विभिन्न संस्कृतियों में काल (समय) को चार भागों (युगों) में बाँटा गया है। वे हैं स्वर्ण, रजत, कांस्य व लौह युग। वेदों में इसे क्रमशः सत्य, त्रेता, द्वापर व कलि युग कहा जाता है। कुछ लोग इन युगों को अलग-अलग अवधियों में विभाजित करते हैं, पर विचार एक ही है। असीमित (अनन्त) काल को चार आवर्तक (बार-बार होने वाले) युगों में विभाजित किया गया है। जैसे-जैसे वे युग गुजरते जाते हैं हम मनुष्य की स्थिति में, आनन्द व निष्कपटता से दुःख व अज्ञानता तक क्रमिक गिरावट देखते हैं। वर्तमान कलियुग में यह पतन अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाता है। इस अन्धकार युग में अधिकांश लोग अधार्मिक होंगे और इसलिए एक सद्‌गुरु प्राप्त करना बहुत कठिन है। इस अन्धकार युग में जीवों की दुर्दशा को देखकर भगवान् श्रीकृष्ण श्रीमति राधारानी जी की अंग-कान्ति और भाव को अंगीकार करके श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के रूप में अवतरित हुए। श्रीमति राधारानी श्रीकृष्ण की नित्य-संगिनी हैं, वे उनकी सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं तथा श्रीकृष्ण उनका (राधारानी जी का) भाव ग्रहण करके श्रीकृष्ण चैतन्य हुए।

श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने कहा है कि भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध का विस्मरण ही हमारे दुःख का मूल कारण है। हमें उन्हें याद रखना होगा; यदि हम उन्हें याद रखते हैं तो किसी प्रकार का कोई दुःख नहीं होगा। हम किस प्रकार ऐसा कर सकते हैं? घ्यान के द्वारा? इस कलियुग में ध्यान की विधि सफल नहीं हो पाएगी क्योंकि बद्ध जीव का चित्त चंचल है। चित्त हमेशा बन्दर की तरह उछल-कूद करता रहता है तो हम किस प्रकार ध्यान करेंगे? और कुछ नहीं केवल जगत की बातें ही हमारे मन में घूमेंगी। सिर्फ आँखें बन्द करके हम ध्यान नहीं कर सकते। हम अपनी आँखे बन्द करते हैं और मन ही मन लंदन की सैर कर आते हैं। ऐसा होना अनिवार्य है क्योंकि चित्त उन धारणाओं के गोदाम जैसा है जो इन्द्रियों के माध्यम से हमारे अंदर प्रविष्ट हुई हैं। जब हम ध्यान करने का प्रयास करते हैं, तो ये धारणाएँ सतह पर पुनः अवतरित हो जाती हैं।

सांसारिक वस्तुओं के प्रति हमारी आसक्ति है और यही हमारे बंधन का कारण है। इस बंधन से मुक्त होने के लिए हमारी जिन वस्तुओं में आसक्ति है, उन्हें श्रीकृष्ण की सेवा में अर्पण कर देना चाहिए। केवल यही एक मार्ग है जिसके द्वारा हम सांसारिक आसक्ति के बंधनों से मुक्त को सकते हैं। भजन का अप्राकृत विषय- भगवान् श्रीकृष्ण पर ध्यान केन्द्रित करना ही मुख्य उद्देश्य है।

सत्ययुग में ध्यान सम्भव था। इस युग के लोगों में पवित्रता, अनुकंपा (दया) तथा सत्य के प्रति सम्मान की भावना थी। पर त्रेतायुग में इन गुणों में कमी आई तथा भगवान् पर ध्यान लगाने की विधि की संभावना समाप्त हो गई। अतएव साधुओं ने यज्ञ की व्यवस्था निर्धारित की। चूंकि द्वापर युग में लोग मंत्रों का सही उच्चारण नहीं कर पाते थे इसलिए साधु एवं शास्त्रों ने भगवान् के श्रीविग्रह स्वरूप की पूजा नियत की। श्रीविग्रह की सेवा करने के लिए आपको अपनी सभी इन्द्रियों को नियुक्त करना होगा। पूजा की वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करना लक्ष्य है, और ऐसा करने के लिए आपको अपनी समस्त इन्द्रियों को श्रीविग्रह की सेवा में लगाना होगा। किन्तु कलियुग में हम इतने असमर्थ (बीमार) हो गए हैं कि हम सही तरीके के पूजा भी नहीं कर सकते। इस युग में हमारा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य अत्यन्त ही दुर्बल है। हम सब बीमार हैं तथा एक बीमार व्यक्ति को पूजा करने की मनाही है। फिर हम सुष्ठु रूप से पूजा कैसे कर सकते हैं? अतः भगवान् ने कहा, “तुम हरिनाम कर सकते हो। मैं इस धरा पर हरिनाम के रूप में अवतार लूँगा तथा समस्त शक्तियाँ हरिनाम में संचारित कर दूँगा।”

इस पवित्र नाम का जप करने से तुम्हें सर्वोच्च वस्तु की प्राप्ति होगी। कलियुग में सत्य का तात्पर्य है- हरिनाम। हरिनाम ही परम सत्य है। श्रीकृष्ण कलियुग में नाम के रूप में अवतरित हुए हैं। अतः उस नाम की शरण में जाओ। नाम और नामी अभिन्न (एक ही) हैं। शुद्ध-भक्त के संग में हरिनाम जप करो।

हरिनाम कोई भौतिक ध्वनि नहीं है। आप देखेंगे कि भौतिक ध्वनि के द्वारा जिस वस्तु का निर्देश किया जाता है वह उस ध्वनि से अलग होती है। पानी-शब्द पानी नामक द्रव्य को इंगित करता है किन्तु ‘पानी’ शब्द उस द्रव्य से अलग है। अतः केवल ‘पानी’ शब्द का उच्चारण करने से हम अपनी प्यास नहीं बुझा सकते। पर इसके विपरीत कृष्ण एवं कृष्ण का नाम एक ही है।

श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने लिखा है-

चेतोदर्पण-मार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणं
श्रेयः कैरवचन्द्रिका-वितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनन्दाम्बुधि-वर्द्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम् ।।

श्रीकृष्ण का नाम अपने हृदय की गहराई से लो-हरे कृष्ण। आपको सब कुछ मिल जायगा। आपका चित्त पवित्र हो जायगा। उनका नाम लेने (उच्चारित करने) से ही सभी कठिनाईयों दूर हो जायेंगी। यह प्रथम उपलब्धि है। एक बार आपकी सभी कठिनाईयों दूर हो गई तो आपको भौतिक जीवन की भीषण अग्नि (दावानल) का सामना नहीं करना पड़ेगा। सारे विश्व में जंगल की आग फैली हुई है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का ऐसा मिथ्या अभिमान है कि वह इस संसार का है। पर यदि हम श्रीकृष्ण से प्रेम करें तो हम यह देखेंगे कि प्रत्येक प्राणी श्रीकृष्ण से जुड़ा हुआ है और हम उनसे इसी सम्बन्ध की वजह से प्रेम करते हैं। माता-पिता को अपने बच्चों से प्यार करने की शिक्षा नहीं दी जाती। वे उनसे स्वतः ही प्यार करते हैं क्योंकि उनका अपने बच्चों से सम्बन्ध है। अतः हमें श्रीकृष्ण की शरण में रहना है।

गोलोक वृन्दावन में सभी आनन्द में डूबे रहते हैं। हर पल वे उस अति मधुर उन्नत-उज्ज्वल आनन्द का अनुभव करते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य श्रीकृष्ण को संतुष्ट करना है। उनका केन्द्र बिंदु एक ही है। यदि आप एक केन्द्र-बिन्दु रखकर अलग-अलग वृत्तों (circles) की रचना करते हैं तो उनमें कोई टकराव नहीं होगा। पर यदि उनके केन्द्र-बिन्दु अलग-अलग हैं तो वे वृत्त आपस में एक दूसरे को काटेंगे तथा उनमें विवाद होगा। जब तक अलग-अलग समूह तथा अलग-अलग केन्द्र रहेंगे, तब तक हम इस विश्व में युद्ध को नहीं रोक पायेंगे। महामन्त्र का जप करने से, हरिनाम करने से ही जड़ जगत रूपी जंगल की आग को बुझाया जा सकता है।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।

श्रील गुरुदेव एवं श्रीकृष्ण की सेवा के अलावा और किसी वस्तु की कामना किए बिना हमें नाम जप करना चाहिए। ‘श्रीकृष्ण संकीर्तन’ का क्या अर्थ है? संकीर्तन का अर्थ है श्रीकृष्ण के अप्राकृत नाम, रूप, गुण, लीलाओं का सम्पूर्ण तथा विस्तृत कीर्तन एवं जप। हमें दस नाम-अपराधों से दूर रहकर भलिभाँति संकीर्तन करना है।

पद्म पुराण में इन दस नाम-अपराधों का वर्णन किया गया है। इनमें से प्रमुख अपराध है साधु-निन्दा और गुरुदेव को साधारण मनुष्य समझना। श्रीकृष्ण कैसे सहन कर सकते हैं यदि हम उनके प्रिय भक्तों का अपमान करें या उपेक्षा करें। भगवान् कैसे सहन करेंगे यदि हम उनके भक्तों के श्रीचरणों में अपराध करेंगे? अगर हम उनके चरणकमल में अपराध करेंगे तो भगवान् नहीं सहन करेंगे। यह सबसे बड़ा अपराध है और हमें इससे बचने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए।

हमें सदा अपना और अपनी कमियों का विश्लेषण करना चाहिए क्योंकि यह हमें अपना संशोधन करने में सहायता करेगा। बद्ध-जीवों की सबसे बड़ी कमी है कि उन्हें अपने आप में तो सदा सद्गुण दिखते हैं और दूसरों में केवल दुर्गुण। किन्तु भले ही भक्तों और वैष्णवों में कुछ कमियाँ हों, हमें उस ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। बल्कि हमें अपनी कमियों की ओर ध्यान देना चाहिए और दूसरों के अच्छे गुणों की ओर। तभी हम आगे बढ़ सकते हैं। दूसरों में दोष ढूँढने की यह वृत्ति हमें वैष्णव अपराध की ओर ले जाती है। इसीलिए श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने हमें श्रीकृष्ण-संकीर्तन करने की विधि सिखाई है-हमें तृण से अधिक दीन होना है, वृक्ष से अधिक सहनशील, सब को सम्मान देना है और अपने आप के लिए कभी सम्मान की आशा नहीं करनी। यदि हम हृदय की गहराई से ऐसे मनोभाव के साथ महामन्त्र जप करेंगे, तो हमें अपना नित्य मंगल प्राप्त हो जायगा। तब हमें यह अनुभव होगा कि हम श्रीकृष्ण के हैं और हम उनके नित्य दास हैं।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

हमें अन्तर्हृदय से रो-रोकर श्रीमति राधारानी और श्रीकृष्ण को पुकारना है। यदि हम ऐसा करते हैं तो उसी क्षण श्रीकृष्ण हमारे पास आ जायेंगे। वे हमारे भीतर ही हैं और उन्होंने अपने नाम में अपनी सारी शक्ति संचारित कर दी है। यदि हम सम्बन्ध-ज्ञान के साथ उनका नाम उच्चारण करेंगे तो आनन्द और कृष्ण-प्रेम के सागर में निमज्जित हो जायेंगे। उसके बाद हम जब भी नाम ग्रहण करेंगे, हमें पग-पग पर अनन्त एवं सम्पूर्ण अमृत का आस्वादन होगा। हरे कृष्ण!