श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने वेद एवं श्रीमदमाद की शिक्षाओं पर आधारित अप्राकृत प्रेम का प्रचार किया। श्री महाप्रभु जी एक प्रकाण्ड विद्वान थे। श्रीमन महाप्रभु जी के अनुसार श्रीमदभागवत सभी शास्त्रों का सार है। देदों के संकलनकर्ता, श्रीव्यासदेव जी ने गरुड़ पुराण में कहा है कि श्रीमदभागवत में वेदों के वैशिष्ट्य का संरक्षण एवं वृद्धि हुई है।
हम श्रीकृष्ण के बारे में कैसे जान सकते हैं? हम उन्हें केवल कानों के माध्यम से जान सकते हैं, आँखों से नहीं। हम साधुओं से श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के सम्बन्ध में सुन सकते हैं पर दुर्भाग्यवश हमें ऐसा लगता है कि भगवान् के बारे में सुनने के लिए हमारे पास समय नहीं है। महाराज परीक्षित ने निरन्तर सात दिनों तक बिना भोजन, विश्राम और यहाँ तक कि निर्जल रहकर श्रीशुकदेव गोस्वामी जी से श्रवण किया। तब ही वे जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सके। परन्तु यदि हमारे पास श्रवण करने के लिए समय ही नहीं है तो हम चरम लक्ष्य का संधान कैसे प्राप्त करेंगे? यदि आप भौतिक ज्ञान भी प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको उपयुक्त शिक्षकों के पास जाकर उनसे श्रवण करना होगा। इसी प्रकार कान से सुने बिना अप्राकृत ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमारी सभी इन्द्रियों में से यह आत्मा के सर्वाधिक निकट है।
शास्त्रों में वर्णित है कि, एक प्रमाणिक शुद्ध भक्त के संग से ही भक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। और एक शुद्ध-भक्त का संग किसे प्राप्त होगा? जिन्होंने जाने या अनजाने में श्रीकृष्ण की सेवा की है, उनकी बहुत-सी सुकृतियाँ अर्जित हो जाती हैं। ये सुकृतियाँ श्रद्धा के रूप में विकसित होती हैं। तथा यह श्रद्धा आगे एक शुद्ध भक्त के पास जाकर हरिकथा श्रवण करने के लिए प्रेरित करती है। ये सुकृतियाँ ही भक्ति का मूल कारण हैं। ये नित्य हैं, न कि कोई भौतिक शुभ कर्म ।
अब एक शुद्ध भक्त की कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं हो सकती। किन्तु तर्क के लिए यदि कोई शुद्ध भक्त संसार की किसी नाशवान् वस्तु को पाने के लिए इच्छा और प्रयास करता है तो भगवान् उसके मार्ग में कुछ बाधा उत्पन्न कर देंगे। यदि भूल से या अज्ञानता के कारण एक शुद्ध-भक्त स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त करने या किसी जागतिक वस्तु की प्राप्ति की कामना करता है तो भगवान् उसकी राह में व्यवधान खड़ा कर देंगे। क्या इसका अर्थ यह है कि भगवान् ऐसे भक्त के प्रति कृपालु नहीं है? नहीं बल्कि यह उनकी अनुकम्पा है, उनकी दयालुता है क्योंकि वे जानते हैं कि इस संसार का यह धन उनके भक्त के लिए विष समान है। असल में भक्त को इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। यदि हम भोग करना चाहते हैं तो हमें संसार की क्षणभंगुर वस्तुओं से सम्पर्क साधना होगा। परन्तु हम भगवान् का भोग नहीं कर सकते; हम गुरु और भगवान् का भोग नहीं कर सकते। हम केवल अनित्य (नाशवान्) वस्तुओं का भोग कर सकते हैं। जब भगवान् यह देखते हैं कि उनका भक्त संसार की अनित्य वस्तुओं के पीछे जा रहा है, भोगने की इच्छा से जगत की विषैली सम्पत्ति माँग रहा है, तब वे उसे ऐसा करने की अनुमति प्रदान नहीं करते। इसे केवल वे ही समझ सकते हैं जिनका कोई अन्य हेतु (गलत उद्देश्य) नहीं है। वे ही शुद्ध-भक्त तथा भगवान् की अनुकम्पा को समझ सकते हैं। किन्तु जिनका उद्देश्य ठीक नहीं है वे सोचते हैं कि उनकी निम्न इच्छाओं की पूर्ति करके भगवान् या गुरुदेव ने उन पर कृपा की है। जिनकी अन्य कोई इच्छा नहीं है, केवल वे ही भगवान् की वास्तविक दया को समझ सकते हैं।