***भट्टाचार्य नाम का एक वकील, एक बार कुलिया नवद्वीप में, श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज का दर्शन करने के लिए आया। उन्होंने महाप्रभु के मोहल्ले में किसी गोस्वामी उपाधिधारी व्यक्ति के घर पर मासिक चुकौती (monthly contract) देकर अपने भोजन की व्यवस्था की थी। बाबाजी महाराज के साथ जब उक्त भट्टाचार्य महोदय मिलने के लिए आए, तब बाबाजी महाराज ने आते ही सबसे पहले वकील बाबू से पूछा, आपने कहाँ पर खाने-पीने की व्यवस्था की है? इसके उत्तर में भट्टाचार्य वकील महोदय ने कहा ‘किसी गोस्वामी और वैष्णव-ब्राह्मण के घर पर भोजन की व्यवस्था की है। यह सुनकर बाबाजी महाराज ने कहा- “उन लागों के हाथ से पकाया अन्न खाना छोड़िए, अपने हाथ से पकाकर खाइए। वे लोग मछली खाते हैं और फिर महाप्रभु की सेवा करने का ढोंग भी करते हैं। इसकी तुलना में अधिक अपराध और कुछ नहीं है। जिन्हें अपराध का भय नहीं होता, उनके साथ बातचीत करने से भी भजन नष्ट हो जाता है।”

इसके कुछ दिन बाद वकील बाबू, महाप्रभु जी को भोग लगाकर, कुछ मीठी वस्तु, बाबाजी महाराज के पास लेकर गये एवं उसे ग्रहण करने के लिए विशेष प्रार्थना करने लगे। बाबाजी महाराज ने कहा-‘मैं मीठी वस्तु नहीं खाता ।’ भट्टाचार्य महोदय ने कहा, ‘महाप्रभु के प्रसाद का अपमान नहीं कराना चाहिए।’ तब बाबाजी महाराज ने कहा, जो लोग मांस खाकर, व्यभिचार करके, अथवा अन्य कोई अभिलाषा लेकर महाप्रभु को भोग लगाने का ढोंग करते हैं, उनके हाथों से महाप्रभु को भोग नहीं लगता, वह प्रसाद ही नहीं होता। जिनकी वास्तविक वैष्णवों में रति नहीं है, जो वैष्णव अवैष्णव में भेद नहीं कर सकते, उस प्रकार के व्यक्तियों द्वारा महाप्रभु जी के पास भोग लेकर जाने पर भी महाप्रभु उसे ग्रहण नहीं करते। स्वयं बढ़िया – बढ़िया वस्तुएँ खाने के लोभ में महाप्रभु को बढ़िया भोग लगाने का ढोंग करने से उसका कभी भी महाप्रभु को भोग नहीं लगता। इस प्रकार के व्यक्ति एक प्रकार से अपनी जूठन ही ठाकुर जी को भोग लगाने की चेष्टा करके, अपराध संचय करते हैं।

लेकिन महाभागवत वैष्णवों को जो वस्तु अच्छी लगती है, उसे ठाकुर जी को निवेदित करने से महाप्रभु जी को भोग लगता है। श्रीकृष्ण अपने वास्तविक भक्तों के मुख से ही आस्वादन करते हैं। विषयी का अन्न ग्रहण करने से मन मलिन होता है; उससे भजन की हानि होती है। ‘मेरा कृष्ण भजन नहीं हुआ, कैसे मैं वैष्णवों की सेवा प्राप्त करूँगा?’ इस प्रकार अत्यन्त आर्तिपूर्ण हृदय से लोगों द्वारा फेंके हुए बैंगन के छिलके, केले के छिलके आदि को पकाकर बिना नमक के सम्पूर्ण समर्पण के साथ भोग लगाने से वह महाप्रसाद बन जाता है। महाभागवत वैष्णव ही अच्छी-अच्छी वस्तुएँ ग्रहण करेंगे, मेरा हरिभजन नहीं हुआ, बढ़िया पहनकर, अच्छा खाकर हमारी भजन विमुखता को बढ़ावा देकर क्या होगा?