हमें भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त करने का प्रयास क्यों करना चाहिए? क्योंकि यदि हम पूर्ण सत्य को प्राप्त कर लेंगे तो हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। जिन्हें प्राप्त करके हमें सब कुछ प्राप्त हो जाता है; जिन्हें जानकर हम सबकुछ जान सकते हैं, वे श्रीकृष्ण हैं। फिर हमें किसी वस्तु की कोई कमी नहीं होगी। हमारी सभी इच्छाएँ पूरी हो जाएँगी और हमारी सभी समस्याओं का समाधान हो जायगा। तो हम श्रीकृष्ण को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इसे भक्ति का अभिधेय अर्थात् भक्ति के अभ्यास से जाना जाता है।
श्रीकृष्ण के असंख्य नामों में से एक नाम है-हृषीकेश । इसका अर्थ है कि वे समस्त इन्द्रियों एवं उनके विषयों के भोक्ता हैं । अब यदि हम अपनी इन्द्रियों को श्रीकृष्ण की अप्राकृत सेवा में नहीं लगाएँगे तो उन इन्द्रियों के माध्यम से अपवित्र वस्तुएँ हमारे दिलों-दिमाग में प्रवेश कर जाएँगी। इसलिए हमें उन्हें भौतिक विषयों में लिप्त होने से रोकना है ताकि सांसारिक विचार हमारे मन में प्रवेश न करें। यह केवल तब ही सम्भव है जब हम एक शुद्ध-भक्त के आनुगत्य में अपनी इन्द्रियों को भगवान् के प्रीति-विधान के लिए व्यवहार करेंगे। ऐसा होने पर जब श्रीकृष्ण संतुष्ट होंगे तब वे हमें अपना दर्शन करने का सुअवसर प्रदान कर सकते हैं। इसे भक्ति कहते हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी द्वारा प्रचारित एवं वेदों में प्रमाणित यह पारमार्थिक अभ्यास की विधि ही अभिधेय है। दूसरे व्यक्ति से प्रेम करके ही हम उनके प्रति अपने प्रेम को बढ़ा सकते हैं। इसी प्रकार यदि हम श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम को बढ़ाना चाहते हैं तो हमें उनसे प्रेम करने का अभ्यास करना होगा।
जो ऐसा कहते हैं कि परम सत्य का कोई रूप और शक्ति नहीं है, वे पूरे विश्व को भ्रमित कर रहे हैं। उनका कोई भौतिक रूप भले न हो, पर उनका अप्राकृत रूप अवश्य है। यदि कारण का कोई रूप न हो तो उसके परिणाम का भी कोई रूप नहीं हो सकता। भगवान् के वे इसमें पहल भी कर सकते हैं। उनके
अनन्त रूप हैं और बिना हम कभी भी केवल उनकी शरण सुख नहीं प्राप्त कर सकते पर यदि हम ग्रहण कर लें तो हमारी सारी समस्याओं का समाधान एक ही पल में हो जायगा। भक्ति की क्या परिभाषा है? नारद पंचरात्र धर्मग्रन्थ में यह परिभाषा दी गई है—
सर्वोपाधि विर्निमुक्तम तत परतवेन निर्मलम
ऋषिकेन ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्चयते ।।
यहाँ उपाधि शब्द का आशय वे पहचान हैं जिन्हें व्यक्ति ने अपने पूर्व कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त किया है। उदाहरण के लिए यदि किसी के पास विश्वविद्यालय की डिग्री है तो यह उसके अपने पूर्व कार्यकलापों का प्रतिफल है। कोई ऐसा सोच सकता है कि वह वकील या डॉक्टर बन गया है पर यह तो उसकी बाहरी पहचान है। स्वयं का वास्तव आंकलन कुछ और है। अपने पूर्व कर्मों के कारण हम अलग-अलग जातियों और देशों में पैदा हुए हैं पर हमारी जाति व राष्ट्रीयता मात्र उपाधियाँ हैं। यदि हम इस अभिमान के बल पर आगे और क्रियाओं में लिप्त होते हैं तो वह कर्म होगा तथा उन भौतिक गतिविधियों की वजह से हमें प्रतिकूल प्रतिक्रिया प्राप्त होगी, भक्ति नहीं।
‘कर्म’ क्या है और ‘भक्ति’ क्या है? इनमें परस्पर भेद करना बहुत कठिन है । साधारण शब्दों में कहें तो जब कभी भी हम भौतिक अहंकार के वशीभूत होकर कोई कार्य करते हैं तो उसका परिणाम भी भौतिक अहंकार को ही प्राप्त होता है। जब हम गुण-दोष के आधार पर अपने कार्यों का आंकलन स्वयं के लिए करते हैं तब उसे ‘कर्म’ कहा जाता है, वह भक्ति नहीं है। स्वयं को कर्मफल का भेक्ता न मानकर, हमें अपने समस्त कर्मों का फल भगवान् को समर्पित करना चाहिए । यदि कोई व्यक्ति दिन-रात काम करता हो तो देखने वाला उससे प्रभावित होकर कह सकता है कि यह व्यक्ति बहुत अच्छा सेवक है। परन्तु यदि वह व्यक्ति उस कार्य को अपने अहंकार की पुष्टि के लिए कर रहा है तब वह भक्ति नहीं है। उसके लिए कहा जाता है “सर्वोपाधि विर्निमुक्तम” । हमें सभी प्रकार की भौतिक उपाधियों के दायरे से मुक्त होना चाहिए। ‘विर्निमुक्तम’ का अर्थ है कि उसमें भौतिक अहं का लेश मात्र भी स्थान न हो। यदि उसमें भौतिक अहं का ज़रा सा भी संसर्ग है तो भक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता; वह कर्म हो जायगा ।
“मैं भारतवर्ष से हूँ और मैं अमुक जाति का हूँ”—ये सब भौतिक अहंकार के उदाहरण हैं। इस विश्व में कहीं भी अच्छाई नहीं है। सब कुछ अमांगलिक और अपवित्र है। जब हम सोचते हैं कि हम इस विश्व के हैं तब हम अपवित्र हो जाते हैं। अपवित्र अहंकार के वशीभूत होकर कार्य करने से हम अपवित्र हो जाते हैं। अतः इस अहंकार का पूर्णतयः परित्याग करके हमें इस संसार के साथ कोई सम्पर्क नहीं रखना चाहिए। इस स्थिति को प्राप्त करना बहुत कठिन है।
फिर भी केवल अभिमान से मुक्त होना ही काफी नहीं है। ज्ञानी भी इस अहंकार का परित्याग करना चाहते हैं। वे मुक्ति चाहते हैं; वे अपने आप को ब्रह्म में लीन करना चाहते हैं। किन्तु केवल इस सांसारिक भौतिक अभिमान से अपने आप को विमुक्त करके हम भक्ति नहीं कर सकते? “तत-परतवेन निर्मलम” हमें अपने आप को उन्हें अर्पण कर देना चाहिए। हमें वास्तव में हृदय से यह अनुभव करना चाहिए कि हम श्रीकृष्ण तथा श्रीगुरुदेव के हैं, केवल मुख से उनका नाम लेना ही काफी नहीं है। तब हम निर्मल हो जायेंगे। भक्ति रसामृत-सिन्धु ( 1/1/11 ) में वर्णित और एक परिभाषा से इसकी पुष्टि होती है—
अन्याभिलाषिता शून्यं ज्ञान-कर्माद्यनावृतम् ।
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्रुित्तमा ।।
यह उत्तम-भक्ति है। सब प्रकार की भक्ति-विमुख इच्छाओं को हमें छोड़ देना चाहिए। हृदय से सब प्रकार के पापों को निकाल देना चाहिए। हमें ज्ञान (मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान) और कर्म (सकाम कर्म) में फँसना नहीं है। शुद्ध-भक्ति की प्राप्ति में ये सहायक नहीं होते। तथा हमें एक शुद्ध भक्त के शरणागत हो जाना चाहिए। आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं- हमें केवल श्रीकृष्ण की संतुष्टि के लिए कार्य करना चाहिए। यह इस श्लोक का साधारण अर्थ है, पर इसका वास्तविक अर्थ तो हमें श्रीकृष्ण की पूर्ण शक्ति श्रीमति राधारानी जी की ओर लेकर जाना है। वे श्रीकृष्ण की सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं। हमें उनकी तथा उनसे प्रकाशित ‘सखियों’ एवं ‘मंजरियाँ’ की शरण में जाना चाहिए। जब हम अपने आप को उनके समान पूर्णतयः श्रीकृष्ण को समर्पित कर देंगे, तब हम जो भी क्रिया करेंगे, वह भक्ति होगी।