक्ति) हमें आबद्ध कर लेती है और हम इन जन्म, मरण, और त्रिगुणमय दुखों से पूर्ण संसार में फँस जाते हैं।
जब हम श्रीकृष्ण के शरणागत होंगे, वे स्वयं कृपामूर्ति या अंतरंगा शक्ति के रूप में हमारे पास प्रकट होंगे। अंतरंगा शक्ति (स्वरूप शक्ति) के विग्रह रूप हैं— शुद्ध-भक्त, अर्थात् सद्गुरु या पारमार्थिक पथ-प्रदर्शक । शुद्ध-भक्त की कृपा से हम भी उस नित्य आनन्द के अप्राकृत राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।
तो हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इसके मूल सिद्धान्त का वर्णन पद्म पुराण में पाया जाता है-
स्मर्त्तव्य सततं विष्णुर्विस्मर्त्तव्यो न जातुचित् ।
सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतयोरेव किंकराः ।।
-(पद्म पुराण 72/100) “हमें श्रीकृष्ण को सदैव स्मरण रखना है। उनको याद रखने के लिए जो कुछ भी आवश्यक है, हमें वह करना चाहिए। यही कारण है कि साधु-सन्तों ने उपासना के बहुत सारे अलग-अलग तरीके बताए हैं। ऐसा नहीं है कि हम केवल इन पूर्व बताए तरीकों को ही अपना सकते हैं। कसौटी यह है कि जो कोई भी तरीका हो, बस दो बातों का सदैव ध्यान रखना है। एक, कि हम सदैव श्रीकृष्ण को याद रखें, और दूसरा, कि हम कभी श्रीकृष्ण को भूलें नहीं।”
इस पृथ्वी पर कोई भी व्यक्ति, चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक यह प्रमाणित नहीं कर सकता कि यह शरीर ही व्यक्ति है। हम इस शरीर को तभी तक व्यक्ति मानते हैं जब तक इसमें चेतनता रहती है। वास्तव में, वह मौजूदगी जो किसी को व्यक्ति बनाती है, जो उसकी वास्तविक पहचान है, उसे कहते हैं सत्-चित्त-आनन्द । संस्कृत भाषा में हम ‘आत्मा’ या ‘जीवात्मा’ शब्दों का प्रयोग करते हैं। आप इस शरीर में रहने वाले उस नित्य अवस्थित तत्त्व को “आत्मा” शब्द से सम्बोधित कर सकते हैं।
जब शरीर से चेतना निकल जाती है, तब इस देह की कोई पहचान नहीं रहती। आत्मा-विहीन इस शरीर को आप रसायनों के द्वारा लम्बे समय तक सुरक्षित रख सकते हैं, परन्तु इसको देखकर किसी को भी प्रसन्नता नहीं होती। इसमें से जीवन जा चुका है। जितनी देर तक सच्चिदानन्दमय आत्मा इस शरीर में अवस्थित है, तभी तक इसे व्यक्ति समझा जाता है।
हर एक जीवित प्राणी की हृदय से यही इच्छा होती है, कि वह इस संसार में नित्य अवस्थित रहे। नित्य जीवन, जिसे संस्कृत में ‘सत’ कहते हैं सचेतन प्राणी की आवश्यकता है। हम सब के अन्दर ज्ञान अर्जन करने की इच्छा होती है। इसका तात्पर्य है कि हममें ज्ञान-तत्त्व या ‘चित्त’ की मौजूदगी है। क्योंकि यदि किसी में ज्ञान की मौजूदगी है तभी तो वह और जानने की इच्छा करेगा। यदि वह अज्ञान के अंधकार में पड़ा है तो उसमें ज्ञान अर्जन करने की इच्छा कैसे आ सकती है। इसी प्रकार, जिसमें ‘आनन्द’ का अभाव है, वह आनन्द की इच्छा नहीं कर सकता। हम सब में आनन्द पाने की इच्छा है, ज्ञान अर्जन करने की इच्छा है, और नित्य अवस्थित रहने या कभी न मरने की इच्छा है। ये इच्छाएँ इस बात का संकेत हैं कि हमारा अस्तित्व आत्मा है जिसका स्वभाव सत्-चित्त-आनन्द है।
कोई भी मरना नहीं चाहता, परन्तु हम भगवान् की त्रिगुणमयी – सत्त्व, रज, तम माया-शक्ति द्वारा आबद्ध हैं। सब जीवित वस्तुओं का स्थूल देह रजोगुण के द्वारा निर्मित होता है, सत्त्वगुण के द्वारा उसका पालन-पोषण होता है और अन्ततः तमोगुण के द्वारा इसका विनाश होता है।
जब हम माया के द्वारा आबद्ध होते हैं, तब हमें यह अल्पकालिक देह प्राप्त होते हैं। हमारा जन्म होता है और कुछ देर जीवित रहने के बाद हम मर जाते हैं। हम यह अनित्य व नश्वर शरीर नहीं हैं बल्कि इसमें रहने वाली आत्मा हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (2/20) में श्रीकृष्ण कहते हैं-
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
“इस शरीर का जन्म होता है, यह कुछ देर के लिए रहता है, और फिर इसकी मृत्यु हो जाती है। परन्तु आत्मा की कोई जन्म-मृत्यु नहीं होती।”
‘बचपन और युवा अवस्था में से निकलने के बाद और उसके बाद वृद्ध अवस्था से मृत्यु तक, आप यह महसूस करेंगे कि मृत्यु तो केवल एक प्रकार का बदलाव है। जब शरीर समाप्त होता है, तब, आत्मा नहीं मरती। यह नित्य है। इसलिए हम नित्य हैं; कोई हमें मार नहीं सकता। हम सत्-चित्त-आनन्दमय हैं परन्तु हम असत्, अचित्त और निरानन्द वस्तुओं के पीछे दौड़ रहे हैं—जिनकी कोई सत्ता नहीं है और जो वास्तविक ज्ञान और आनन्द से विहीन हैं।”
इन भौतिक वस्तुओं की ओर ध्यान देकर हम वास्तविक शान्ति कैसे लाभ कर सकते हैं? इन नेत्रों का क्या मूल्य है? इसी क्षण मैं इनको एक तिनके के साथ फोड़ सकता हूँ और पलभर में ही यह सम्पूर्ण दृश्य जगत मेरी पहुँच से बहुत दूर हो जायगा । मैं अपने कानों के परदों में भी छिद्र कर सकता हूँ और ध्वनि जगत भी मेरी पहुँच के बाहर हो जायगा? बस इसी प्रकार की है इन भौतिक इन्द्रियों की प्रकृति — नश्वर ।
अब आप यह विचार कीजिए कि क्या इन नश्वर इन्द्रियों के आधार पर प्राप्त अनुभव वास्तविक हो सकता है? परन्तु यदि हम अपने वास्तविक अहम, आत्मा, के लक्षण अर्थात् सत्-चित्त-आनन्दमय प्रकृति को पहचानें, तब हम अपनी आत्मा की मौजूदगी को अनुभव कर पाएँगे।
ॐ तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षुराततम्।
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवासः समिधते विष्णोर्यत् परमं पदम् ।।
-(ऋग्वेद 1/22/20)
“भगवान् के श्रीचरणकमल अप्राकृत हैं। उनको हम अपनी भौतिक इन्द्रियों, चाहे स्थूल या सूक्ष्म, के द्वारा नहीं जान सकते। वे हमारे मन और बुद्धि की पहुँच के परे हैं।
वे अप्राकृत हैं, अतीन्द्रिय हैं। हमारी इन्द्रिय शक्ति के बाहर हैं ।”
संस्कृत शब्द “इदं” का अर्थ है “यह” जब हम अपनी भौतिक इन्द्रियों के द्वारा अनुभव करते हैं, तब हम “यह” देखते हैं। परन्तु भगवान् के श्रीचरणकमल अप्राकृत हैं- “वह”। सभी प्रकार की साधना का लक्ष्य एक है- भगवान् के श्रीचरणकमल की प्राप्ति । भगवान् के भक्त उनका कैसे दर्शन करते हैं? क्या वे अपनी शक्ति के द्वारा दर्शन करते हैं? “दिव्य चक्षुर आततम” । वे स्वयं प्रकाशमय हैं, इसीलिए, जिन भक्तों पर उनकी कृपा होती है, उन्हें देख सकते हैं। हम श्रीकृष्ण की कृपा के बिना उनका दर्शन नहीं कर सकते।
सब जीव भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति के अंश (अणु) रूप में उनके साथ सम्बन्धित हैं। वे पूर्ण हैं। उनसे श्रेष्ठ या उनके बराबर कुछ भी नहीं है। उनकी स्वेच्छा के बिना, उन्हें कोई नहीं जान सकता ।
कुछ लोग, अपनी बुद्धि के अनुसार, श्रीकृष्ण को प्राप्त करने का मार्ग इस प्रकार की उपमा देकर समझाते हैं। वे कहते हैं-रोम नामक एक बहुत विशाल शहर है। क्या रोम तक पहुँचने का एक ही मार्ग है? नहीं, वहाँ जाने के लिए सैंकड़ों-हजारों सड़कें हैं। भगवान्, असीम हैं। तो यह कहना कि उन तक पहुँचने का केवल एक ही मार्ग है, हठधर्म होगा। चूँकि वे असीम हैं, इसलिए उन तक पहुँचने के रास्ते भी अवश्य असीम होंगे।
परन्तु इस उपमा में कुछ त्रुटि है। रोम पाँचभौतिक पदार्थों से निर्मित है—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश । वह भौतिक वस्तुओं के मिश्रण का एक ढेर मात्र है। इसी प्रकार मनुष्य का यह स्थूल शरीर इन पाँचभौतिक तत्त्वों से ही निर्मित है और सूक्ष्म शरीर-मन, बुद्धि व अहंकार से। ये सभी भौतिक हैं। परन्तु उपर वर्णित, वास्तविक स्वरूप सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की परा-शक्ति का परिणाम स्वरूप है। जब तक जीवात्मा इस जगत में विद्यमान रहती है, तब तक वह भौतिक तत्त्वों के ऊपर स्वामित्व जता सकती है, चूँकि वह उन तत्त्वों से श्रेष्ठ है। इसलिए एक व्यक्ति रोम तक सैंकड़ों रास्तों से पहुँच सकता है क्योंकि उसके शरीर में वह अध्यात्मिक चेतना विद्यमान है। बल्कि मनुष्य ही नहीं, कुत्ते या चींटियाँ भी आ सकती हैं, क्योंकि उनके शरीर में भी इसी प्रकार एक अध्यात्मिक चेतना विद्यमान है। किन्तु भगवान् भौतिक पदार्थों के मिश्रण का ढेर नहीं हैं जिन पर शासन किया जा सके। वे अप्राकृत हैं और हम उनपर शासन नहीं कर सकते । श्रीकृष्ण की कृपा के बिना हम उन तक नहीं पहुँच सकते।
श्रीमद्भागवत (1/2/11) में वर्णन है—
वदन्ति तत् तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ।।
“तत् का अर्थ है ‘वह’, अप्राकृत, वास्तविक सत्य। इस पूर्ण, संगठित ज्ञान को विभिन्न शब्दों से सम्बोधित किया जाता है—ब्रह्म, परमात्मा और भगवान्। ज्ञानी ब्रह्म या ब्रह्म की सर्व व्यापकता के भीतर ही परम-तत्त्व का दर्शन करते हैं। योगी उन्हें हर जीवित प्राणी के भीतर अवस्थित परमात्मा के रूप में देखते हैं। और भक्त उन्हें भगवान् के रूप में देखते हैं।”
भगवान है शील, सर्म-समाविष्ट तर भगवान का अर्थ है वे जो सब प्रकार के ऐसे हैं, यथार्थ, सामर्थ्य, यश, सौन्दर्य, शक्ति यह छ. मुख हैं, किन्तु वास्तव में ये अनन्त है। आपको अन्य किसी धर्म में भगवान शब्द के बराबर कोई शब्द, जो कि प्रभु की पूर्णता को दर्शाता हो, नहीं मिलेगा। भगवान् महान से भी महान, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और इनके मध्य में अवस्थित सबकुछ है।
भगवान् अनेक रूप धारण करते हैं। उन सब रूपों में से व्रज के अप्राकृत ग्वालबाल ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण का म सबसे मधुर है। हम श्रीकृष्ण का भजन करके सब प्रकार के आनन्द का रसास्वादन कर सकते हैं परन्तु उनकी इच्छा के बिना हम उनको नहीं देख सकते। हम तो एक देश के राष्ट्रपति तक को, बिना अनुमति के नहीं मिल सकते, तो फिर अपनी इच्छा से भगवान् का दर्शन करने के बारे में कैसे सोच सकते हैं? ऐसा सोचना गलत होगा कि हम अपने मन मुताबिक मार्ग पर चलकर उनका दर्शन कर लेंगे। यदि मैं किसी व्यक्ति को अपनी मर्जी से मिल सकता हूँ तो इसका अर्थ है कि वह व्यक्ति मेरे अनुभव व इच्छा के दायरे के अन्तर्गत है और इस प्रकार मेरे से छोटा है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति मुझे अपनी मर्जी से मिलता है तो इसका अर्थ है कि मैं उससे छोटा हूँ।
सर्वशक्तिमान भगवान् की इच्छा के बिना उन्हें कोई नहीं मिल सकता और उस इच्छा की पूर्ति का नाम ही भक्ति है। अगर आप किसी की सेवा करना चाहते हैं तो आपको क्या करना होगा? आपको उसे तृप्त करना होगा मतलब कि आपको उसकी इच्छा के अनुसार काम करना होगा। इसी प्रकार अगर हम भगवान् को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें उनकी इच्छा के अनुरूप ही कार्य करना होगा। भगवान् ऐसे किसी व्यक्ति के पास क्यों आएँगे जो उन्हें मिलने की इच्छा न रखता हो। बल्कि यदि भगवान् को मजबूर होकर आना पड़ता है तब तो वे अपनी भगवत्ता खो देते हैं। कर्मी व्यक्ति प्रत्येक जन्म में ही भौतिक सुखों की इच्छा करते हैं। वे श्रीकृष्ण को नहीं चाहते, तो फिर भगवान् उनके पास क्यों आएँ? ज्ञानी व्यक्ति मुक्ति चाहते हैं। वे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रीति-विधान (तृप्ति) के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, तो फिर भगवान् उनके पास क्यों आएँ? केवलमात्र अनन्य भक्ति के द्वारा ही हम श्रीकृष्ण को प्राप्त कर सकते हैं।